भाषा रूपों का अध्ययन करने की आधुनिक प्रणालियों में एक यह मान कर चलती है कि प्रयोजनवती होकर ही कोई भाषा व्यापक प्रचार-प्रसार को प्राप्त होती है. ये प्रयोजन मोटे तौर पर दो प्रकार के हो सकते हैं.एक हैं सामान्य प्रयोजन ,जैसे दैनंदिन व्यवहार में वार्तालाप द्वारा विचारों का आदान -प्रदान . इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रयुक्त भाषा को 'सामान्य प्रयोजनों की भाषा' कहा गया है. दूसरे प्रकार का सम्बन्ध विशिष्ट व्यवहार क्षेत्र में प्रयुक्त भाषा रूपों से है, जैसे अलग अलग विज्ञान शाखाओं में अलग अलग भाषा रूप का प्रयोग होता है अथवा कार्यालय या प्रशासन के कामकाज को अंजाम देने के लिए खास तरह के भाषाप्रयोग में दक्ष होना ज़रूरी होता है. अलग अलग प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले इन विशिष्ट भाषा रूपों को 'विशिष्ट प्रयोजनों की भाषा ' या प्रयोजनमूलक भाषा कहा जा सकता है.किसी प्रयोजनक्षेत्र की भाषा के वैशिष्ट्य के आधार पर उसकी प्रयुक्ति [रजिस्टर] का निर्धारण होता है. प्रयुक्ति विशेष के अभ्यास द्वारा उस क्षेत्रविशेष या ज्ञानशाखाविशेष के भाषिक व्यवहार में दक्ष हुआ जा सकता है. यहाँ यह भी साफ़ करना उचित होगा कि सामान्य प्रयोजन की भाषा को निष्प्रयोजन या प्रयोजनातीत नहीं कहा जा सकता ,बल्कि वह भी प्रयोजनाधारित एक प्रकार ही है. इसी तरह ललित या साहित्यिक भाषा को भी अलगाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह कहना अधिक सटीक होगा कि साहित्य भी एक विशिष्ट प्रयोजन है तथा उसकी अपनी अनेक प्रयुक्तियाँ और उपप्रयुक्तियाँ हैं.
यहाँ तनिक रुक कर भारत के स्वातंत्र्योत्तर भाषिक परिवेश पर विचार करें तो पाते हैं कि यद्यपि भारत में राजभाषा के रूप में जनभाषाओं के प्रयोग का लम्बा इतिहास रहा है, तथापि ब्रिटिश काल में उन्हें अपदस्थ करके अंग्रेजी को कार्यालय, प्रशासन और शिक्षा की भाषा बना दिया गया . ऐसा करना सर्वथा अवैज्ञानिक था परन्तु भारतीयों को गुलाम बनाए रखने के लिए ऐसा किया गया था. अतः स्वतंत्रताप्राप्ति के साथ ही यह आशा जगी कि अब भारत की राजभाषा हिंदी होगी.संविधान ने हिंदी को भारत संघ की राजभाषा घोषित कर भी दिया. लेकिन जहाँ जहाँ जिन जिन प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता था वहां वहां उन उन प्रयोजनों के लिए देश भर में हिंदी के प्रयोग को संभव बनाने की चुनौती आज भी हमारे सामने विद्यमान है. कार्यालयों में, व्यवसायों में, शिक्षालयों में और न्यायालयों में जब तक हिंदी प्रतिष्ठित नहीं हो जाती तब तक यही समझना चाहिए कि यह देश भाषिक तौर पर आजाद नहीं हुआ है. इस भाषिक आजादी को हासिल करने के लिए विविध प्रयोजनों की हिंदी के व्यापक अध्ययन और प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है.
संभावनाओं से परिपूर्ण व्यवहार क्षेत्र के रूप में राजभाषाक्षेत्र अर्थात कार्यालय और प्रशासन का अपना महत्व है, लेकिन लोकतंत्र के चतुर्थ स्तम्भ के रूप में पत्रकारिता ने हिंदी की विविध प्रयुक्तियों को लोकप्रिय बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई है. आज यदि खेल के मैदान से लेकर राजनीति के मैदान तक और व्यापर-वाणिज्य से लेकर कम्प्युटर के भूमंडलीय स्वरूप तक को सहेजने में हिंदी के विविध प्रयोजनमूलक रूप सक्षम दिखाई दे रहे हैं तो इसका श्रेय बड़ी सीमा तक हिन्दी पत्रकारिता को जाता है क्योंकि उसने राजकाज, शिक्षा,न्यायव्यवस्था और अन्य अनेक क्षेत्रों में राजभाषा हिंदी की घोर उपेक्षा के बावजूद जनभाषा के रूप में उसकी व्यापक जनसंचार की शक्ति को पहचाना तथा नित-नूतन प्रसार पाते ज्ञानाधारित समाज की स्थापना में हिंदी को समृद्ध करते हुए स्वयं समृद्धि प्राप्त की.
