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मंगलवार, 29 मार्च 2011

शमशेर हिंदी और उर्दू दोनों के हैं - नामवर सिंह


शमशेर शताब्दी समारोह का उद्घाटन 30 मार्च को
प्रो.नामवर सिंह हैदराबाद पहुँचे
शमशेर हिंदी और उर्दू दोनों के हैं - नामवर सिंह

हैदराबाद, 29 मार्च, 2011। 

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में 30 और 31 मार्च को मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के गच्ची बावली स्थित आडिटोरियम में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी 'शमशेर शताब्दी समारोह' में शिरकत  करने और बीज व्याख्यान देने के सिलसिले में प्रसिद्ध समालोचक डॉ. नामवर सिंह आज दोपहर बाद हैदराबाद पहुँचे। समारोह का उद्घाटन 30 मार्च बुधवार को सबेरे 10 बजे 'मानू' के सी.पी.डी.यू.एम.टी. आडिटोरियम में होगा। इस संदर्भ में प्रो. नामवर सिंह ने एक भेंट के दौरान इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की कि हिंदी और उर्दू की दो बड़ी संस्थाएँ मिलकर शमशेर  जैसे एक ऐसे बड़े लेखक की जन्मशती मना रही हैं जिन्हें हिंदी और उर्दू दोनों में एक जैसी महारत हासिल थी। उन्होंने इस बात को बहुत महत्वपूर्ण माना कि यह आयोजन हैदराबाद शहर में हो रहा है जो गंगा जमुनी तहजीब का गढ़ है।  प्रो. नामवर सिंह ने एक बात यह कही कि शमशेर  को हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का साझा लेखक मानना चाहिए। प्रस्तुत हैं  प्रो. नामवर सिंह से इस संगोष्ठी के संबंध में हुई बातचीत के कुछ अंश : 
     


डॉ. नामवर सिंह - शमशेर  के बारे में हमारी जो जानकारी है उसके अनुसार वे मुजफ्फरनगर के रहने वाले थे। उन्होंने अपनी एक गज़ल में इसका उल्लेख भी किया है -


 'जी को लगती है, तेरी बात खरी है शायद/
वही शमशेर मुज़फ्फरनगरी है शायद'।

दरअसल शमशेर के पिता खुद उर्दू के आदमी थे। उनके मामा भी उर्दू में शेर कहते थे। इनका असर शमशेर  पर पड़ना स्वाभाविक था। अगर कहा जाए कि शमशेर की मादरी जबान उर्दू थी, तो कुछ ज्यादती न होगी। बाद में वे देहरादून चले गए। इसके बाद बच्चन उन्हें जब इलाहाबाद ले आए तो वहाँ नरेंद्र शर्मा, बच्चन और शमशेर साथ साथ हिंद होस्टल में रहा करते थे। नरेंद्र शर्मा और बच्चन के प्रभाव में शमशेर  भी हिंदी में कहने लगे, साहित्य सृजन करने लगे। पर उर्दू उनसे छूटी नहीं। सच तो यह है कि शमशेर आखिरी दम तक हिंदी और उर्दू दोनों जबानों में लिखते रहे।
            
यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि शमशेर  को हिंदी की अपेक्षा उर्दू लिपि में लिखने का अधिक अभ्यास था। यहाँ तक कि उनकी कई सारी हिंदी कविताएँ भी मूलतः उर्दू लिपि में लिखी गई हैं, क्योंकि शमशेर बहादुर सिंह ने नागरी लिपि बहुत देर से सीखी। बाद में जब उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए. करना शुरू किया जो अधूरा ही छूट गया तब उनका संपर्क अंग्रेजी साहित्य से भी हुआ। बच्चन और नरेंद्र शर्मा के साथ रहते समय ही शमशेर का परिचय प्रसिद्ध साम्यवादी विचारक पी.सी. जोशी से हुआ। उनके संपर्क का भी शमशेर  के चिंतन और लेखन पर असर दिखाई देता है।
            
