प्रो. दिलीप सिंह ने एक समाजभाषावैज्ञानिक और शैलीवैज्ञानिक होने के नाते समकालीन हिंदी समीक्षा को विभिन्न प्रकार के साहित्यिक पाठों के विश्लेषण द्वारा सुनिश्चित रूप से समृद्ध किया है। इस विश्लेषण में वे सिद्धांत और व्यवहार का सुंदर सामंजस्य साधने में सिद्धहस्त हैं। कविता हो या गद्य की कोई भी विधा, उसके पाठ में व्याकरण, अर्थ, शैली, सामाजिक संदर्भ और प्रोक्ति जैसे विविध स्तरों पर जहाँ कहीं भी सौंदर्य निहित है, वे निष्ठापूर्वक उसका अनुसंधान और उद्घाटन करते हैं और कई बार तो पाठक को इन उपलब्धियों के द्वारा चमत्कृत कर देते हैं। उनकी ये विश्लेषणात्मक समीक्षाएँ पाठ के अध्ययन को कलावाद माननेवालों को भी पुनर्विचार के लिए प्रेरित करने में समर्थ हैं। ‘पाठ विश्लेषण’ (2007) प्रो. दिलीप सिंह की ऐसी ही साहित्य समीक्षाओं का गुलदस्ता है। बेहिचक इसे हिंदी में पाठ विश्लेषण का व्यावहारिक प्रारूप कहा जा सकता है। इस विश्लेषण का आधार यह मान्यता है कि वैज्ञानिक और तटस्थ आलोचना के लिए साहित्य को साहित्य के रूप में ग्रहण किया जाना वांछित है जिसका केंद्रक 'पाठ' है और पाठ के भीतर पैठकर ही किसी साहित्यिक कृति में निहित प्रसंग, संदर्भ और साभिप्रायता के संयोजन को आत्मसात किया जा सकता है। पाठ विश्लेषण की विविध प्रणालियाँ मूलतः कृति केंद्रित आलोचना की प्रणालियाँ है जिनमें यह माना जाता है कि रचना भाषा के ‘द्वारा’ तो जन्म लेती ही है परंतु अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह भाषा के ‘भीतर’ जन्म लेती है इसलिए उनमें पाठ की अद्वितीयता और उसकी अर्थ छाया के उद्घाटन पर सर्वाधिक बल दिया जाता है। प्रो. दिलीप सिंह के लिए पाठ विश्लेषण का लक्ष्य है - पाठ को निकट से पढ़कर शिल्प और भाषाकौशलों के विश्लेषण के माध्यम से कृति को आलोकित करना। वे यह मानकर चलते हैं कि हर रचना अपने अस्तित्व में एक विशिष्ट भाषिक संरचना होती है अतः उसकी रचनात्मक अथवा कलात्मक विशिष्टता को भाषिक उपलक्षणों के माध्यम से ही जाना-पहचाना जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि पाठ विश्लेषण में कृति के संवेदना पक्ष की उपेक्षा की जा सकती है, बल्कि सच यह है कि इस पद्धति द्वारा भाषा विश्लेषण के माध्यम से रचना में आबद्ध मानवीय संवेदना और कलात्मक संवेग की पड़ताल अधिक प्रामाणिकता के साथ की जा सकती है जैसा कि इस कृति में किया गया है। प्रो. दिलीप सिंह ने बखूबी चयनित पाठों के माध्यम से साहित्य भाषा की सामाजिकी तथा उसकी सांस्कृतिकता की परख करते हुए पाठ विश्लेषण के अनेक ऐसे प्रारूप इस पुस्तक में घटित करके दिखाए हैं जो वस्तुनिष्ठ आलोचना के प्रतिमान बन सकते हैं। ‘पाठ विश्लेषण’ दो खंडों में संयोजित है। पहला खंड है ‘कविता संदर्भ’ जिसमें आठ समीक्षात्मक और शोधपरक आलेख हैं.। दूसरा खंड है ‘गद्य संदर्भ’ और इसमें सोलह आलेख सम्मिलित हैं। इन सभी आलेखों की विशेषता यह है, या इसे इस पुस्तक की विशेषता भी कहा जा सकता है कि लेखक ने पाठ विश्लेषण के सिद्धांतों को अलग से रखने के बजाय आलेखों में इस प्रकार पिरोया है कि पाठ विश्लेषण से संबंधित तमाम वैचारिकी