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शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

'लोकतंत्र के घाट पर' की समीक्षा : डॉ. सुषमा देवी



चुनावी राजनीति पर बेबाक टिप्पणियाँ

- सुषमा देवी 

भारत में हर पैदा होने वाला बच्चा मां के गर्भ से ही राजनीति सीख कर आता है। राजनीति भारत के जीवन दर्शन में व्याप्त है। यही कारण है कि बाहर से आने वाले आक्रांता भी राजनीति में प्रवेश करने के लिए विवश हो गये थे। अंग्रेज भी भारतीय राजनीति में प्रवेश करने के उद्देश्य से भारत में नहीं आए थे। लेकिन भारत में राजनीतिक पकड़ के बिना व्यापार करना भी असंभव है। ऐसे में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में जब चुनावी समय आता है, तो भारतीय जनता एवं राजनेता दोनों अत्यंत उत्साहित रहते हैं।  चुनाव जीतने के लिए राजनेता किस तरह के पैंतरे बदलते हैं तथा आम जनता अपने मत को लेकर कैसे इतराती है? 

ये सभी ताने-बाने 'लोकतंत्र के घाट पर ' पुस्तक में प्रोफेसर ऋषभ देव शर्मा ने बुने हैं। चुनाव के समय भारतीय वातावरण में पान की गुमटी से लेकर भैया जी कहिन, दंगल, ताल ठोक के,प्राइम टाइम  आदि मिलकर भी यदि चुनावी गणित को न समझा सकें, तो लेखक की प्रस्तुत कृति अवश्य ही कुछ समाधान दे सकती है।

आम जनता भ्रमित रहती है, ऐसे में  इस तरह की पुस्तक सही- गलत का चुनाव करने की समझ देने में  अवश्य सक्षम हो सकती है। चुनाव का आधार, प्रक्रिया, जनता की सोच को पुष्ट बनाने में यह पुस्तक प्रासंगिक है।

प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा का एक तेवरीकार के रूप में प्रतिष्ठित नाम है। भारतीय राजनीति, चुनावी,  सामाजिक, आर्थिक , साहित्यिक एवं भाषा वैज्ञानिक आदि सभी विषयों पर बेबाक, निर्द्वंद्व एवं प्रामाणिक लेखन के क्षेत्र में आपका अत्यंत प्रतिष्ठित नाम है।  किसी भी विषय को लेकर यथातथ्य किंतु समाधानात्मक लेखन करने की आप में विशिष्ट कला है। भारतीय लोकतंत्र के घाट पर विविध रूपधारी प्राणियों की चुनावी प्यास की स्थिति को पाठक अनुभव कर सकते हैं। निश्चय ही चुनावी समझ को पूर्णता प्रदान करने में यह पुस्तक कुछ सीमा तक अवश्य सफल होगी। इसी आशा एवं विश्वास के साथ पाठकों को एक बार अवश्य पढ़ने का प्रक्रम करना चाहिए । क्योंकि लोकतंत्र के ऊँट को अपने अनुसार यदि करवट बदलवाना है, तो पाठक को इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए।



-डॉ सुषमा देवी, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, बद्रुका कॉलेज,  हैदराबाद, तेलंगाना

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