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बुधवार, 28 अप्रैल 2010

उत्तरआधुनिकता पर पोस्टर प्रदर्शनी

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में उत्तरआधुनिकता पर केंद्रित पोस्टर प्रदर्शनी

हैदराबाद, 25 अप्रैल।

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के खैरताबाद स्थित परिसर में एक विशिष्ट विषय केंद्रित ‘‘शोधप्रबंध एवं पोस्टर प्रदर्शनी’’ का आयोजन किया गया है। प्रदर्शनी का उद्घाटन शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर के प्रो. अर्जुन चव्हाण, केंद्रीय हिंदी संस्थान के प्रो. हेमराज मीणा तथा उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह ने किया। इस प्रदर्शनी का केंद्रीय विषय है - ‘‘उत्तरआधुनिक विमर्श और हिंदी अनुसंधान।’’

प्रदर्शनी के प्रथम खंड में 42 पोस्टरों के माध्यम से उत्तरआधुनिक विमर्श के विभिन्न पहलुओं को सूत्रात्मक शैली में समझाने का प्रयास किया गया है। इन पोस्टरों की विषयवस्तु में उत्तरआधुनिकता के लक्षण, प्रमुख उत्तरआधुनिक विमर्शक, उत्तरआधुनिकता के सात झटके, विखंडन की सिद्धांतिकी, स्त्रीलेखन, स्त्रीविमर्श , स्त्रीभाषा, अनुपस्थित की उपस्थिति, भूमंडलीकरण और स्थानीयता, आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता का संबंध, दलितविमर्श , मीडियाविमर्श और भाषाविमर्श जैसे शीर्षक सम्मिलित हैं।

इन पोस्टरों को संस्थान के प्राध्यापकों के निर्देशन में छात्रों और शोधार्थियों ने तैयार किया है। चंदन कुमारी, प्रतिभाकुमारी, निधि कुमारी, श्रद्धा तिवारी, कैलाश वती, सी.एस. सिस्ना, एस. वंदना, जया भारती, मोनिका देवी, निम्मी अप्पल नायुडु, भगवान गायकवाड, अनुराधा जैन और गायत्री आर्य के बनाए पोस्टरों को आगंतुकों ने विषेष रूप से सराहा।

प्रदर्शनी के दूसरे खंड में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के हैदराबाद केंद्र में अब तक संपन्न लगभग 300 शोध कार्यों में से चुनकर डी.लिट., पीएच.डी. और एम.फिल. के कुछ शोध प्रबंधों को प्रदर्शित किया गया है। इस खंड में लोकतात्विक अध्ययन, भाषावैज्ञानिक अध्ययन, राजभाषा अध्ययन, हिंदी शिक्षण अध्ययन, शैली अध्ययन, अनुवाद अध्ययन, तुलनात्मक अध्ययन और काव्य तथा गद्य की विविध विधाओं से संबंधित अध्ययन पर केंद्रित शोधप्रबंध रखे गए हैं।

प्रो. एम.वेंकटेश्वर, प्रो.टी. मोहन सिंह, डॉ. अहिल्या मिश्र, डॉ. प्रभाकर त्रिपाठी, डॉ. किशोरी लाल व्यास, शशिनारायण स्वाधीन, भगवान दास जोपट, विनीता शर्मा और डॉ. देवेंद्र शर्मा आदि गणमान्य अतिथियों सहित लगभग 200 आगंतुकों ने इस प्रदर्शनी का अवलोकन किया और यह इच्छा प्रकट की कि इसे कुछ समय तक शोधार्थियों, शोधनिर्देशकों और जिज्ञासु साहित्यप्रेमियों के लिए खुला रखा जाए। इस आग्रह को ध्यान में रखते हुए यह प्रदर्शनी 01 मई, 2010 तक प्रतिदिन 10 बजे से 5 बजे तक दर्शनार्थियों के लिए खुली रहेगी।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

‘‘उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’’ पर संगोष्ठी संपन्न


हैदराबाद - 25 अप्रैल, 2010।


दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग में नवगठित साहित्य संस्कृति मंच और स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद के तत्वावधान में ‘उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ विषयक एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई।

संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए ‘स्वतंत्र वार्ता’ के संपादक डॉ. राधे श्याम शुक्ल ने कहा कि उत्तरआधुनिकता आधुनिकता की प्रतिक्रिया में आरंभ हुई और उससे बहुत आगे बढ़ गई तथा इसकी अवधारणा विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य और भाषा सभी के साथ गुंथी हुई है। उन्होंने कहा कि दर्शन की मूल चिंता सदा यही रही है कि सत्य क्या है। इस सत्य का साक्षात्कार करने का प्रयास ही मनुष्यता वैदिक युग से लेकर उत्तर आधुनिक युग तक करती रही है। डॉ. राधे श्याम शुक्ल ने इस संबंध में चिंता जताई कि साहित्य और सृजन के मूल्यांकन को रेखांकित करने के लिए हम भारतीय परंपरा की ओर नहीं देख रहे हैं। उन्होंने विस्तार से पश्चिमी और भारतीय दर्शन और काव्यशास्त्र की परंपरा की तुलना की।

बीज व्याख्यान शिवाजी विश्वविद्यालय कोल्हापुर के प्रो. अर्जुन चव्हाण ने दिया। उन्होंने कहा कि उत्तरआधुनिकता अनेक प्रवृत्तियों का पुंज है जिसमें एक ओर अतियथार्थवाद है तो दूसरी ओर यह चिंतन कि जो समूह कल तक हाशिए पर थे वे आज केंद्र में आ रहे हैं। प्रो. चव्हाण ने अनेक उदाहरण देकर यह प्रतिपादित किया कि उत्तरआधुनिक विचारचिंतन का वैध और अवैध से कोई लेनादेना नहीं है। उन्होंने इसे बना हुआ चिंतन नहीं बल्कि बनता हुआ चिंतन बताया और कहा कि यह पश्चिम की दादागिरी का चिंतन है जिसमें ध्वंसात्मकता का प्रमुख स्थान है।

संस्थान के कुलसचिव प्रमुख हिंदी भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह ने उत्तरआधुनिकता की व्याख्या संरचनावाद और विरचनावाद के संदर्भ में करते हुए विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को इस प्रवृत्ति का प्रतिनिधि उपन्यास बताया। उन्होंने ब्लूमफील्ड, सस्यूर और चॉम्स्की की चर्चा करते हुए कहा कि साहित्यिक पाठ के भीतर एक ऐसी संरचना होती है जो उस पाठ के अंदर ले जाती है तथा उत्तरआधुनिक विमर्श की सार्थकता इन पाठों की पाठक के नजरिये से व्याख्या करने में निहित है।

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के रूसी विभाग के आचार्य डॉ. जगदीश प्रसाद डिमरी ने उत्तरआधुनिकता के इतिहास पर प्रकाश डाला और जोर देकर कहा कि आज आवश्यकता यह है कि तमाम उत्तरआधुनिक विमर्श को संस्कृत की दार्शनिक और काव्यशास्त्रीय चिंतनधारा के बरक्स परखा जाए। उन्होंने माँग की कि हिंदी के साहित्यचिंतक अपनी देशीय जमीन अर्थात् संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर आधुनिक युग के नए साहित्यिक मापदंड तैयार करें।