व्यावहारिक समीक्षा के रूप में पाठ के प्रतिफलन के माध्यम से उजागर हो सकी है। इस विवेचना का प्रमुख उद्देश्य यह रहा है कि रूप को वस्तु की आभ्यंतर संरचना के पर्याय के रूप में प्रतिपादित किया जा सके। लेखक की समीक्षा प्रणाली में सिद्धांत और व्यवहार के परस्पर गुँथे होने के कारण यह सहज ही संभव भी हो सका है। भक्तिकाल से लेकर आज तक के हिंदी साहित्य ने साहित्य भाषा के जो अनेक प्रारूप विकसित किए हैं, इस पुस्तक में उनके वैविध्य के दर्शन किए जा सकते हैं। सूर के काव्य की भाषा का विश्लेषण करके लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि भक्ति काव्य में और विशेष रूप से कृष्ण काव्य में मनुष्य और समाज की केंद्रीयता ने भाषा को ऐसी समाज सापेक्षता प्रदान की कि इस युग के कवि भाषा को पंडित वर्ग के एकाधिकार से निकालकर जनभाषा की सहायता से संपूर्ण देश में, जन-जन में प्रसारित करने का साहस कर सके। साहित्य जगत में घटित होने वाले परिवर्तनों की व्याख्या करते हुए डॉ. दिलीप सिंह की यह निष्पत्ति ध्यान देने योग्य है कि कविता को बदलना भी, कविता को सुंदर बनाने का ही दूसरा नाम है और इसे एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में ही लिया जाना चाहिए। इसी आधार पर वे यह कहते हैं कि छायावाद को उसके शिल्प के माध्यम से ही आलोचना की घिसीपिटी धारणाओं से मुक्त कराया जा सकता है क्योंकि छायावादी काव्य भाषाप्रयोग का एक अद्भुत समूह है। इसी क्रम में वे पंत की कविताओं में भाव और भाषा का सामंजस्य दिखाते हैं तथा निराला की भाषिक अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता, सजहता, शब्द चयन, द्वंद्व या तनाव और अभिव्यंजना के वैशिष्ट्य के आधार पर परखते हैं । उन्होंने अज्ञेय से लेकर केदारनाथ सिंह तक के उद्धरणों के विश्लेषण द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि आज के कविता विमर्श में भाषा, शिल्प, अभिव्यंजना, तद्भवता, भाषा के लौकिकीकरण और मँजाव पर विशेष बल दिया जा रहा है। ‘सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा’ में लेखक की यह स्थापना ध्यान खींचती है कि आसान भाषा से तात्पर्य भदेस होना नहीं है बल्कि आम भाषा का परिष्कार भी आज की कविता का अहम काव्य - लक्ष्य है। उल्लेखनीय है कि विगत पच्चीस वर्षों की हिंदी कविता के पाठ विश्लेषण द्वारा प्रो. सिंह ने इसकी निम्नलिखित दस विषेषताएँ गिनवाई हैं जो इस पूरे कविता परिदृश्य को समझने में सहायक हो सकती हैं - 1. फ्री वर्स में तुक-लय पर ध्यान 2. भाषा संरचना में कसाव 3. कविता के रूढ़ शब्द तिरोहित हुए हैं 4. कविता कहन में ज्यादा स्पष्ट और सरल हुई है 5. भाषा के पेंच खम, आलंकारिता कम हुई है 6. कवि नैरेटर बना है 7. आंचलिक भाषा का प्रयोग सजग हुआ है 8. नास्टेल्जिया अर्थात् व्यतीत को अभिव्यंजित करने वाली भाषा के कई शेड बने हैं 9. संवेदना को धार देने वाले विषय अपनी भाषिक संपदा के साथ व्यक्त हो रहे हैं, जैसे चिड़िया, पेड़, नदी, बच्चा, लड़की, माँ-पिता, घर, गाँव आदि-आदि और ... 