राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगिही नास।। स्पष्ट है, यहा¡ चालाकी और चापलूसी भरे कपटपूर्ण मधुर वचनों से संभावित खतरे से अवगत कराया गया है। ऐसे में सच्चे मित्र का कर्तव्य क्या है? `मानस` के कििष्कंधाकांड में स्वयं राम कहते हैं - कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनिन्ह दुरावा।।
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।। ऐसा संत मित्र कभी भी समक्ष मृदु वचन कहने और पीठ पीछे बुराई करने जैसी कुटिलता नहीं कर सकता। कभी कठोर वचन कहने या आलोचना करने या मतभेद होने पर भी वह रंच मात्र भी शत्रुता नहीं बरत सकता। मित्रवर, शत्रु तो आपका वह कपटी मित्र है जो झूठी स्तुति रूपी वषीकरण मंत्र से आपकी बुिद्ध को भ्रमित और सम्मोहित करने में ही लगा रहता है, उस सा¡प को पहचानिए - आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।।
जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।
सेवक सठ, नृप कृपन, कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।। इसलिए तनिक अपने स्वभाव की पड़ताल कीजिए कि मधुर वचन के लोभ में आप किसी कुमित्र के वषीकरण जाल में तो नहीं फ¡से हैं या किसी संत मित्र को भयभीत करके प्रिय बोलने के लिए विवष तो नहीं कर रहे हैं। अगर ऐसा कहीं हो तो सावधान हो जाए¡ और तुरंत ऐसे कुमित्र को त्याग दें तथा संत मित्र की सद्भावना का सम्मान करना सीख लें!
- संपादक
वर्ष : 23 अंक : 4 पौष शुक्ल पक्ष 9, संवत् 2064 17 जनवरी 2008
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