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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

ते जानहु निसिचर सम प्रानी

मित्रो!

कभी हम अपने आचरण पर सोचकर देखें तो ऐसा क्यों लगता है कि हम देवत्व की सारी संभावनाओं के बावजूद मनुष्य भी नहीं रह पाए हैं - राक्षस होते जा रहे हैं - रावण हो गए हैं। जिस परिवेष में हम जी रहे हैं( कभी-कभी तो लगता है - रावणराज्य में जी रहे हैं। रावणराज्य अथाZत् अधर्म का राज्य। धर्म का अर्थ पूजा, नमाज, अगरबत्ती और मोमबत्ती नहीं, हृदय की उदारता है, आचरण की पवित्रता है। ये नहीं बचे तो धर्म कहा¡ बचा? दुष्टता बढ़ रही है - अकारण भले लोगों को सताने में आनंद लेने वाले मनोरोगियों से धरती त्रस्त है। बेईमानी, धोखाधड़ी, जुआखोरी-सम्मानित व्यवसाय बन गए हैं। सारी नीतिया¡ इन्हीं का संरक्षण करती प्रतीत होती हैं। तमाम मीडिया उन्हीं को महानायकों की तरह प्रस्तुत करने में लगा है जो दूसरों की संपत्ति को हथियाकर अपना अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक साम्राज्य खड़ा करने में सफल हो रहे हैं। पुरुष हों या स्त्री - दांपत्य संबंधों में ईमानदारी जैसे आज कोई अर्थ नहीं रखती। परपुरुष और परस्त्री से संबंध गर्व का विषय हो गए हैं। बात यहा¡ तक चल निकली है कि परिवार जैसी संस्था ही कालातीत प्रतीत होने लगी है।
पति-पत्नी के प्रति उत्तरदायित्व की बात तो तब सूझे, जब माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य का बोध हो। आज मातृदेवो-पितृदेवो का जमाना लद गया। वे या तो वृद्धाश्रम की शोभा बढ़ाए¡ या फिर बहू-बेटे की चाकरी करें! जब इस योग्य भी न रहें, तो आत्महत्या कर लें - चाहे घर में रहकर, चाहे तीरथ जाकर! यही आचरण तो असुर की निषानी है - रावणराज्य की पहचान है और `धर्म की ग्लानि´ की सूचना है -


बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट पर धन पर दारा।।
मानहिं मातुपिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
जिन्ह के यह आचरण भवानी। ते जानहु निसिचर सम प्रानी।।
अतिसय देखि धरम के ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी।।
सकल धरम देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भयभीता।।
इस रावणराज्य के प्रभाव से बचना है तो अपने भीतर राम का जगाना होगा! -

-संपादक

अप्रैल २००८ अंक

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