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शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

‘लोकतंत्र के घाट पर’ की समीक्षा : प्रवीण प्रणव

 


तू न समझेगा सियासत,
 तू अभी नादान है

-       प्रवीण प्रणव



 रामधारी सिंह दिनकर ने कभी अपनी कविता ‘समर शेष है’ में लिखा था: “समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,/ जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।“ लेकिन आज परिस्थितियाँ भिन्न हैं। विशेषकर पत्रकारिता के क्षेत्र में, जहाँ पीत पत्रकारिता का बोल-बाला है; जहाँ बहुसंख्यक लोग अंधभक्ति या अंधविरोध के खेमे में शामिल हो बिगुल बजा रहे हैं; जहाँ खबरों की प्रामाणिकता, टीआरपी या पाठकों तक पहुँच के आधार पर तय की जाती हो; तटस्थ रह पाना इतनी मुश्किलों और चुनौतियों भरा विकल्प है कि ऐसे किसी भी व्यक्ति को आज विस्मय की नज़र से देखा जाता है। इन कठिन परिस्थितियों में प्रो. ऋषभदेव शर्मा (1957) के संपादकीय लेखों को पढ़ना जेठ की दुपहरी में मलयपवन की शीतलता के समान है। प्रो. शर्मा लंबे समय से हैदराबाद के एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्र के लिए संपादकीय लिखते रहे हैं। इनके लिखे लेखों से इस समाचारपत्र की विश्वसनीयता, प्रसिद्धि और यश में निःसंदेह वृद्धि हुई है।        

कुछ दशक पहले तक कई ऐसे नामचीन साहित्यकार हुए जिन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपार ख्याति प्राप्त  की। लेकिन विगत कुछ वर्षों में साहित्यकार, पत्रकारिता परिदृश्य से ओझल होते चले गए और इनकी जगह पत्रकारिता विशेषज्ञ आ  गए। इसके अपने लाभ-हानि हैं, लेकिन एक पाठक के तौर पर किसी साहित्यकार द्वारा लिखे गए आलेख को पढ़ना अपनी बौद्धिक संपदा में वृद्धि के समान है। किसी समसामयिक समाचार पर भी लेख लिखते समय इनके द्वारा की गई सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विवेचना, घटना को सही अर्थों में समझने में सहायक सिद्ध होती है। इस तरह के लेखों में वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए किसी कुशल ज्योतिषी की तरह भविष्य के लिए अपना आकलन भी प्रस्तुत किया जाता रहा है। प्रो. ऋषभदेव शर्मा इसी परंपरा के संवाहक हैं जो मूलतः एक साहित्यकार हैं और पत्रकारिता में भी अपना योगदान दे रहे हैं। बाज़ारवाद के अनुकूल-प्रतिकूल प्रभावों से बाखबर डॉ. शर्मा अपने हर लेख में वर्तमान समस्या पर तो लिखते ही हैं, लेकिन साथ ही भविष्य के लिए इसके क्या निहितार्थ हैं, इस पर भी अपनी बेबाक राय रखते हैं। अमूमन समाचारपत्रों की संग्रहणीयता कम होती है, ऐसे में कुछ महीनों या वर्षों बाद किसी संपादकीय में लिखे लेखों को ढूँढना और उनका मूल्यांकन करना मुश्किल काम है। लेकिन प्रो. शर्मा ने इस मुश्किल को आसान करने हेतु अपने द्वारा लिखे गए  संपादकीयों को पुस्तकाकार प्रकाशित कर पाठकों को सौंप दिया है। यह एक हिम्मत वाला काम है, क्योंकि अब किसी घटना के बाद इन्होंने पूर्व में क्या भविष्यवाणी की थी, इसकी समीक्षा की जा सकेगी। हिम्मत के साथ ही यह इस बात का भी परिचायक है कि भारत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पकड़ कितनी मजबूत है। अपने द्वारा लिखे संपादकीय लेखों को प्रो. शर्मा ने शृंखलाबद्ध पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया है। वर्तमान पुस्तक ‘लोकतंत्र के घाट पर’, प्रो. शर्मा द्वारा वर्ष 2018-2019 के दौरान लिखे गए चुनिंदा लेखों का संकलन है और इस शृंखला की चौथी पुस्तक। पहले तीनों संकलन संपादकीयम् (2019), समकाल से मुठभेड़ (2019) तथा सवाल और सरोकार (2020) जहाँ मुद्रित पुस्तक के रूप में आ चुके हैं, वहीं लोकतंत्र के घाट पर (2020) फिलहाल ऑनलाइन ई-पुस्तक के रूप में ही प्रकाशित हुई है।