आरंभ में डॉ. बी. बालाजी ने सरस्वती वंदना की। संगोष्ठी संयोजक डॉ. मृत्युंजय सिंह ने संगोष्ठी के विषय की पृष्ठभूमि के बारे में बताते हुए यह सवाल उठाया कि आलोचना और विमर्श किस तरह अलग हैं तथा उत्तरआधुनिकता का आधुनिकता से क्या रिश्ता है। उन्होंने यह भी जिज्ञासा प्रकट की कि उत्तरआधुनिक दृष्टि से शोध का मॉडल क्या होना चाहिए। आंध्र सभा के विशेष अधिकारी एस.के. हळेमनी ने अतिथियों का स्वागत किया।
प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने की। अपने संबोधन में उन्होंने याद दिलाया कि उत्तर आधुनिकता की शुरुआत वास्तुकला से हुई जिसका बाद में चित्रकला, संगीत, साहित्य और अन्य ज्ञानक्षेत्रों में प्रचलन हुआ। उन्होंने आदिवासी विमर्श का उल्लेख करते हुए कहा कि विकास के नाम पर जन-जातियों को उनकी जड़ों से काटना ध्वंसात्मक है जो आदिवासी विमर्श का प्रस्थानबिंदु है। इस सत्र में डॉ. बलविंदर कौर ने ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और पहचान का संकट’, डॉ. घनश्याम ने ‘उत्तरआधुनिक साहित्य में आदिवासी जीवन’, डॉ. करण सिंह ऊटवाल ने ‘नाटक, रंगमंच और उत्तरआधुनिकता’ और ‘डॉ. विष्णु भगवान शर्मा ने ‘उत्तरआधुनिक भाषा संकट और राजभाषा हिंदी’ विषय पर शोधपरक आलेख प्रस्तुत किए। संचालन डॉ. जी. नीरजा ने किया।

द्वितीय सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ. टी. मोहन सिंह ने उत्तरआधुनिक विमर्श की विसंगतियों पर ध्यान दिलाया और कहा कि यदि बुद्धिजीवियों को वास्तव में दलितों और आदिवासियों से थोड़ा भी प्रेम है तो उन्हें वातानुकूलित कमरों से निकलकर इस देश के गाँवों में जाकर कुछ काम करना चाहिए - सिर्फ विमर्श करते रहने से कोई परिवर्तन नहीं आएगा। इस सत्र में डॉ. भीमसिंह ने ‘उत्तरआधुनिक साहित्य में दलित संदर्भ’ विषय पर शोध पत्र पढ़ा जबकि डॉ. पी. श्रीनिवास राव ने अपने आलेख में ‘स्त्री लेखन में उत्तरआधुनिकता’ का विवेचन किया। डॉ. साहिराबानू बी. बोरगल के आलेख ‘साहित्यभाषा का उत्तरआधुनिक संदर्भ’ की प्रस्तुति के अलावा चर्चा सत्र में डॉ. बी. बालाजी, चंदन कुमारी, सुशीला , प्रतिभा कुमारी, मोनिका देवी, अनुराधा जैन, राजकमला और मोहम्मद कुतुबुद्दीन आदि शोधार्थियों ने विचारोत्तेजक टिप्पणियों से कार्यक्रम को गति प्रदान की। इस सत्र का संचालन डॉ. बलविंदर कौर ने किया।

समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि उत्तरआधुनिकता कोई ऐसी चीज नहीं है जिससे आतंकित हुआ जाए क्योंकि यह एक शाश्वत सत्य है कि सारे विमर्श , कोई भी वर्ग या कोई गतिशील समाज स्थिर नहीं रह सकता, लेकिन उसके टुकड़े भी उतने ही किए जा सकते हैं जितने की कि वह अनुमति देगा। इसलिए यह सोचना कि उत्तर आधुनिक विमर्श हमारी संस्कृति को तोड़ देगा, भ्रांति के अलावा कुछ और नहीं। आवश्यकता इस बात की है कि यदि साहित्य, समाज, मीडिया, कला या फिल्मों में कुछ ऐसा प्रस्तुत किया जा रहा है जो गलत है तो उस पर भी विमर्श होना चाहिए। इस सत्र में डॉ. राधे श्याम शुक्ल और चवाकुल नरसिंह मूर्ति ने टिप्पणी करते हुए संगोष्ठी को विचारोत्तेजक और सार्थक बताया।

समाकलन करते हुए भी प्रो. अर्जुन चव्हाण ने कहा कि किसी भी विमर्श की तरह उत्तरआधुनिकता में भी न तो सब कुछ अच्छा है न सब कुछ खराब इसलिए हमें भारतीय संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उसकी स्वीकार्य बातों को ग्रहण करना चाहिए। समापन सत्र का संचालन डॉ. पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव ने किया गया।

धन्यवाद ज्ञापित करते हुए डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने निकट भविष्य में ‘उत्तर संरचनावाद’ पर केंद्रित संगोष्ठी का प्रस्ताव रखा। आरंभ में डॉ. शर्मा ने संस्थान के समकुलपति से और देशविदेश के विद्वानों तथा साहित्यकारों से ई-मेल के माध्यम से प्राप्त संदेशों का भी वाचन किया.

राष्ट्रीय संगोष्ठी में हैदराबाद के विभिन्न विश्वविद्यालयों के अध्यापक और छात्र बड़ी संख्या में उपस्थित रहे। साथ ही नगरद्वय के साहित्यप्रेमियों, कवियों, पत्रकारों और हिंदीसेवियों ने भी बढ़चढ़कर हिस्सा लिया जिनमें डॉ. टी.के.एन. पिल्लै, डॉ. सुरेश दत्त अवस्थी, डॉ. विजयराघव रेड्डी, डॉ. रेखा शर्मा, डॉ. कांचन जतकर, डॉ. पी. माणिक्यांबा, डॉ. प्रवीणा राज, डॉ. टी.जे. रेखारानी, डॉ. मंजूषा श्रीवास्तव, डॉ. अर्चना झा, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. जे.वी. कुलकर्णी, डॉ. तात्याराव सूर्यवंशी, डॉ. मिथिलेश सागर, डॉ. देवेंद्र शर्मा, डॉ. राजकुमारी सिंह, डॉ. सत्यनारायण, डॉ. किशोरी लाल व्यास, डॉ. पी.आर. घनाते, डॉ. श्यामराव राठौड़, डॉ. प्रभाकर त्रिपाठी, डॉ. शक्ति कुमार द्विवेदी, डॉ. एम. आंजनेयुलु, डॉ. हेमराज मीणा, नरेंद्र राय, द्वारका प्रसाद मायछ, चित्रसेन राणा, एस. सुजाता, ज्योति नारायण, अशोक तिवारी, गुरुदयाल अग्रवाल, भगवान दास जोपट, विजय पाटिल, शशि नारायण स्वाधीन, डी.सी. प्रक्षाले, ए.जी. श्रीराम, भगवंत गौडर, ज्योत्स्ना कुमारी, के. नागेश्वर राव, रामकुमार, श्रीधर, श्रीनिवास सोमाणी, आशा देवी सोमाणी, सुनील सूद और विनीता शर्मा के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।


शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

‘‘उत्तर आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’’

भूमंडलीकरण, उदारवाद और बाजारवाद के विश्वव्यापी प्रसार के साथ चिंतन और सृजन के क्षेत्र में तीव्रता से बदलाव आए हैं। संस्कृति, समाज, कला और राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में लंबे समय तक दो ध्रुवीय विचारधाराओं का प्रभाव रहा। बदले हुए संदर्भ में यह बात सामने आई है कि ये ध्रुव और सत्ता केंद्र टूट गए हैं और इनका स्थान अब तक केंद्र से दूर रहे वे समूह और विमर्श ले रहे हैं जिनकी अब तक की विकासयात्रा में उपेक्षा होती रही थी। इसका अर्थ है कि यह समय एककेंद्रीयता का नहीं बल्कि बहुकेंद्रीयता का है, बहुलता का है। आधुनिकता के साथ जो व्यक्तिकेंद्री चिंतन सामने आया था अब उसका स्थान समूहों के विमर्श ले रहे हैं। यह प्रवृत्ति चिंतन के क्षेत्र में उत्तर आधुनिकता के रूप में पहचानी गई है।

