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रविवार, 2 अगस्त 2009

वह लेख मेरा नहीं है





कल ''परमिता'' [त्रैमासिक शोध पत्रिका/वाराणसी] का जुलाई-सितंबर २००९ का अंक मिला तो मैं यह देखकर चौंक उठा कि इसमें मेरे नाम से ''अनुवादक का संकट'' शीर्षक एक लेख छपा है. अंत में मेरा कार्यालयीय पता भी दिया गया है.मैंने प्रधान संपादक डॉ. शशांक शुक्ला का ध्यान तुंरत इस घपले की ओर दिलाया और बताया कि वह लेख मेरा नहीं है.वे भी चौंक पड़े कि यह गलती कैसे हो गई. खंडन छापने का आश्वासन उन्होंने दिया है,पर इस गड़बड़ से विचलित मैं भी हूँ और वे भी.


मैं व्यक्तिगत रूप से पाठकों और लेख के वास्तविक लेखक से क्षमाप्रार्थी हूँ और किसी और के लेख को अपने नाम से छपवाने का दोषी नहीं हूँ.

दरअसल इस लेख को उद्धृत करते हुए ''ऋषभ उवाच'' पर कुछ समय पूर्व चर्चा/बहस चलाई गई थी जिसमें अपना मत व्यक्त करने के लिए संपर्क-सूत्र 'परमिता' सहित अनेक परिचितों को भेजा गया था तथा प्राप्त विचारों को ऋषभ उवाच पर विधिवत प्रकाशित किया गया था. जाने कैसे 'परमिता' ने किस भ्रांतिवश उस चर्चित आलेख को मेरा आलेख मानकर प्रकाशित कर दिया.

इस अवांछित स्थिति से मैं सचमुच दुखी और खिन्न हूँ.

2 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

संभव है संपादक से भूल वश ऐसा हुआ हो।आप ने तो अपना फर्ज निभा दिया इस भूल को बता कर।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

शायद कोई गलतफ़हमी के कारण ऐसा हुआ होगा। शायद अगले अंक में भूल-सुधार भी छप जाए। आप की ओर से तो बात साफ़ हो गई।