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इस संग्रह के ज्यादातर लेख राजनीतिक विषय पर हैं, लेकिन इनमें भी आम जनता के सरोकार की अनदेखी नहीं है। ‘थोड़ी सी जगह विरोध के लिए’ शीर्षक से प्रो. शर्मा ने देश व् राज्य में विरोध प्रदर्शन के लिए आरक्षित जगह का समर्थन करते हुए लेख लिखा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा विरोध प्रदर्शन के लिए जगह आवंटित करने को अनिवार्य बताने के निर्णय का स्वागत करते हुए प्रो. शर्मा लिखते हैं “कोपभवन की सुविधा तो अवधपुरी के राजभवन तक में होती थी।“ पेट्रोल, डीजल के बढ़ते दाम के बीच सरकार की इस दलील कि ‘यह महंगाई वैश्विक उथल-पुथल का नतीजा है’, को खारिज करते हुए प्रो. शर्मा लिखते हैं, “माना कि सरकार सच बोल रही है, लेकिन क्या इसे कूटनीतिक विफलता नहीं माना जाएगा कि सारी दुनिया में दौड़ते रह कर भी अंततः सरकार को अपनी जनता के सामने बेबसी का इजहार करना पड़ रहा है। अगर सरकार कह रही है कि हम कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं हैं, तो साधारण नागरिक के विश्वास की तो कमर ही टूट गई न?” देश भर से किसानों के दिल्ली मार्च और उस पर सरकार द्वारा विभिन्न तरीकों से रोक लगाने की खबरों के बीच प्रो. शर्मा, किसानों के प्रति सरकार की नीतियों पर करारा प्रहार करते हैं। यह सरकार जो किसानों को अन्नदाता कहते नहीं थकती, उसकी नीतियाँ धरातल पर कार्यान्वित होती हुई नहीं दिखती और यही वजह है कि किसान दिल्ली मार्च करने को विवश हैं। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा शराबबंदी को मुद्दा बनाए जाने पर प्रो. शर्मा इसके पीछे महिला वोटरों को लुभाने को कारण मानते हैं, लेकिन साथ ही जोड़ते हैं कि इस छोटे से राज्य में शराब की खपत अत्यधिक है। भाजपा सरकार द्वारा भी शराबबंदी की बात कही गई थी, लेकिन शायद वित्तीय दबाव की वजह से इसे अमल में नहीं लाया जा सका। शराब की लत पुरुषों में बढ़ती जा रही है और इस वजह से कई महिलाएँ नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। दिसंबर 2018 में जिस तरह 200 से भी अधिक किसान संगठनों ने एकजुट होकर दिल्ली में एकजुटता का परिचय दिया, उसे प्रो. शर्मा शुभ संकेत मानते हैं; लेकिन जिस तरह विपक्षी पार्टियों ने इन भोले किसानों की भीड़ को मोदी विरोध का जरिया बना लिया, उससे यह आंदोलन बिना किसी सफलता के राजनीतिक आकाओं की आकांक्षाओं की भेंट चढ़ गया। प्रो. शर्मा किसानों को समझाते हुए लिखते हैं, “किसानों को बड़ी समझदारी से आगे बढ़ना चाहिए, वरना उनकी एकता और मुक्ति-कामना सब राजनैतिक दलों की महत्वाकांक्षा और आपसी लड़ाई के तख्ते पर फाँसी चढ़ जाएँगे।“ 26 दिसंबर, 2018 को लिखे लेख में कर्ज माफ़ी को आत्महत्या का समाधान मानने पर सवाल उठाते हुए प्रो. शर्मा ने लिखा कि कर्ज माफ़ी सिर्फ चुनावी हथकंडा ज्यादा साबित हुआ है, किसानों के हालात में कर्ज माफ़ी से कोई बड़ी तबदीली नहीं आई है। प्रो. शर्मा के अनुसार “जीवन बीमा, फसल बीमा, चिकित्सा बीमा, फसलों की  तुरत खरीद और तुरत भुगतान की गारंटी, कर्ज माफ़ी की तुलना में बेहतर विकल्प हो सकते हैं।“  8 जनवरी, 2019 को सरकार द्वारा सवर्णों को 10% आरक्षण देने के फैसले पर आशंकाएँ जाहिर करते हुए प्रो. शर्मा ने लिखा कि सामाजिक समरसता के लिए आरक्षण जरूरी है, लेकिन इस तरह सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई ऊपरी सीमा में बढ़ोतरी करके आरक्षण की व्यवस्था करना नई  समस्याओं को जन्म दे सकता है। आरक्षण पर नये सिरे से विचार-विमर्श की आवश्यकता है। 31 जनवरी, 2019 को कांग्रेस द्वारा न्यूनतम आय गारंटी का चुनावी वादा करने पर प्रो. शर्मा  इसके अमल पर अपनी शंकाएँ जाहिर करते हुए इसे चुनावी स्टंट मानते हैं। इस तरह की किसी योजना का भार करदाताओं पर पड़ने की आशंका जाहिर करते हुए प्रो. शर्मा लिखते हैं कि इसकी सफलता संदेहास्पद है। अंत में इन्होंने लिखा, “छोटे सपने देखना अपराध है, लेकिन असंभव बड़े सपने दिखाना – राजनीति।“ 9 फरवरी, 2019 को कांग्रेस द्वारा दिल्ली के अल्पसंख्यक अधिवेशन में यह घोषणा करने पर कि यदि कांग्रेस सत्ता में आई तो तीन तलाक को गैर-कानूनी मानने वाले कानून को खत्म कर देगी, प्रो. शर्मा सख्त एतराज जताते हुए इसे वोट की राजनीति बताते हैं। स्त्री विरोधी और सिर्फ चुनावी फायदे के लिए दिए गए इस बयान की निंदा करते हुए प्रो. शर्मा लिखते हैं “शायद ऐसी ही परिस्थिति के लिए कहावत गढ़ी गई होगी कि बूढ़ा मरे या जवान, डायन को तो हत्या से काम।“                              

