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सोमवार, 3 जून 2013

आतंकवाद एक हिंसक विचारधारा है

वर्तमान विश्व को सबसे बड़ा खतरा जिस एक चीज से है वह है आतंकवाद. रक्तबीज की तरह आतंकवाद खुद अपने रक्तबिंदुओं में से नए भीषण, क्रूर, नृशंस और पैशाचिक स्वरूपों में प्रकट होता रहता है. आतंकवाद व्यवस्थित प्रकार से हिंसा का ऐसा प्रयोग है जिसके द्वारा व्यापक जनसंख्या को भयभीत करके किसी विशेष प्रकार का राजनैतिक लक्ष्य प्राप्त किया जा सके. वामपंथी और दक्षिणपंथी राजनैतिक संस्थाएँ, राष्ट्रीय और धार्मिक संगठन और विद्रोही जन ही नहीं, सेना, गुप्तचर और आसूचना संस्था तथा पुलिस जैसे राष्ट्रीय संगठन भी आतंकवाद का रास्ता अपनाते देखे गए हैं. वास्तव में यह एक विवादित अर्थ वाला शब्द है लेकिन यह तय है कि आतंकवाद में हिंसा या हिंसा के डर का समावेश अनिवार्य रूप से होता है. वास्तव में यह एक प्रकार का वाद है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए नए नए तरीके अपनाते हुए व्यक्ति, समूह, समुदाय, सरकार अथवा वैश्विक समाज को भयभीत करता है, भयादोहन की नई नई तकनीकें ईजाद करता है तथा न तो राष्ट्रीय कानूनों को मानता है और न ही अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों को स्वीकार करता है. 

विश्वजीत ‘सपन’ (1968) द्वारा लिखित ‘आतंकवाद : एक परिचय’ (2011) इस अत्यंत चुनौतीपूर्ण वैश्विक समस्या पर अत्यंत प्रामाणिक और शोधपूर्ण ग्रंथ है. स्मरणीय है कि विश्वजीत ‘सपन’ 1994 से भारतीय पुलिस सेवा में कार्यरत हैं तथा इस समस्या से वैचारिक और व्यावहारिक स्तर पर जूझते रहे हैं. इस समस्या को संपूर्णता और गहराई से विश्लेषित करने के विचार से उन्होंने कुछ वर्ष पहले एक साप्ताहिक पत्र के लिए स्थायी स्तंभ के अंतर्गत जो कुछ लिखा उसे ही सहेज सँवार कर अब इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया गया है. 

लेखक ने विस्तार से आतंकवाद की अवधारणा, उत्पत्ति, स्वरूप और प्रकार पर प्रकाश डालते हुए इसके विभिन्न कारणों की पड़ताल की है. आतंकवाद की चुनौतियों का जायजा लेते हुए भारत में आतंकवाद के विस्तार का मानचित्र प्रस्तुत किया गया है कि कैसे पंजाब पर छाया आतंक पूरे भारत पर छा गया और किस प्रकार जम्मू एवं कश्मीर राज्य एक सुनियोजित आतंकवाद का शिकार हुआ. इसी प्रसंग में पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में आतंकवाद के फैलाव का भी विश्लेषण किया गया है. लेखक ने नक्सलवाद पर भी प्रामाणिक सामग्री प्रस्तुत की है तथा देश में आतंकवाद के कारणों की समीक्षा करते हुए यह प्रतिपादित किया है कि आतंकी बनते हैं और बनाए भी जाते हैं. 

आज पूरी दुनिया जिस खास तरह के आतंकवाद से त्रस्त है वह है मजहबी आतंकवाद. लेखक ने इसका विश्लेषण इस्लामिक आतंकवाद के तहत किया है. दरअसल धार्मिक आतंकियों की इच्छा सदा से सामूहिक हत्या के हथियारों के इस्तेमाल की रही है जो उन्हें बेनकाब करने के लिए काफी है. ऐसे तमाम संगठन मनुष्यविरोधी तथा लोकद्रोही, अतः ईश्वरद्रोही, ही माने जाने चाहिए. लेखक ने याद दिलाया है कि ओसामा बिन लादेन ने अपने अनुयायियों को यह पाठ पढ़ाया था कि इस्लाम को बचाने के लिए वेपन्स ऑफ मास डिस्ट्रकशन का इस्तेमाल इस्लामसम्मत है. उन्होंने यह भी ध्यान दिलाया है कि सिक्ख धर्म से वास्ता रखने वाले आतंकवादियों ने अपने धर्मग्रंथ को ऐसी लड़ाइयों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जबकि इस्लामी आतंकवादियों ने कुरआन को अपनी ढाल बनाने की भरसक कोशिशें की हैं. यही कारण है कि उनके पास ‘उन्मादियों’ की कमी नहीं है. दूसरी ओर इस सच से भी लेखक ने इनकार नहीं किया है कि अधिकतर मुसलमान इस बर्बर आतंकवाद के बिलकुल खिलाफ हैं. इसके पश्चात लेखक ने विस्तार से आतंकवाद और जिहाद पर प्रकाश डाला है और यह दर्शाया है कि जिहाद वह नहीं है जैसा चंद कट्टरपंथियों द्वारा बताया और सिखाया जा रहा है. 

आगे आतंकवाद से लड़ने की रणनीति, इसके समाधान और रोकथाम के लिए जन सामान्य की भूमिका पर विचार किया गया है. स्मरण रहे कि भारत जैसा महादेश दशकों से आतंकवाद से जूझ रहा है. परंतु उसे उखाड़ फेंकने में सफल नहीं हो पाया है. इसके बावजूद लेखक का यह कथन भी विचारणीय है कि “यह तो कहना ही गलत होगा कि हमने अब तक कुछ नहीं किया है बल्कि हमें यह कहना चाहिए कि हम अब तक इसे जड़ से समाप्त नहीं कर सके हैं, लेकिन हमने अपनी तरफ से पूरी ईमानदारी से कोशिश की और इन्हें कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ने से रोकने में कामयाब भी रहे हैं. वरना इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान की तरह हमारा भी देश इनके चंगुल में पूरी तरह से फँस चुका होता. हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारी सेना और पुलिस ने हजारों अधिकारियों एवं कर्मचारियों की कुर्बानियाँ दी हैं. उन कुर्बानियों को यह कहकर कि इन्होंने कुछ नहीं किया, झूठा साबित नहीं किया जा सकता.” 
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आतंकवाद : एक परिचय, 
विश्वजीत ‘सपन’, 
2011, 
आकृति प्रकाशन, एफ – 29, सादतपुर एक्स., दिल्ली – 110094, 
पृष्ठ – 303, 
मूल्य – रु. 630/- 
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- भास्वर भारत - दिसंबर 2012- पृष्ठ 59-60.

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हिंसा के खुले नाच को कुर्बानी का नाम नहीं दिया जा सकता है।