10. सभ्यता समीक्षा पर खास जोर है। यहाँ परिष्कृत भाषा सर्वाधिक प्रयुक्त है। धूमिल की लंबी कविता ‘पटकथा’ का विश्लेषण काव्य भाषा के इस अध्ययन को नया आयाम देता है। इस रचना के रूप विधान में लेखक ने यथार्थ और गति के मेल को महत्वपूर्ण माना है। वे बताते हैं कि यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि गति हमेशा यथार्थ को स्थापित करती है - खींचना, धकेलना, फेंकना, लोकना, पटकना, चाँपना, बुहारना, झाड़ना जैसी अनगिन क्रियाएँ गति का ही प्रक्षेपण हैं। उन्होंने ‘पटकथा’ को किसी फिल्म की पटकथा के रूप में भी विश्लेषित किया है और ऐसी अभिव्यक्तियों की क्रमबद्ध शृंखलाएँ खोजकर प्रस्तुत की हैं जिनके माध्यम से (1) हिंदुस्तान का सत्यबोध, (2) नेतृत्व के काइयाँपन और जनता की मूढ़ता का परिणाम तथा (3) व्यवस्था की अमानवीय तस्वीर का बोध उभरकर सामने आता है। वे ‘पटकथा’ को कहानी, नाटक और काव्य की परस्पर टकराहट का परिणाम मानते हैं। ‘गद्य संदर्भ’ हिंदी कहानी की भाषा से आरंभ होता है और ‘वरुण के बेटे’, ‘तमस’, ‘अप्सरा’, ‘कुल्लीभाट’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘अनामदास का पोथा’, ‘वयं रक्षामः’, ‘रोज़’, ‘प्रायश्चित्त’, ‘गोदान’, ‘बंदे वाणी विनायक’, ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’, हिंदी के संस्मरण साहित्य, महादेवी के रेखाचित्र, शुक्ल जी की आलोचना और गणेशशंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता जैसे वैविध्यपूर्व पाठों के विश्लेषण द्वारा आधुनिक गद्य साहित्य की समीक्षा के नए मानदंड स्थापित करता है। इन आलेखों को देखकर विस्मय होता है कि पाठ विश्लेषण के इतने अधिक आयाम और इतने भिन्न-भिन्न प्रारूप हो सकते हैं - जिसमें जिसकी रुचि हो और जो समीक्ष्य पाठ पर लागू हो सके उसे चुना जा सकता है! साहित्यिक पाठों का यह गहन विश्लेषण हिंदी भाषा के संबंध में यह प्रमाणित करता है कि ‘वह साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना की संवाहिका है, सामाजिक व्यवहार की स्तरीकृत भाषा है, सामाजिक नियंत्रण का सशक्त माध्यम है, सामाजिक दायित्वों के निर्वाह का कारगर औजार है तथा भारत की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम है।’ इसमें संदेह नहीं कि ‘पाठ विश्लेषण’ के माध्यम से प्रो. दिलीप सिंह ने काव्य भाषा, कथा भाषा, आलोचना की भाषा, निबंध की भाषा, संस्मरणों की भाषा आदि की अंतरंग पड़ताल द्वारा भाषाविज्ञान और समीक्षा की सैद्धांतिकी के लगातार परिवर्तित होते संदर्भों को भली प्रकार उजागर किया है और साहित्य को भाषा पर झेले गए सौंदर्य के रूप में रेशा-रेशा विश्लेषित करने की नई-नई दिशाएं उद्घाटित की हैं। (अंततः ‘हिंदी की कहानी’। यों तो संदर्भ आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की भाषा दृष्टि का है, लेकिन यहाँ इसे भाषा की राजनीति के नए चिंताजनक उभार के संदर्भ में विमर्श हेतु उद्धृत करने की अनुमति चाहता हूँ - ‘‘हिंदी और भारतीय भाषाओं का विकास एक दूसरे पर आधारित है। अगर हिंदी के अस्तित्व और अस्मिता पर चोट पड़ेगी तो उसके निशान भारतीय भाषाओं पर भी दिखेंगे और भारतीय भाषाओं का यदि अहित होगा तो हिंदी भी क्षत होगी।’’) ============== पाठ-विश्लेषण (व्यावहारिक प्रारूप)/ प्रो. दिलीप सिंह/ वाणी प्रकाशन, 21 ए, दरिया गंज, नई दिल्ली-110 002/ प्रथम संस्करण: 2007/ रु. 325/ पृष्ठ 284 (सजिल्द) - 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सोमवार, 31 अगस्त 2009
