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शनिवार, 9 जनवरी 2021

भूमिका : रक्षा अनुसंधान एवं विकास क्षेत्र में विज्ञान लेखन




हिंदी आज अपने संख्याबल के आधार पर अंग्रेजी और मंदारिन जैसी अंतरराष्ट्रीय भाषाओं के साथ प्रथम पंक्ति में साधिकार खड़ी दीख रही है। लेकिन, विश्वभाषा के रूप में स्थापित होने के लिए केवल संख्याबल से काम नहीं चलेगा।  न ही केवल संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा हो जाने पर कोई भाषा व्यावहारिक स्तर पर विश्वभाषा बन सकती है। इसके लिए उसे विश्व-भूगोल, अर्थव्यवस्था, संवाद, ज्ञान-विज्ञान-तकनीक, जनसंचार और कूटनीति जैसे तमाम अंतरराष्ट्रीय विषय-क्षेत्रों में अपनी शक्तिमत्ता दर्शानी होगी। तभी यह माना जा सकता है कि समूचे ग्लोब पर उसकी जीवंत उपस्थिति है। कहना न होगा कि विश्वभाषा तक जाने वाली यह राह राष्ट्रीय स्तर पर संपर्कभाषा- राष्ट्रभाषा-राजभाषा के वृहद तिराहे से होकर गुजरती है। अर्थात, यह तिहरी राष्ट्रीय भूमिका निभाते हुए ही हिंदी व्यापक सार्वभौमिक भूमिका निभा सकती है। यह भाषिक शक्ति उसे तभी प्राप्त होगी, जब हम जीवन और जगत के विविध व्यवहार-क्षेत्रों में उसका प्रयोग करेंगे। इन व्यवहार-क्षेत्रों में अनुसंधान और विकास कार्यक्रमों से जुड़े वैज्ञानिक साहित्य की रचना एक बेहद महत्वपूर्ण और विशाल व्यवहार-क्षेत्र है। प्रस्तुत ग्रंथ में युवा लेखिका डॉ. अर्चना पांडेय ने इसी व्यवहार-क्षेत्र में व्यवहृत और विकसित हिंदी की प्रयुक्तिगत शक्ति का आकलन करने का महत्कार्य किया है। 


डॉ. अर्चना पांडेय स्वयं रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन में बतौर एक जिम्मेदार राजभाषा-कर्मी कार्यरत हैं। उन्होंने गहन शोधदृष्टि का परिचय देते हुए, संगठन में रचित मौलिक और अनूदित वैज्ञानिक साहित्य के विविध प्रकार के पाठों का सूक्ष्म विवेचन-विश्लेषण किया है। इसके लिए पारिभाषिकता, प्रोक्ति गठन और प्रयुक्ति निर्माण जैसी कसौटियों पर कसकर यह प्रतिपादित किया गया है कि हिंदी किसी भी गंभीर से गंभीर विषय से जुड़े वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन और विमर्श के लिए पूर्णतः समर्थ भाषा है। हिंदी को यह सामर्थ्य उसकी लचीली प्रकृति, ग्रहणशीलता, पारदर्शिता और संप्रेषणीयता जैसे गुणों से प्राप्त होता है।


लेखिका ने अपने इस ग्रंथ द्वारा इस भ्रम का तो निवारण किया ही है कि हिंदी वैज्ञानिक लेखन के उपयुक्त भाषा नहीं है; साथ ही, इस मिथ को भी तोड़ा है कि भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक चिंतन और तकनीकी लेखन की परंपरा नहीं है। उन्होंने परिश्रमपूर्वक  संस्कृत से लेकर आधुनिक भाषाओं तक में भारतीयों के वैज्ञानिक लेखन के बारे में ऐतिहासिक महत्व की जानकारी दी है। इससे इस ग्रंथ की उपादेयता और प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है।


इस ग्रंथ के प्रकाशन के अवसर पर मैं प्रिय डॉ. अर्चना पांडेय को शुभाशीष और प्रकाशक हिंदुस्तानी एकेडमी को साधुवाद देता हूँ क्योंकि इस प्रकार के ग्रंथ ही हिंदी को विविध प्रयोजनवती बनाते हैं तथा विश्व स्तर पर 'शक्ति की भाषा' (पावर लैंग्वेज) होने  के उसके दावे को पुष्ट करते हैं। 


विश्व हिंदी दिवस की शुभकामनाओं सहित…


ऋषभदेव शर्मा,

पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष,

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,

हैदराबाद-500004 (तेलंगाना)


विश्व हिंदी दिवस

10 जनवरी, 2020

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