वस्तुतः हिंदी के प्रयोजनमूलक रूपों के सन्दर्भ में पत्रकारिता की हिंदी के वैशिष्ट्य को समझना समसामयिक संचारयुग मेंअत्यंत प्रासंगिक विषय है. यहाँ इसी दृष्टि से हिंदी समाचारों की भाषा पर चर्चा की जा रही है.स्मरण रहे कि भाषा, समाचार-लेखन का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। कहा जाता है कि समाचार लेखक को खास तौर पर निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए -
(1) सरल-सुबोध भाषा-शैली; छोटे-छोटे वाक्य; प्रचलित शब्द-समूह।
(2) अनुवाद में लक्ष्य भाषा की प्रकृति का ध्यान ; दुरूहता से परहेज़।
(3) सामासिकता अर्थात कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक की अभिव्यक्ति।
(4) एक जैसे शब्दों / वाक्य-खंडों के बार-बार इस्तेमाल से परहेज। [जैसे किसी का कथन प्रस्तुत करते समय ‘कहा‘, ‘बताया‘, ‘मत व्यक्त किया‘, ‘उनका विचार था‘, ‘वे महसूस करते थे‘ आदि अलग-अलग शब्दों का प्रयोग करणीय।]
(5) एकदम सपाट भाषा के स्थान पर लय और संगति का प्रयोग।
(6) व्याकरण, वाक्य-संरचना, विराम चिह्नों तथा वर्तनी के मानक रूपों का प्रयोग।
(7) ज्ञान-विज्ञान की शब्दावली/पारिभाषिक शब्दों का अत्यंत सावधानी से व्यवहार।
जनसंचार में भाषा के मुद्रित और श्रव्य दोनों रूपों का प्रयोग किया जाता है। मुद्रित भाषा प्रयोग के लिए पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है जबकि श्रव्य भाषा के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं। मुद्रित भाषा का प्रयोग पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं आदि में होता है। इसमें अर्थ को बदल देने की काफी गंुजाइश होती है इसलिए विराम चिह्नों का व्यापक प्रयोग किया जाता है। मुद्रित रूप एक सीमा तक श्रव्य-मौखिक भाषा के प्रयोग में भी आ सकता है।
नई संचार क्रांति के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि हिंदी को जनसंचार की समर्थ भाषा के रूप में गठित किया गया है। टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने एक नई संचार भाषा को जन्म दिया है। आज जनसंचार में प्रयुक्त हिंदी के बारे में हम यह कह सकते हैं कि पत्रकारिता की हिंदी केवल संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं है बल्कि यह हिंदी कई भाषाओं के प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके व्यापक सर्वग्राह्यता प्राप्त कर चुकी है। आज की हिंदी प्राचीन रूप वाली पश्चिमी हिंदी या डिंगल-पिंगल वाली हिंदी नहीं और न ही मैथिल कोकिल विद्यापति वाली हिंदी है। वह केवल ब्रज एवं अवधी पर भी आश्रित नहीं है। बल्कि पत्रकारिता की हिंदी आज भारतीय भाषाओं के मेल तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों से भी शक्ति प्राप्त करती है। इस आधार पर ही हिंदी के चार रूपों की परिकल्पना तत्सम, तद्भव, देशज एवं विदेशी के रूप में की गई है। समाचारों में प्रयुक्त हिंदी समृद्ध हिंदी है तथा इसमें हिंदी के साथ अन्य भाषाओं के भी शब्दों का निःसंकोच प्रयोग किया जाता है जिससे इन भाषाओं के अंतःसंबंध का भी पता चलता है।
