मत हँसो पद्मावती; निर्मला भुराड़िया; 2011; वाणी प्रकाशन, 4695, 21ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002; पृष्ठ – 106; मूल्य – 200/= |
निर्मला भुराड़िया पेशेवर पत्रकार हैं और सामाजिक एवं स्त्री विमर्श विषयक लेखन के लिए खासतौर पर जानी जाती हैं. ‘एक ही कैनवास पर बार बार’ के बाद ‘मत हँसो पद्मावती’ (2011) उनका दूसरा कहानी संग्रह है जिसमें समकालीन परिस्थिति और परिवेश के साथ लेखिका के मनोजगत के द्वंद्वात्मक संबंधों की परिणतियाँ कथाबद्ध हुई हैं. आज और कल का अंतर बहुत बार लेखिका को उद्वेलित करता है और वे वर्तमान में बैठकर अतीत को तथा अतीत में बैठकर वर्तमान को देखते हुए ऐसे शिल्प का निर्माण करती हैं जो कालयात्रा का अनुभव कराता है. निर्मला की कुछ कहानियां बाल-मन के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं लेकिन वे बाल-कहानियाँ नहीं है बल्कि, जैसा कि वे स्वयं बताती हैं, बचपन के मानसिक संसार में सुरक्षित अनुभव इनके केंद्र में है. कुछ भावनात्मक जरूरतें जो तब महसूस होती थीं आज उभकर आती हैं. नन्ही उम्र के ख़्वाब और नन्ही पीड़ाएँ कल्पनाओं में घुलमिलकर नन्ही नायिकाओं के बहाने कहानियों का रूप धर लेती हैं. लेखिका ने यह भी साफ़ कर दिया है कि कोई इस आत्मानुभाव को आत्मकथा न समझे. बस इतना कि लेखिका ने एक छोटे से दर्द को देखे अनदेखे पात्र, भय, असुरक्षा, इच्छा, आकांक्षा और अव्यक्त अनुभवों के सहारे व्यंजित करने का प्रयास किया है. कहना न होगा कि इसमें उन्हें सफलता भी मिली है.
विवेच्य कहानी संग्रह में जो प्रश्न उठाए गए हैं वे सच्चे और प्रासंगिक हैं. इन कहानियों में कहीं पत्रकारीय जीवन के अनुभव दिखाई देते हैं तो कहीं विकास के नाम पर उजड़ते हुए लोक की पीड़ा के स्वर सुनाई देते हैं. छली जाती हुई औरत, दोहरा आचरण करता हुआ मर्द, गिरते हुए जीवन मूल्य, बढ़ती हुई उपभोग की हवस से लेकर किराए की कोख और मनुष्य की क्लोनिंग तक को निर्मला ने कथ्य बनाया है. इन तमाम विषयों को रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर इतिहास और फैंटसी तक का रचनात्मक उपयोग करते हुए इस तरह पेश किया गया है कि पाठक बहुत बार विचलित भी होता है और आनंदित भी. आज की कॉर्पोरेट-सभ्यता की विडंबनाओं पर व्यंग्य करने से भी लेखिका बाज़ नहीं आती. कहने का अर्थ यह है कि निर्मला भुराड़िया को ज़िंदगी की धड़कनें गिनने और गिनवाने का हुनर आता है.
अंततः पाठकों के विमर्श हेतु इसी संग्रह की ‘ज़री पॉलिश की जूतियाँ!’ शीर्षक कहानी का यह अंश ....
“उसे हंसी आती है और दुःख भी होता है कि मुहब्बत नाम की शै पर उसे भरोसा न रहा. जितने आवेग से वह दुःख से भरती है, उतने ही आवेग से नफरत से भी. किसी-किसी पल उसे लगता है, सब कुछ नफ़रत के काबिल हो गया. यहाँ तक कि खुद उसकी देह और उसका वजूद तक! उसकी ही क्यों, हर औरत की देह!”
['भास्वर भारत' / अप्रैल 2013 / पृष्ठ 54]
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