पुस्तक चर्चा
लोकतंत्र के
घाट पर...
डॉ.
चंदन कुमारी
समय बीतता जाता है। भविष्य के कालखंड में अब के बीते हुए समय की प्रवृत्ति और प्रकृति को यदि कोई अनुसंधित्सु जानना-समझना चाहेगा, तो वह अतीत के पन्नों में अंकित अक्षरों को ढूँढेगा। पन्ने जिनमें समय के सत्य का प्रामाणिक और तटस्थ अंकन हो। पन्ने जिनमें समय की सरगर्मी, दिलेरी, बेबसी, आत्मीयता और उड़ान का अंकन हो। पन्ने जिनमें समय की मार खाए मनुज के आँसू को मोती में तब्दील कर अपनी माला में पिरोने की ताक में बैठे अवसरवादियों का भी अंकन हो। ऐसे ही कुछ पन्नों पर अपने समय के सत्य को प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘लोकतंत्र के घाट पर’ में अंकित किया है।
प्रो.
ऋषभ देव शर्मा हैदराबाद से प्रकाशित एक दैनिक पत्र का संपादकीय निरंतर लिख रहे हैं।
भारत की चतुर्दिक परिस्थितियों पर पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने सजग लेखन से वे पहले
ही हिंदी भाषा और साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान तथा साहित्यकार के रूप में विशेष
ख्याति अर्जित कर चुके हैं। समीक्ष्य पुस्तक में चुनावी रणनीति पर गंभीर विमर्श
मौजूद है। राजनीति की दुरूहता और जटिलता को रेशा-रेशा कर एक सामान्य मनुष्य के लिए
उसे सुगम्य बनाते हुए उसकी भेड़-चाल को स्पष्ट करने की सफल कोशिश यहाँ दिखाई देती
है। कुल 81 संपादकीय इस संग्रह में संकलित हैं।
देश और
दुनिया की पीड़ा की जड़ों को पहचानकर उसे तथ्यपरक और तर्कसंगत ढंग से इस पुस्तक के
जरिये पुनः सामने रखा गया है। जन से सरोकार रखनेवाले विचारयोग्य तथ्यों पर विचार
की अनिवार्यता बताते हुए कई महत्वपूर्ण संकेत यहाँ दिए गए हैं। उनमें से कुछ
बिंदुओं का उल्लेख निम्नलिखित है-
· संयुक्त
राष्ट्र के अनुसार रोहिंग्या मुसलमान दुनिया के सबसे उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समूहों
में से एक है। पता नहीं क्यों किसी भी मुस्लिम राष्ट्र का इस्लामिक ब्रदरहुड का
जज्बा इन लाचार भाइयों के लिए कभी जोर नहीं मारता? दूसरी ओर भारत का उच्चतम
न्यायालय अवैध और अवांछित होने पर भी इन्हें बाहर धकेलने की इजाजत नहीं देता।
05.06.2018
· यदि
नीति आयोग और भारत सरकार को यह लगता है कि 2024 से लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव
एक साथ कराना राष्ट्रीय हित में होगा, तो इसपर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है। कहीं
खर्च घटाने के चक्कर में निरंकुश शासन की राह आसान नहीं कर देंगे। ग्रासरूट लेवल
के मुद्दे महत्वहीन हो जाएँगे। 12.06.2018
· लोकतंत्र
में असमहमति और संवाद के लिए हमेशा जगह रहनी चाहिए। अतिवादी गतिविधियाँ काले धन के
बल पर ही चलती हैं। भारत विरोधी ताकतों से प्राप्त फंड अपनी जगह तो हैं ही। सैनिक
कार्रवाई के साथ ये सारे रास्ते बंद होने चाहिए। 23.06.2018
· बेहतर
हो कि महिला-महिला चीखकर छाती पीटने के बजाय सारे राजनैतिक दल व्यावहारिक स्तर पर
उनका समर्थक होना सिद्ध करें। इसके लिए उन्हें बस इतना करना होगा कि अगले आम चुनाव
में 33% सीटों पर केवल महिलाओं को टिकट देकर अपनी नेकनीयती दर्शाएँ। 18.07.2018
· शांतिपूर्ण
ढंग से असहमति या विरोध प्रकट करना नागरिकों का मौलिक अधिकार है जिसके लिए उसे
उचित स्थान मिलना ही चाहिए। 31.07.2018
· राजनीति
के अपराधीकरण के कैंसर का तुरंत और प्रभावी इलाज अति आवश्यक है। मार्च 2018 के
आंकड़ों के अनुसार 4896 विधायकों में से 1765 के खिलाफ कुल 3065 आपराधिक मामले दर्ज
हैं। 27.09.2018
· किसानों
की आय दुगुनी कब होगी? अन्ना हजारे से लेकर अखिल भारतीय किसान सभा, किसान मुक्ति
संसद और तमिलनाडु के किसानों तक को बार-बार दिल्ली दरवाजे पर दस्तक देने के लिए
मजबूर होना पड़ता है। 03.10.2018
