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बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

भक्तिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ : राम भक्ति काव्य परंपरा

भक्तिकाल में सगुणमार्गीय कवियों का एक वर्ग रामभक्ति काव्यधारा के रूप में माना जाता है। इसमें सगुण भक्ति के आलंबन के रूप में विष्णु के अवतार राम की प्रतिष्ठा है। यहाँ ‘राम’ का अर्थ परब्रह्म या ऐसी परम शक्ति है जिसमें सभी देवता रमण करें। बाद में यह ‘दशरथपुत्र राम’ का वाचक बन गया। राम उत्तरवैदिक काल के दिव्य महापुरुष माने जाते हैं। राम कथा विषयक गाथाएँ कब से रची जाती रही हैं, यह कहना कठिन है। फिर भी पश्चिमी विद्वानों का अनुमान है कि वाल्मीकि ने आदिकाव्य ‘रामायण’ की रचना ग्यारहवीं शती ईसा पूर्व से तीसरी शती ईसा पूर्व के बीच कभी की होगी, जिसमें मौखिक रूप में प्रचलन के कारण बहुत सा परिवर्तन और परिवर्धन हुआ। वाल्मीकि ने रामकथा को ऐसा मार्मिक रूप प्रदान किया कि वह जनता और कवियों दोनों में समान रूप से आकर्षक और लोकप्रिय बन गई। विविध देशी-विदेशी भाषाओं में रामकाव्य की लंबी परंपरा है। ईस्वी सन के प्रारंभ से राम को विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकृति मिलनी शुरू हुई, परंतु भक्ति के क्षेत्र में राम की प्रतिष्ठा विशेष रूप से ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास मानी जाती है। तमिल आलवारों की भक्ति रचनाओं में राम का निरंतर उल्लेख प्राप्त होता है। नौवीं शताब्दी के कुलशेखर आलवार के पदों में प्रौढ़ रामभक्ति अंकित है। ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर रामभक्ति संबंधी काव्य रचनाओं की संख्या बढ्ने लगी। पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर राष्ट्रीय, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों में राम का लोकरक्षक रूप इतना अधिक प्रासंगिक सिद्ध हुआ कि तब से समस्त राम काव्य भक्तिभाव से ओतप्रोत होने लगा। यहाँ तक कि रामकथा की लोकप्रियता के कारण निर्गुण संत कवियों को भी ‘राम-नाम’ का सहारा लेना पड़ा। फादर कामिल बुल्के का मत है कि “हिंदी साहित्य के आदिकाल में रामानंद ने उत्तर भारत में जनसाधारण की भाषा में रामभक्ति का प्रचार किया था। इसके फलस्वरूप हिंदी राम साहित्य, आधुनिक काल को छोडकर प्रायः भक्ति भावना से ओतप्रोत है। इस साहित्य की चार प्रमुखताएँ प्रतीत होती हैं – (1) तुलसीदास का एकाधिपत्य, (2) लोकसंग्रही दास्य भक्ति का प्राधान्य, (3) कृष्ण काव्य का प्रभाव और (4) विविध रचना शैलियों, छंदों और साहित्यिक भाषाओं का प्रयोग। 

तुलसीदास से पहले रामकाव्य के अंतर्गत रामानंद के कुछ पदों के अतिरिक्त ‘पृथ्वीराज रासो’ के रामकथा विषयक 48 छंदों, ‘सूरसागर’ के रामकथा संबंधी 150 पदों और ईश्वरदास रचित ‘रामजन्म’, ‘अंगद पैज’ तथा ‘भरत मिलाप’ का उल्लेख करना आवश्यक है। तुलसी के समकालीन कवियों में अग्रदास (पदावली, ध्यान मंजरी) और नाभादास (रामचरित के पद) का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी प्रकार मुनिलाल (रामप्रकाश), केशवदास (रामचंद्रिका), सोठी महरबान (आदि रामायण), प्राणचंद, हृदयराम (हनुमन्नाटक), रामानंद (लक्ष्मणायन) और माधवदास (रामरासो) भी तुलसी के समकालीन अन्य राम साहित्य के उन्नायक है। तुलसी के बाद प्राणचंद चौहान (रामायण महानाटक), लालदास (अवध विलास), सेनापति (कवित्त रत्नाकर) और नरहरिदास (अवतार चरित) का इस परंपरा में उल्लेख किया जा सकता है। 

गोस्वामी तुलसीदास (1532-1623) सही अर्थों में मध्यकाल में भारतवर्ष के ‘लोकनायक’ हैं। इनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली आदि सम्मिलित हैं। इनका ‘रामचरितमानस’ साहित्य, भक्ति और लोकसंग्रह की अनुपम कृति है। इसकी रचना को उत्तर भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास में मध्यकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना माना गया है। 

‘रामचरित मानस’ में शास्त्रीयता को लोकग्राही बनाने की प्रक्रिया द्रष्टव्य है। तुलसी ने ‘स्वांतः सुखाय’ काव्य रचना करते हुए ‘सब कहँ हित’ को भी साधा। वे राजनैतिक-सामाजिक संदर्भों में विदेशी आक्रमण और सांस्कृतिक संक्रमण के दौर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप में एक सक्रिय प्रतिरोध की रचना करते हैं और उसे लोकरक्षण से जोड़ते हैं। साथ ही एक साधक के रूप में अपने अहं के विस्फोट से बचने के लिए राम के भरोसे अपने आत्मसंघर्ष से पार पाते हैं। उनका काव्य ‘विरुद्धों का सामंजस्य” का सर्वोत्तम उदाहरण है। समन्वय भावना के कारण ही उन्हें ‘लोकनायकत्व’ प्राप्त हैं। वे भारतीय लोक के कवि हैं तथा गृहस्थ-जीवन और आत्म-निवेदन जैसे दो अनुभव-क्षेत्रों के सिरमौर हैं, इसलिए भारतीय मानस के सर्वाधिक निकट हैं। सामाजिकता और वैयक्तिकता का अद्भुत संतुलन उनके काव्य के लोकपक्ष और साधनापक्ष को पुष्ट करता है। इस संदर्भ में कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं – 
राम की सर्वव्यापकता : 

निगम अगम, साहब सुगम, राम साचिली चाह। 
अंबु असन अवलोकियत सुलभ सबहिं जग माँह।। 

समन्वय भावना : 

"भारत का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो। भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार-विचार और पद्धतियाँ प्रचलित हैं। तुलसीदास स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे। उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। उसमें केवल लोक और शास्त्र का ही समन्वय नहीं है – गार्हस्थ और वैराग्य का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का, भावावेश और अनासक्त चिंतन का समन्वय ‘रामचरितमानस’ के आदि से अंत तक दो छोरों तक जाने वाली पराकोटियों को मिलाने का प्रयत्न है।" (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)। 

सामाजिकता : 

सब नर करहिं परस्पर प्रीती। 
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।। 

राजनैतिक चेतना : 

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। 
तो नृप अवसि नरक अधिकारी।। 

काव्य भाषा की मौलिकता : 

"उनकी भाषा में भी एक समन्वय की चेष्टा है। तुलसीदास की भाषा जितनी ही लौकिक है, उतनी ही शास्त्रीय। तुलसीदास के पहले किसी ने इतनी परिमार्जित भाषा का उपयोग नहीं किया था। काव्योपयोगी भाषा लिखने में तुलसीदास कमाल करते हैं। उनकी ‘विनय पत्रिका’ में भाषा का जैसा जोरदार प्रवाह है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जहाँ भाषा साधारण और लौकिक होती है वहाँ तुलसीदास की उक्तियाँ तीर की तरह चुभ जाती है और जहाँ शास्त्रीय और गंभीर होती हैं वहाँ पाठक का मन चील की तरह मंडरा कर प्रतिपाद्य सिद्धांत को ग्रहण कर उड़ जाता है।" (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)। 

संत कवियों की साखियों और पदों, जायसी के ‘पद्मावत’, सूरदास के सरस पदों के संग्रह ‘सूरसागर’ और गोस्वामी तुलसीदास की अन्यतम कृति ‘रामचरितमानस’ हिंदी साहित्य को भक्ति काल की महान देन हैं। इस काव्य ने ज्ञान और भक्ति के संदेश द्वारा मध्यकाल में सामाजिक मनोबल का निर्माण करके भारतीय अस्मिता को नवीन परिभाषा से महिमा मंडित किया। मनुष्य और मनुष्य की समानता, ईश्वर की सर्वापरिता, पाखंड के खंडन, आध्यात्मिक प्रेम में संपूर्ण समर्पण भाव, मानवतावाद, पारिवारिक और सामाजिक आदर्शों की स्थापना, लोक मर्यादा की स्थापना, मनुष्य की रागात्मक वृत्ति के परिष्कार और विभिन्न काव्यविधाओं और काव्यभाषा के निरंतर विकास की दृष्टि से भक्ति काल की उपलब्धियाँ अनेकविध और बहुआयामी हैं। इसे उचित ही ‘हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग’ माना गया है।

भक्तिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ : कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा

सगुणमार्गीय भक्तिकाव्य में कृष्ण को आराध्य मानने वाले कवियों ने कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा का विकास किया। भारतीय संस्कृति में कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यंत विलक्षण माना जाता है। ऋग्वेद, उपनिषद, महाभारत तथा हरिवंश, विष्णु, भागवत, ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में उपलब्धता के साथ-साथ यह विश्वास किया जाता है कि कृष्ण की कथा मौखिक रूप में लोक प्रचलित रही है, जिसमें समय-समय पर अनेक काल्पनिक प्रसंग और रूपक जुड़ते चले गए। एक ओर कृष्ण योगी और परमपुरुष हैं तो दूसरी ओर ललित और मधुर गोपाल हैं तथा तीसरी ओर वे एक वीर राजनयिक हैं। उनके ये तीनों रूप उसे परमदैवत रूप के अधीन विकसित हुए हैं जो प्राचीन समय से वासुदेव के रूप में लोकप्रिय था। इसकी चरम परिणति अंततः साक्षात परब्रह्म में हुई। लोक साहित्य में कृष्ण के विषय में असंख्य आख्यान उपलब्ध होते हैं जिनसे प्रेरित होकर 12वीं शताब्दी में जयदेव ने संस्कृत में ‘गीत गोविंद’ की रचना की जिसे राधा-कृष्ण संबंधी प्रथम काव्य रचना माना जाता है। इसे ‘भक्ति और शृंगार का अनुपम माधुर्य मंडित गीतिकाव्य’ कहा गया है। 

इस परंपरा में हिंदी में सबसे पहली साहित्यिक अभिव्यक्ति चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में विद्यापति की ‘पदावली’ के रूप में हुई। विद्यापति की ‘पदावली’ को हिंदी कृष्ण काव्य की पहली रचना होने का गौरव प्राप्त है, जिसमें राधाकृष्ण के प्रेम का वर्णन लौकिक शृंगार के स्तर पर लोक परंपरा के अनुसार भी किया गया है; और साथ ही भक्ति के माधुर्य भाव से संपन्न ‘उज्ज्वल शृंगार’ का भी निरूपण किया गया है। यही कारण है कि विद्यापति की ‘पदावली’ रसिकों और भक्तों दोनों ही में समान लोकप्रिय रही है। यहाँ तक कि चैतन्य महाप्रभु तक को उसने अपने अपरूप सौंदर्य वर्णन और प्रेम प्रवणता से रसमग्न किया है। वास्तव में भक्ति और शृंगार की विभाजक रेखा कितनी सूक्ष्म हो सकती है, इसे विद्यापति के काव्य में ही देखा जा सकता है। 

महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग में सूरदास सहित आठ कृष्ण भक्त कवियों का महत्वपूर्ण स्थान है जिन्हें ‘अष्टछाप’ के नाम से जाना जाता है। ये हैं सूरदास, कुंभनदास, परमानंद दास, कृष्णदास, नंददास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और चतुर्भुजदास। इसी प्रकार निंबार्क संप्रदाय में श्रीभट्ट और परशुराम देव हुए। राधावल्लभ संप्रदाय में हित हरिवंश, दामोदर दास, हरिराम व्यास, चतुर्भुज दास, ध्रुवदास और नेही नागरी दास के नाम उल्लेखनीय हैं। हरिदासी (सखी) संप्रदाय में स्वामी हरिदास, गोस्वामी और विहारीदास जैसे कवि हुए जबकि चैतन्य (गौड़ीय) संप्रदाय में रामराय, सूरदास मदन मोहन, गदाधर भट्ट, चंद्रगोपाल, भगवान दास, माधवदास माधुरी और भगवत मुदित उल्लेखनीय हैं। 

कृष्ण भक्ति के इन विविध संप्रदायों से स्वतंत्र कृष्ण भक्ति कवियों के रूप में मीराबाई और रसखान प्रमुख हैं। इन समस्त कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास का स्थान निःसंदेह सर्वोपरि है। उन्होंने श्रीमद् भागवत को आधार बनाकर पुष्टि मार्ग को मान्यताओं के अनुरूप कृष्ण के गोकुल, वृंदावन और मथुरा के जीवन से संबंधित संपूर्ण कथा को ‘सूरसागर’ नामक गीति प्रबंध के रूप में प्रस्तुत किया तथा ब्रजभाषा को चित्रात्मकता, आलंकारिकता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता से युक्त करके जनभाषा से आगे अपने युग की काव्यभाषा के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। 

सूरदास का काव्यक्षेत्र गृहस्थ जीवन और परिवार तक सीमित है। उसमें बाह्य जीवन के संघर्ष की अपेक्षा गृहस्थ जीवन की तन्मयता और परिवार की सुरक्षा कामना इस प्रकार व्यक्त हुई है कि उनका कथावृत्त जीवन के प्रति राग जगाता है। संपूर्ण भागवत को आधार बनाने के बावजूद उनका कवि मन कृष्ण की बाल लीलाओं और किशोरावस्था के भावपूर्ण चित्रण में अधिक रमा है। उनका भाव चित्रण कृष्ण भक्ति काव्य की एक बड़ी उपलब्धि है। बालभाव और वात्सल्य से सने मातृहृदय के प्रेमपूर्ण भावों के चित्रण में प्रज्ञाचक्षु सूरदास अद्वितीय हैं। इसी प्रकार शृंगार और भक्ति को जोड़कर माधुर्य भक्ति के संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। प्रवास जनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत प्रसंग में दार्शनिकता और आध्यात्मिकता का भावात्मकता के साथ संयोग शास्त्रीय विषय को अभिव्यक्तिपरक संस्कृति में सफलतापूर्वक ढालने की प्रक्रिया का सुंदर उदाहरण है। सूरदास ने कृष्ण की लीलाओं के प्रसंग में प्रकृति सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बाल क्रीड़ाओं, गोचारण, रासलीला, उपालंभ, दानलीला, चीरहरणलीला आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में किया है क्योंकि परब्रह्म श्रीकृष्ण की इन लीलाओं का निरंतर वर्णन और कीर्तन ही उनके सान्निध्य को प्राप्त करने का मार्ग है। परंतु यह सब वर्णन करते हुए वे उपदेशक या सुधारक की मुद्रा धारण नहीं करते बल्कि सरल हृदय का भावपूर्ण उद्घाटन करते हैं। उनकी भक्ति में दास्य, सख्य और मधुर भाव की त्रिवेणी का प्रवाह है। उनके विभिन्न भावों और मनोदशाओं के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं – 

(1) वात्सल्य (संयोग) : मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो....... ।

(2) वात्सल्य (वियोग) : संदेसों देवकी सों कहियो......... । 

(3) प्रथम दर्शन : बूझत श्याम कौन तू गोरी....... । 

(4) तन्मयता : उर में माखन चोर गड़े....... । ऊधो, मन न भए दस बीस...... । 

(5) व्यग्रता : अँखियाँ हरि दर्शन की भूखी..... 

(6) विदग्धता : निर्गुण कौन देस को वासी..... । 

(7) नित्यविहार : बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं अंतर, यह कहिकैउन ब्रज पठई।/ 

सूरदास प्रभु राधा-माधव, ब्रज-विहार नित नई-नई॥

(8) अनुग्रह : जा पर दीनानाथ ढरैं....... ।

सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदंड पुष्टिमार्गीय दर्शन है जिसमें भगवद्कृपा या अनुग्रह को पुष्टि (पोषण) माना गया है। इस अनुग्रह को प्राप्ति करने के लिए भक्त स्वयं को परब्रह्म कृष्ण की शरण में समर्पित कर देता है। वात्सल्य, दांपत्य और सख्य भाव के अनुरूप पुष्टि के तीन रूप हैं – मर्यादा, प्रवाह और पुष्टि। ब्रजांगनाएँ, गोपियाँ और गोपकुमारियाँ क्रमशः इन तीनों का आश्रय है। सूरकाव्य में पुष्टि के तीनों ही रूप उपलब्ध होते हैं। श्रीकृष्ण के प्रति भक्त का गोपीभाव से आत्मीयतापूर्ण संबंध पुष्टिमार्ग का आधार है। विभिन्न लीलाओं के वर्णन से भक्त को श्रीकृष्ण की कृपा या अनुग्रह की अनुभूति होती है और इसीलिए कवि ने माधुर्य भाव को स्पष्ट करने वाले मनोरम प्रसंगों का पुनः पुनः रसपूर्ण वर्णन किया है। इस वर्णन का आलंबन श्रीकृष्ण हैं जो साक्षात परब्रह्म, अद्वैत और परमेश्वर हैं तथा भक्त के उदात्तीकृत लौकिक जीवन का अभिन्न अंग है। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा के अनुसार, "भक्त कवियों के हाथ में कृष्ण काव्य उन मानवीय भावों के सहज परिष्करण और उदात्तीकरण का व्यावहारिक और प्रत्यक्ष द्रष्टांत बनकर प्रयुक्त हुआ था, जो मनुष्य को संसार के विषयों में लिप्त किए रहते हैं तथा पतन की ओर ले जाते हैं। परिवार के जो नाते मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में उसके सबसे बड़े वैरी है, श्रीकृष्ण उन्हीं के रूप में भक्तों को प्राप्त होकर उनके तत्संबंधी रागद्वेष को अपने में समर्पित करा लेते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने जिस निःसंगता का उपदेश दिया था, उसी को भक्त कवियों ने चित्रित किया है, तथा उन्होंने आत्म समर्पण युक्त भक्ति योग का जो रूप अर्जुन को समझाया था, वही काव्य में उदाहृत किया गया है।" 

भक्तिकाल की काव्य प्रवुत्तियाँ : निर्गुण भक्तिकाव्य : प्रेमाख्यानक

निर्गुण काव्यधारा के “जिन कवियों ने प्रेम द्वारा ईश्वर की प्राप्ति पर बल दिया, वे प्रेममार्गी अथवा सूफी कवि कहलाए। जायसी, मंझन, कुतुबन, उस्मान आदि इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। इन कवियों की सभी रचनाएँ (पद्मावत, मृगावती, मधुमालती, चित्रावली) भारतीय प्रेम गाथाओं की कथावस्तु के आधार पर प्रबंध काव्यों के रूप में लिखी गई हैं।“ (डॉ. नगेंद्र, भारतीय साहित्य रत्नमाला)। 

इस काव्यधारा का केंद्रबिंदु लोकाश्रित काव्य के अंतर्गत रोमानी कथावर्णन है। मुख्य रूप से यह कथावर्णन प्रबंधात्मक शैली में रचित महाकाव्य है या फिर स्वच्छंद मुक्तक काव्य। इस काव्य परंपरा को विभिन्न नामों से पुकारा जाता रहा है जैसे, प्रेममार्गी, सूफी शाखा, प्रेमकाव्य, प्रेमगाथा, प्रेमकथानक काव्य, प्रेमाख्यानक, प्रेमाख्यान आदि। इस काव्यधारा के अंतर्गत प्रेम का चित्रण आम प्रेम कथाओं में वर्णित सामान्य प्रेम न होकर साहसिक प्रेम या स्वच्छंद प्रेम के रूप में हुआ है जिसे रोमान (रोमांस) कहा जाता है। विश्वभर के साहित्य में स्वच्छंदतावादी प्रेम काव्य की एक लंबी परंपरा है। संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी यह परंपरा विद्यमान रही है। प्रस्तुत काव्यधारा हिंदी में उसी परंपरा का पूर्वमध्यकालीन विकास है, जिसमें प्रेम को अध्यात्म और भक्ति की कोटि तक पहुँचाया गया है तथा सूफी रहस्यभावना और अद्वैतवादी पद्धति का संगम किया गया है। 

प्रेमाख्यानक : काव्य प्रेरणा एवं प्रयोजन 

यह धारणा प्रचलित है कि हिंदी प्रेमाख्यानक परंपरा के कवि सूफी थे और उनका लक्ष्य सूफी मत का प्रतिपादन और प्रचार करना था। आरंभ में इस परंपरा के केवल छह या सात काव्य प्राप्त थे लेकिन अब हिंदी में तरेपन (53) प्रेमाख्यान काव्य प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से छत्तीस (36) हिंदू कवियों द्वारा रचित हैं। यहाँ तक कि आरंभिक ग्यारह में से भी आठ के रचनाकार हिंदू हैं। इस कारण इन काव्यों का विवेचन सांप्रदायिक आधार पर करना उचित प्रतीत नहीं होता। निःसंदेह कुछ प्रेमाख्यानक कवि सूफी मतानुयायी हैं किंतु उनके काव्य का मुख्य प्रयोजन सूफी मत का प्रचार करना मात्र नहीं था। इनमें सर्वप्रथम मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ (1540) में स्वयं अपना काव्य प्रयोजन बताते हुए कहा है – 
औ मन जानि कबित अस कीन्हा। 
मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा। 

अंतःसाक्ष्यों के आधार पर तो यश प्राप्ति, काव्य कला का प्रदर्शन, युवकों का मनोरंजन और जीवन की दुखपूर्ण घटनाओं को भुलाना ही इन कवियों का काव्य-प्रयोजन सिद्ध होता है, सूफी मत का प्रचार नहीं। 

प्रेमाख्यानक : कथावस्तु का स्थापत्य 

हिंदी प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्य इस प्रकार हैं– (1) हंसावली (1370) – असाइत, (2) चांदायन (1379) – मुल्ला दाऊद, (3) मृगावती (1503) – कुतुबन, (4) पद्मावत (1540) – मलिक मुहम्मद जायसी, (5) मधुमालती (1545) – मंझन, (6) प्रेमविलास (1556) – जैनश्रावक जटमल, (7) रूपमंजरी (1568) – नंददास, (8) माधवानल कामकंदला (1584) – आलम कवि, (9) चित्रावली (1613) – उस्मान, (10) रसरतन (1618) – पुहकर कवि। 

इनके कथास्रोत मुख्यतः चार हैं – 1. महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण आदि पौराणिक ग्रंथ, 2. संस्कृत और प्राकृत की परंपरागत कथानक रूढ़ियाँ, 3. उदयन, विक्रम, रत्नसेन आदि ऐतिहासिक, अर्ध ऐतिहासिक पात्रों की गाथाएँ, 4. विभिन्न प्रेमी-प्रेमिकाओं की लोक प्रचलित कथाएँ। इन चारों स्रोतों के साथ रचनाकार की कल्पना शक्ति का सुंदर समन्वय हुआ है। निम्नलिखित भारतीय कथानक रूढ़ियाँ इनमें प्रचुरता से इस्तेमाल की गई हैं – 

1. नायक या नायिका का जन्म देवी-देवता की आराधना से होना। 2. नायक-नायिका का परस्पर परिचय स्वप्न दर्शन, चित्र दर्शन या तोते आदि द्वारा गुण कथन से अप्रत्यक्ष रूप से होना। 3. शिवमंदिर या फुलवारी में नायक-नायिका की गुप्त भेंट होना। 4. नायक का किसी अन्य सुंदरी को राक्षस से बचाकर विवाह कर लेना आदि। ये कथानक रूढ़ियाँ फारसी प्रेमाख्यानक में उपलब्ध नहीं होतीं, अतः इनका आधार भारतीय साहित्य को ही मानना चाहिए। 

जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ में ऐसी अनेक कथानक रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहल की राजकुमारी पद्मिनी के मध्य तोते के माध्यम से प्रेम होता है। इसमें उनके विवाह एवं विवाह के बाद के जीवन का चित्रण है। इसकी कथावस्तु को दो खंडों में बाँटा गया है – रत्नसेन और पद्मिनी के विवाह तक पूर्वार्ध और विवाह के पश्चात उत्तरार्ध। पूर्वार्ध को काल्पनिक और उत्तरार्ध को ऐतिहासिक माना गया है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार “जायसी ने अपने कथानक का विधान इस तरह किया है कि पूर्वार्ध लोककथा के रूप में काल्पनिक वृत्त है और उत्तरार्ध ऐतिहासिक बनावट लिए हुए हैं। ये दोनों अलग अलग संसार हैं और इनकी विश्वसनीयता की अलग शर्तें हैं। लोककथा की रंगत लिए पूर्वार्ध में अनेक अतिप्राकृत चरित्र और घटनाएँ हैं। ××× उत्तरार्ध में ये अतिप्राकृत तत्व एकदम अनुपस्थित हैं। ××× लोकवृत्त और ऐतिहासिक वृत्त का इस तरह आमना सामना जायसी के अपने रचना विधान की निजी उपज है। संसार के महाकाव्यों में शायद ही कहीं यथार्थ के ऐसे द्विखंडी रूप का चित्रण हुआ हो। ××× पूर्वार्ध पूर्णतः सुखांत है जबकि उत्तरार्ध चरम दुखांत।“ इसे विजयदेव नारायण साही ने ‘हिंदी में अपने ढंग की अकेली ट्रेजिक कृति’ माना है। 

प्रेमाख्यानक : चरित्र-चित्रण 

महाकाव्य के आदर्श को सामने रखकर ‘पद्मावत’ जैसे रोमानी कथाकाव्य की परीक्षा करने वाले आलोचकों को एकपत्नीव्रत को स्वीकार न करने के कारण इसकी प्रेम-पद्धति अभारतीय या विदेशी प्रतीत हुई और इसे सूफी घोषित कर दिया गया। आश्चर्य की बात है कि जिस काव्य का नायक हिंदू है और नाथपंथी साधु के वेश में घर से निकलता है तथा शिव-पार्वती की सहायता से अपने मनोरथ में सफल होता है, वह काव्य सूफीमत का प्रचार कैसे कर सकता है! 

हिंदी प्रेमाख्यानों की तुलना फारसी सूफी काव्यों से करते हुए यह भी कहा जा सकता है कि इनमें नायिकाओं को नायकों की अपेक्षा अधिक धैर्यशाली दिखाया गया है, उनकी स्थिति भी नायकों से उच्च है। भारतीय समाज में पुरुष के लिए बहुविवाह की अनुमति थी, अतः इनके नायक भी प्रायः एक से अधिक विवाह करते हैं – जबकि नायिकाएँ पातिव्रत्य का पालन करते हुए अंत में सती तक हो जाती हैं। दूसरी ओर फारसी आख्यानों में नायक एक पत्नीव्रतधारी तथा नायिका के पति को स्वीकार करने वाला दिखाया जाता है। हिंदी में नायक के प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रतिनायक की अपेक्षा विरोधी के रूप में नायिका का पति या संरक्षक होता है और फारसी जैसा प्रेम त्रिकोण नहीं बनता। नायक-नायिका के अलावा विभिन्न मानवीय और मानवेतर पात्रों का चरित्र-चित्रण भी इन काव्यों में रूढ़िसंगत हुआ है। कथा के ऐतिहासिक पक्ष को यथासंभव यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है और वहाँ किसी भी प्रकार के अतिमानवीय लोकाभिप्राय या कवि समय का प्रयोग नहीं किया गया है। 

प्रेमाख्यानक : वस्तुवर्णन 

भारतीय साहित्य में चौथी-पाँचवी शताब्दी में स्वाभावोक्ति की अपेक्षा अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तु वर्णन की प्रवृत्ति का उदय हुआ। ‘पद्मावत’ सहित हिंदी के प्रेमाख्यानक काव्यों में पनघट, सरोवर, वाटिका, बारहमासा, बरात, युद्ध आदि के वर्णन में इस पद्धति को देखा जा सकता है। कुछ स्थलों पर ऐसे वर्णन को काव्य के प्रवाह में गतिरोध उत्पन्न करने वाला माना गया है। शिष्ट काव्य की दृष्टि से यह आक्षेप सही प्रतीत हो सकता है, परंतु लोक परंपरा की दृष्टि से यह स्वाभाविक है। ऐसे वर्णनों के द्वारा कवि एक ओर तो विविध प्रकार के ज्ञान को प्रसारित करता है जिससे वह वर्णन छोटे-से ज्ञान-कोश का रूप ले लेता है तथा दूसरी ओर कथा प्रवाह को रोककर उत्सुकता को बढ़ाता है। ये विवरण अर्धालियों के रूप में दिए गए हैं और प्रायः इनका समाहार एक ऐसे बिंबपूर्ण दोहे की सर्जना में किया गया है जहाँ लोक परंपरा शिष्ट साहित्य में ढल जाती है।

प्रेमाख्यानक : भाव एवं रस व्यंजना 

रोमानी साहित्य का मूल भाव प्रणय या रतिभाव है जिसे सौंदर्य, साहस और संघर्ष के तत्वों द्वारा पुष्ट किया जाता है तथा इसमें गृहस्थ मर्यादाओं और परंपराओं की अपेक्षा प्रेम की तीव्रता को महत्व दिया जाता है। जायसी और अन्य प्रेमाख्यानक कवियों ने शृंगार और प्रेम को जीवन में सर्वोपरि मानते हुए उसके प्रति उच्च दृष्टि का परिचय दिया है। प्रणय का आरंभ अपरूप सौंदर्य के आकर्षण से होने के कारण वह अलौकिक और आध्यात्मिक कोटि को प्राप्त करता है। नायिका हो या वेश्या, युद्धस्थल हो या तोप – सभी का सौंदर्य चित्रण जायसी विस्तार और गंभीरता के साथ करते हैं। नायक का संघर्ष प्रणय को उदात्त बनाता है और वह क्रमशः वासना, स्वार्थ और अहंकार से ऊपर उठता है। कुछ स्थलों पर प्रेम और काम को एक ही मान लिया गया है। जायसी का नायक रत्नसेन जहाँ आरंभ में शुद्ध प्रेम से भरा दिखाई देता है, वहीं नायिका पद्मावती (पद्मिनी) यौन और कामुकता के भावों से भरी दिखाई देती है और अपने अंतरंग मित्र तोते से उपयुक्त वर खोजने के लिए कहती है जो उसके तन-मन की प्यास को बुझा सके। ‘पद्मावत’ की मार्मिकता का रहस्य उसकी विरह व्यंजना में निहित है। विरह के क्षेत्र में कवि ने भावात्मकता और अनुभूति का सहारा लिया है। कहीं कहीं विरह वर्णन भी अत्युक्तिपूर्ण हो गया है; रक्त के आँसुओं का गिरना, मांस का गलगल कर गिरना या प्राणांत हो जाना ऐसे ही प्रसंग है। 

प्रेमाख्यानक : रूप तत्व 

सूफी साधक परमात्मा को परमप्रियतम और परम सौंदर्य से संपन्न मानते हैं जिसे पाने के लिए आत्मा व्याकुल रहती है। अपने काव्य के माध्यम से कवि उस परम प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन करता है। वैचारिकता की दृष्टि से मध्यकालीन प्रेमाख्यानक काव्यों को सूफी मत के प्रचारक होने का कोई प्रमाण नहीं हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘पद्मावत’ की प्रेम पद्धति को अभारतीय मानते हुए पद्मावती को परमात्मा और रत्नसेन को आत्मा का प्रतीक सिद्ध किया है और इस काव्य के पूर्वार्ध को सूफी रहस्यवाद से अनुप्राणित बताया है। साथ ही, यह भी माना है कि जायसी वेदांत के अद्वैतवाद तक पहुँचते हैं। दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा का रूपक उत्तरार्ध पर लागू न होने के कारण उसे अप्रामाणिक मान लिया गया है। अधिक उचित यह प्रतीत होता है कि जायसी द्वारा स्वयं सुझाई गई निम्नलिखित व्याख्या को स्वीकार कर लिया जाए – 
मैं ऐहि अरथ पंडितन्ह बूझा। कहा कि हम्ह किछू और न सूझा॥ 
तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंहल, बुद्धि पद्मिनी चीन्हा॥ 
गुरु सुवा जेहि पंथ दिखावा। बिन गुरु जगत को निरगुण पावा। 
नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोई न एहि चित बंधा॥ 

इससे स्पष्ट होता है कि ‘पद्मावत’ एक रूपक काव्य है जिसमें चित्तौड़ तन, राजा रत्नसेन मन, सिंहल द्वीप हृदय, पद्मावती बुद्धि, तोता गुरु, नागमती सांसारिक आकर्षण तथा राघव चेतन और अलाउद्दीन आसुरी शक्तियों के प्रतीक हैं। साधक का मन शरीर-सुख का त्याग कर गुरु के निर्देश से उपलब्ध सात्विक ज्ञान की सहायता से अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। यह रूपक काव्य के उत्तरार्ध पर भी समान रूप से लागू होता है और भारतीय साधना पद्धति के अनुरूप है। 

हिंदी साहित्य में ‘पद्मावत’ का स्थान एक महाकाव्य के रूप में ‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘रामचरित मानस’ को जोड़ने वाली कड़ी जैसा है। ‘रासो’ और ‘मानस’ क्रमशः लोकशैली और शिष्ट शैली के मानक महाकाव्य हैं जबकि ‘पद्मावत’ ‘लोक से शिष्ट में संक्रमण’ की पूरी प्रक्रिया को समेटने वाला महाकाव्य है। 

भक्तिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ : निर्गुण भक्तिकाव्य : संतमत


भक्तिकाल को ‘हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग’ कहा जाता है। इस काव्य की दो मुख्य धाराएँ हैं – एक निर्गुण काव्य धारा, दो – सगुण काव्य धारा। इनके भी प्रवृत्तिगत दो-दो भेद हैं। निर्गुण धारा के अंतर्गत (1) निर्गुण संत काव्य (ज्ञानाश्रयी शाखा) तथा (2) प्रेमाख्यानक काव्य (प्रेमाश्रयी शाखा या सूफी शाखा) एवं सगुण धारा के अंतर्गत (1) कृष्ण भक्ति काव्य और (2) राम भक्ति काव्य शामिल हैं। गुणवत्ता और परिमाण की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध भक्तिकाल में काव्य की विधाओं, शैलियों और भाषा की दृष्टि से भी वैविध्य, प्रौढ़ता तथा परिपक्वता प्राप्त होती है। कथ्य, कथन और प्रभाव की दृष्टि से भी भक्तिकाल का साहित्य अत्यंत उच्चकोटि का है, इसमें संदेह नहीं। 

ज्ञान साधना द्वारा निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति का समर्थन करने वाले ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों अथवा संत कवियों में कबीरदास, रैदास, नानकदेव, जंभनाथ, हरिदास निरंजनी, सींगा, लालदास, दादूदयाल, मलूकदास, बाबालाल और सुंदरदास मुख्य हैं। इनमें अधिकांश संत अद्वैतवादी हैं। कबीर के पूर्व भी हिंदी क्षेत्र में सरहपाद, तिल्लोपाद और गोरखनाथ की बानियों के माध्यम से अद्वैत का प्रचार था। ‘हिंदी साहित्य कोश’ के अनुसार "योग, बौद्ध और वेदांत तीनों के मिलने से शंकर के समय में ही उत्तरी भारत में अद्वैतवाद का प्रचार था। बौद्धों और औपनिषदों के बाहर जाने से अद्वैत ईरान, मिस्र में गया था। वह मुसलमानों के आने पर सूफीमत का रूप रखकर भारत में वापस आया। इसका भी अद्वैत में योगदान है। सब धाराओं के मिल जाने से कबीर का अद्वैतवाद 15 वीं शताब्दी में संभव हुआ।"

संत कवियों में कबीर, दादू और मलूक अद्वैतवादी तथा नानक भेदाभेदवादी हैं। कबीर के अनुसार परमात्मा और जीवात्मा पूर्णतः एक हैं, जबकि नानक इनमें बड़े-छोटे का अंतर मानते हैं। साधना प्रणाली की दृष्टि से कबीर, सुंदरदास और हरिदास योगसाधना से प्रभावित हैं जबकि दादू, नानक, रैदास, जंभनाथ, रज्जब, मलूकदास और बाबालाल योग साधना से अप्रभावित संत हैं। इन्होंने कहीं-कहीं ‘सुरत’ और ‘शब्द योग’ आदि का उल्लेख तो किया है लेकिन उसमें कबीर जैसी गहराई और प्रामाणिकता नहीं हैं। 

संत काव्य में गुरु को अनेक स्थलों पर ब्रह्म से भी अधिक महत्व दिया गया है। वही साधक को परमेश्वर या आत्मस्वरूप या ब्रह्म का साक्षात्कार करा सकता है। वही परंपरा और गतानुगतिकता का अतिक्रमण कर सकता है। वह शब्द, दृष्टि या स्पर्श द्वारा शक्तिपात से शिष्य को ब्रह्म का अनुभव भी करा सकता है। इसी कारण आगे चलकर संत काव्य के प्रत्येक संप्रदाय में सद्गुरु को अवतार मानने और उसके चित्र की उपासना करने की रूढ़ि विकसित हो गई। गुरु महिमा के संबंध में कबीर कहते हैं – 
सतगुरु साँचा सूरीबाँ, सबद जु बाह्या एक। 
लागत ही भैं मिट गया, पड़ा कलेजे छेक॥ 

सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपकार। 
लोचन अनँत उघारिया, अनँत दिखावणहार।। 

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय। 
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोबिंद दियो बताय॥

संत काव्य में नामस्मरण का भी निरूपण किया गया है और इस प्रकार तादात्म्य वांछित माना गया है कि जप के रूप में नामस्मरण निरंतर साँस के आने-जाने के साथ चलता रहे। कबीर ने ‘राम’ के नामस्मरण की विस्तार से चर्चा की है और यह भी स्पष्ट किया है कि राम का अर्थ विष्णु का अवतार या दशरथ का पुत्र नहीं वरन ब्रह्म है। नाम रूपी रस का पान करने से आनंद रूपी खुमारी का अनुभव होता है। साधक इसमें इस प्रकार तल्लीन हो जाता है कि 'जभड़ियाँ छाला पड्या पीव पुकारि-पुकारि।'

सभी संत कवि मूर्तिपूजा के विरोधी थे, अवतारवाद को अस्वीकार करते थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमान समाजों में व्याप्त बाह्याचार और पाखंड का दृढ़ शब्दों में खंडन करते हुए आत्मसाक्षात्कार पर बल दिया। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, व्रत, उपवास, रोजा, अज़ान, हज आदि को कबीर तब तक निरर्थक मानते हैं, जब तक साधक के भीतर मनुष्यता, अपरिग्रह, संयम, बंधुत्व, समभाव और अहिंसा जैसे गुण विकसित नहीं होते। इन गुणों से युक्त साधक तो पलभर की तलाश में ही उस परमेश्वर को स्वयं अपने भीतर पा सकता है –
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार। 
ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार॥

मूँड मुँडाए हरि मिले, सब कोई लेय मुँडाय।
बार-बार के मूँडते, भेड न बैकुंठ जाय ॥ 

दिन भर रोजा रखत हैं, राति हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसी खुशी खुदाय॥ 

काँकर-पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥

हिंदू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहे रहमाना। 
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न काहू जाना॥

मोको कहा ढूँढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे-कैलास में॥ 

वास्तव में कबीर जैसे संत कवियों ने ‘आँखिन देखी’ स्वानुभूति को ही काव्य का विषय बनाया। कबीर जन्म से विद्रोही प्रवृत्ति के थे। वे समाज सुधारक, धर्म सुधारक, प्रगतिशील दार्शनिक और सहज कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। सामान्य अशिक्षित जनता के बीच सत्य का निरूपण, कथनी-करनी की एकता और नाम के माधुर्य का अनुभूतिप्रवण प्रचार उनका लक्ष्य था। आत्मा, परमात्मा, जीव, जगत जैसे बौद्धिक विवेचन में भी कबीर ने निर्गुण भक्ति में माधुर्य भावना (ब्रह्म के साथ मधुर संबंध की भावना) का समावेश करके रहस्यानुभूतिपरक उदात्त काव्य की रचना की। सबकी आलोचना करने वाले तथा हर समय अक्खड़पन को ओढ़े रखने वाले कबीर एक समग्र प्रेमी जीवात्मा के रूप में भी अद्वितीय रचनाकार है। उनकी रहस्यानुभूति स्पृहणीय हैं – 
नैनों की कर कोठरी, पुतरी पलंग बिछाय। 
पलकों की चिक डारि के, पिय को लियो रिझाय॥ 

दुलहिन गावहु मंगलचार। 
हम घर आए, हो, राजाराम भरतार॥ 

सुपने में साईं मिले, सोवत लिया जगाय। 
आँख न खोलूँ डरपता, मत सुपुना हो जाय॥ 

संतों की अभिव्यंजना शैली भी बड़ी शक्तिशाली है। कबीर ने निरक्षर होने के बावजूद साधना के एक-एक अंग को लेकर सैंकड़ों ‘साखियाँ’ रची हैं। उनके काव्य में केवल नीति-उपदेश, खंडन-मंडन और समाज-सुधार ही नहीं, शृंगार के संयोग और वियोग पक्ष तथा अद्भुत रस का सुंदर परिपाक भी मिलता है। दांपत्य और वात्सल्य के द्योतक और रहस्य भावना के अकथनीय अनुभव को व्यक्त करने वाले अनेक प्रतीकों (जैसे दुलहिन, भरतार, पीव, दिया, बाण, सर्पिणी, चदरिया, कमलिनी, घट, कुम्हार, बाजार) का सटीक प्रयोग उन्हें एक समर्थ कवि सिद्ध करता है। सहज रूप से प्रयुक्त रूपकों और उपमाओं के अतिरिक्त उनकी उलटबाँसियाँ उनकी काव्य प्रतिभा के चमत्कार की द्योतक हैं। 

काव्यभाषा की दृष्टि से संतों की भाषा को कभी खिचड़ी, कभी सधुक्कड़ी और कभी संध्या भाषा कहा गया है। संध्या भाषा तो उलटबाँसियों के लिए रूढ़ है जबकि सधुक्कड़ी और खिचड़ी से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इनकी भाषा में अनेक भाषाओं का मिश्रण हुआ है। वस्तुतः तत्कालीन परिवेश के अनुरूप संतवाणी की रचना जनता के अशिक्षित, उपेक्षित और पिछड़े वगों के लिए हुई थी, इसलिए संतों की भाषा सरल, कृत्रिमताहीन और सहज है। संत भ्रमणशील थे इसलिए विभिन्न क्षेत्रों की बोलियों का प्रभाव उनके काव्य में पाया जाना स्वाभाविक है। भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा, पंजाबी और राजस्थानी के भाषिक प्रयोग उनके काव्य में स्वाभाविक रूप में मिलते हैं। भाषा-संरचना और क्रिया-रूपों की दृष्टि से कबीर की काव्यभाषा खड़ी बोली के काफी निकट प्रतीत होती है। विभिन्न बोलियों के शब्दों का पाया जाना ‘कोड परिवर्तन’ और ‘कोड मिश्रण’ की समाजभाषिक प्रवृत्ति का सूचक है जिसमें कबीर ने भोजपुरी ‘कोड’ का सर्वाधिक प्रयोग किया है। इस दृष्टि से उनकी काव्य-भाषा का पुनर्मूल्यांकन होना अभी शेष है। 

रविवार, 7 अक्टूबर 2018

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल : सांस्कृतिक-दार्शनिक परिस्थिति


भक्तिकाल : पृष्ठभूमि : सांस्कृतिक परिस्थिति 

सांस्कृतिक दृष्टि से भक्तिकालीन वातावरण में हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों का आमना-सामना, विरोध और समन्वय घटित हुआ। मध्यकालीन हिंदू संस्कृति में लोक और शास्त्र सम्मत अलग-अलग जीवनधाराएँ विद्यमान थीं, जिनके द्वारा साहिष्णुतामूलक धार्मिक भावना का विकास हुआ। उपनिषद और वेदांत की व्याख्याओं ने अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, केवलाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद और शुद्धाद्वैतवाद जैसे मतों को विकसित किया जिनमें ईश्वर को निरपेक्ष मानकर उसकी भक्ति का प्रतिपादन किया गया है। 

भक्तिकाल को विरासत में मध्यकालीन बोध से ग्रस्त एक ऐसी संस्कृति मिली थी जिसमें मानवीय पक्ष को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए परिवर्तन की आवश्यकता थी। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार, “इस काल में धर्म साधना की बाढ़ सी आ गई और गुह्य साधनाओं के अंतर्गत कृच्छ्र साधनाएँ भी प्रवेश पा गईं। धर्माचार और ज्ञान-चर्चा की आड़ में पाखंड को प्रश्रय मिलने लगा और समाज में एक प्रकार की अराजकता फैल गई। बाह्याडंबर तथा कर्मकांडीय बाह्य विधान के प्रति व्यंग्य किए जाने लगे।“ 

भक्तिकाल : पृष्ठभूमि : दार्शनिक परिस्थिति : भक्ति आंदोलन 

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन भारतीय इतिहास की अन्यतम घटना है जिसने पूरे भारतीय जनमानस को कई शताब्दियों तक प्रभावित किया। इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि के रूप में भारतीय चिंताधारा की पूरी परंपरा विद्यमान है। 8वीं शताब्दी में वेदमत और लोकमत का जो समन्वय हो रहा था उसके कारण संपूर्ण धार्मिक आंदोलन लोकाभिमुख हुआ। एक ओर विहार संस्कृति में पल्लवित बौद्धधर्म का क्रमशः पतन हुआ तथा दूसरी ओर शंकराचार्य ने ज्ञानप्रधान आध्यात्मिक और औपनिषदिक परंपरा का पुनरुत्थान किया। ब्रह्म के साक्षात्कार के इस ज्ञानप्रधान मार्ग के अतिरिक्त आलवार भक्तों द्वारा समर्पणप्रधान भक्ति मार्ग का प्रचार किया गया। दक्षिण के कई आचार्यों ने गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के आधार पर भक्ति के सिद्धांत की स्थापना की। आलवार भक्तों की रचनाओं को 9 वीं शताब्दी के अंत में पुंडरीकाक्ष, पुलकनाथ, लक्ष्मीनाथ और यामुनाचार्य ने आलवार भक्तों की वाणी का प्रचार प्रसार किया। 

उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर शंकराचार्य के भाष्य के आधार पर प्रतिष्ठित अद्वैतवाद ज्ञानमार्ग का मुख्य सिद्धांत बना। ब्रह्मसूत्र की अलग-अलग व्याख्याओं ने भक्ति मार्ग की अलग-अलग धाराओं को जन्म दिया। रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य करते हुए विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया। उन्होंने जीव और जगत को स्वतंत्र होते हुए भी ईश्वर के अधीन माना और दास्य भाव की भक्ति का प्रचार किया। इन्हीं की शिष्य परंपरा में रामानंद हुए। इन्होंने जातिपांति से निरपेक्ष भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया तथा राम (ब्रह्म) के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को स्वीकार किया। 

रामानुजाचार्य के अतिरिक्त मध्वाचार्य ने द्वैतवाद और माधुर्यभाव की उपासना का प्रतिपादन किया, जबकि निंबार्काचार्य ने द्वैताद्वैत या भेदाभेदवाद का प्रतिपादन किया। निंबार्काचार्य के मत से जीव, जगत और ब्रह्म एक दूसरे से अलग होते हुए भी तात्विक रूप से अभिन्न हैं, जीव और जगत का अस्तित्व ईश्वर की इच्छा के अधीन है, तथा जीव और ईश्वर का संबंध अंश और अंशी का है। उनके अनुसार कृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं। उन्होंने राधा की उपासना पर विशेष बल दिया। राधावल्लभ संप्रदाय और हरिदासी (सखी) संप्रदाय इसी से प्रेरित हैं। 

भक्तिकाल की दार्शनिक पृष्ठभूमि में विष्णु स्वामी के रुद्र संप्रदाय में हुए वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे ब्रह्मवाद भी कहते हैं। वल्लभाचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करते हुए ब्रह्म की सर्वव्यापकता स्वीकार की और पुष्टिमार्गीय भक्ति का विकास किया। इसमें भगवत्-अनुग्रह को महत्व प्रदान किया गया तथा श्रीमद् भागवत की नवधाभक्ति (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन) में माधुर्य भाव को जोड़कर दशधा भक्ति का प्रचार किया। 

इन सबके साथ-साथ भक्तिकाल की दार्शनिक पृष्ठभूमि के निर्माण में इस्लाम के एकेश्वरवाद और सूफियों के ‘अनलहक’ का भी प्रभाव द्रष्टव्य है। इस प्रकार हिंदी के संत काव्य, प्रेमाख्यानक काव्य, रामभक्ति काव्य और कृष्णभक्ति काव्य पर अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद तथा एक सीमा तक इस्लाम का प्रभाव पड़ा।

हिंदी साहित्य का इतिहास : सामाजिक परिस्थिति

भक्तिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि में विद्यमान समाज संक्रमण काल से गुजरने वाला समाज है। यों तो भारतीय समाज में अलग-अलग स्रोतों से आई हुई जातियाँ सम्मिलित थीं, जो इस काल से पूर्व ही सामंजस्य की प्रक्रिया को पूर्ण कर चुकी थीं; परंतु इस काल में एक ऐसी जाति का आगमन विजेता के रूप में भारतीय समाज में हुआ जिसके साथ सामंजस्य सरल नहीं था। यह जाति थी मुसलमान, जिसके धार्मिक-सामाजिक विश्वास और आचरण भारतीयों के लिए विजातीय थे। इसलिए समंजन की गति धीमी रही तथा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच लंबे समय तक परस्पर विश्वास पैदा नहीं हो सका, बल्कि दोनों के एक दूसरे को शंका और घृणा की दृष्टि से देखने के कारण छुआछूत और आपसी भेदभाव ही बढ़ा। हिंदू धर्म जहाँ वर्णाश्रम व्यवस्था पर टिका हुआ था जिसकी जकड़बंदी के कारण समाज का विकास अवरुद्ध हो रहा था, वहीं इस्लाम धर्म भाईचारे का संदेश लेकर चला जिसमें धर्म परिवर्तन द्वारा कोई भी शामिल हो सकता था। यह धर्म परिवर्तन धार्मिकता के आधार पर होता तो शायद अच्छा रहता, परंतु स्वार्थ, बलात्कार और भय के कारण इस काल में जो धर्म परिवर्तन की घटनाएँ हुई उनसे हिंदू समाज में भीषण आशंका और आतंक का प्रसार हुआ, इसलिए हिंदुओं के समक्ष अपनी कुलीनता को बचाने की चुनौती पैदा हो गई, जिसने कट्टरता को बढ़ावा दिया। दूसरी ओर कुछ मुस्लिम शासकों का हिंदू जनता के साथ क्रूरता और भेदभाव का व्यवहार होने के कारण भी जनता को इस्लाम का संदेश बंधुता की अपेक्षा क्रूरता से भरा ही लगा। अनेक मुस्लिम शासकों की स्वेच्छाचारिता, कट्टरता और पाखंडप्रियता ने भी हिंदू-मुस्लिम सामंजस्य स्थापित होने में बाधा उत्पन्न की। 

इस काल में हिंदू समाज अनेक जातियों और उपजातियों में बंट चुका था, जिसके कारण आपसी सद्भाव में कमी आ गई थी। दास प्रथा भी प्रचलित थी। स्त्रियों का सम्मान नहीं रह गया था। अमीरों और मुस्लिम शासकों के यहाँ अपहरण करके लाई गई कुलीन स्त्रियाँ भोग की वस्तु समझी जाती थीं और दासियों के रूप में उन्हें उपहार में दिया-लिया जा सकता था। हिंदू राजा भी विलासिता में पीछे न थे। वे सैयद मुस्लिम महिलाओं को नर्तकी और दासी के रूप में रखते थे। बहुविवाह, स्त्रियाँ के पुनर्विवाह पर प्रतिबंध और सती जैसी प्रथाओं के कारण स्त्रियों का जीवन नारकीय हो गया था। हिंदुओं में बढ़ते असुरक्षा भाव के कारण इस काल में पर्दा प्रथा का भी प्रचलन बढ़ा। 

भक्तिकालीन भारतीय समाज में मुसलमान भी अनेक वर्गों में बंट चुके थे। ये वर्ग सत्ता में स्थान, मूल निवास स्थान, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और जातिगत प्रभाव के आधार पर उत्पन्न हुए थे। आक्रमण की वृत्ति के साथ साथ सहनशीलता का भाव भी धीरे धीरे पनपा जिसका विकास सूफी साधकों के माध्यम से हुआ। तलवार से आतंक पैदा करके प्रेम की पट्टी बाँधना इस काल में इस्लाम प्रचार की नीति बन गया। हिंदुओं की भाँति ही मुस्लिम समाज में भी निम्न वर्ग और महिलाओं की स्थिति शोचनीय थी। हरम प्रथा के कारण मुस्लिम औरतें नारकीय जीवन जी रही थीं।

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल : राजनैतिक परिस्थिति

राजनैतिक दृष्टि से भक्तिकाल के एक छोर पर मुहम्मद तुगलक और दूसरे छोर पर शाहजहाँ की सत्ता विद्यमान है अर्थात यह काल भारतीय इतिहास का वह महत्वपूर्ण समय है जिसमें दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश से लेकर मुगलवंश तक का आधिपत्य रहा। 

मुहम्मद तुगलक एक सनकी परंतु निष्पक्ष शासक था। उसने राजधानी को दिल्ली से देवगिरि (दौलताबाद) ले जाने के चक्कर में दिल्ली क्षेत्र को उजाड़ दिया, ताँबे के सिक्के चलाए, चीन पर हमले का प्रयास किया और मिस्र के खलीफा से अपने शासन के लिए धार्मिक स्वीकृति ली। इसके बावजूद हिंदुओं के प्रति उदारता के कारण उसके सरदार भी उससे नाराज हो गए। आगे चलकर उसके उत्तराधिकारी फिरोज़शाह ने कट्टरवादी सरदारों के समक्ष समर्पण कर दिया और इस तरह सत्ता पर उसकी पकड़ कमजोर हो गई।

1398 में तुर्क सरदार तैमूर लंग ने विशाल सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया। दिल्ली में तो उसने घर घर घुसकर भयानक लूटपाट की और समरकंद में वापस जाकर लूट के धन से शानदार इमारतें, राजमहल और मस्जिदें बनाईं। भारत की दशा दीन-हीन हो चुकी थी। 1414 से 1451 तक सैयद वंशीय स्थानीय शासकों ने दिल्ली पर अधिकार रखा। इसके बाद लोदीवंश के अफगान सरदार ने दिल्ली के राज्य पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया। इस वंश का अंतिम सुल्तान इब्राहीम लोदी हुआ जिसे मुगलों का सामना करना पड़ा और लोदी वंश का शासन समाप्त हो गया। इस काल में उत्तर भारत के मालवा, ग्वालियर, कन्नौज, बिहार, बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों से दिल्ली की केंद्रीय सत्ता को अनेक बार युद्ध करना पड़ा। लोदी वंश के शासन काल में प्रांतों पर दिल्ली की पकड़ ढीली हो चुकी थी और मालवा आदि आजाद होने लगे थे। 1526 में इब्राहिम लोदी और सूबेदारों के मध्य गृहयुद्ध की स्थिति का लाभ उठाकर पानीपत के युद्ध में बाबर ने इब्राहीम लोदी को पराजित कर दिया। बाबर ने अफगान सरदार दिलावर खान का आमंत्रण पाकर यह आक्रमण किया था। बाबर के आगमन के साथ दिल्ली में मुगल शासन की स्थापना हुई। राणा सांगा सहित कई हिंदू-मुस्लिम शासकों-सूबेदारों को जीतकर वह शीघ्र ही उत्तर भारत का सर्वसमावेशी शासक बन गया। उसके बाद हुमायूँ की असामयिक मृत्यु के कारण उसके पुत्र अकबर को 13 वर्ष की उम्र में ही दिल्ली की सत्ता मिल गई। अकबर ने अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी शक्ति, दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता और दृढ़ता से शासन को सुदृढ़ बनाया। युद्ध और विवाह की दुहरी राजनीति द्वारा अनेक प्रांतीय शासकों को पराजित भी किया और अपने अनुकूल भी बनाया। महाराणा प्रताप जैसे कुछ स्वाभिमानी राजपूतों को छोड़कर अधिकतर शासकों ने मुगल साम्राज्य की सर्वोपरिता को स्वीकार लिया और बदले में मान-मर्यादा तथा ऊँचे पद प्राप्त किए। अकबर के बाद जहाँगीर और उसके बाद कूटनैतिक चालों से शाहजहाँ गद्दीनशीन हुए। शाहजहाँ के पुत्र औरंगजेब ने अपने भाई दाराशिकोह के युवराज बनने का खुलकर विरोध किया, हिंसा और कूटनीति के बल पर अपने सब प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाकर और शाहजहाँ को बंदी बनाकर औरंगजेब ने 1658 में सत्ता हासिल कर ली। यही समय भक्तिकाल की अंतिम सीमा (1650 के आसपास) को भी व्यक्त करता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजनैतिक दृष्टि से समस्त उत्तर भारत इस काल में विदेशी आक्रांताओं के द्वारा स्थापित सत्ता के अधीन आ चुका था तथा परंपरागत भारतीय राजनैतिक शक्तियाँ और संस्थाएँ अंततः मुगलसत्ता के समक्ष आत्म समर्पण कर चुकी थीं; परंतु साथ ही प्रतिशोध, विरोध और विद्रोह की चिंगारियाँ भी ठंडी राख के भीतर से समय समय पर अपने अस्तित्व का संकेत देती रहती थीं। निश्चय ही जनता इन तमाम युद्धों और कूटनैतिक चालों में सर्वाधिक हानि उठाती थी और इन सबसे ऊब चुकी थी।

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल : पृष्ठभूमि

14 वीं शताब्दी के मध्य से 17 वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को हिंदी साहित्य के इतिहास में पूर्वमध्यकाल और भक्तिकाल कहा जाता है। इस काल का समग्र साहित्य मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की काव्यात्मक परिणति है और उस व्यापक जनजागरण के प्रेरणा सूत्र इसमें छिपे हैं, जिसने मध्यकालीन राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संक्रमण को झेलने की शक्ति भारतीय समाज को प्रदान की। भक्ति की इस प्रधानता के कारणों के रूप में इतिहासकारों ने तीन विचार प्रस्तुत किए हैं। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यह माना है कि इस युग में मुस्लिम शासकों का आधिपत्य हो जाने के कारण हिंदू जाति अवसाद का अनुभव करने लगी थी। इस्लाम से आक्रांत और पददलित भारतीय जनता के निराश हृदयों में भक्ति और शांति का संचार करने के लिए तत्कालीन कवियों ने भक्तिपरक काव्य की रचना की। वे यह मानते हैं कि भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत था जिसे राजनैतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए उत्तर भारत की जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। लुटी पिटी जनता की चित्तवृत्ति का झुकाव स्वाभाविक रूप से ईश्वर भक्ति की ओर हुआ और उसी के अनुरूप साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ। 

दूसरी मान्यता के अनुसार भक्ति आंदोलन हिंदी साहित्य में केवल तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में नहीं उभरा, बल्कि आदिकाल के बाद भक्ति भावना का उदय कोई आकस्मिक घटना न होकर उस चिंताधारा का सहज विकास है जो भारतीय लोकमानस में पिछली कई शताब्दियों से प्रवाहित होती हुई अपने पूर्ण विकास के लिए अनुकूल भूमि की तलाश कर रही थी। जयशंकर प्रसाद ने इसके लिए दार्शनिक संदर्भ को रेखांकित करते हुए कहा है कि “दुखवाद जिस मनन शैली का फल था वह बुद्धि या विवेक के आधार पर तर्कों के आश्रय में बढ़ती रही। अनात्मवाद की प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए। फलतः पिछले काल में भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवाद का विकास भक्ति के रूप में हुआ।“ इस आधार पर सिद्धों और नाथों की परंपरा में भक्ति आंदोलन के सूत्र खोजे जा सकते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसी प्रकार भक्ति आंदोलन को भारतीय परंपरा का अपना स्वतःस्फूर्त विकास माना है। वे हिंदी के भक्ति साहित्य के मूल में बौद्ध तत्ववाद को निहित मानते हैं और ज़ोर देकर कहते हैं कि लोक के स्तर पर पहुँचकर बौद्ध धर्म लोक धर्म बना और धीरे-धीरे निर्गुण तथा सगुण भक्ति धाराओं का प्रेरक तत्व बन गया। वे मानते हैं कि यदि भारत में इस्लाम न भी आता तो भी भक्ति साहित्य का 75 प्रतिशत वैसा ही होता जैसा आज है; अर्थात वे मुस्लिम आक्रमण की तत्कालीन परिस्थिति को भक्ति आंदोलन का केवल एक गौण कारण मानते हैं। साथ ही, उनकी यह भी मान्यता है कि मध्यकाल में प्राकृत और अपभ्रंश की शृंगारिकता की प्रतिक्रिया ने भी लोक चिंता के साथ जुड़ी हिंदी कविता में भक्तिपरक रचनाओं को बढ़ावा दिया। 

भक्ति साहित्य के उदय के संबंध में शुक्ल जी के मुस्लिम आक्रमण को प्रधानता देने तथा द्विवेदी जी के परंपरा तत्व को महत्ता देने के सिद्धांतों के समन्वय पर आधारित तीसरी मान्यता यह है कि यदि इस्लाम के प्रचार और प्रतिक्रिया की व्याख्या सहज भाव और कुंठाहीन मन से की जाए, तो भक्ति साहित्य के उदय की मूल प्रेरणा के रूप में उक्त दोनों ही सिद्धांतों को स्वीकार किया जा सकता है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार “भक्ति काव्य के विकास के पीछे (1) बौद्ध धर्म का लोकमूलक रूप है और (2) प्राकृतों के शृंगार काव्य की प्रतिक्रिया है तो (3) इस्लाम के सांस्कृतिक आतंक से बचाव की सजग चेष्टा भी है।“ इसकी पुष्टि तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक परिस्थितियों के अवलोकन से सरलता से हो सकती हैं।