उत्तरआधुनिकता कोई उतनी सरल चीज़ नहीं जिसे किसी एक सूत्र या समीकरण के रूप में समझा जा सके। इसके अपने विधि-निषेध हैं, हानि-लाभ है और ग्राह्यता-अग्राह्यता हैं। आज की एकध्रुवीय दुनिया में इसे सर्वशक्तिमान महाशक्ति की साम्राज्यवादी लिप्सा के विस्तार के रूप में भी देखा जा सकता है और अब तक के वंचितों के सत्तासंघर्ष तथा लोकतांत्रिक उपलब्धि के रूप में भी। कभी यह कहा जाता है कि इस विमर्श में न कोई विचार अंतिम है न कोई विकास, तो कभी यह कि इसका वैध-अवैध से यानी किसी तरह की नैतिकता से कोई संबंध नहीं है। यह भी कि उत्तरआधुनिक विमर्श अतियथार्थ और आभासी यथार्थ को प्रस्तुत करता है।

यह ठीक है कि उत्तरआधुनिक विमर्श की सिद्धांतिकी अत्यंत व्यापक भी है और जटिल भी। परंतु यहाँ हमारी रुचि मुख्य रूप से इस बात में है कि एक तो उत्तरआधुनिकता ने उन समूहों को केंद्र में लाने का प्रयास किया है जो परिधि पर थे - इसे हाशियाकृत समुदायों की सार्वजनीन स्वीकृति के रूप में देखा जा सकता है। भारतीय साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श और आदिवासी विमर्श जैसी प्रवृत्तियों के उभार की व्याख्या इस दृष्टि से की जानी आवश्यक है। इसी प्रकार दूसरी यह भी ध्यान देने की बात है कि उत्तरआधुनिक विमर्श कला, साहित्य और संस्कृति की व्याख्या में अंतर्पाठीयता और पुनर्पाठ पर जोर देता है। यहाँ कोई एक पाठ अंतिम नहीं है और न ही स्वायत्त। इससे यह जरूरत महसूस होती है कि प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्य का पुनर्पाठ कल तक हाशिये पर रहे समुदायों की दृष्टि से करना आवश्यक है।

उत्तरआधुनिक विमर्श अनुपस्थिति को दर्ज करने वाला विमर्श है यानी जो कल तक अनुपस्थित था वह आज उपस्थित होने का संघर्ष कर रहा है। कल तक पश्चिम उपस्थित था जिसके कारण भारत अनुपस्थित हुआ। इसलिए यदि आज हम भारतीयता को खोज रहे हैं, स्थानीयता को खोज रहे हैं, आंचलिकता को खोज रहे हैं, लोक को खोज रहे हैं, दलितों को खोज रहे हैं, आदिवासियों को खोज रहे हैं, स्त्री को खोज रहे है तो यह सारी खोज उन समूहों की खोज है जो कल तक साहित्य चिंतन में अनुपस्थित थे या हाशिये पर धकेल दिए गए थे। आज इतिहास को इस तरह देखना होगा कि किसके कारण कौन अनुपस्थित हुआ। यानी पश्चिम ने भारत को अनुपस्थित किया, पुरुष सत्ता ने स्त्री को, वर्ण व्यवस्था ने दलितों को, नेताओं ने जनता को, सभ्य समूहों ने आदिवासियों को, कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यकों को, इलेक्ट्रानिक मीडिया ने लोककलाओं को तथा बड़े बाज़ार ने छोटी दुकानों को। उत्तरआधुनिकता का ग्राह्य पक्ष साहित्य के संदर्भ में यह होना चाहिए कि इन सब अनुपस्थितों की दृष्टि से सब कुछ की पुनःव्याख्या की जाय तथा इनकी अभिव्यक्ति को पूरी लोकतांत्रिक शिष्टता के साथ स्वीकार किया जाय।

यहाँ यह कहा जा सकता है कि आधुनिकता ने पुनर्जागरण काल में सब प्रकार की अव्यवस्था के भीतर से ऐसी व्यवस्था को खोजने का प्रयास किया था जो मनुष्यकेंद्री थी। इससे आगे बढ़कर उत्तरआधुनिकता बहुकेंद्रीयता की संकल्पना को लेकर चलती है और यह बहुकेंद्रीयता व्यक्ति की अपेक्षा समूहों की केंद्रीयता है। आज के समय में चाहे साहित्य की विभिन्न विधाएँ हों या मीड़िया का नित्य बदलता परिदृश्य - सबमें इसलिए एक भ्रम जैसी स्थिति दिखाई देती है क्योंकि भारत का समाज अभी तक अनेक संस्तरों वाला समाज है। यहाँ आज भी आदिम कबीलाई सामाजिक व्यवस्था से लेकर नए पेटिबुर्जुआ प्रबंधनकर्ता है व्यापारी वर्ग या यूपीज़ (यंग अर्बन प्रोफेशनल्स) तक इतना विविधतापूर्ण समाज विद्यमान है कि इस सारे परिदृश्य को किसी एक विमर्श से संबोधित करना संभव ही नहीं है। लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि अभी भी हमारा समाज बड़ी मात्रा में औरतों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की अभिव्यक्तियों और उनकी सामूहिक अस्मिता के प्रति अत्यंत अनुदार और असहिष्णु है जबकि उत्तरआधुनिक समाज में इन समूहों की आवाज को सहज भाव से स्वीकार किया जाना अपेक्षित है।

इन्हीं सब मुद्दों को ध्यान में रखकर 25 अप्रैल, 2010 (रविवार) को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, के हैदराबाद केंद्र में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की जा रही है। इस संगोष्ठी का केंद्रीय विषय है - "उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य"। विभिन्न सत्रों में उत्तरआधुनिकता के स्वरूप तथा हिंदी साहित्य में उसकी विविध रंगों में अभिव्यक्ति पर चर्चा-परिचर्चा संपन्न होगी। संगोष्ठी में डॉ. राधेश्याम शुक्ल (संपादक, स्वतंत्र वार्ता), डॉ. जे.पी. डिमरी (आचार्य, रूसी विभाग, इफ्लू), डॉ. अर्जुन चव्हाण (आचार्य, शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर), डॉ. दिलीप सिंह (प्रमुख भाषाचिंतक), डॉ. एम. वेंकटेश्वर (डीन, भारत अध्ययन, इफ्लू), डॉ. टी. मोहन सिंह (पूर्व आचार्य, उस्मानिया विश्वविद्यालय), डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. बलविंदर कौर, डॉ. घनश्याम, डॉ.करण सिंह ऊटवाल, डॉ. विष्णु भगवान शर्मा, डॉ. जी. नीरजा, डॉ. भीमसिंह, डॉ. पी. श्रीनिवास राव, डॉ. साहिराबानू और शोधार्थियों के संवाद द्वारा उपयोगी जानकारियों के सामने आने की उम्मीद की जानी चाहिए।

ते जानहु निसिचर सम प्रानी

मित्रो!

