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बुधवार, 11 नवंबर 2020

'कोरोना काल की डायरी' : प्रवीण प्रणव का अभिमत






अभिमत 

आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे 

- प्रवीण प्रणव 

कैफ़ भोपाली ने फ़िल्म 'पाकीज़ा' के लिए एक मशहूर गाना लिखा जिसके बोल थे – “शमा हो जायेगी जल-जल के धुंआ आज की रात, आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे।“ यहाँ निराशा या हताशा नहीं है कि शायद हम सहर देख पाएँ या नहीं, बल्कि अंग्रेजी में जिसे ‘फर्स्ट थिंग फर्स्ट' कहते हैं, यानी अभी जो सामने है पहले उसकी चिंता करते हैं, बाद की बात, बाद में देखी जाएगी। प्रो. ऋषभदेव शर्मा की किताब ‘कोरोना काल की डायरी’, जो इनके द्वारा लिखे गए संपादकीय लेखों का संकलन है, हमें कोरोना काल में होने वाली घटनाओं से परत-दर-परत और पन्ना-दर-पन्ना रूबरू करवाती है। इस किताब के लेख कोरोना के बाद एक बेहतर सहर की उम्मीद तो जगाते हैं, लेकिन कोरोना की स्याह रात की विस्तृत तस्वीर भी पेश करते हैं। दीगर है कि इससे पहले भी प्रो. शर्मा के संपादकीय लेखों के संकलन ‘संपादकीयम्’ (2019), ‘समकाल से मुठभेड़’ (2019), ‘सवाल और सरोकार’ (2020) तथा ‘लोकतंत्र के घाट पर’ (2020) प्रकाशित हैं, प्रस्तुत पुस्तक इस शृंखला की पाँचवीं कड़ी है। कोरोना ने यूँ तो चीन में बहुत पहले अपनी आमद का अहसास करवा दिया था लेकिन तब दुनिया इसके प्रभाव को ले कर इतनी सतर्क नहीं थी। देखते ही देखते जब इसने अपने पाँव चीन से बाहर निकाले और समूचे विश्व को अपनी गिरफ़्त में ले लिया, तब जाकर वैश्विक स्तर पर इससे निबटने की योजनाएँ बननी शुरू हुईं। भारत में भी मार्च 2020 से सरकारी अमला हरकत में आया और कोरोना के प्रभाव को कम करने के प्रयास शुरू हुए। इस किताब के संपादकीय लेख 06 मार्च, 2020 से शुरू होते हैं और 04 नवंबर, 2020 तक की महत्वपूर्ण घटनाओं को 97 संपादकीय लेखों के माध्यम से पाठकों के सामने परोसा गया है। 