भारतीय राजनीति में धर्म  एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता आया है। इस किताब के कुछ लेख इस विषय को भी समेटे हैं। 29 जून 2018 कि लिखे लेख में प्रो. शर्मा ने अयोध्या मंदिर निर्माण में विलंब और इससे संत समाज में बढ़ते असंतोष पर प्रकाश डाला है। अयोध्या में हुए संत सम्मेलन में डॉ. वेदांती द्वारा “2019 के पहले बिना कोर्ट के आदेश के भी राम मंदिर का निर्माण शुरू होगा” कहने के कई निहितार्थ हैं। प्रो. शर्मा ने लिखा “उनके ये वचन जहाँ एक ओर राजनीति से हताशा और मोह भंग का पता देते हैं; वहीं दूसरी ओर क्या इनमें मंदिर निर्माण से जुड़ी नई राजनीति की आहट नहीं सुनाई पड़ रही है? यह शायद किसी बड़ी कार्रवाई  का इशारा है; संदेश भी।“  24 अक्तूबर, 2018 को अपने लेख में प्रो. शर्मा ने लिखा कि मोहन भागवत द्वारा एक बार पुनः राम मंदिर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दुहराना 2019 के लिए चुनावी एजेंडा निर्धारित करने जैसा लगता है। कई अन्य मुद्दों पर सरकार के खिलाफ़ बढ़ता असंतोष कहीं चुनाव में भारी न पड़े, इसलिए एक बार पुनः  संघ और मंदिर मुद्दे पर लौटना सरकार की मजबूरी है। राहुल गांधी द्वारा हिंदू अवतार धारण  करने और मंदिरों के चक्कर लगाने से भी सरकार के पास इस आजमाए मुद्दे पर लौटने के सिवा कोई विकल्प नहीं। मोहन भागवत के संदेश और तेवर को देखते हुए प्रो. शर्मा लिखते हैं, “संकेत स्पष्ट है कि अब और इंतजार नहीं।“ 26 नवंबर, 2018 को विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना और संत समाज द्वारा मंदिर निर्माण के लिए लगातार बढ़ते दबाव की चर्चा करते हुए प्रो. शर्मा ने लिखा, “इतना तो कहा ही जा सकता है कि आने वाले समय में केंद्र सरकार के ऊपर राम मंदिर बनाने को ले चौतरफा दबाव पड़ने वाला है। देखना होगा कि सरकार उसका सामना किस प्रकार करती है।“           

कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषय पर भी कई प्रभावशाली लेख इन पुस्तक में शामिल हैं।  5 जून, 2018 को “जरूरी है रोहिंग्याओं पर निगाह रखना” शीर्षक लेख में एक साहित्यकार के तौर पर डॉ. शर्मा ने रोहिंग्याओं पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की बात की है, लेकिन साथ ही इस बात से इनकार नहीं किया है कि मानवीय संवेदनाओं की आड़ में कुछ अराजक तत्व राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। 17 अक्तूबर, 2018 को लिखे लेख में मीर जुनैद की प्रशंसा करते हुए इन्होंने लिखा है कि जुनैद के प्रयासों से कश्मीर में युवा वर्ग ने निकाय चुनावों में सक्रिय भागीदारी निभाई। प्रो. शर्मा ने लिखा, “कश्मीर का नया चेहरा गढ़ने के लिए जरूरी है, आतंक और आतंकी को महिमामंडित करने की प्रथा खत्म हो, क्योंकि इसी के कारण अनेक युवा अपने हाथों में किताबों की बजाय हथियार उठाते नहीं हिचकते।“ 4 दिसंबर, 2018 को ‘उपेक्षित लद्दाख का दर्द’ शीर्षक से इन्होंने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने की माँग का समर्थन करते हुए लिखा, “लद्दाखियों के घाव बहुत पुराने और बहुत गहरे हैं। कहा जाता है कि इस इलाके के धर्मांतरण की साजिश के तहत बौद्ध मठों की भूमि को हड़पने तक का प्रयास किया गया। शेख अब्दुल्ला की सरकार ने भोटी भाषा को आधिकारिक भाषा मानने से इनकार कर दिया था तथा जम्मू और कश्मीर राज्य के प्रथम बजट में लद्दाख का उल्लेख तक नहीं था।“ ‘राफेल की रार: और कब तक’ शीर्षक से इन्होंने राफेल ने नाम पर पक्ष और विपक्ष में हो रही राजनीति पर सवाल उठाया है। ‘इस वक्त तो सियासत न कीजिए’ शीर्षक से वायुसेना द्वारा बालाकोट स्थित जैश-ए-मोहम्मद के ठिकानों को ध्वस्त करने की प्रशंसा करते हुए विपक्षी दलों से इस विषय पर राजनीति न करने का आग्रह किया है। ऐसे ही कई अन्य लेख हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों पर एक साहित्यकार और एक संपादक के तौर पर प्रो. शर्मा की गहरी समझ और इनकी परिपक्वता के परिचायक हैं।                      