कभी हम अपने आचरण पर सोचकर देखें तो ऐसा क्यों लगता है कि हम देवत्व की सारी संभावनाओं के बावजूद मनुष्य भी नहीं रह पाए हैं - राक्षस होते जा रहे हैं - रावण हो गए हैं। जिस परिवेष में हम जी रहे हैं( कभी-कभी तो लगता है - रावणराज्य में जी रहे हैं। रावणराज्य अथाZत् अधर्म का राज्य। धर्म का अर्थ पूजा, नमाज, अगरबत्ती और मोमबत्ती नहीं, हृदय की उदारता है, आचरण की पवित्रता है। ये नहीं बचे तो धर्म कहा¡ बचा? दुष्टता बढ़ रही है - अकारण भले लोगों को सताने में आनंद लेने वाले मनोरोगियों से धरती त्रस्त है। बेईमानी, धोखाधड़ी, जुआखोरी-सम्मानित व्यवसाय बन गए हैं। सारी नीतिया¡ इन्हीं का संरक्षण करती प्रतीत होती हैं। तमाम मीडिया उन्हीं को महानायकों की तरह प्रस्तुत करने में लगा है जो दूसरों की संपत्ति को हथियाकर अपना अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक साम्राज्य खड़ा करने में सफल हो रहे हैं। पुरुष हों या स्त्री - दांपत्य संबंधों में ईमानदारी जैसे आज कोई अर्थ नहीं रखती। परपुरुष और परस्त्री से संबंध गर्व का विषय हो गए हैं। बात यहा¡ तक चल निकली है कि परिवार जैसी संस्था ही कालातीत प्रतीत होने लगी है।
पति-पत्नी के प्रति उत्तरदायित्व की बात तो तब सूझे, जब माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य का बोध हो। आज मातृदेवो-पितृदेवो का जमाना लद गया। वे या तो वृद्धाश्रम की शोभा बढ़ाए¡ या फिर बहू-बेटे की चाकरी करें! जब इस योग्य भी न रहें, तो आत्महत्या कर लें - चाहे घर में रहकर, चाहे तीरथ जाकर! यही आचरण तो असुर की निषानी है - रावणराज्य की पहचान है और `धर्म की ग्लानि´ की सूचना है -


बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट पर धन पर दारा।।
मानहिं मातुपिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
जिन्ह के यह आचरण भवानी। ते जानहु निसिचर सम प्रानी।।
अतिसय देखि धरम के ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी।।
सकल धरम देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भयभीता।।
इस रावणराज्य के प्रभाव से बचना है तो अपने भीतर राम का जगाना होगा! -

-संपादक

अप्रैल २००८ अंक

बरनि न जाइ अनीति!


मित्रो! कुछ भले मानुष इस बात को लेकर बड़ी माथापच्ची करने में लगे रहते हैं कि आखिर तुलसी ने अयोध्या पर किसी आक्रमण और राम जन्मभूमि के स्थान पर किसी प्रकार के ध्वंस और निर्माण का उल्लेख क्यों नहीं किया। इससे जुड़े तरह-तरह के प्रष्न उठाए जाते हैं। हमें उनके विस्तार में नहीं जाना है। हमें तो राम के अवतार के प्रयोजन की सारी चर्चा रामजन्मभूमि की मर्यादा के खंडित होने से ही जुड़ी दिखाई देती है। राजा प्रतापभानु को जिस प्रकार षड्यंत्रपूर्वक नष्ट किया गया, हमें तो उसमें भी मध्यकालीन भारत का इतिहास प्रतिबिंबित दिखाई देता है। राजपूत राजाओं को पराजित करने के लिए जिस प्रकार उनसे ईष्र्या करने वालों ने बाहरी शत्रुओं को आमंत्रित किया, तुलसी बाबा ने उसे इस कथा में नियोजित कर दिया -
तेहिं खल जह¡-तह¡ पत्र पठाए। सजि-सजि सेन भूप सब धाए।।
घेरेिन्हं नगर निसान बजाई। बिबिध भा¡ति नित होइ लराई।।
जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी।।
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बा¡चा। बिप्र स्राप किमि होइ असा¡चा।।
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निजपुर गवने जय जसु पाई।।
जाने क्यों हमें इसमें भारत में गुलाम वंष का शासन स्थापित करके मुहम्मद गौरी के अपनी राजधानी को लौट जाने की घटना की ध्वनि सुनाई देती है!
यही नहीं, जब रावण अपने योद्धाओं को दििग्वजय के लिए संबोधित करता है और शत्रुओं को भूखे, शक्तिहीन तथा क्षीण बनाकर अपने वष में करने की नीति बखानता है तो इसमें भी तुलसी के समय की आतंकपूर्ण युद्धनीति की आहटें सुनाई देती हैं। आप एक अयोध्या की बात करते हैं, यहा¡ तो सर्वत्र हाहाकार सुनाई दे रहा है -
करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया।।
जेहि बिधि होइ धरम निमूZला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।।
जेहिं-जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउ¡ पुर आगि लगावहिं।।
बरनि न जाइ अनीति, घोर निसाचर जे करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति, तिन्ह के पापहिं कवनि मिति।।
और क्या प्रमाण चाहिए देष व्यापी ध्वंस का!

- संपादक

मार्च २००८ अंक


गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

प्रीति की रीति

तुलसी का साहित्य जीवन और जगत के तमाम अनुभवों के सार से लबालब भरा है। भक्ति और अध्यात्म का नीति और व्यावहारिकता के साथ समन्वय तुलसी की एक बड़ी विषेषता है जो उन्हें जनता का हृदयहार बनाए हुए है। उन्होंने लोकरंजन और लोकरक्षण का अपना कविधर्म निभाते हुए अनेक ऐसे सूत्रवाक्य लिखे हैं जो मूल्याधारित और संतुष्ट जीवन के आधार बन सकते हैं। सारे संबंध चाहे लौकिक हों या पारमार्थिक ,तभी चरितार्थता प्राप्त करते हैं जब उनमें निष्कपटता हो। तुलसी के राम को कपट और छलछिद्र नहीं भाते। निष्कपट प्रेम चाहिए बस! तुलसी भी निर्भरा भक्ति की ही कामना करते हैं। यह प्रेम जिसे मिल गया, यह भक्ति जिसने पा ली, उसी का जीवन मूल्यवान है, सार्थक है। पे्रम हमारा मूल्य बढ़ा देता है! पे्रम दूध है, पानी में भी मिल जाए तो पानी भी दूध के मोल बिक जाता है। यही प्रीति की रीति है। पर निष्कपटता इसकी बुनियादी शर्त है। कपट यदि आया - भक्त और भगवान के बीच, मित्रों के बीच, परिवारीजन के बीच, समाज के सदस्यों के बीच, तो बस समिझए कि जीवन का रस चला गया। सब विरस हो जाता है। संबंध टूट जाते हैं। शंकाए¡ जन्म लेती हैं। अविष्वास पनपता है। दूरिया¡ बढ़ती हैं। सुख तिरोहित हो जाता है। तनाव और द्वंद्व अषांति को उपजाते हैं। रस जाता रहता है। दूध में तनिक सी खटाई पड़ जाए, तो पानी फिर पानी पानी हो जाता है - दूध तो ऐसा फटता है कि फिर जोड़े नहीं जुड़ता। तनिक सा दुराव इतना सब उपद्रव कर देता है। षिव और सती तक का संबंध इस तनिक से दुराव से खतरे में पड़ जाता है और उदासीन षिव क्षुब्ध होकर समाधि लगा लेते हैं, अवसाद ग्रस्त सती अंतत: योगाग्नि में स्वयं को भस्म कर लेती है। प्रीति का रस न रहे तो जीवन जीने योग्य नहीं रह जाता - चाहे षिव और सती का जीवन हो, या हमारा और आपका।
बाबा के शब्दों में -
सोरठा :
जलु पय सरिस बिकाइ, देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ, कपट खटाई परत पुनि ।।

(मानस, बालकांड, 57 ख)
- संपादक
वर्ष : 23 माघ शुक्ल पक्ष 9, संवत् 2064 अंक : 5 15 फरवरी 2008