· निचले
तबके के लोगों को अपराधी और अशिष्ट मानने की सामंती और साम्राज्यवादी (बल्कि,
विलायती) मानसिकता आखिर कब जाएगी? 09.10.2018
· अनिवार्य
वोटिंग की तुलना में एक बेहतर विकल्प यह भी हो सकता है कि जैसे कुछ देशों में
‘जूरी ड्यूटी’ होती है तथा सब नागरिकों को कभी-न-कभी ‘जूरी’ पर होना ही होता है,
वैसे ही विधायक और सांसद नियुक्त होने चाहिए। इससे राजनीति को व्यवसाय बनानेवाले
हतोत्साहित होंगे। 23.11.2018
· जीवन
बीमा, फसल बीमा, चिकित्सा बीमा, फसलों की तुरंत खरीद और तुरंत भुगतान की गारंटी
कर्ज माफ़ी की तुलना में बेहतर विकल्प हो सकते हैं। 26.12.2018
· युद्ध
जैसी आपात स्थिति में सेनाओं के साथ ही एकजुटता का ही नहीं बल्कि देश के राजनीतिक
नेतृत्व के साथ भी सच्चे मन से एकजुटता का प्रदर्शन करने की जरूरत है तभी भारत
विरोधी ताकतों तक यह संदेश जा सकता है कि देश की सुरक्षा का सवाल भारतीय जनता की
तरह राजनीतिक दलों के लिए भी राजनीति से ऊपर की चीज है। 01.03.2019
इसके
अतिरिक्त इन्होंने खासी-पंजाबी संघर्ष पर चर्चा के माध्यम से बताया है गया है कि सोशल
मीडिया खतरनाक भी हो सकता है। ‘कश्मीर ग्लिम्पसेज ऑफ़ हिस्ट्री एंड स्टोरी ऑफ़
स्ट्रगल’ पुस्तक में पेश की गई लौहपुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल को खलनायक बनानेवाली
छवि की थ्योरी का उल्लेख करते हुए उसका खंडन समीक्ष्य पुस्तक में किया गया है। लेखक
ने किशोर कुणाल की पुस्तक ‘अयोध्या रिविजिटेड’ से संदर्भ लेते हुए बताया है, “बाबरी
मस्जिद बाबर ने नहीं बनवाई थी। बाबर कभी अयोध्या नहीं गया। जो शिलालेख मस्जिद पर
लगे थे वे फर्जी हैं। 1858 से पहले यहाँ नमाज और पूजा दोनों अदा की जाती थी।” अब
तो राम मंदिर का शिलान्यास भी हो गया। तीन तलाक, महिला आरक्षण, नोटबंदी, शराबबंदी,
शबरीमलै सहित विविध मुद्दों पर लेखक की बेबाक टिपण्णी अपनी भाषिक विलक्षणता के
कार्न विशेष रुचिकर प्रतीत होती है। इन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि शहादत,
धर्म, जाति, गोत्र, संप्रदाय और सैन्य अभियान को चुनावी मुद्दों में शामिल नहीं
किया जाना चाहिए। ‘गरीबी, अशिक्षा, नागरिक सुविधाओं का अभाव और ढाँचागत क्षेत्रों
में गतिहीनता’ चुनाव के वास्तविक मुद्दे हैं। “कश्मीरियत सियासत से बहुत ऊपर है”-
पुलवामा केंद्रित इस संपादकीय के जरिए शाश्वत मानवता के स्वरूप की व्याख्या की गई
है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फ़ौज की मदद से
सबसे पहले पोर्ट ब्लेयर की सरजमीं पर तिरंगा फहराया था। विश्वविजेता अंग्रेज जाति
की नाक में दम करने का जीवट रखने वाले अपराजेय पौरुष के प्रतीक स्वरूप नेताजी और
स्वाधीनता संघर्ष में उनके अविस्मरणीय योगदान की याद स्वतः स्तुत्य है। पुस्तक में
राष्ट्रीयता, एकता और स्थानीयता का स्वर बुलंद है। चुनावी नारों का विश्लेषण रोचक
है। गाँधी चरित्र के प्रकाश में लेखक का कहना है कि जरूरत है प्रतीक से आगे बढ़कर
उन प्रश्नों से टकराने की जिनसे यह देश रूबरू है। इसे एक गंभीर अंतःदर्शी वाक्य
मानकर केवल सराहना कर देना समय की मांग नहीं है। इस
अंतःदर्शिता को कार्यान्वित करना समय की मौलिक जरूरत है। अनुपस्थित वोट, गुणवत्तापूर्ण
रोजगार की कमी और न्यूनतम आय जैसे विषय भी यहाँ उपस्थित हैं। पुस्तक प्रासंगिक है।
समीक्षित
पुस्तक : लोकतंत्र के घाट पर
लेखक
: ऋषभदेव शर्मा
संस्कारण
: 2020 (किंडल/ ऑनलाइन)
समीक्षक : डॉ.
चंदन कुमारी
हिंदी
विभाग, भवन्स श्री ए के दोशी महिला कॉलेज जामनगर-361008 (गुजरात)
आवासः
द्वारा श्री संजीव कुमार, आईएफए , एयर फ़ोर्स स्टेशन, जामनगर-361003 (गुजरात)
मोबाइलः 8210915046, ई-मेलःchandan82hindi@gmail.com,
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