इतिहास की घटनाओं के लिए जैसे ईसा पूर्व और ईसा के बाद का संदर्भ दिया जाता है, वैसे ही कोरोना की वजह से हमारे जन जीवन पर जो प्रभाव पड़ा है, उसका आकलन लंबे समय तक कोरोना से पहले और इसके बाद की परिस्थितियों के रूप में किया जाता रहेगा। और यह किताब इन दो काल खंडों (कोरोना से पहले और इसके बाद) के बीच की कड़ी है। आज हम कोरोना संक्रमण काल में हैं और इस दौरान की हर घटना ज़ेहन में ताज़ा है। लेकिन किसी घटना के वर्षों बाद जिस तरह पुरानी तस्वीरों को देखते ही घटना आँखों के सामने सजीव हो उठती है, वैसे ही इस किताब की उपयोगिता लंबे समय तक इस मायने में बनी रहेगी कि यह कोरोना काल में इस महामारी से निबटने की हमारी तैयारी, हमारी कमियों और न केवल भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर कोरोना की वजह से हो रही उथल-पुथल का प्रामाणिक दस्तावेज़ है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस किताब में संगृहीत सभी लेख कोरोना या कोरोना से संबंधित विषयों पर आधारित हैं, लेकिन इन लेखों में विविधता है और यह प्रो. शर्मा की पैनी साहित्यिक दृष्टि और समाज के अंतिम व्यक्ति तक से अपने को जोड़ पाने की कला और उसके दर्द को समझने की परिपक्वता का परिचायक है। आरंभिक कई लेख कोरोना से बचाव के तरीकों, स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा और लापरवाही के खिलाफ जागरूकता फैलाने पर आधारित हैं। जैसे-जैसे समय बदला और वैश्विक स्तर पर परिस्थितियों में जिस तरह के बदलाव हुए, संपादकीय लेखों की धार भी चीन की विस्तारवादी नीतियों और अवसरवादी फ़ायदों के खिलाफ़ होती गईं है। अमेरिका और चीन के आमने-सामने आ खड़े होने पर भी कई लेख हैं। लेखों में एक तरफ चीन की अवसरवादिता पर प्रहार है, तो वहीं अमेरिका की दादागिरी और कोरोना से लड़ने में उसकी विफलताओं पर भी लेख हैं, जो प्रो. शर्मा की निष्पक्ष पत्रकारिता का सबूत हैं। जहाँ कहीं भी सरकार ने कोरोना की रोकथाम की दिशा में प्रभावी कदम उठाए, संपादकीय लेखों में ऐसे प्रयासों की सराहना की गई है लेकिन साथ ही रोजगार, मजदूरों के पलायन और अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर सरकार के खिलाफ़ आवाज़ भी उसी मजबूती से उठाई गई है। कोरोना के दौर में कोरोना से इतर भी कई महत्वपूर्ण लेख इसमें सम्मिलित किए गए हैं जिनमें अत्यधिक बारिश, बढ़ती जनसंख्या, निर्यात पर निर्भरता कम करने जैसे घरेलू मुद्दे हैं, तो टिड्डियों का हमला, तेल की कीमतों में गिरावट, इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच समझौता जैसे अंतरराष्ट्रीय विषय भी हैं, जो परोक्षतः कोरोना काल को ही रूपायित करते हैं। किताब के उत्तरार्ध में कई लेख कोरोना वैक्सीन की आरंभिक जांच के नतीजों पर हैं, तो साथ ही कई लेख कोरोना काल में चरमराई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का संदेश देते हैं। इन लेखों को पढ़ कर सहज ही अनुभव होता है कि इस काली रात की ज्यादातर घड़ियाँ हमने काट ली हैं और अब हमें उस नई सहर के लिए तैयार होना है जिसके आते ही हमने इस रात में जो खोया है उसे फिर से हासिल करने और उससे और आगे जाने की दिशा में जुट जाना है। प्रो. शर्मा को साधुवाद कि उनके लेखों को पढ़ते हुए इस दौर के कई दृश्य आँखों के सामने तैरने लगते हैं और महसूस होता है आप समय का पहिया पीछे मोड़ कर उन घटनाओं के एक बार फिर से साक्षी हो रहे हैं। 

क्योंकि कोरोना का संक्रमण काल अभी खत्म नहीं हुआ है तो जाहिर है कि ‘कोरोना काल की डायरी’ का अंतिम लेख, इस डायरी का अंतिम पन्ना नहीं, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि इस डायरी के आगामी पन्ने संक्रमण की विभीषिका से उबर कर जीवन के वापस पटरी पर आने की दास्तान समेटे होंगे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने भी कहा “लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।" यह शाम पहले ही बहुत लम्बी हो चुकी है, वैक्सीन की उम्मीद में जनता उस सहर की मुंतज़िर है, जब हम खौफ़ के साये से बाहर निकल सकेंगे और इस इबारत के लिए ‘कोरोना काल की डायरी’ के अगले सफ़ों का इंतजार रहेगा। और तब तक आइए, हम सब मिल कर नरेश कुमार शाद के इस शेर को गुनगुनाएं: 

इतना भी ना-उम्मीद दिल-ए-कम-नज़र न हो 

मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो





- प्रवीण प्रणव 

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