तजिए वचन कठोर

तुलसी बाबा ने वषीकरण के गोपनीय मंत्र को सर्वसुलभ बनाते हुए कहा है कि मीठे वचन से सब ओर सुख उपजता है इसलिए यदि सबको अपने वष में करना चाहते हो तो कठोर वचन के प्रयोग से बचो! यह आजमाया हुआ मंत्र है। छोटे से बड़े तक सब वष मेें हो जाते हैं। तमाम मंत्रों की तरह इस मंत्र का भी अनधिकारी लोगों ने बहुत दुरुपयोग किया है। चालाक और चापलूस लोगों के वचन प्राय: ऊपर से इतने मधुर होते हैं कि उनके सामने सचमुच के मधुर वचन फीके पड़ जाते हैं। इसके बावजूद हर किसी को मीठी-मीठी बातें सुनना ही अच्छा लगता है। कुछ लोग होते हैं जो अपने दुर्वचनी होने का बखान अपनी सत्यनिष्ठा और निभीZकता के रूप में किया करते हैं। पर स्वयं उन्हें भी मीठे वचन ही प्रिय होते हैं। कभी भूल से भी उनके समक्ष कोई कटु, कठोर या अप्रिय वाक्य कह दिया जाए तो वे कहने वाले की नीयत पर ही संदेह करने लगते हैं। उसे अपना शत्रु मान बैठते हैं, ईष्र्यालु और प्रतिद्वंद्वी घोषित कर देते हैं। तब तो और भी बड़ा धर्मसंकट पैदा हो जाता है जब आप अपने प्रियजन की रुष्टता के भय से बलात् मीठे वचन बोलने को विवष हों। तुलसी बाबा ने इस द्वंद्व का भी समाधान किया है। वे समझाते हैं कि यदि मंत्री, वैद्य और गुरु भय या लोभ वष प्रिय बोलने लगें तो क्रमष: राज्य, शरीर और धर्म का नाष नििष्चत है - सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगिही नास।। स्पष्ट है, यहा¡ चालाकी और चापलूसी भरे कपटपूर्ण मधुर वचनों से संभावित खतरे से अवगत कराया गया है। ऐसे में सच्चे मित्र का कर्तव्य क्या है? `मानस` के कििष्कंधाकांड में स्वयं राम कहते हैं - कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनिन्ह दुरावा।।
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।। ऐसा संत मित्र कभी भी समक्ष मृदु वचन कहने और पीठ पीछे बुराई करने जैसी कुटिलता नहीं कर सकता। कभी कठोर वचन कहने या आलोचना करने या मतभेद होने पर भी वह रंच मात्र भी शत्रुता नहीं बरत सकता। मित्रवर, शत्रु तो आपका वह कपटी मित्र है जो झूठी स्तुति रूपी वषीकरण मंत्र से आपकी बुिद्ध को भ्रमित और सम्मोहित करने में ही लगा रहता है, उस सा¡प को पहचानिए - आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।।
जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।
सेवक सठ, नृप कृपन, कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।। इसलिए तनिक अपने स्वभाव की पड़ताल कीजिए कि मधुर वचन के लोभ में आप किसी कुमित्र के वषीकरण जाल में तो नहीं फ¡से हैं या किसी संत मित्र को भयभीत करके प्रिय बोलने के लिए विवष तो नहीं कर रहे हैं। अगर ऐसा कहीं हो तो सावधान हो जाए¡ और तुरंत ऐसे कुमित्र को त्याग दें तथा संत मित्र की सद्भावना का सम्मान करना सीख लें!
- संपादक
वर्ष : 23 अंक : 4 पौष शुक्ल पक्ष 9, संवत् 2064 17 जनवरी 2008

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

रामनाम मणिदीप धर, जीह देहरी द्वार।

आलोक पर्व की शुभकामनाए¡ ! `रामायण संदषZन` के इस अंक के माध्यम से हम दीपावली के अवसर पर अपनी अनंत शुभकामनाए¡ आप तक पहु¡चा रहे हैं। इस समय तुलसी का यह संदेष याद आता है :
रामनाम मणिदीप धर, जीह¡ देहरी द्वार।
`तुलसी` भीतर बाहिरहु, जो चाहसि उजियार।।
दीपावली के साथ कई तरह की मान्यताए¡ जुड़ी हुई हैं। यह ज्ञान और समृद्धि का त्यौहार है। साधना की सिद्धि का पर्व है। मिलन को उपलब्ध होने का महोत्सव है। प्रिय की अगवानी का शुभ मुहूर्त है। वह मुहूर्त जब राम वनवास काटकर अयोध्या लौटते हैं। भरत माताओं को राम के आगमन की सूचना देते हैं तो वे विह्वल उठती हैं - पगलाकर दौड़ पड़ती हैं जैसे बछड़े की आहट पाकर गाय दौड़ पड़ी हो। नगर भर में समाचार फैल जाता है और शोक की चौदह वर्ष की अमावस्या एक पल में अतीत हो जाती है। दीप जलाकर लोकाभिराम राम की अगवानी की जाती है और नगर जगर-मगर हो उठता है :
दधि दूबाZ रोचन फल-फूला। नव तुलसीदल मंगलमूला।।
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलीं सिंधुरगामिनी।।
जे जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं। बाल वृद्ध कहु¡ संग न लावहिं।।
राम आ गए अयोध्या में। भरत-मिलाप जैसा मार्मिक अवसर कहीं दूसरा नहीं मिलता। पर राम तो सबके हैं। वे भरत से मिलते हैं - एक एक पुरवासी से मिलते हैं। तुलसी ने इस `रामलीला` का सरस वर्णन किया है -
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।
अमित रूप प्रगटे तेहिं काला। जथाजोग मिले सबहिं कृपाला।।
छन महिं सबहिं मिले भगवाना। उमा मरम यह काहु¡ न जाना।।
वह कोई भी तिथि हो। वह कोई भी वार हो। पर वह प्रिय मिलन की तिथि थी। वह सब पर `यथायोग्य` कृपा का वार था। वह अंधकार के समूल कटने की वेला थी। वह ज्योतिबीज बोने का काल था। जब-जब वह पल अनंत काल के प्रवाह में कहीं भी घटित होता है, तब-तब सजती है दीपावली और मनाया जाता है आलोक का पर्व -
कंचन कलस विचित्र संवारे। सबहि धरे सजि निज निज द्वारे।।
बंदनिवार पताका केतू। सबिन्ह बनाए मंगल हेतू।।
बीथीं सकल सुगंध सिंचाईं। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।।
नाना भांति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।।
जहं तहं नारि निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं।।
कंचन थार आरती नाना। जुवती सजें करहिं सुभ गाना।।
करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल विपिन दिनकर कें।।
नारि कुमुदिनी अवध सर, रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भए बिगसत भईं( निरखि राम राकेस।।
कहा¡ है अंधेरा? कहा¡ है अमावस?? जिस रात के चंद्रमा राम हैं, उसमें कैसा अंधेरा??? जब तक राम नहीं थे - तभी तक अंधेरा था - तभी तक अमावस थी। राम आ गए। उजियारा छा गया। उजियारा - भीतर और बाहर सर्वत्र उजियारा!!!
है( आज भी अंधेरा है। राम का उज्ज्वल चरित्र चाहिए। तभी दीपावली मनाना सार्थक होगा। इस विष्वव्यापी अंधेरे में एक दीप जलाकर तो देखें( राम के मर्यादाषील चरित्र का दीप -
राम नाम मणिदीप धर, जीह¡ देहरी द्वार!
तुलसी भीतर बाहिरहु, जो चाहसि उजियार!!