ध्यान देने की बात है कि पत्रकारिता का क्षेत्र अत्यंत विराट है अतः अलग-अलग विषयों के समाचारों के लिए अलग-अलग प्रकार की भाषा की जरूरत पड़ती है। इन भिन्न-भिन्न संदर्भों में संप्रेषण-प्रक्रिया के दौरान भाषा के प्रकार/भेद को ‘प्रयुक्ति‘ कहा गया है जिसमें वक्ता या संप्रेषक की भूमिका प्रतिबिंबित होती है। ग्रेगरी एवं कैरोल ने प्रयुक्ति को ऐसा सेतु कहा है जो भिन्न-भिन्न सामाजिक संदर्भों से भाषिक परिवर्तनों को जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण है। प्रयुक्ति को गतिशील सामाजिक पृष्ठभूमि पर भाषा-व्यवहार की अनुकूलित विशिष्टता कहा जा सकता है। विषयवस्तु, माध्यम तथा वक्ता-श्रोता संबंध के आधार पर प्रयुक्ति के स्वरूप का निर्धारण होता है। इन्हें वार्ता क्षेत्र, वार्ता-प्रकार एवं वार्ता-शैली के रूप में समझा जा सकता है।
हिंदी पत्रकारिता/समाचार की भाषा के विकास के संदर्भ में यह देखना रोचक होगा कि प्रारंभ में साहित्यिक एवं राजनीतिक पत्रकारिता एकाकार थी। गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन‘, बाबूराव विष्णुराव पराडकर आदि के लिए पत्रकारिता एक मिशन थी। हिंदी पत्रकारिता और भाषा के विकास में आर्यसमाज ने बड़ा योगदान दिया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिंदी-उर्दू की पत्रकारिता की भाषा निखरी। भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त, प्रेमचंद आदि ने पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया तथा हिंदी को गढ़ा।
स्वराज्य एवं स्वदेशी आंदोलन के क्रम में संचार माध्यमों में हिंदी-हिंदुस्तानी आयी। इसके लिए खड़ी बोली का आधार ग्रहण किया गया। स्वतंत्रतापूर्व राष्ट्रभाषा के क्षेत्र में हिंदी को ही सर्वाधिक महत्व प्राप्त था। दक्षिण और उत्तर-पूर्व भारत में अंग्रेज़ी के व्यापक वर्चस्व के बावजूद भारतीय भाषाएँ पत्रकारिता क्षेत्र में समर्थ होती गयीं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में प्रत्येक राज्य अपनी राजभाषा चुनने को स्वतंत्र है तथा संघ की राजभाषा हिंदी है। हिंदी को पूर्ण राष्ट्रभाषा के रूप में प्रसारित करने के लिए मानक हिंदी के लिए तरह-तरह के कोश बनाए गए हैं। राष्ट्रभाषा के रूप को निखारने के लिए तकनीकी शब्दावली कोश अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे विचार से भारत की बहुभाषिक वास्तविकता के संदर्भ में समाचार की हिंदी का आदर्श संविधान के अनुच्छेद-351 के अनुरूप रखा जा सकता है - ‘‘ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।‘‘
समाचारों की हिंदी के ऐसे स्वरूप के विकास में अनुवाद ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। विभिन्न भाषाओं के हिंदी अनुवाद ने जनसंचार माध्यम को बहुत प्रभावित किया है, इसमें संदेह नहीं। तथापि ध्यान रखने की बात है कि आधार रूप में जनसंचार में सामान्य भाषा का ही प्रयोग होता है। जनसंचार की भाषा शुद्ध अभिधा प्रधान, अलंकारादि से रहित, सीधी, सरल, स्पष्ट एवं एकार्थक होती है जबकि साहित्यिक, संवैधानिक, कार्यालयीन आदि क्षेत्रों की भाषा की विशेषताएँ इससे कुछ भिन्न होती हैं।
