अनंत काबरा के कविता संग्रह 'कुछ संसद से'* (1986) में उनकी 207 जनपक्षीय कविताएँ संकलित हैं। कवि के इस कथन की सच्चाई पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता कि ये कविताएँ सत्य के धरातल पर जनता और सरकार से साक्षात्कार है। इन कविताओं की प्रासंगिकता का आधार आज भी नहीं बदला है, बल्कि समय के साथ-साथ इनकी समकालीनता और अधिक पुख्ता हुई है। जिन आदर्शों, स्वप्नों और आकांक्षाओं को लेकर भारतीय जनता ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, स्वराज्य हासिल किया था और संविधान में आस्था व्यक्त की थी, स्वतंत्र भारत में उन सबका एक-एक कर धराशायी होना आज भी जारी है। ऐसी स्थिति में यह लगना स्वाभाविक है कि भारत में लोकतंत्र या तो असफल हो चुका है या असफल होने की प्रक्रिया में है। यह स्थिति किसी भी संवेदनशील कवि को सीधे-सीधे संसद से मुखातिब होने को पे्ररित कर सकती है क्योंकि लोकतंत्र में संसद ही जनता के अधिकारों की संरक्षक होती है; तथा जनता के प्रति जवाबदेह भी। यही कारण है कि 'कुछ संसद से' को कवि ने जनविद्रोह का खुला दस्तावेज कहा है। भारतीय समाज में आज साधारण आदमी दुःस्थितियों को भुगतने और झेलने के लिए अभिशप्त है जबकि सुविधासंपन्न वर्ग प्रशासन की मिलीभगत से जनता को नोचनोचकर खा रहा है और राजनीति से जुड़ी ताकतें लोकतंत्र के नाम पर अपने परिवारों का पोषण कर रही हैं। इस भयावह वर्तमान की अभेद्यता को जानते हुए भी कविता हताश नहीं होती। लोकतांत्रिक मूल्यों की अंतिम विजय में अभी कविता का विश्वास मरा नहीं है इसलिए वह कल्याणकारी राज्य का स्वप्नचित्र बनाती है। कहीं उसमें सामाजिक जीवन का रुदन है तो कहीं आक्रोश और आक्रमण। रोटी और कुर्सी के जिस द्वंद्व में हमारा लोकतंत्र खो गया है ये कविताएँ उसे भी चीन्ह्ती हैं और आश्वस्त करती हैं कि अपने जुझारूपन के कारण कल आमआदमी अकेला नहीं रहेगा। उसके साथ ऐसे भूखे नंगों का काफिला होगा जो परिवर्तन की दिशा में परेड करते हुए बढ़ रहे होंगे। यह आमआदमी कवि के शब्दों में संसद के सामने रोता है, बिलखता है, सिसकियाँ भरता है, कभी बौखला जाता है तो कभी उसकी तड़प, कसक, गिड़गिड़ाहट क्रांति का संकेत भी देती है। इसलिए कुल मिलाकर इस संग्रह की कविताएँ आमआदमी की ओर से संसद की प्रासंगिकता को लेकर दिया गया हलफिया बयान है। इस बयान में संसद से देश की अपेक्षाएँ शामिल हैं, लोकतंत्र की असफलताएँ वर्णित हैं, संविधान के साथ जनप्रतिनिधियों के खिलवाड़ का खुलासा है, नेता और चुनावतंत्र के अपराधीकरण की स्वीकृत है, जनता के दमन का चित्रण है, जनाक्रोश का उफान है, सांप्रदायिकता और आतंक की विभीषिका है, पुलिस और प्रशासन पर व्यंग्य है और स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न है। 'कुछ संसद से' में साधारण जनता ऐसी राजनैतिक परिपक्वता को प्राप्त करती दिखाई देती है जिससे कि वह संसद में बैठकर संविधान का चीरहरण करने वाले नेताओं को चेताने की मुद्रा धारण कर लेती हैं। उसमें वह आत्मविश्वास आ गया है जो क्रांतिकारी परिवर्तन का आधार होता है - ''हम अपनी पक्की बुनियाद पर बिछाये हुए हैं स्वप्न इतिहास से अब मात्र अतीत का संबंध है भावी रिश्ता नहीं उसकी दहशत को मिटा देंगे हम अब चूँकि अब सामर्थ्य आ चुकी हममें इसलिए खादीधारियों सचेत हो हम बोलेंगे