‘पाठ विश्लेषण’: गुपुत प्रगट जहँ जो जेहिं खानिक
राजभाषा पत्रकारिता पर व्याख्यान संपन्न
हैदराबाद, 31.08.2009।
भारतीय भाषा संस्कृति संस्थान के तत्वावधान में आज यहाँ होटल टाइम स्क्वायर के कांफ्रेंस हॉल में त्रिदिवसीय अखिल भारतीय राजभाषा पत्रकारिता प्रशिक्षण कार्यशाला का उद्घाटन संपन्न हुआ। संस्थान के संयोजक संचालक गोवर्धन ठाकुर ने प्रारंभिक वक्तव्य में राजभाषा कर्मियों के समक्ष उपस्थित 21वीं शती की चुनौतियों पर चर्चा की तथा राजभाषा पत्रकारिता के दायित्वों पर प्रकाश डाला। प्रशिक्षण कार्यशाला में देश के विभिन्न अंचलों से विभिन्न सरकारी संगठनों और बैंकों से प्रधारे अधिकारी प्रतिभागी के रूप में उपस्थित रहे।
प्रथम सत्र में अतिथि वक्ता के रूप में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने 'राजभाषा पत्रकारिता का वैशिष्ट्य' विषय पर व्याख्यान दिया। डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने राजभाषा विषयक संवैधानिक व्यवस्था का विवेचन करते हुए राजभाषा पत्रकारिता के मुख्य और गौण क्षेत्रों की पहचान बताई और कहा कि केवल आंतरिक वितरण के लिए छापी गई पत्रिका ही नहीं व्यापक प्रसार के लिए प्रकाशित किए गए बुलेटिन, ब्रोशर और पैंफलेट भी राजभाषा पत्रकारिता के अंतर्गत आते हैं। उन्होंने कहा कि राजभाषा पत्रकारिता सही अर्थों में सामासिक अखिल भारतीय हिंदी का सृजन करने में समर्थ है। उन्होंने आगे कहा कि राजभाषा पत्रकारिता न तो मिशन है और न व्यवसाय। बल्कि यह एक ओर हिंदी भाषा विषयक नियमों के क्रियान्वयन का अंग है तो दूसरी ओर संबंधित उद्यम को लाभकारिता उन्मुख बनाने का माध्यम है, इसके द्वारा तकनीकी लेखन के क्षेत्र में हिंदी के अनुप्रयोग को प्रोत्साहित किया जा सकता है। डॉ. शर्मा ने राजभाषा पत्रकारिता की सीमाओं पर चर्चा की और कहा कि सरकारी नीतियों पर खुले विमर्श के अभाव के कारण इसमें एकांगिता का खतरा बना रहता है।
रविवार, 30 अगस्त 2009
अबाध सुखचाह से प्रवाहित वैतरणी *
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शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
नरक ही नरक
बसंत जीत सिंह हरचंद(१९४१) को प्रायः कवि के रूप में पहचाना जाता है. उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हैं - अग्निजा , समय की पतझड़ में, श्वेत निशा, आ गीत काते री, घुट कर मरती पुकार, गीति बांसुरी बजी अरी और चल शब्द बीज बोयें. लेकिन वे समय समय पर कहानियाँ भी लिखते रहे हैं.विशेष रूप से १९६० से १९७० के बीच. इधर उनकी १४ कहानियो का संकलन प्रकाशित हुआ है - 'नरक है'(२००८). संकलित कहानियां हैं - शब्दों से बंधा 'में', अग्नि-प्रसंग, कलह, खंडहर की एक रात, वत्सला, बेशर्म, कीचड का हंस, समर गाथा, अन्तर्द्वन्द्व, भेडिया, अनुदित सूरज, पराये घर में, आतंक से जूझते हुए.