जैसा कि आप जानते हैं, समाचार पत्रों में स्थानीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाचार होते हैं जिनके अंतर्गत अनेक प्रकार की सूचनाएँ होती हैं। भाषण, वक्तव्य, विज्ञप्ति, आततायियों के कुकर्म, छेड़छाड़, मारपीट, पॉकेटमारी, चोरी, ठगी, छुरेबाजी, जुआ, हत्या, अपहरण, बलात्कार, जमीन-जायदाद के लिए परिवार के सदस्यों या संबंधियों के बीच फौजदारी, मुकदमेंबाजी, जातिवादी कलह-विद्वेष, रंगभेद, वर्णभेदजन्य अशांति, क्षेत्रीय-प्रांतीय झगड़े, आत्महत्या, विभिन्न आंदोलन, व्यवसाय, राजनीति, अतिवर्षण, अपवर्षण, स्वागत-विदाई, स्थानीय निकायों के समाचार, कार्यालयों से संबद्ध अनेक समस्याएँ, विवाह, यात्रा, मेले, पर्व-त्योहार, खेलकूद, वाणिज्य आदि समाचार के विभिन्न रूपों से भी आप परिचित हैं | कहने का अर्थ है कि समाचार पत्रों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक होता है। इसलिए समाचार के विविध शीर्षकों को ऐसी भाषा से सजाया जाता है कि पाठक का ध्यान सहसा उधर खिंच जाय। इस संदर्भ में विशेष बात यह है कि पत्रकारिता में हिंदी की सरलता ने सबको आकृष्ट किया है।
हिंदी के प्रयोजनमूलक रूपों का नयापन विविध प्रकार के समाचारों में देखने को मिलता है। इसके सार्वदेशिक प्रचार-प्रसार के लिए मानक हिंदी का प्रयोग आवश्यक है। मानक भाषा किसी देश अथवा राज्य की वह प्रतिनिधि अथवा आदर्श भाषा होती है जिसका प्रयोग वहाँ के शिक्षित वर्ग द्वारा अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, व्यापारिक, वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है। इसे विभिन्न तकनीकी क्षेत्रों की प्रयुक्ति के लिए सहज बनाने की खातिर ही पारिभाषिक शब्दावलियाँ हर एक विषय के लिए बनाई गई है जिनका उपयोग करके विभिन्न विषय क्षेत्रों से संबंधित रिपोर्टिंग की जा सकती है।
‘हिंदी पत्रकारिता की भाषा‘ पर विचार करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा है कि पत्रकारिता के उन विविध स्वरूपों को भी शैलीगत भेद तथा वस्तुनिष्ठता की दृष्टि से विवेचित करने की आवश्यकता है जो आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में उभर कर अपने अस्तित्व का बोध कराने लगे हैं जैसे, खेल पत्रकारिता, कृषि एवं ग्रामीण पत्रकारिता, विज्ञान पत्रकारिता, आर्थिक पत्रकारिता, राजनैतिक रिपोर्टिंग, संसदीय रिपोर्टिंग, सांस्कृतिक रिपोर्टिंग, अपराध रिपोर्टिंग, खोजी पत्रकारिता, पीत एवं सनसनी खेल पत्रकारिता आदि। इन सभी के भाषाई वैशिष्ट्य एवं भाषा भेद की पहचान ही हमें पत्रकारिता की हिंदी को संपूर्णता में आकलित, विवेचित एवं विश्लेषित करने की दृष्टि प्रदान कर सकती है। उन्होंने उदाहरणों सहित दिखाया है कि इन सभी प्रयोग-क्षेत्रों में पारिभाषिक शब्दावली की विविधता और प्रस्तुतीकरण का वैविध्य स्पष्ट झलकता है। इस प्रकार यदि पत्रकारिता की हिंदी को एक प्रयुक्ति (रजिस्टर) मानें तो उपर्युक्त विविध प्रकार की रिपोर्टिंग / समाचार लेखन में प्रयुक्त भाषा रूपों को उसकी उपप्रयुक्तियाँ (सब-रजिस्टर्स) माना जा सकता है।
इस प्रयुक्ति अर्थात पत्रकारिता की हिंदी में अनेक पारिभाषिक शब्द अंग्रेज़ी से गृहीत हैं - गेम, टीम, सर्विस, रिटर्न, इनिंग, स्क्रीन टेस्ट, बैरंग, कोटा, कर्फ्यू आदि। अनेक शब्दों का हिंदीकरण भी किया गया है - एकल मुकाबला, स्वप्नदृश्य, स्पर्धा, खिताब आदि। हिंदी के अपने शब्द भी स्थान बना रहे हैं - कीर्तिमान, सलामी बल्लेबाज, खब्बू गेंदबाज, टिकट खिड़की आदि। हिंदी रूप-परिवर्तन के स्वीकृत नियम अपनाए जा रहे हैं - गेमों, अंपायरी, कप्तानी, हाईकमान, दंगाई आदि। संकर रचना को प्रोत्साहित किया जा रहा हैं - विश्व चैंपियन, त्रिआयामी श्रृंखला आदि। हिंदी के अपने मुहावरों का विकास हो रहा है - तूफानी मुकाबला, पकड़ मज़बूत होना। विशेष बात यह है कि अनेक देशज और उर्दू शब्द हिंदी पत्रकारिता की भाषा में अपना स्थान बना रहे हैं - बरामद,हथकंडे, वारदात, घपला, गिरोह, भिड़ंत , घोटाला, फरार, घुसपैठ आदि।