शमशेर हमेशा  जिंदगी की जद्दोजहद में मशगूल रहे। उनकी पत्नी की काफी जल्दी मृत्यु हो गई थी। नौकरी भी कहीं उन्होंने  पूरी नहीं की। दिल्ली विश्वविद्यालय के ख्वाज़ा अहमद फारूखी ने उन्हें उर्दू-हिंदी डिक्शनरी  बनाने का काम सौंपा। इससे भी उनकी उर्दू पृष्ठभूमि की ही पुष्टि होती है। इस कार्य में शमशेर  चीफ थे और त्रिलोचन उनका सहयोग करते थे - खासकर हिंदी पर्याय मुहैया कराने में।
            
शमशेर बहादुर सिंह ने उर्दू से हिंदी में काफी अनुवाद कार्य भी किया। उनका किया सरशार का अनुवाद काफी लोकप्रिय हुआ। मुंबई में जब वे कम्युनिस्ट पार्टी में थे तो सज्जाद जहीर के साथ पार्टी के अखबार के उर्दू संस्करण के संपादन का भार उन पर था। कायदे से तो वे उर्दू के ही आदमी थे। मेरा खयाल है कि उनकी समग्र रचनावली छपेगी तो उसमें हिंदी और उर्दू दोनों की सामग्री बराबर रहेगी। उन्होंने आलोचना भी लिखी। खासतौर से 'दोआब' में हाली के मुसद्दस और मैथिलीशरण गुप्त के 'भारत भारती' की तुलना करते हुए उन्होंने जो तन्कीद की वह बेहद बेबाक है। इसमें दो राय नहीं कि जो हालत प्रेमचंद की है वही शमशेर  की भी है। ये दोनों ही साहित्यकार उर्दू से हिंदी में आए और दोनों ने ही अपने साहित्य द्वारा हिंदी को संपन्नतर बनाया। प्रेमचंद की तरह शमशेर  भी हिंदी और उर्दू दोनों के हैं, दोनों का उन पर हक है, जैसाकि अपनी एक कविता में वे कहते भी हैं -

''मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूँ/
मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं।'' 

ऐसे साहित्यकार को हैदराबाद जैसे गंगा-जमुनी तहजीब वाले शहर में हिंदी और उर्दू की दो बड़ी संस्थाओं के तत्वावधान में उनकी शताब्दी के अवसर पर समारोहपूर्वक याद किया जाना सर्वथा उचित और प्रासंगिक है। मैं इस दोदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की सफलता के लिए दोनों संस्थाओं को शुभकामना देता हूँ और आंध्र प्रदेश के हिंदी-उर्दू साहित्य प्रेमियों को इस आयोजन पर बधाई भी।


4 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

सही कहा नामवर जी ने। आखिर हिंदी और उर्दू तो दो फिरकों में बांटी गई एक ज़बान है जिसे लिपि के माध्यम से अलग किया गया है। यदि लिपि एक हो जाए तो हिंदी और उर्दू के जानकार उस भाषा को सरलता से समझ सकते हैं। इसी प्रकार हम फ़ैज़ और इकबाल को भी भारतीय ही तो मानते हैं क्योंकि वे इस पुण्यभूमि की ही संतान थे। एक अदृश्य लकीर ने हमें दो में बांट दिया है॥

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अभी उन्हें पढ़ना है, साथ में उर्दू भी।

Kamal ने कहा…

Shamsher jee ke kavitw par vistrit prakaash daalte hue aadarneey Namwar jee ka hardik dhanywaad !
kamal

बलराम अग्रवाल ने कहा…

जी को लगती है, तेरी बात खरी है शायद।
वही शमशेर मुज़फ्फरनगरी है शायद।।
नामवर जी कुछ नया खोदकर न लाएँ, यह हो नहीं सकता। ॠषभ जी, आपको बधाई।