भारत को खंड
खंड करने के अनेक प्रयासों के बावजूद समय समय पर ऐसे उदाहरण सामने आते रहते हैं जो
इस देश की सामासिकता और अखंडता को प्रमाणित करते हैं. षड्यंत्रपूर्वक भारतीय
संस्कृति को आर्य संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति में बाँटना या भारतीय भाषाओं को
आर्य भाषा और द्रविड़ भाषा कहकर अलगाना वास्तव में राष्ट्र को विखंडित करने के षड्यंत्र
के रूप में ही सामने आया था. लेकिन इतिहास और संस्कृति के भारतीय अध्येताओं ने यह
दिखा दिया कि ऊपरी भेदभाव के बावजूद भीतर से भारतीय जनमानस एक हैं. भक्ति आंदोलन
इस सांस्कृतिक एकता की एक बड़ी मिसाल है. आर्य-द्रविड़ विभाजन को स्वीकार करने वाले
भी इस तथ्य से इनकार नहीं करते कि भक्ति का जो उभार उत्तर भारत में 15वीं-16वीं
शताब्दी में सामने आया उसकी प्रेरणा दक्षिण भारत के भक्ति साहित्य में निहित है जिसका
रचनाकाल 6-9 वीं शताब्दी तक माना जाता है. नायनमार और आलवार भक्तों की इन रचनाओं
से ही अनुग्रह और प्रतिपत्ति का वह तत्व विकसित हुआ जिसने परवर्ती काल में भक्ति
आंदोलन के केंद्रीय मूल्य के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की. निश्चय ही भारत की
धार्मिक समन्वयमूलक सामाजिक संस्कृति के लिए यह तमिल प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण और
उल्लेखनीय योगदान रहा है.
भारतीय
संस्कृति और साहित्य को द्रविड़ों, विशेषकर तमिलों, के योगदान की सूची में इधर यह
नया तथ्य भी आ जुड़ा है कि भक्ति ही नहीं शृंगार साहित्य का भी उद्गम द्रविड़
क्षेत्र ही है. यह स्थापना हिंदी और तमिल साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डॉ एम.शेषन
ने अपने ग्रंथ ‘तमिल साहित्य : एक परिदृश्य’ (2012) में साहित्यिक और
भाषाई अंतर्साक्ष्यों के आधार पर की है. डॉ शेषन की स्थापना प्रत्यक्ष के स्थान पर
अनुमान-प्रमाण पर आधारित होते हुए भी इस दृष्टि से ग्राह्य प्रतीत होती है कि इससे
उत्तर और दक्षिण की भाषाओं का प्राचीन काल से ही आपसी संबंध एक बार फिर साबित होता
है – भले ही स्वयं शेषन जी संस्कृत/ हिंदी और तमिल के अलग अलग भाषा परिवार मानते है.
डॉ शेषन
ने यह लाख टके का सवाल उठाया है कि हिंदी का रीतिकालीन शृंगार काव्य अपनी तमाम
प्रवृत्तियों में जिस ‘गाथाशप्तसती’ के निकट प्रतीत होता है उसकी प्रेरणाभूमि क्या
थी और फिर लाख टके का यह जवाब भी दिया है कि जिन काव्य-रूढ़ियों और काव्य-परंपराओं
की आधारभित्ति पर रीतिकाव्य में शृंगारपरक मुक्तकों की रचना हुई वे रूढ़ियाँ अनेक
शताब्दीपूर्व प्राकृत में रचित ‘गाथाशप्तसती’ के युग में दक्षिण भारत के लोक जीवन से प्रस्फुटित हुई थीं.
अपनी बात को उन्होंने 500 ई पूर्व से 300 ई तक रचित तमिल संगम काव्य के आधार पर सिद्ध
किया है जो मूलतः शृंगार काव्य है.
वास्तव
में डॉ शेषन की यह स्थापना बहुत महत्वपूर्ण है और इस दिशा में गहन अनुसंधान की
आवश्यकता है ताकि भारतीय साहित्य की मूलभूत प्रेरणाओं को नस्लवादी सोच से ऊपर उठकर
पहचाना जा सके. आज जब वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि उत्तर भारत
और दक्षिण भारत के पूर्वज एक ही नस्ल के थे तो फिर यह क्यों नहीं स्वीकार किया
जाना चाहिए कि भारतीय लोकमानस में शृंगार की धारा एक जैसी अकुंठ प्रवाहित होती रही
है!
शेषन जी के ग्रंथ में तमिल प्रजाति की प्राचीनता से लेकर तमिल
साहित्य में महिलाओं के योगदान तक पर केंद्रित 22 शोधपूर्ण और प्रामाणिक निबंध
संकलित हैं. ये निबंध भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषताओं को भी सामने लाने का
काम करते हैं. सभी साहित्य और संस्कृति प्रेमियों क लिए यह एक अनिवार्यतः पठनीय और
विचारणीय ग्रंथ है.
तमिल
साहित्य : एक परिचय
डॉ एम.शेषन
2012
अभिव्यक्ति प्रकाशन, 29/61, गली नं.
11, विश्वास नगर, दिल्ली – 110032,
पृष्ठ – 232,
मूल्य – रु. 97/-
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- भास्वर भारत - दिसंबर 2012- पृष्ठ 60.
1 टिप्पणी:
अंग्रेजों ने देश को तोड़ने में जितना प्रयास किया है, उससे अधिक प्रयास हम सब बुद्धिजीवियों को करना है, कहीं अधिक। ऐसे सुन्दर प्रयासों को नमन।
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