स्मरणीय है कि पत्रकारिता की भाषा मुख्यतः लिखित, सुविचारित और संपादित होती है। साथ ही, इसका तकनीकी या आधुनिक बनना भी विविध प्रयोजनमूलक वर्गों के लिए अपरिहार्य है। इतना ही नहीं, पत्रकारिता का सीधा संबंध ‘सर्जनात्मक साहित्य‘ के साथ भी है। इसलिए पत्रकारिता की भाषा एक साथ ‘पारिभाषिकता‘ और ‘सृजनात्मकता‘ दोनों को साधती चलती है। (प्रो. दिलीप सिंह, भारतीय भाषा पत्रकारिता, पृ.197-198)|
हमने पहले आपसे समाचारों की भाषा की सहजता और सुबोधता की चर्चा की है। इस संबंध में यह जान लें कि पत्रकारिता के प्रयोग-क्षेत्र की व्यापकता ही उसकी भाषा में विस्तार, प्रयोगधर्मिता, लचीलापन और बोधगम्यता ले आती है। यही कारण है कि पत्रकारिता/समाचार की भाषा एक विशिष्ट प्रयोग-क्षेत्र की भाषा सिद्ध होती है।
समाचार की भाषा को विषयानुकूल तो होना ही चाहिए, साथ ही अपने पाठक वर्ग की बौद्धिकता एवं ग्रहणशीलता की क्षमता के अनुरूप भी होना चाहिए। यही कारण है कि पत्रकारिता की हिंदी में शैली भेद को एक प्राकृतिक लक्षण की तरह अपनाया गया है तथा पाठक/श्रोता समुदाय के अनुरूप उच्च हिंदी, हिंदुस्तानी और मिश्रित हिंदी का प्रयोग समाचारों के भाषिक गठन में किया जाता है। हिंदी-उर्दू शैलियाँ आज के समाचारों की भाषा में एकाकार हो गई हैं। अनेक ऐसे शब्द हैं जो दोनों शैलियों के समाचारों में स्थान पा रहे हैं यथा - महज, जायज, फिलहाल, आखिरकार, बेशक, पुरजोर, मकसद, मसलन, लिहाजा, आतिशी। इसी प्रकार कुछ सहप्रयोग भी बहुप्रचलित हैं, यथा - सख्त उपाय, खर्च सीमा, मूल रकम, कानूनी समीकरण, मौजूदा अभियान, क्रिकेटिया खुमार, मेज़बान देश। इस क्रम में कुछ अभिव्यक्तियाँ भी समाचारों में ध्यान खींचती हैं - सख्ती से निबटा जाना चाहिए, यह कार्रवाई एक शानदार मिसाल बन सकती है, खास लोगों को अपना निशाना बनाया है, कमीशन के बतौर मिला धन, यही वहज है कि कानूनन चंदा जायज होने के बावजूद, रकम चेक के जरिए ही जमा की जानी चाहिए, सबका पर्दाफाश करने की ज़रूरत है, जायज खर्चों की सख्त जांच का पुख्ता इंतजाम होना चाहिए। - ये सभी शब्द, सहप्रयोग और अभिव्यक्तियाँ समाचारों की हिंदी को शैली वैविध्य प्रदान करते हैं।
यह भी ध्यान रखने की बात है कि पत्रकारिता का संपर्क जनता से होता है। यह संपर्क उसकी सोच और भाषा से भी होता है। इसलिए इस भाषारूप का जनमानस के अनुरूप होना बेहद ज़रूरी है । प्रो. दिलीप सिंह के अनुसार ‘‘हिंदी, उर्दू, क्षेत्रीय बोलियों की समग्रताबद्ध ताकत की पहचान ही हिंदी पत्रकारिता की भाषाई चेतना का केंद्रबिंदु है। आमफहम भाषा के निकट आती, परंपरागत प्रयोगों को नए संदर्भ देती, नवीन रचनाएँ करती, पत्रकारिता की हिंदी लोक-मानस के अनुकूल बनी है। अगड़ा, पिछड़ा, जत्था, विदेशी, निवेशक, नैतिक जिम्मेदारी जैसे अनेक नए प्रयोग देखते-देखते पत्रकारिता की हिंदी में स्थान पाते हैं और पाठकों में लोकप्रिय भी हो जाते हैं। भाषा का विकास परिवर्तनों के बीच ही होता है। नई घटनाओं, नई खोजों, सामाजिक-राजनैतिक फेरबदल आदि से पत्रकारिता सीधे संबद्ध होती हैं और इन्हें व्यक्त करने के लिए वह भाषा के तमाम स्रोतों को खंगालती है, शब्दों-अभिव्यक्तियों को नए संदर्भ देती है।‘‘ इस संदर्भ में उनके द्वारा उद्धृत कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ और शीर्ष पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं -
अभिव्यक्तियाँ : चुस्त क्षेत्ररक्षण, दमदार टीम, गेंदबाज़ी का विश्लेषण, सधा हुआ खेल, फिरकी गेंदबाज, शुरुआती ओवरों में, कमान संभाली है, टीम के सुर सध गए हैं, जीत का स्वाद चखना है, विकेट झटक सकते हैं, अंकुश लगाए रखते हैं धमाका कर दिया, पैसा डकार गए, लहर चल रही है, नकेल डाल दी, व्यवस्था की कलई खोलता है, सरकार ने रोड़ा लगा दिया, टीम बिखर चुकी है, अगली चाल को तौल रहे थे, सितारे बुलंद हैं। शीर्ष पंक्तियाँ : पते का पता, एक सीट का सवाल, समय से पहले चेते, आखिर ऊंट आया पहाड़ के नीचे खरी सुनाकर खोटे बने, रोजा गले पड़ा, डोर तनी पर टूटी नहीं, ओटन लगे कपास। (‘भारतीय भाषा पत्रकारिता‘, पृ.199)|
इस प्रकार आप देख सकते हैं कि समाचारों की भाषा में अनेक मुहावरेदार और काव्यात्मक प्रयोग आम-जीवन के सहज संदर्भों से जुडे़ हैं। इनसे पारिभाषिकता भी बोधगम्य बन जाती है। यह समाचार की हिंदी की बड़ी ताकत है। इसके अतिरिक्त आपने इस बात पर भी ध्यान दिया होगा कि समाचार-क्षेत्र में भाषा का आधुनिकीकरण किया गया है। संकरता, नए सहप्रयोग, लोक उन्मुखता और कोडमिश्रण के सहारे आधुनिक भाषारूप गढ़ा गया है। इस संदर्भ में कई बार लिप्यंतरण और दो पर्यायों के समानांतर प्रयोग की बात उठाई जाती है। यहाँ यह देखना चाहिए कि भंडारनायक-भंडारनायके, किसिंजर-किसिंगर, फर्नांडिस-फर्नेंडीस-फर्नाण्डीज़ अथवा गृह मंत्री-स्वराष्ट्र मंत्री, विदेश मंत्री-परराष्ट्र मंत्री, नागरिक उड्डयन मंत्री-नागर विमानन मंत्री के भेद से समाचार की संप्रेषणीयता में कोई बाधा नहीं आ रही है। इसलिए इन भेदों को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय पत्रकारिता की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं के संदर्भ में स्वीकार करना ही उचित है। दूसरी ओर भाषा की उन जटिलताओं और अस्पष्टताओं पर गहरी नजर रखने की जरूरत है जो अंग्रेजी अनुवाद के दुष्परिणामस्वरूप समाचारों की हिंदी की ‘आत्मीयता‘ को नुकसान पहुँचा रही हैं। भाषा का लक्ष्य-समुदाय के लिए ग्राह्य होना ही सफलता की कसौटी है। इस कसौटी पर हिंदी समाचारों की भाषा खरी उतरती है, इसमें दो राय नहीं।
[कलम्ब (उस्मानाबाद, महाराष्ट्र) में २३-२४ दिसंबर २०११ को होने वाली पत्रकारिता विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी के निमित्त]
3 टिप्पणियां:
आपके सातों सुझावों से पूर्णतया सहमत। भाषा सदा ही पहुँच में रहे और अपनी गरिमा भी बनाये रखे।
प्रयोजन मूलक भाषा और आम बोलचाल की भाषा का अंतर और उसके प्रयोग की सुंदर और सारगर्भित व्याख्या की गई है। इस संदर्भ में यह ध्यान रखना होगा कि अन्य भाषाओं के तकनीकी शब्द को अपनाया जाय। जैसे, आज कानून की भाषा में कई उर्दू और फ़ारसी के शब्द तकनीकी बन गए है॥
@प्रवीण पाण्डेय
बहुत सही संकेत किया आपने - भाषा पहुँच से निकल जाए तो वह भाषा ही कहाँ रहेगी. इसी प्रकार भाषाई अस्मिता के बिना समाज की गरिमा का कोई अर्थ नहीं रह जाता.
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