अब खोलेंगे राज को छिपाए हैं अब तक अब कल से मौन हैं ना हम।'' यह जगी हुई जनता समझ चुकी है कि संसद में बैठे हुए लोग अपनी व्यक्तिगत वासनाओं की पूर्ति में इस तरह संलिप्त हैं कि उनके कानों तक जनता की आवाज पहुँचकर भी नहीं पहुँचती और संसद रूपी ताजमहल की दीवारों से टकराकर प्रतिध्वनित भर हो पाती है, उसे लगता है कि स्वार्थी राजनेताओं ने संसद का उपयोग जनता के शोषण और दमन द्वारा नई तरह के साम्राज्य की स्थापना के लिए किया है। इसलिए वह भी और अधिक देर तक मूक दर्शक बनकर नहीं रह सकती। उसे क्रांतिकारी संघर्ष में कूदना ही पड़ेगा। इसी बिंदु पर वह कवि से आदर्श राज्य का स्वप्न माँगती है - ''हे कवि! मुझे तुम कल्पना का साम्राज्य दो जहाँ मैं सुखद स्वप्न का निर्माण कर सकूँxxx भले ही भारतवासियों का जीवन यथार्थ उतना सुखद न हो@परंतु आदर्श तो सुखमय है।'' यहाँ आकर कवि, कविता और जनता का त्रैत मिट जाता है, तीनों जैसे एक हो जाते हैं क्योंकि 'आज का मुख्य व्यवसाय राजनीति, भ्रष्ट राजनीति, कुटिल नीति, अविश्वासपूर्ण, अश्लील, छिछली, घिनौनी, जनता के सुख संबंधी प्रश्नों के प्रति आज तक अनजान है और संसद मौन है!' सर्वत्र त्राहि-त्राहि है, आतंक और हिंसा है, मानवता सलाखों में बंद है और पुलिस रक्षक के बजाय या तो दर्शक है या भक्षक। ऐसे भूखे भेड़ियों की बरात संसद से लेकर सड़कों तक उतर आई है जो ''सभी खा जाएँगे भारत को/भारत की जनता को/चूँकि यहाँ की/अंधी, गूँगी, भूखी, नंगी और गुमराह जनता/जानती है केवल/भेड़ों की अंधी चाल।'' ऐसे में कविता चीखकर संसद से कहती है - ''संसद प्रशासन से कह दो वे डाकुओं के लिए नहीं बल्कि नेताओं के सिर पर इनाम रखें।'' पिछले कई दशक से तरह-तरह की हिंसा भारतीय समाज को राहु-केतु बनकर ग्रस रही है। 'कुछ संसद से' का कवि इस समस्या के मूल की पहचान कराता है। नेताओं ने बेरोजगारी और गरीबी को मिटाने के स्थान पर गरीबों को ही मिटा डालने का जो अभियान पूँजीपतियों और पुलिस के सहयोग से चला रखा है उसने वर्ग भेद को इतना बढ़ा दिया है कि गरीबों के सामने हथियार उठाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा। परंतु किसान-मजदूरों के हक की इस लड़ाई को व्यवस्था ने उग्रवाद और आतंकवाद जैसे नाम देकर सरकारपोषित आतंक का नंगा नाच शुरू कर दिया जिसके कारण यह समस्या विकट से विकटतर होती चली गई तथा अधिकारों का संघर्ष राह से भटककर हथियार बेचनेवालों का संघर्ष बन गया। कविता को यह खबर है कि संसद को भी यह खबर है कि भोले भाले किसानों, मजदूरों, बेरोजगागों के हाथों में जानलेवा हथियार और विषैला धुआँ थमाने वाले कौन हैं लेकिन संसद भी कुछ बोलती नहीं - ''क्योंकि खुद उसकी जुबान कटी हुई है यही कारण है कि आज हर कोई संदेह के घेरे में हैं मानो सारे देश की जनता अब जनता नहीं तस्कर हो चुकी है।'' न्यायपालिका और प्रेस भी इस मामले में बरी नहीं हैं। कोई इस बात पर ध्यान नहीं देता कि जब तक सामाजिक और आर्थिक असमानता नहीं मिटेगी तब तक विद्रोह की नाभि को सुखाना संभव नहीं लेकिन व्यवस्था स्वयं ही विद्रोह की नाभि को सींच रही है विषमता को जीवित रखकर - ''क्षेत्रीय पिछड़ापन शोषित देहों को माना गया है उनके करार में अलगाववादी और सांप्रदायिक वे हरिजन और आदिवासी जो जोतते हैं खेतों को पालते हैं दूसरों के पेटों को सूँचते