- संपादक

वर्ष : 23 कार्तिक शुक्ल पक्ष 9, संवत् 2064 अंक : 2

सबइ सुधारी मोरि

`रामायण संदषZन` के तुलसी जयंती अंक पर अनेक सुधी पाठकों और विद्वान लेखकों के पत्र प्राप्त हुए हैं। इन पत्रों में जहा¡ पत्रिका को शुभकामनाए¡ दी गई हैं, वहीं राम, मानस और तुलसी की प्रासंगिकता पर खासी चर्चा भी की गई है। डॉण् गणेष दत्त सारस्वत, डॉण् सूर्यदीन यादव, मुनीद्रजी, डॉण् परमलाल गुप्त, डॉण् बलविंदर कौर, डॉण् सियाराम तिवारी, डॉण् स्वर्ण किरण, डॉण् दीनानाथ शरण, डॉण् शरद नारायण करे, दामोदर स्वरूप विद्रोही, भगवानदास एजाज, डॉण् राममूर्ति त्रिपाठी, आचार्य भगवत दुबे, डॉण् गायत्री शरण मिश्र मराल जैसे शुभचिंतकों की प्रतिक्रियाओं से हमें काफी बल मिला है। ये सारी प्रतिक्रियाए¡ अविकल रूप में इंटरनेट पर हमारे ब्लॉग 360ण्लंीववण्बवउध्तंउंलंदेंंदकंतेींद पर उपलब्ध हैं। स्थानाभाव के कारण हम इन्हें यहा¡ प्रकाषित नहीं कर पा रहे हैं। डॉण् कविता वाचक्नवी ने तो अत्यंत आत्मीयता और उत्साह के साथ `वाक्` पत्रिका से डॉण् रमेष कुंतल मेघ के आलेख की ई-प्रति प्रेषित कर दी है, जिसे इस ब्लॉग पर साभार उद्धृत किया गया है। हम आप सबके प्रति कृतज्ञ हैं। आपका यह स्नेह और मार्गदषZन आगे ही मिलता रहे, यही कामना है : सुहृद सुजान सुसाहिबहि, बहुत कहब बिड़ खोरि।

आयसु देइअ देव अब, सबइ सुधारी मोरि।। (मानस/2/300)।

- संपादक
वर्ष 22 भाद्रपद शुक्ल पक्ष 9, संवत् 2064 अंक : 2
21 सितंबर, 2007

||एतेहु पर करिहहिं जे असंका||

श्रावण शुक्ल पक्ष 7, संवत् 2064 तुलसी जयंती अंक 20 अगस्त, 2007

510 वीं तुलसी जयंती की शुभकामनाएँ

तुलसी जयंती अंक के माध्यम से 'रामायण संदर्शन' एक बार फिर नए संकल्प के साथ आपके सामने आ रहा है। कुछ विषम परिस्थितियों के कारण काफी समय तक इसका प्रकाशन स्थगित रहा, इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

इस अंक के माध्यम से एक बार फिर तुलसी की सार्वकालिक प्रासंगिकता को रेखांकित करने का प्रयास किया जा रहा है। डॉ. आलोक पांडेय और चंद्रमौलेश्वर प्रसाद के आलेख इसी दृष्टिकोण से सम्मिलित किए गए हैं। यद्यपि तुलसी जैसे लोकनायक रचनाकार की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाना हमारी दृष्टि में बेहद बचकानापन है, तथापि इस पर चर्चा करना बार-बार इसलिए जरूरी लगता है कि यह बचकानापन आए दिन हमारे बुजुर्ग और प्रगतिशील समझे जाने वाले बुद्धिजीवी करते ही रहते हैं। दरअसल इस तरह वे अपने आपको प्रासंगिक बनाने की कोशिश करते हैं, वरना उन बेचारों के सामने अपने स्वयं के अप्रासंगिक होने का खतरा खड़ा हो जाता है। राम और तुलसी या भारतीयता और भारत पर सवाल दागकर वे बेचारे अपनी अस्तित्व-रक्षा कर लेते हैं।

हमारे विचार से तुलसी का जीवन और कृतित्व दोनों ही देशकाल से परे उनकी प्रासंगिकता के सबसे बड़े आधार हैं। उनका जीवन आज भी हमें संघर्ष की सतत प्रेरणा देने वाला शक्तिपुंज है। जब हम यह देखते हैं कि सामान्य से भी निम्नकोटि की सामाजिक-आर्थिक अवस्थाओं में रहने वाला एक असहाय बालक किस तरह गोस्वामी, महात्मा और लोकनायक बना - तो हमें अपने लिए एक ऐसा रोल मॉडल मिल जाता है जो नितांत हमारा अपना है। हमें तो लगता है कि तुलसी की जीवन गाथा का विभिन्न संचार माध्यमों द्वारा जन-जन में व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। इससे नई पीढ़ी में संघर्षशीलता और जीवनमूल्यों के प्रति निष्ठा की जड़ें मजबूत करने में सहायता मिलेगी।

इसी प्रकार तुलसी का कृतित्व तो अपनी प्रासंगिकता में अद्वितीय और कालजयी है ही। यह तुलसीदास की ही विशेषता है कि वे स्वांत: सुखाय रघुनाथ गाथा को सुरसरि सम सब कहँ हित के साथ एकमेक कर देते हैं। यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है (क्योंकि हम सबको यह सदा याद रहता ही है) कि राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में तुलसी ने ही प्रतिष्ठित किया। तुलसी ने राम के ब्रह्म रूप को भी माना और अवतार रूप को भी। लेकिन इन रूपों की भक्ति करते हुए भी सर्वाधिक महत्व राम के पुरुष रूप को दिया। राम का यह पुरुष रूप पौरुष का चरमोत्कर्ष है। मध्यकाल में भारतीय समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए इसी पौरुष की आवश्यकता थी। राम के इस पौरुष में लोक रक्षण और लोक रंजन का अद्भुत समन्वय है जो लोक मंगल का साक्षात बिंब है। तुलसी राम के इसी रूप के समक्ष झुकते हैं - कहा कहौं छवि आज की भले बने हो नाथ /तुलसी मस्तक तब नवै धनुष बाण लो हाथ।

यही कारण है कि चरित लेखन और प्रशंसात्मक उक्तियों से लेकर शोध और समीक्षा तक तुलसी विश्वभर में सबसे अधिक चर्चित हिंदी साहित्यकार हैं। उनकी पाँच जीवनियाँ प्राप्त होती हैं। अनेक उक्तियों में उन्हें आनंद का चलता-फिरता वृक्ष, साहित्याकाश का सूरज-चाँद, देवता, नाग और मनुष्य आदि सभी जातियों की माताओं का वांछित पुत्र तथा पाषाण हृदयों में प्रेम उत्पन्न करने वाला महाकवि कहा गया है। उन्होंने कविता को सार्थकता प्रदान की - बन राम रसायन की रसिका, रसना रसिकों की हुई सफला/अवगाहन मानस में करके, जनमानस का मल सारा टला/बनी पावन भाव की भूमि भली, हुआ भावुक भावुकता का भला/कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला। (हरिऔध)।

हम यह भी याद दिलाना चाहत हैं कि तुलसी ने केवल विद्वानों, भक्तों और आलोचकों को ही लेखन के लिए प्रेरित नहीं किया है, बल्कि सृजनात्मक साहित्यकारों को भी उनकी जीवनी ने नवीन उद्भावनाओं के लिए आधार प्रदान किया है। तुलसी के नाम, उनके जीवन के विविध प्रसंगों तथा उनकी उक्तियों का प्रयोग सृजनात्मक साहित्य में मिथक की तरह किया जाता है। फिलहाल तो हम केवल ऐसी कुछ कृतियों की चर्चा करना चाहते हैं जिनमें सीधे-सीधे तुलसी को कथ्य बनाया गया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इतिहास और समीक्षा के अतिरिक्त चिंतामणि के अपने सृजनात्मक निबंधों में तुलसी और मानस पर खासतौर से चर्चा की है। 'तुलसी का भक्ति मार्ग' और 'मानस की धर्म भूमि' इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। शुक्ल जी ने तुलसी में प्रेम और दैन्य का अद्भुत समन्वय दिखाया है। वे बताते हैं कि तुलसी के प्रेम में जहाँ शील, शक्ति और सौंदर्य की लोक कल्याणकारी त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है, वहीं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में दैन्य का ऐसा समावेश है कि यह देखकर आश्चर्य होता है कि कोई व्यक्ति इतना उदार और उदात्त कैसे हो सकता है कि अपने दोषों, पापों और त्रुटियों को अत्यंत अधिक परिमाण में केवल देखे और दिखाए ही नहीं, खोलकर वर्णन करे। ऐसी उच्च मनोभूमि की प्राप्ति सरल कार्य नहीं है। यहाँ उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक खोज की धुन में इस तरह के वर्णनों को आत्मवृत्त समझ बैठना ठीक न होगा। शुक्ल जी यह भी बताते हैं कि तुलसी के राम पूर्ण धर्म स्वरूप है और मानस की धर्मभूमि विश्वधर्म है। जब कहीं भी इस विश्वधर्म से गृहधर्म, कुलधर्म, समाज धर्म या लोक धर्म टकराता है तो तुलसी विश्वधर्म का ही चयन करते हैं। यह वह सबसे बड़ा मूल्य है जिस अकेले को अपना कर ही हम आज के विश्व को बाज़ार संस्कृति से मुक्त करके विश्वधर्म की संस्कृति की ओर उन्मुख कर सकते हैं। प्रासंगिकता का सवाल उठाने वालों को अगर इतना भी न दीखे तो उन्हें उजाले के उल्लू ही माना जाना चाहिए।

इस संदर्भ में हमें तीन विशेष साहित्यिक कृतियों की याद आ रही है - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की दीर्घ प्रबंधात्मक कविता 'तुलसीदास', रांगेय राघव का लगभग सवा सौ पृष्ठ का जीवनीपरक उपन्यास 'रत्ना की बात' तथा अमृतलाल नागर द्वारा रचित लगभग चार सौ पृष्ठ का उपन्यास 'मानस का हंस' जिसे तुलसी का ग्रंथावतार भी कहा जाता है। 'मानस का हंस' के अंश हम समय-समय पर 'रामायण संदर्शन' में प्रकाशित करते रहे हैं। रामकथा के सुप्रसिद्ध नाट्य रूपांतर 'राधेश्याम रामायण' को भी धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया जा रहा है। यह क्रम आगे भी चलता रहेगा। इस अंक में निराला कृत 'तुलसीदास' के कुछ अंश विशेष रूप से सम्मिलित किए जा रहे हैं।

आशा है, इस सबसे तुलसी और मानस पर शंका करने वालों का कुछ-न-कुछ समाधान अवश्य होगा।

वैसे तुलसी बाबा के अपने शब्दों में -
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥ (बालकांड, मानस)।

- संपादक
20 अगस्त, 2007

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील परिदृश्‍य


तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील परिदृश्‍य


निखिलेश्‍वर (1938) तेलुगु साहित्य के दिगंबर कविता (अकविता) आंदोलन के छह प्रवर्तकों में से एक हैं. वे विप्‍लव रचयितल संघम (क्रांतिकारी लेखक संघ) के सक्रिय संस्थापक के रूप में भी जाने जाते हैं तथा मानवाधिकार संस्थाओं से जुडे़ रहे हैं. उनके सात कविता संकलन और पाँच गद्‍य रचनाएँ प्रकाशित हैं. निखिलेश्‍वर ने अन्य भाषाओं से तेलुगु में पाँच पुस्तकों का अनुवाद भी किया है. लंबे समय तक अंग्रेज़ी के अध्यापक रहे. निखिलेश्‍वर का मानना है कि भारतीय भाषाओं के आदान-प्रदान से ही भारतीय साहित्य सुसंपन्न हो सकेगा तथा अंग्रेज़ी द्वारा जो अनुवाद का कार्य चलता रहा, यदि वह हिंदी के माध्यम से फैलता जाए तो, आसानी से हम अपने आपको अधिक पहचान सकेंगे. उन्होंने इसी आशय से समकालीन तेलुगु साहित्य से विभिन्न विधाओं की रचनाओं का समय समय पर हिंदी में अनुवाद किया है. यही नहीं उन्होंने हिंदी की भी अनेक रचनाओं का तेलुगु में अनुवाद किया है. इस प्रकार वे सही अर्थों में अनुवादक के सेतु धर्म का निर्वाह कर रहे हैं.


‘विविधा’ (2009) में निखिलेश्‍वर ने बीसवीं शताब्दी के तेलुगु साहित्य से चुनकर कतिपय प्रतिनिधि कविताओं और कहानियों के साथ एक एक नाटक और साक्षात्कार का अनुवाद हिंदी जगत्‌ के समक्ष प्रस्तुत किया है. इस चयन की उत्कृष्‍टता स्वतः प्रमाणित है क्योंकि अनुवादक ने तेलुगु के श्रेष्‍ठ और सुंदर प्रदेय से हिंदी पाठकों को परिचित कराना चाहा है. यह सारी सामग्री समय समय पर हिंदी की प्रतिष्‍ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी है. इस चयन को परिपूर्णता प्रदान करता है स्वयं निखिलेश्‍वर द्वारा लिखित अठारह पृष्‍ठ का प्राक्कथन - "बीसवीं सदी का तेलुगु साहित्य". विगत शती के तेलुगु साहित्य की विकास प्रक्रिया और समृद्धि को समझने के लिए यह प्राक्कथन अत्यंत उपादेय है. इसमें लेखक ने निरंतर आलोचनात्मक दृष्‍टिकोण बनाए रखा है जिस कारण यह चयन तुलनात्मक भारतीय साहित्य के अध्‍येताओं के लिए संग्रह और चिंतन मनन के योग्य बन गया है.


निखिलेश्‍वर का मत है कि तेलुगु साहित्यकार सामाजिक यथार्थ के प्रति अत्यंत सजग रहे हैं तथा पश्‍चिमी साहित्य में जो परिवर्तन 300 वर्षों में हुए, तेलुगु में वे 100 वर्ष में संपन्न हो गए. अभिप्राय यह है कि बीसवीं शती का तेलुगु साहित्य परिदृश्‍य अत्यंत तीव्र गति से परिवर्तित होता दिखाई देता है. समाज सुधारक कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ ने तेलुगु साहित्यभाषा को सरल बनाने का अभियान चलाया तो कालजयी नाटक ‘कन्याशुल्‍कम्‌’ के रचनाकार गुरजाडा अप्पाराव ने विधिवत व्‍यावहारिक भाषाशैली को साहित्य में प्रतिष्‍ठित किया. दूसरी ओर विश्‍वनाथ सत्यनारायण ने ‘वेयिपडगलु’ (सहस्रफण) जैसे उपन्यास के माध्यम से पुराने समाज का सशक्‍त दस्तावेज पेश किया तो भाव (छाया) वादी कविता ने प्रकृति प्रेम, अमलिन शृंगार और स्वदेशी चिंतन की धार बहायी. महाकवि श्रीरंगम श्रीनिवास राव (श्री श्री) ने ‘महाप्रस्थानम’ द्वारा साम्यवादी विचारधारा और जन आंदोलन से कविता को जोड़ा तो त्रिपुरनेनि ने पौराणिक प्रसंगों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया. इसी प्रकार समालोचना के शिल्प और रसविधान के विश्‍लेषण के आधुनिक प्रतिमान कट्टमंचि रामलिंगा रेड्डी ने स्थापित किए और लगभग तीस वर्ष तक अभ्युदय साहित्य (प्रगतिवाद) तथा साम्यवादी सौंदर्यशास्त्र का बोलबाला रहा. इसके बाद आए विद्रोह को अभिव्यक्‍त करनेवाले दिगंबर कवि और सशस्त्र क्रांति के समर्थक विप्लव [विरसम] कवि. परिवर्तन की तीव्रता को आत्मसात करते हुए तेलुगु साहित्य ने हाशियाकृत समुदायों के स्वर को स्त्री लेखन, दलित लेखन और अल्पसंख्यक मुस्लिम लेखन के माध्यम से बुलंद किया.


