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मंगलवार, 11 जून 2013

'कहीं कोई दरवाज़ा' तलाशते अशोक वाजपेयी


(भास्वर भारत/ जून 2013/ पृष्ठ 52)


प्रार्थना  करो कि शब्दों पर भरोसा बना रहे 


‘कहीं कोई दरवाज़ा’ [2013] हिंदी के लब्धप्रतिष्ठित  वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी [1941] का चौदहवाँ कविता संग्रह है. एक पके हुए कवि का यह कहते हुए युग चेतना के द्वार पर दस्तक देना आश्वस्त करता है कि कविता को लेकर उत्साह और उम्मीद में कोई कमी नहीं हुई है. निरुत्साह और नाउम्मीदी से भरे हुए वर्तमान में 62 कविताओं का यह संग्रह कवि ने इस स्वीकृति के साथ प्रस्तुत किया है कि यह समय दुर्भाग्य से ऐसा समय है जिसमें दरवाज़े तेजी से बंद हो रहे हैं और अंधेरा बढ़ता जा रहा है जिसे चकाचौंध ढाँप नहीं पा रही है. यानि यह अंधेरा चकाचौंध के बावजूद है जो चकाचौंध की व्यर्थता को उजागर करता है. 


ऐसे में कवि अपनी और कविता की चरितार्थता खोजता है. “कई बार कविता दरवाज़े के होने और उसके खुल सकने की उम्मीद में दी गई दस्तक हो सकती है. सख्ती से बंद और पूरी मुस्तैदी से अपने बंद होने का बचाव करने वाले दरवाजे, हो सकता है, आखिरकार न खुलें  पर कविता दस्तक तो दे ही सकती है. यह उम्मीद भी कर सकती है कि उसकी दस्तक से कहीं, हवा में सही या अधर में, कोई दरवाजा खुलता है – खुल सकता है.”  अभिप्राय यह है कि वैभव, ऐश्वर्य, आभिजात्य, देह और पार्थिवता के कवि समझे जाने वाले अशोक वाजपेयी इस कविता संग्रह में एक समाजचेता कवि के रूप में उपस्थित हैं. इस संग्रह में उनकी शब्द, कविता, संबंध, प्रकृति, प्रेम और धरती के अस्तित्व के प्रति चिंताएँ और शुभकामनाएँ एक साथ व्यक्त हुई हैं. 

कवि धरती को बचाने के लिए मनुष्य का आह्वान करता है क्योंकि मनुष्य का सब कुछ लौकिक, पार्थिव, मृण्मय और मटमैला  है – शब्द, कविता, जिजीविषा, आकांक्षा और हाथ सभी कुछ. ऐसे मनुष्य से कवि चाहता है कि खंड खंड पृथ्वी की अखंड वेदना के प्रति वह संवेदित हो और घायलों, बेघरबारों व अकारण मारे जाने वालों की पीड़ा में साझेदार हो. धरती का निरंतर विकास के नाम पर दोहन बेशक इस मनुष्य का गुनाह है. फिर भी कवि चाहता है – “अपने हाथों से उठाओ पृथ्वी/ और महसूस करो कि/ कभी हरी भरी, कभी भूरी सूखी/ उसकी वत्सलता कभी चुकती नहीं है.” (अपने हाथों से उठाओ पृथ्वी). सृजन की सारी संभावनाओं से भरी हुई यह पृथ्वी कभी स्त्री जाति लगती है तो कभी समग्र मानवता. इतनी बड़ी धरती है पर दुःखों को रखने की जगह आज के आदमी के पास नहीं है क्योंकि दुःख तो वाल्मीकि के समय से ही कविता की टोकनी में रखे जाते रहे हैं. बाज़ार हो चुकी दुनिया में आदमी अपने दुःख धरे भी तो कहाँ क्योंकि “यकायक पता चला कि टोकनी नहीं है./ पहले होती थी/ जिसमें कई दुःख और हरी-भरी सब्जियाँ रखा करते थे,/ अब नहीं है -/ दुःख रखने की जगहें धीरे-धीरे  कम हो रही हैं.” (टोकनी). 


ग़ालिब और कबीर अशोक वाजपेयी के प्रिय साहित्यकार हैं. इन्हें वे बार-बार अपनी कविताओं में रचते हैं. खासतौर से इस संग्रह में कबीर लगातार उनके साथ बने हुए हैं. कवि जब देखता है कि आत्मा में अंधेरा बढ़ रहा है, निरपराध खून बहाया जा रहा है जिसकी लालिमा जम कर दुनिया को काला कर रही है तब उसे कहने और चुप रहने की युक्तियों के बीच शब्द का उजियारा याद आता है. (जोत शब्द उजियारा हो). कवि को जब दूर होती प्रकृति से पास आने की प्रार्थना करनी होती है तो वह खुले नयन हँस-हँस देखते हुए पुकारता है – पास आओ. (खुले नयन मैं हँस हाँ देखूँ). ये नयन कबीर के समय से आज तक जाग रहे हैं और रो रहे हैं  क्योंकि दुखिया कबीर के लिए आज भी “कविता सब कुछ के बीतने पर/ अविरल विलाप है -/ पर जो हँस खेल कर/ अपने दिन बिताना चाहते हैं/ वे क्यों कर इस विलाप पर ध्यान दें? (जागै अरु रोवै). सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो गगन किवाड़ खुलता है. पर गगन किवाड़ कहीं गगन में नहीं धरती पर ही है. “क्या संभव है/ कि हम पहचान पाएँ/ कि धरती के किवाड़ ही/ अंततः गगन किवाड़ हैं.” (खुल गए गगन किवाड़). इसके लिए अपना घर बार अपनी धरती को छोड़कर अधर में मँडैया छा सकने का साहस चाहिए. (अधर मँडैया छावै).अशोक वाजपेयी और कबीर अपनी शब्द साधना में लगातार रत हैं. कबीर ने तो शब्द के सहारे अचीन्हे को चीन्ह लिया लेकिन आज का कवि अनास्था के जिस युग में जी रहा है वहाँ अभी तक अपरिचित सा  अंधेरा है – शब्द के बावजूद : “शब्द तो थे/ पर उनसे चीन्ह नहीं पाया/ अपना खूँखार समय,/ अपनी नश्वर नियति, अपना विफल अंतःकरण!” (ताते अनचिन्हार मैं चीन्हा). इसके बावजूद आश्वस्तिकर यह है कि कवि शब्दों पर भरोसा छोड़ने को तैयार नहीं है – 
“प्रार्थना करो
कि शब्दों पर भरोसा बना रहे और
किसी भी हालत में वे कम न पड़ें,
कि सहायता की हर पुकार का तुम उत्तर दे सको,
कि साधन भले कम पद जाएँ देने की इच्छा में कमी न आए,
कि दुनिया की तेज रफ्तार से भले हमकदम न रह सको
पर चलने का संकल्प न घटे.” (करो प्रार्थना)
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कहीं कोई दरवाजा, 

अशोक वाजपेयी, 
2013, 
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 
पृष्ठ – 108, 
मूल्य – रु. 250/-
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1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हमारा तो बना रहेगा, सुन्दर समीक्षा।