हैं गंदगी को वे मूल प्राणी झेलते अपने पर सूखा, भुखमरी और प्राकृतिक प्रकोपों को वे भी लिप्त हैं प्रशासन के अत्याचारों में उनकी जमीनें हड़प ली गई बैल मार दिए गए हल जला दिये गए बीवी बच्चों की हत्या कर उन्हें छोड़ा गया अकेले में सर पीटने के लिए।'' विषमता के ऐसे वातावरण में 'लहू चूसनेवाले नेता मुर्दों को भी नोचते हैं' और देश की कंुडली पर पद्मासन जमाकर इस तरह बैठ जाते हैं कि मानो यह लोकतंत्र उनका खानदानी शासन हो। इसके लिए वे संविधान के साथ छेड़छाड़ ही नहीं सामूहिक बलात्कार तक करने से बाज़ नहीं आते। खादी के श्वेत कपड़ों में लिपटे नेताओं की पोशाक मासूम जनता के खून के धब्बों से सनी होकर भी साफ सुथरी दिखाई पड़ती है जबकि उनके ''चाँदनी से कुर्ते के पीछे छिपे हैं/हत्याओं के शिला लेख।'' कविता का यह प्रश्न बहुत स्वाभाविक है कि देशभर में जो किसान आत्महत्या करते हैं, क्या राजनेता ही उनके वास्तविक हत्यारे नहीं है क्योंकि- ''रोटी के निवाले को तरसते भूखे प्राणी देश की भोली जनता तन के कपड़ों की चिन्ता से दूर काट डालते हैं अपने ही अंग पेट की तड़पाती आग में झुलसते वो नोंचते हैं अपने ही अंगों को।'' स्पष्ट है कि 'कुछ संसद से' के कवि ने लोकतंत्र की विफलता और लोक की विकलता को अत्यंत खुरदरे और अक्खड़ अंदाज में खोलकर सामने रखने में सफलता प्राप्त की है। ''चीखता है संविधान/ गला घुट रहा है/स्वतंत्रता और निष्पक्षता का |''ये कविताएँ घोंटे जाते हुए गले की इस चीख को संसद के कानों तक पहुँचाना चाहती हैं और उस सडांध को निरावरण कर देना चाहती हैं जो लोकतंत्र की आत्मा के सड़ने से उठ रही है - ''राजनीति की विकृत देह से बीमार कोख से सामूहिक बलात्कारों से जन्मा आतंकवाद- दहशत के पिंजरे में कैद कर चुका है लोकतंत्र की आत्मा वो सड़ रही हैं वहाँ चिथड़े कपड़ों में झेलती है प्रसव पीड़ा उसकी आँखों में तैरता है अविश्वास, आतंक और बेचैनी उसे दिखता है स्पष्ट नश्वर बस्ती का सन्नाटा।'' अंततः इसमें संदेह नहीं कि वस्तु, प्रतीक और बिंब के स्तर पर पुनरावृत्ति, वक्तव्य की प्रधानता, शैली की अखबारी रिपोर्ताजग्रस्तता और सनसनीप्रियता के बावजूद 'कुछ संसद से' की कविताएँ स्वातंत्र्योत्तर काल में भारतीय जनगण के सपनों के टूटने से पैदा हुई पीड़ा, यातना, खीझ और चीख को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं जिसे निश्चय ही समकालीन कविता की महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है। -------------------- *कुछ संसद से/अनंत काबरा/1986 (प्रथम संस्करण)/तक्षशिला प्रकाशन, 23/4762 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110 002 |
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मंगलवार, 4 अगस्त 2009
नश्वर बस्ती का सन्नाटा : 'कुछ संसद से'*
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2 टिप्पणियां:
"रोटी और कुर्सी के जिस द्वंद्व में हमारा लोकतंत्र खो गया है ये कविताएँ उसे भी चीन्ह्ती हैं और आश्वस्त करती हैं कि अपने जुझारूपन के कारण कल आमआदमी अकेला नहीं रहेगा।" लेकिन लगभग २५ वर्ष बाद भी स्थिति यथावत बनी हुई है!!
स्थितियाँ यथावत नहीं बदतर हैं, इसलिए आप जैसे इन्हें पहचानने वालों की जिम्मेदारी और बढ़ गई है.
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