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बुधवार, 13 मई 2009

अनुवादक का संकट : मातृभाषा बनाम सीखी हुई भाषा









३ मई ०९ को प्रतिष्ठित अनुवादक शांता सुन्दरी जी ने लिखा:

आदरणीय शर्मा जी,
आशा करती हूँ कि आप कुशलपूर्वक होंगे.
अप्रैल -मई का 'समकालीन भारतीय साहित्य ' अंक क्या आपने देखा है? अगर नहीं देखा हो तो मैं आपकी दृष्टि को उसमे छपे एक आलेख की ओर आकृष्ट करना चाहती हूँ.उस आलेख को अटैचमेंट मे भेज रही हूँ.पढने के बाद जब भी समय मिले उत्तर मेल द्वारा देंगे तो आभार मानूँगी .
धन्यवाद ,
शांता सुंदरी .

इसका पूरक सन्देश भी उसी दिन प्राप्त हुआ :

मान्य शर्मा जी,
यह बड़े अफ़सोस की बात है कि हमारे ही साथी अनुवादक और तेलुगु भाषी ने इस तरह का लेख लिखा है.यह मै पिछले मेल में रेखांकित करना भूल गयी .
समकालीन....को भी इस प्रकार के आलेखों को सोच समझ कर छापना चाहिए था.
अभिवादनों के साथ...शांता सुंदरी

तीन मई को ही संलग्न सामग्री पर मैंने अपनी राय भेजी:

आदरणीया ,
आपके दोनों मेल्स मिले. कृतज्ञ हूँ.

ज ल रेड्डी जी ने मुद्दे तो काम के उठाए हैं और व र रेड्डी जैसे वरिष्ठ अनुवादक एवं भाषाविद के पाठ को तनिक कडाई के साथ देखा जाना चाहिए ---यह तो मैं भी मानता हूँ. लेकिन इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यह दो वरिष्ठ अनुवादकों की आपसी खुन्नस का परिणाम हो!

मैं समझता हूँ कि ऐसे विषय को लिखते-छापते समय यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि कहीं इससे हिंदी में काम करने वाले अन्य लेखक -अनुवादक हतोत्साहित तो नहीं होंगे. यदि वैसा हुआ तो यह हिंदी को नुकसान पहुंचाने जैसा होगा .....जिससे बचा जाना चाहिए.

आपने इस बहाने मुझे याद किया ......यह मेरा सौभाग्य है. परिवार में सबको यथायोग्य स्मरण एवं प्रणाम .

स्नेहाधीन
ऋ .
सादर आपका ..

उसी दिन शांता सुन्दरी जी से यह उत्तर मिला :
आदरणीय शर्मा जी ,
नमस्कार .

तुंरत मेल का उत्तर देने के लिए धन्यवाद.
कभी मिले तो इस आलेख के बारे में मै आपसे और भी कुछ बातें करना चाहूंगी .
आपको तो लगभग हर हफ्ते ...स्वतंत्र वार्ता के माध्यम से ...याद करती हूँ . आप जो लिखते हैं वह समीक्षा कहलाती है .ज .ल रेड्डी के एकतरफा 'विद्वेष ' से भरे मूल्यांकन को मै समीक्षा मानती नहीं .

और एक बात...भाषा को...चाहे सीखी हूई भाषा हो या मातृभाषा हो ...निरंतर परिष्कृत करते ही रहना पड़ता है ....यह मेरा मानना है.मातृभाषा में भी लोग गलतियाँ कर बैठते है .

खैर ...अब इस बहस को यहीं समाप्त करती हूँ .सलीम जी की किताब के अनुवाद के लिए मुझे राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा जो पुरस्कार मिला उसे लेने मै १८ को दिल्ली जा रही हूँ .२१ को पुरस्कार वितरण समारोह होगा .फिर २५ को मै वापस हैदराबाद आ जाऊंगी .