भारतीय साहित्य के संदर्भ में तेलुगु की क्रांतिकारी कविता का अपना महत्व है. निखिलेश्‍वर याद दिलाते हैं कि जन संघर्ष से जुडी़ क्रांतिकारी कविता का सिलसिला ऐतिहासिक तेलंगाना किसान सशस्त्र आंदोलन से लेकर सातवें दशक के नक्‍सलवादी और श्रीकाकुलम आदिवासी आंदोलनों के साथ जुड़कर नए प्रतिमानों को कायम करता रहा. उन्होंने आगे बताया है कि जहाँ 'चेतनावर्तनम्‌' ने पुनरुथान की प्रवृत्ति अपनाई वहीं कवि सेना मेनिफेस्टो के साथ प्रकट हुए गुंटूर शेषेंद्र शर्मा ने चमत्कार और क्रांतिकारी आभास की कृत्रिम शैली को स्थापित किया, जबकि सी.नारायण रेड्डी नियोक्लासिकल धारा लेकर आए.


कविता की ही भाँति कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी ऊपर वर्णित सारी प्रवृत्तियाँ जोरदार ढ़ंग से अभिव्यक्‍त हुईं. ‘मालापल्ली’ (चमारों का गाँव) उन्नव लक्ष्मीनारायण का ऐसा उपन्यास रहा जिसे उसी प्रकार मील का पत्थर माना जाता है जिस प्रकार हिंदी में प्रेमचंद और बंगला में शरत के उपन्यासों को. मनोवैज्ञानिक शिल्प के उपन्यासों में अल्पजीवी (रा वि शास्त्री), ‘असमर्थ की जीवन यात्रा’ (गोपीचंद), ‘अंतिम शेष’ (बुच्चिबाबु), ‘अंपशय्या’ (नवीन) तथा ‘हिमज्वाला’ (चंडीदास) उल्लेखनीय माने गए. परंतु सामाजिक उद्‍देश्‍यपरक उपन्यासों में विशेष रूप से चर्चित हैं - डॉ.केशव रेड्डी रचित ‘अतडु अडविनि जयिंचाडु’ (उसने जंगल को जीता), रामुडुन्नाडु-राज्यमुंडादी (राम है और राज्य भी है), बीनादेवी रचित ‘हैंग मी क्विक’ (मुझे तुरंत फाँसी दो) और अल्लम्‌ राजय्या रचित ‘कमला’ (उपन्यासिका). इन उपन्यासों की खास बात यह है कि इनमें तेलुगु भाषा की आंचलिक बोलियों का प्रयोग किया गया है. केशव रेड्डी रायलसीमा के चित्तूर जिले की बोली का इस्तेमाल करते हैं, बीनादेवी ने तटीय आंध्र की बोली का साहित्य में व्यवहार किया है तो अल्लम्‌ राजय्या ने तेलंगाना की बोली का. राजय्या की उपन्यासिका ‘कमला’ तेलंगाना के सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों को लेखबद्ध करती है. इसमें दर्शाया गया है कि किस तरह एक बुद्धू सा नौकर किष्‍टय्या सारे रीति रिवाज तोड़कर दमित दलित से क्रांतिकारी में बदल जाता है. तेलंगाना प्रांत के जीवन और भाषा को इस उपन्यास में पढ़ा जा सकता है.


निखिलेश्‍वर ने तेलुगु साहित्य की दलित धारा के शीर्ष पर गुर्रम्‌ जाषुवा को स्थापित किया है जिन्होंने मेघदूत की भाँति उल्लू के माध्यम से संदेश भिजवाया है. उनके काव्य ‘गब्बिलम्‌’ (चमगादड) में निहित यह संदेश किसी यक्षिणी का प्रेमसंदेश नहीं है बल्कि दलितों की दुर्गति का शोकसंदेश है जो संदेशकाव्य में अपनी तरह का इकलौता प्रयोग है. तेलुगु के दलित साहित्यकार विगत इतिहास के साहित्य में निहित तथाकथित ब्राह्‍मणवाद को उखाड़कर दलित जातियों की मौलिक संस्कृति को आधार बनाने के लिए संकल्‍पित हैं. उनका यह संकल्प सभी विधाओं में प्रकट हो रहा है. स्त्री लेखन और अल्पसंख्यक मुस्लिम लेखन ने भी बीसवीं शती के तेलुगु साहित्य में अपनी अलग पहचान कायम की हैं. स्त्री लेखन जहाँ पुरुष घमंड को छेदने में कामयाब रहा है वहीं मुस्लिम लेखन ने मुस्लिम समाज के भीतरी अंतर्विरोध और शेष समाज के साथ अपने संबंधों का खुलासा किया है. अन्य विधाओं की तुलना में निखिलेश्‍वर को तेलुगु की आलोचना विधा कमजोर प्रतीत होती है.


निखिलेश्‍वर ने एक बेहद जरूरी सवाल उठाया है कि उत्तर आधुनिक कहे जानेवाले पिछले तीस वर्षों के साहित्यिक आंदोलनों में राष्‍ट्रीयता की अभिव्यक्‍ति किस हद तक है ? उन्हें लगता है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में उभरे इन विद्रोही आंदोलनों से जुडे़ साहित्यकार राष्‍ट्रीयता के प्रश्‍न को प्रायः नगण्य मानकर चलते हैं और मानवता को अपने अक्षरों द्वारा खोजना चाहते हैं. यदि ऐसा है तो यह सचमुच चिंता का विषय है क्योंकि राष्‍ट्र की उपेक्षा करके जिस मानवता का हित साधन ऐसा साहित्य करना चाहता है उसके राष्‍ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्य क्या होंगे , यह स्पष्‍ट नहीं है. क्या ढेर सारे उछलते हुए मेंढ़कों को एक टोकरी में भर देने भर से भारतीयता सिद्ध हो जाती है ? लेकिन फिलहाल यहाँ यह प्रश्‍न उपस्थित नहीं है. उपस्थित है तेलुगु की विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधि चयन ‘विविधा’ जिसमें 24 कविताएँ, 4 कहानियाँ, 1 नाटक और 1 साक्षात्कार शामिल हैं.


अंततः जिंबो की एक कविता ‘हमारी नहर’ पाठकों के आत्म विमर्श हेतु प्रस्तुत है जो यह दर्शाती है कि कैसे एक हँसता गाता गाँव अपनी अस्मिता की तलाश में रणक्षेत्र बनने के लिए बाध्य हो जाता है -

"हमारी नहर -

अध्यापक की बेंत की मार से /
आँख से टपक कर गालों पर फिसल कर, /
सूखने वाले आँसुओं की धार जैसी, /
बंजर बने खेत जैसे /
गन्ने की मशीन के पास पडे़ निचोडे़ गए कचरे /
बेजान सूखे साँप जैसी /
आज हमारी नहर है. /
पता नहीं कैसी अजीब बात है /
इस पुल के बनने के पहले /
हमारी नहर सोलहवें साल जवानी जैसी /
तेज़ बह जाती थी /
हमारे बतकम्मा फूलों को सिर पर सँवारे निकलती थी /
तैरने के लिए अ आ ई सिखाती थी /
हमारी गंदी नालियों को फिल्टर करती बह जाती थी /
अब हमारी नहर की साँस में गूंगापन /
हमारी नहर की चाल में लंगडा़पन /
पोखर की चारपाई के आधार पर /
लटके बूढे़पन की भाँति /
रह गई है हमारी नहर."
______________________________________________________________

* विविधा (समकालीन तेलुगु साहित्य की विभिन्न विधाओं का विशिष्‍ट संकलन) /

चयन एवं अनुवाद निखिलेश्‍वर / 2009 /

क्षितिज प्रकाशन,
वी - 8, नवीन शाहदरा, दिल्ली - 110 032 /
पृष्‍ठ - 144 /
मूल्य - रु.220 /-