लोकतंत्र के घाट पर लिखी गई रचनाओं में राजनीति कूट-कूट कर भरी होगी यह तो सहज स्वाभाविक है, लेकिन राजनीतिक लेखों में भी दो अलग तरह के लेख हैं। एक तो वर्तमान चुनाव और चुनावी तैयारी, भाषण, मुद्दे आदि विषयों पर है और दूसरी तरफ ऐसे लेख हैं जो तात्कालिक चुनाव तक ही सीमित न रह कर दीर्घकालिक सुधार और परिवर्तन  की बात करते हैं। पहली श्रेणी के लेख इस मायने में बहुत महत्वपूर्ण हैं कि चुनाव पूर्व ही प्रो. शर्मा ने चुनाव बाद इन राजनेताओं, इनके मुद्दों और इनके गठजोड़ का क्या होगा, इस पर विस्तार से लिखा है। और अब जब चुनाव के नतीजे आ चुके हैं और तमाम भाषण और मुद्दे जनता की कसौटी पर कसे जा चुके हैं, प्रो. शर्मा के लेखों की समीक्षात्मक महत्ता बढ़ जाती है। दूसरी श्रेणी के लेख सामयिक मात्र नहीं हैं। इन लेखों की उपयोगिता समय के साथ बढ़ती ही रहेगी, अतः ऐसे लेख इस पुस्तक को और ज्यादा संग्रहणीय बनाते हैं। लौह पुरुष की छवि धूमिल करने का प्रयास?” शीर्षक से 27 जून, 2018 को प्रो. शर्मा ने प्रोफेसर सैफुद्दीन सोज़ द्वारा अपनी किताब के विमोचन के अवसर पर सरदार पटेल पर उंगली उठाने को आड़े हाथों लिया है। प्रोफेसर सोज़ ने कहा कि पटेल तो कश्मीर के पाकिस्तान में विलय पर तैयार हो गए थे पर नेहरु नहीं माने। यदि आज कश्मीर भारत के पास है, तो इसका श्रेय नेहरु को जाता है। प्रो. शर्मा लिखते हैं “दरअसल इस बयान से कई निशाने साधे गए हैं। पहला तो किताब का प्रचार। दूसरा, लौह पुरुष सरदार पटेल की छवि धूमिल करना। तीसरा, मुशर्रफ वाले बयान से नाराज़ कांग्रेस के अपने आकाओं को खुश करना। उनकी किताब कोई खरीदे या वह कचरापेटी की शोभा बढ़ाए; उनके आका गण खुश रहें या नाखुश- इन बातों से मुल्क का कुछ लेना देना नहीं है। लेकिन पटेल के नायकत्व को जो चुनौती दी गई है, वह चिंता का विषय है।“ ‘मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम’ शीर्षक (18/7/18) से इन्होंने कांग्रेस द्वारा महिला आरक्षण बिल को बिना-शर्त समर्थन देने और भाजपा द्वारा महिला हित के नाम पर ही तीन तलाक बिल का भी समर्थन करने की माँग के बारे में लिखते हुए कहा कि राजनीति के आगे आम जनता के हित की बात हमेशा पीछे रह जाती है। दुष्यंत के शेर के साथ इन्होंने अपनी बात रखी है - मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।“  ‘मतदाता की उदासीनता का अर्थ’ शीर्षक में इस बात की चिंता जताई गई है कि शहरी क्षेत्र में मतदाता मतदान करने में कम रुचि दिखा रहे हैं। इस सुझाव की भी बात की गई कि मतदान को अनिवार्य कर देना चाहिए। लेकिन प्रो. शर्मा लिखते हैं, “वोट न डालने को वोटर की उदासीनता मान लेना या उसे सोया हुआ मान लेना उचित नहीं है। दरअसल वोट न डालना बड़ी हद तक इस बात का भी प्रतीक है कि उस मतदाता को कोई उचित उम्मीदवार ही नहीं दिखाई दे रहा। इसलिए वोट न डालना भी एक प्रकार से नोटा के समान ही है”। ‘जाति और गोत्र की वेदी पर लोकतंत्र’ शीर्षक से आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी यहाँ की राजनीति में जात-पाँत और गोत्र की प्रमुखता और प्रासंगिकता पर दुखी मन से डॉ. शर्मा ने आवाज़ उठाई है। जनता आज तक इस चक्रव्यूह से बाहर नहीं आ पाई है और नेताओं के लिए तो  यह मुफीद ही है। भविष्य के लिए आशा जताते हुए प्रो. शर्मा लिखते हैं, “आशा की जानी चाहिए कि मध्यकालीन सामंतवादी रूढ़ियों की वेदी पर बलि होते लोकतंत्र को बचाने के लिए भारत की जनता राजनैतिक वयस्कता का परिचय अवश्य देगी। तब तक इतना ही- मानचित्र को चीरती मजहब की शमशीर/ या तो इसको तोड़ दो, या टूटे तस्वीर/ मुहर महोत्सव हो रहा, पाँच वर्ष के बाद /जाति पूछ कर बँट रही, लोकतंत्र की खीर”। इस किताब के सभी लेख इतने प्रभावी हैं कि ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’। राजनीति में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह किताब न सिर्फ रुचिकर है, बल्कि संग्रहणीय भी।                                           