संग्रह की शीर्ष कहानी 'नरक है' में गरीबी और भूख के नरक की हृदय विदारक तस्वीर खींची गई है. माडू मरणान्तक श्रम करने के बावजूद जब एक वक्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर पता तो बीरो किसी शायर की ग़ज़ल के विचार को सार्थक करती हुई रात भर पतीले में आलू के आकार के पत्थर उबालती है और भूख से बिलबिलाते बच्चों को मार-पीट कर शांत करती रहती है. यह एक नरक है. एक नरक वह है जहाँ प्यास से तड फडाता हुआ माडू पोखर पर पेट के बल लेट कर चादर से छान कर पानी पीता है, कृपाण की तरह दराती चलाता है पर मजदूरी नहीं पाता और उधार के कंगनी के चावल की पोटली से भी तब हाथ धो बैठता है जब कीचड को फांदते फांदते पत्थर से ठोकर खा कर घायल हो जाता है. एक नरक और है जो इस सब से भयानक है, और अमानुषिक भी . माडू का बाप मर जाता है. माँ चीत्कार करती रहती है. बेटा घर की इकलौती रजाई को शव पर से खसोट कर ओढ़ कर सो जाता है. रात में चूहे शव की आंखों की पुतलियाँ निकाल कर ले जाते हैं. और भी कई नरक है इस कहानी की वैतरणी में. अमानुष यथार्थ अपनी पूरी वीभत्सता के साथ यहाँ उपस्थित है.
पहली कहानी 'शब्दों से बिंधा मैं' में प्रणय निवेदन की अस्वीकृति से उपजे आत्मा धिक्कार की रोमानी प्रस्तुति ध्यान खींचती है. तो 'अग्नि प्रसंग' एक ऐसी सास की कहानी है जो अपने वैधव्य और सास के अत्याचार का बदला गिन-गिन कर बहू से लेती है. और बेटे का दूसरा विवाह करके दहेज़ पाने के लालच में बहू को आग के हवाले करने में तनिक नहीं हिचकती. बहू अपनी मौत सामने देखकर पहले तो सास को भी लपटों में खींच लेती है लेकिन अगले ही क्षण उसकी दयनीय दशा देखकर पसीज भी जाती है. आग से ही नहीं पुलिस से भी वह सास को बचा लेती है. जले-झुलसे चेहरे वाली सास का हृदय परिवर्तन हो जाता है. काश, सचमुच ऐसा हुआ करता. चोटिल हो कर सास कितनी भयानक हो जाती है. इसे कोई भुक्तभोगी बहू ही बता सकती है.
'कलह' में पति-पत्नी की झड़प क्रोध के विस्फोट में बदल जाती है. और सार्वजनिक रूप से अपमानित पति ऐसी परिस्थिति में मारा जाता है कि समझ नहीं आता यह दुर्घटना है या आत्महत्या या कुछ और.
