आलोक पर्व की शुभकामनाए¡ ! `रामायण संदषZन` के इस अंक के माध्यम से हम दीपावली के अवसर पर अपनी अनंत शुभकामनाए¡ आप तक पहु¡चा रहे हैं। इस समय तुलसी का यह संदेष याद आता है :
रामनाम मणिदीप धर, जीह¡ देहरी द्वार।
`तुलसी` भीतर बाहिरहु, जो चाहसि उजियार।।
दीपावली के साथ कई तरह की मान्यताए¡ जुड़ी हुई हैं। यह ज्ञान और समृद्धि का त्यौहार है। साधना की सिद्धि का पर्व है। मिलन को उपलब्ध होने का महोत्सव है। प्रिय की अगवानी का शुभ मुहूर्त है। वह मुहूर्त जब राम वनवास काटकर अयोध्या लौटते हैं। भरत माताओं को राम के आगमन की सूचना देते हैं तो वे विह्वल उठती हैं - पगलाकर दौड़ पड़ती हैं जैसे बछड़े की आहट पाकर गाय दौड़ पड़ी हो। नगर भर में समाचार फैल जाता है और शोक की चौदह वर्ष की अमावस्या एक पल में अतीत हो जाती है। दीप जलाकर लोकाभिराम राम की अगवानी की जाती है और नगर जगर-मगर हो उठता है :
दधि दूबाZ रोचन फल-फूला। नव तुलसीदल मंगलमूला।।
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलीं सिंधुरगामिनी।।
जे जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं। बाल वृद्ध कहु¡ संग न लावहिं।।
राम आ गए अयोध्या में। भरत-मिलाप जैसा मार्मिक अवसर कहीं दूसरा नहीं मिलता। पर राम तो सबके हैं। वे भरत से मिलते हैं - एक एक पुरवासी से मिलते हैं। तुलसी ने इस `रामलीला` का सरस वर्णन किया है -
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।
अमित रूप प्रगटे तेहिं काला। जथाजोग मिले सबहिं कृपाला।।
छन महिं सबहिं मिले भगवाना। उमा मरम यह काहु¡ न जाना।।
वह कोई भी तिथि हो। वह कोई भी वार हो। पर वह प्रिय मिलन की तिथि थी। वह सब पर `यथायोग्य` कृपा का वार था। वह अंधकार के समूल कटने की वेला थी। वह ज्योतिबीज बोने का काल था। जब-जब वह पल अनंत काल के प्रवाह में कहीं भी घटित होता है, तब-तब सजती है दीपावली और मनाया जाता है आलोक का पर्व -
कंचन कलस विचित्र संवारे। सबहि धरे सजि निज निज द्वारे।।
बंदनिवार पताका केतू। सबिन्ह बनाए मंगल हेतू।।
बीथीं सकल सुगंध सिंचाईं। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।।
नाना भांति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।।
जहं तहं नारि निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं।।
कंचन थार आरती नाना। जुवती सजें करहिं सुभ गाना।।
करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल विपिन दिनकर कें।।
नारि कुमुदिनी अवध सर, रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भए बिगसत भईं( निरखि राम राकेस।।
कहा¡ है अंधेरा? कहा¡ है अमावस?? जिस रात के चंद्रमा राम हैं, उसमें कैसा अंधेरा??? जब तक राम नहीं थे - तभी तक अंधेरा था - तभी तक अमावस थी। राम आ गए। उजियारा छा गया। उजियारा - भीतर और बाहर सर्वत्र उजियारा!!!
है( आज भी अंधेरा है। राम का उज्ज्वल चरित्र चाहिए। तभी दीपावली मनाना सार्थक होगा। इस विष्वव्यापी अंधेरे में एक दीप जलाकर तो देखें( राम के मर्यादाषील चरित्र का दीप -
राम नाम मणिदीप धर, जीह¡ देहरी द्वार!
तुलसी भीतर बाहिरहु, जो चाहसि उजियार!!
- संपादक
वर्ष : 23 कार्तिक शुक्ल पक्ष 9, संवत् 2064 अंक : 2
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें