बीसवीं शताब्दी के दूसरे तीसरे दशक में भारतीय साहित्य में लोकतंत्र और राष्ट्रीयता की चेतना से ओतप्रोत कृतियाँ रची गईं. यह युग ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मानसिक स्तर पर मुक्ति की घोषणा का युग था जिसके एक सिरे पर स्वराज्य को जन्मसिद्ध अधिकार मानने वाले लोकमान्य तिलक तथा दूसरी ओर भारतीय संस्कृति का पुनःअन्वेषण करने वाले गांधी विद्यमान थे. इस नवजागरण कालीन नई राष्ट्रीयता और मुक्ति कामना को व्यक्त करने वाले रचनाकारों में जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1890 – 14 जनवरी 1937) औरों से अलग दीखते हैं. उन्होंने अपने समशील रचनाकारों के साथ मिलाकर जहाँ एक ओर व्यक्तिमन की उन्मुक्ति को प्रकट किया वहीं भारतीय समाज को युगों से जकड़कर रखने वाली सामंतवादी रूढ़ियों और विधि-निषेधों के खिलाफ स्वातंत्र्य चेतना का बिगुल बजाया.
जयशंकर प्रसाद ने भारतीयों को याद दिलाया कि यह महादेश जिस महान विरासत का उत्तराधिकारी है उसके होते हुए हमारा गुलाम पड़े रहना हमारी अपनी अकर्मण्यता का प्रतीक है. उन्होंने श्रद्धा जैसे उदात्त पात्र के माध्यम से आशा, संकल्प और निर्भीकता का संदेश दिया कि “डरो मत अरे अमृत संतान/ अग्रसर है मंगलमय वृद्धि/ पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र/ खींची आवेगी सकल समृद्धि.” जैसा कि मुक्तिबोध ने लिखा है, ये पंक्तियाँ इस बात की साक्षिणी हैं कि उस समय का साहित्य देशव्यापी जीवन आशाओं और आदर्शों से न केवल समन्वित हो चुका था वरन् इतना सबल भी हो गया था कि वह देश और व्यक्ति में परिव्याप्त मानव गरिमा को प्रस्तुत कर सके. उनके अनुसार प्रसाद का यह साहित्य इस बात का जीवंत प्रतीक है कि राष्ट्रवाद अब अपने को वर्तमान तथा भविष्य का निर्णायक निर्माता समझता था तथा अपनी अंतिम विजय में उसे संपूर्ण विश्वास हो गया था – ऐसा विश्वास जो जीवन तथ्यों पर, मानव संबंधों पर, जीवन की सृजन शक्तियों पर आधारित है.
जयशंकर प्रसाद ने काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी और निबंध आदि विधाओं में अल्पसमय में प्रभूत लेखन किया और हिंदी को कालजयी कृतियाँ प्रदान कीं. अपनी रचनाओं में उन्होंने राष्ट्रीयता के जिस रूप को प्रतिपादित किया उसमें इतिहासबोध के आधार पर प्राप्त उनकी यह स्थापना बड़े काम की है कि हम भारतभूमि के मूल निवासी हैं और हमीं ने सारी दुनिया को सभ्यता का पहला पाठ पढ़ाया था, परंतु कालांतर में नित्य विलासी और प्रकृति का दोहन करने वाली प्रवृत्ति ने हमें इतना कमजोर कर दिया कि हम लंबी गुलामी के फेर में फँस गए. प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ के प्रथम सर्ग में यह जताया है कि देव संस्कृति अपने अंतर्विरोधों के कारण नष्ट हो गई और मनुष्य संस्कृति अपनी भातरी ताकत के दम पर उसके बाद खड़ी हुई. दरअसल यह पुराने भारत की राख में से नए भारत के जी उठने का प्रतीकात्मक आख्यान है. जैसा कि डॉ.नामवर सिंह मानते हैं, “देव संस्कृति का ध्वंस वस्तुतः हिंदू राजाओं और मुसलमान नवाबों तथा मुग़ल बादशाहों के विध्वंस का प्रतीक है. उनका नाश इसलिए हुआ कि वे ‘अगतिमय’ थे. इसलिए अंग्रेज़ों ने एक-एक करके भारतीय राजाओं को तोड़ दिया और इस विध्वंस लीला का उत्कट रूप सन 57 दिखाई पड़ा. प्रसाद ने इतिहास की इस मार को प्रकृति का प्रकोप कहा है.”
दरअसल प्रसाद का सारा साहित्य इस अगतिमयता या जड़ता से टकराने की प्रेरणा देने वाला शक्ति साहित्य है. उन्होंने कई प्रभाती और जागरण गीतों की रचना की जो शक्ति और चेतना के आवाहन से परिपूर्ण हैं. ‘प्रथम प्रभात’, ‘आँखों से अलख जगाने को’, ‘अब जागो जीवन के प्रभात’ और ‘बीती विभावरी जाग री’ जैसे गीत राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष की प्ररणा से जुड़े हैं. कवि बार-बार पुकार-पुकार कर जागने और जगाने की बात करता है. ‘आँसू’ जैसा प्रेम काव्य भी इससे अछूता नहीं है –
“वह मेरे प्रेम विहँसते जागो, मेरे मधुवन में, फिर मधुर भावनाओं का कलरव हो इस जीवन में !मेरी आहों में जागो सुस्मित में सोने वाले ! **** ****हे जन्म-जन्म के जीवन साथी संसृति के दुख में;पावन प्रभात हो जावे जागो आलस के सुख में !”
अपने नाटकों में प्रसाद अधिक मुखर प्रतीत होते हैं – छायावादी सांकेतिकता से आगे बढ़कर सीधे युद्ध की मुद्रा में! उनके नाटक आज भी उस समय बहुत प्रासंगिक लगते हैं जब हम भारतीय क्षेत्रवाद और भाषावाद के नाम पर अपने देश के टुकड़े करने पर उतारू होते दीखते हैं. आज के पृथकतावादियों को चाणक्य की यह पुकार क्यों नहीं सुनाई देती – “तुम मालव हो और यह मागध, यही तुम्हारे मान का अवसान है न? परंतु आत्मासम्मान इतने से ही संतुष्ट नहीं होगा. मालव और मागध को भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी वह मिलेगा. क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसों में आर्यावर्त के सब स्वतंत्र राष्ट्र एक अनंतर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होंगे?” कहना न होगा कि यदि आज का भारत अलगाववादी साजिशों का शिकार हो गया तो नई तरह की गुलामी इस देश को झेलनी पड़ सकती है.
प्रसाद जी चाहते थे कि भारत की संस्कृति और सभ्यता मनुष्यता के उस उच्च शिखर तक पहुंचे कि दुनिया के किसी भी देश के लोग यहाँ पहुँचकर सहारा और शांति पा सकें. वे भारत को त्याग और ज्ञान के पालने के रूप में देखते थे और मानते थी कि अन्य देश जहाँ मनुष्यों की जन्मभूमि है यह भारत मानवता की जन्मभूमि है.
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत के स्वाधीन लोकतंत्र बनने से बीस साल पहले क्रांतद्रष्टा साहित्यकार जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटक ‘चंद्रगुप्त’ [1931] में मगध के माध्यम से स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वप्न देखा था और चाणक्य के उद्बोधन के रूप में अपनी अभीष्ट व्यवस्था की रूपरेखा इस प्रकार प्रस्तुत कर दी थी – “मगध के स्वतंत्र नागरिकों को बधाई है. आज आप लोगों के राष्ट्र का नवीन जन्म दिवस है. स्मरण रखना होगा को ईश्वर ने सब मनुष्यों को स्वतंत्र उत्पन्न किया है, परंतु व्यक्तिगत स्वतंत्रता वहीं तक दी जा सकती है, जहाँ दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा न पड़े यही राष्ट्रीय नियमों का मूल है. .... मंत्रिपरिषद की सम्मति से मगध और आर्यावर्त के कल्याण में लगो.”
आर्यावर्त के कल्याण में लगने के इस आवाहन के संदर्भ में ‘चंद्रगुप्त’ नाटक का ही यह प्रसिद्ध आवाहन गीत याद हो आना स्वाभाविक है -
“हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती –
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है – बढ़े चलो बढ़े चलो !
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के
रुको न शूर साहसी !
अराति सैन्य सिंधु में सुवाडवाग्नि से जलो !
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो !”
- भास्वर भारत, जनवरी-फरवरी 2013, पृष्ठ 51.