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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

‘‘उत्तर आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’’

भूमंडलीकरण, उदारवाद और बाजारवाद के विश्वव्यापी प्रसार के साथ चिंतन और सृजन के क्षेत्र में तीव्रता से बदलाव आए हैं। संस्कृति, समाज, कला और राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में लंबे समय तक दो ध्रुवीय विचारधाराओं का प्रभाव रहा। बदले हुए संदर्भ में यह बात सामने आई है कि ये ध्रुव और सत्ता केंद्र टूट गए हैं और इनका स्थान अब तक केंद्र से दूर रहे वे समूह और विमर्श ले रहे हैं जिनकी अब तक की विकासयात्रा में उपेक्षा होती रही थी। इसका अर्थ है कि यह समय एककेंद्रीयता का नहीं बल्कि बहुकेंद्रीयता का है, बहुलता का है। आधुनिकता के साथ जो व्यक्तिकेंद्री चिंतन सामने आया था अब उसका स्थान समूहों के विमर्श ले रहे हैं। यह प्रवृत्ति चिंतन के क्षेत्र में उत्तर आधुनिकता के रूप में पहचानी गई है।

उत्तरआधुनिकता कोई उतनी सरल चीज़ नहीं जिसे किसी एक सूत्र या समीकरण के रूप में समझा जा सके। इसके अपने विधि-निषेध हैं, हानि-लाभ है और ग्राह्यता-अग्राह्यता हैं। आज की एकध्रुवीय दुनिया में इसे सर्वशक्तिमान महाशक्ति की साम्राज्यवादी लिप्सा के विस्तार के रूप में भी देखा जा सकता है और अब तक के वंचितों के सत्तासंघर्ष तथा लोकतांत्रिक उपलब्धि के रूप में भी। कभी यह कहा जाता है कि इस विमर्श में न कोई विचार अंतिम है न कोई विकास, तो कभी यह कि इसका वैध-अवैध से यानी किसी तरह की नैतिकता से कोई संबंध नहीं है। यह भी कि उत्तरआधुनिक विमर्श अतियथार्थ और आभासी यथार्थ को प्रस्तुत करता है।

यह ठीक है कि उत्तरआधुनिक विमर्श की सिद्धांतिकी अत्यंत व्यापक भी है और जटिल भी। परंतु यहाँ हमारी रुचि मुख्य रूप से इस बात में है कि एक तो उत्तरआधुनिकता ने उन समूहों को केंद्र में लाने का प्रयास किया है जो परिधि पर थे - इसे हाशियाकृत समुदायों की सार्वजनीन स्वीकृति के रूप में देखा जा सकता है। भारतीय साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श और आदिवासी विमर्श जैसी प्रवृत्तियों के उभार की व्याख्या इस दृष्टि से की जानी आवश्यक है। इसी प्रकार दूसरी यह भी ध्यान देने की बात है कि उत्तरआधुनिक विमर्श कला, साहित्य और संस्कृति की व्याख्या में अंतर्पाठीयता और पुनर्पाठ पर जोर देता है। यहाँ कोई एक पाठ अंतिम नहीं है और न ही स्वायत्त। इससे यह जरूरत महसूस होती है कि प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्य का पुनर्पाठ कल तक हाशिये पर रहे समुदायों की दृष्टि से करना आवश्यक है।

उत्तरआधुनिक विमर्श अनुपस्थिति को दर्ज करने वाला विमर्श है यानी जो कल तक अनुपस्थित था वह आज उपस्थित होने का संघर्ष कर रहा है। कल तक पश्चिम उपस्थित था जिसके कारण भारत अनुपस्थित हुआ। इसलिए यदि आज हम भारतीयता को खोज रहे हैं, स्थानीयता को खोज रहे हैं, आंचलिकता को खोज रहे हैं, लोक को खोज रहे हैं, दलितों को खोज रहे हैं, आदिवासियों को खोज रहे हैं, स्त्री को खोज रहे है तो यह सारी खोज उन समूहों की खोज है जो कल तक साहित्य चिंतन में अनुपस्थित थे या हाशिये पर धकेल दिए गए थे। आज इतिहास को इस तरह देखना होगा कि किसके कारण कौन अनुपस्थित हुआ। यानी पश्चिम ने भारत को अनुपस्थित किया, पुरुष सत्ता ने स्त्री को, वर्ण व्यवस्था ने दलितों को, नेताओं ने जनता को, सभ्य समूहों ने आदिवासियों को, कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यकों को, इलेक्ट्रानिक मीडिया ने लोककलाओं को तथा बड़े बाज़ार ने छोटी दुकानों को। उत्तरआधुनिकता का ग्राह्य पक्ष साहित्य के संदर्भ में यह होना चाहिए कि इन सब अनुपस्थितों की दृष्टि से सब कुछ की पुनःव्याख्या की जाय तथा इनकी अभिव्यक्ति को पूरी लोकतांत्रिक शिष्टता के साथ स्वीकार किया जाय।