फिर एक बार मेल के लिए धन्यवाद...
शुभकामनाओं के साथ...
-शांता सुंदरी

शांता सुंदरी जी ने तो अपनी ओर से बहस बंद कर दी. और मुझे बहस करनी आती नहीं . लेकिन कई अन्य मित्रों ने इस बीच संदर्भित आलेख की चर्चा उठाई तो १३ मई को मैंने कुछ और मित्रों को अवलोकनार्थ वह आलेख यह लिख कर भेजा :

शांता सुंदरी जी के सौजन्य से प्राप्त ''समकालीन भारतीय साहित्य'' में प्रकाशित यह आलेख अनुवाद के संकट के बारे में कई सवाल उठाता है . कृपया देखें.

देखा तो कयों ने होगा. मन में प्रतिक्रिया भी उठी होगी.
लेकिन दो विद्वानों ने तुंरत लिखित टिप्पणीभेजी.१३ मई को प्रो.एम.वेंकटेश्वर ने लिखा :

Adaraneey Rishabhadev ji

I am thankful to you for sending a very valuable article by JL Reddy ( Anuvwad ). I am immensely impressed by the factual analysis done be the Mr Reddy, of two of the translations of Mahamahim Vijaya Raghav Reddy ji.

In fact I have been always saying this to many people and specially to you, I have expressed my anguish on the same lines, just as JLREDDY has written.. These are exactly my views, written by another person. If I were to write/evaluate the translation works of so called Telugu great translators, who have been receiving awards ) on the basis of their defective translations.Vetting is essential, which is always ignored. Creativity is essential quality, which people do not agree.Evaluation of translation is mandatory.

At the end I am thankful to you for this intellectual interaction.

With good wishes,
Yrs
-M Venkateshwar

इसी प्रकार डॉ.सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने अपने मेल द्बारा निम्नलिखित विचार व्यक्त किये :

आदरणीय शर्मा जी,
नमस्कार.

आलेख पढ़ लिया .
कुछ बातें कड़वी ज़रूर हैं पर सही हैं . लेकिन एक सवाल उठता है कि क्या सीखी गई भाषा में सफल अनुवाद नहीं किया जा सकता. मैक्समूलर की मातृ भाषा इंग्लिश नहीं थी . गिरीश कर्नाड की मातृ भाषा कोंकणी थी पर उन्होंने अनुवाद तो छोडिये कन्नड़ में सृजनात्मक लेखन तक किया है . संस्कार के लेखक कन्नड़ भाषी हैं पर एक सफल अनुवादक भी हैं .

निष्कर्ष यह है कि कोई भी भाषा जो अच्छी प्रकार से सीखी गई है में अनुवाद हो सकता है . यह मेरा मत है . इस पर बहस की पूरी गुन्जाइश है .

धन्यवाद
चतुर्वेदी

चर्चा आगे भी चलती रह सकती है.

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

जिस प्रकार लेखक को लेखन की आज़ादी होती है, उसी प्रकार उस लेखन पर समीक्षक/आलोचक को अपना मत जताने की भी आज़ादी होती है। तभी तो अदना सा लेखक महान बन जाता है और अच्छा लेखक भी दब जाता है। रही बात अनुवाद की, यह सही है कि जैसा बच्चन जी चाहते थे कि अनुवादक अपनी मातृभाषा में अनुवाद करे तो वह स्तरीय हो सकता है। लक्ष्य भाषा की आत्मा को पकडना भी अनुवादक का कर्तव्य है। अनुवादक अपनी मातृभाषा से इतर भाषा में अनुवाद कर रहा हो तो अच्छा हो कि प्रो. वेंकटेश्वर जी की राय पर चले और अपना अनुवाद किसी उस मातृभाषा के विद्वान से vetting करा लें। पर इसके लिए शायद उसे कुछ खर्च भी करना पडेगा - पर यह मानसिकता बनी हुई हो कि सब हम लें और आप काम करें तो अनुवाद के स्तर से compromise करना ही पडे़गा। क्या यह compromise उच्चित है, इस पर बहस हो सकती है।