पुरानी मान्यता है कि चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास ने हनुमान जी से आग्रह किया कि उन्हें प्रभु श्रीराम के दर्शन करवाएँ। हनुमान जी की कृपा से प्रभु श्री राम, तुलसीदास के सामने आए, लेकिन तुलसीदास उन्हें पहचान न सके। उन्होंने पुनः हनुमान जी से आग्रह किया। एक बार पुनः हनुमान जी की कृपा हुई और बालक रूप में प्रभु श्रीराम तुलसीदास जी के सामने आकर चंदन लगाने की माँग करने लगे। इस बार भी तुलसीदास उन्हें पहचान नहीं सके और तब एक तोते का स्वरूप धारण कर, हनुमान जी ने तुलसी दास से कहा: 'चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर, तुलसी दास चंदन घिसे, तिलक करे रघुवीर' इससे तुलसीदास प्रभु श्रीराम को पहचान पाए। लेकिन ‘लोकतंत्र के घाट पर’ ऐसी कोई दुविधा नहीं। पक्ष और विपक्ष के खेमे में बंटे पत्रकारिता जगत के सूरमाओं के बीच ऐसी सौम्य, शालीन, मजबूत और तटस्थ आवाजें जो पक्ष और विपक्ष दोनों को ही आईना दिखाने से परहेज न करती हों, कम ही हैं। प्रो. ऋषभदेव शर्मा की आवाज़ एक ऐसी ही सशक्त आवाज़ है।  राजेश जोशी की कविता है – “जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएँगे/ कठघरे में खड़े कर दिए जाएँगे/ जो विरोध में बोलेंगे/ जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे/ बर्दाश्‍त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज हो/ उनकी कमीज से ज्‍यादा सफ़ेद/ कमीज पर जिनके दाग नहीं होंगे, मारे जाएँगे/ धकेल दिये जाएँगे कला की दुनिया से बाहर/ जो चारण नहीं होंगे/ जो गुण नहीं गाएँगे, मारे जाएँगे/ धर्म की ध्‍वजा उठाने जो नहीं जाएँगे जुलूस में/ गोलियाँ भून डालेंगी उन्हें, काफिर करार दिये जाएँगे/ सबसे बड़ा अपराध है इस समय निहत्थे और निरपराधी होना/ जो अपराधी नहीं होंगे, मारे जाएँगे।“ तो प्रो. ऋषभदेव शर्मा को उनकी  इस हिम्मत और जज्बे के लिए सलाम करते हुए धन्यवाद। इन जैसे साहित्यकार/पत्रकार के रहते हुए यह विश्वास बना रहेगा कि हम पक्ष और विपक्ष की आवाज़ सुनने की बजाय सच की आवाज़ सुन पाएँगे। 000

समीक्षित पुस्तक- लोकतंत्र के घाट पर / लेखक- ऋषभ देव शर्मा /

 प्रकाशक- किंडेल ई-बुक्स / संस्करण- 2020        

 

समीक्षक;  प्रवीण प्रणव

 निदेशक, प्रोग्राम मैनेजमेंट, माइक्रोसॉफ्ट।

आवासः बी-415, गायत्री क्लासिक्स, लिंगमपल्ली, हैदराबाद-500019 (तेलंगाना),

मोबाइलः 9908855506, ई-मेलः praveen.pranav@gmail.com

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