यहाँ यह कहा जा सकता है कि आधुनिकता ने पुनर्जागरण काल में सब प्रकार की अव्यवस्था के भीतर से ऐसी व्यवस्था को खोजने का प्रयास किया था जो मनुष्यकेंद्री थी। इससे आगे बढ़कर उत्तरआधुनिकता बहुकेंद्रीयता की संकल्पना को लेकर चलती है और यह बहुकेंद्रीयता व्यक्ति की अपेक्षा समूहों की केंद्रीयता है। आज के समय में चाहे साहित्य की विभिन्न विधाएँ हों या मीड़िया का नित्य बदलता परिदृश्य - सबमें इसलिए एक भ्रम जैसी स्थिति दिखाई देती है क्योंकि भारत का समाज अभी तक अनेक संस्तरों वाला समाज है। यहाँ आज भी आदिम कबीलाई सामाजिक व्यवस्था से लेकर नए पेटिबुर्जुआ प्रबंधनकर्ता है व्यापारी वर्ग या यूपीज़ (यंग अर्बन प्रोफेशनल्स) तक इतना विविधतापूर्ण समाज विद्यमान है कि इस सारे परिदृश्य को किसी एक विमर्श से संबोधित करना संभव ही नहीं है। लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि अभी भी हमारा समाज बड़ी मात्रा में औरतों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की अभिव्यक्तियों और उनकी सामूहिक अस्मिता के प्रति अत्यंत अनुदार और असहिष्णु है जबकि उत्तरआधुनिक समाज में इन समूहों की आवाज को सहज भाव से स्वीकार किया जाना अपेक्षित है।

इन्हीं सब मुद्दों को ध्यान में रखकर 25 अप्रैल, 2010 (रविवार) को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, के हैदराबाद केंद्र में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की जा रही है। इस संगोष्ठी का केंद्रीय विषय है - "उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य"। विभिन्न सत्रों में उत्तरआधुनिकता के स्वरूप तथा हिंदी साहित्य में उसकी विविध रंगों में अभिव्यक्ति पर चर्चा-परिचर्चा संपन्न होगी। संगोष्ठी में डॉ. राधेश्याम शुक्ल (संपादक, स्वतंत्र वार्ता), डॉ. जे.पी. डिमरी (आचार्य, रूसी विभाग, इफ्लू), डॉ. अर्जुन चव्हाण (आचार्य, शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर), डॉ. दिलीप सिंह (प्रमुख भाषाचिंतक), डॉ. एम. वेंकटेश्वर (डीन, भारत अध्ययन, इफ्लू), डॉ. टी. मोहन सिंह (पूर्व आचार्य, उस्मानिया विश्वविद्यालय), डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. बलविंदर कौर, डॉ. घनश्याम, डॉ.करण सिंह ऊटवाल, डॉ. विष्णु भगवान शर्मा, डॉ. जी. नीरजा, डॉ. भीमसिंह, डॉ. पी. श्रीनिवास राव, डॉ. साहिराबानू और शोधार्थियों के संवाद द्वारा उपयोगी जानकारियों के सामने आने की उम्मीद की जानी चाहिए।

1 टिप्पणी:

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

विश्वव्यापी द्रुत परिवर्तनों के परिवेश में प्रबुद्धजनों द्वारा
साहित्य की सजगता के लिए किए जाते ये प्रयास सार्थक हों ,कि जो वर्ग अब तक उपेक्षित से हाशिए पर पड़े रहे
मुख्य धारा के प्रवाह में सम्मिलित हो सकें,
और साहित्य अपनी संवेदना हर वर्ग के लिए बरकरार रख कर
अपना 'सहितभाव' सार्थक कर सके ,