मृत्यु का साक्षात्कार 'खँडहर में एक रात' में भी है - काफ़ी खौफनाक. खौफ 'वत्सला' में भी है. ऐसा खौफ कि कल्पना में बहुत से गिद्ध,कौवे और सियार शव पर मंडराते दीखने लगते हैं. इस खौफ के बावजूद मानव मन की कोमलता और सदाशयता के प्रति लेखक का विश्वास नहीं डिगता. इसी विश्वास का द्योतक है अनाथ बच्चे को निःसंतान दम्पति द्बारा अपना लेना.
'बेशर्म' स्त्री-पुरूष सम्बन्ध की मनोरंजक कहानी है. पति पत्नी की प्रसव पीड़ा से इतना विचलित हो जाता है कि उससे दूर-दूर रहने लगता है. दूसरी ओर पत्नी इस दूरी से इतनी भयभीत हो जाती है कि अपनी चिंता को दूसरों पर प्रकट होने से बचा नही पाती . पत्नी की उदासीनता के इस उल्लेख के कारण पति उसके निकट तो आता है पर औरत जात के बेशर्म होने के ताने के साथ.
'कीचड का हंस' के बाबा अद्भुत नाथ किसी संस्मरण के चरित नायक प्रतीत होते हैं. पागलों जैसा व्यवहार करने वाला यह बाबा कुत्तों और कीडों में भी उसी आत्मा के दर्शन करता है जो स्वयं उसमे व्याप रही है.. 'समर गाथा' भी संस्मरण ही है . लेखक के पिता का संस्मरण जो द्वितीय विश्वयुद्ध में सिग्नल कोर में फोजी अफसर थे और पुत्र जन्म के समय मोर्चे पर थे . फौजी सिपाहियों की अद्वितीय वीरता और मानवीयता प्रणम्य है. उनके लिए सच ही मृत्यु वस्त्र बदलने से अधिक कुछ नहीं!
बसंत सिंह जी की कई कहानियो में सवर्ण और दलित के सामजिक संबंधों का यथार्थ चित्रण हुआ है. लेखक का वर्ण विहीन और जाति हीन समाज का स्वप्न 'अंतर्द्वंद्व ' कहानी में साकार होता दिखाई देता है. जब तेजेश्वर सूर्या की जाति से अधिक महत्व उसके प्रेम को देता है.दूसरी ओर 'भेड़िया' शिक्षा तंत्र में अध्यापको के शोषण को व्यक्त करने वाली यथार्थ परक कहानी है. जिसमें एक स्वाभिमानी अध्यापक आजीवन अन्याय के विरुद्ध लड़ने और लड़ते लड़ते ही मर जाने का संकल्प ले कर नौकरी छोड़ देता है. उसके मुखमंडल की गरिमा लेखक की पक्षधरता को बिम्बित करती है.
'पराये घर में' सारा विमर्श इस बात के इर्द-गिर्द है कि "जो औरत के दुखों से आँख नहीं मिला पाते वे मर्द नहीं हैं. और जो मर्जी हों. सिर्फ़ औरत के जिस्म पर अधिकार ज़माना ही मर्द होना नहीं है. औरत सिर्फ़ जिस्म नहीं है. वह जिस्म से आगे मन है. और उस से भी आगे आत्मा है. उसके पूरेपन पर अधिकार ज़माना ही मर्द होना है...और जो औरतें पुरूष को सिर्फ़ जिस्म समझती हैं...वे भी ग़लत हैं."
'आतंक से जूझते हुए' पंजाब के आतंकवादी दौर की कहानी है. जो आतंक की फसल काटने वाली ताकतों का पर्दाफाश करती है. आतंक का सामना करने के लिए जिस हौसले की आवश्यकता है उसकी अनुपस्थिति लेखक की मुख्य चिंता है और हमारे सारे समाज की भी. पर ऐसे में जब शत्रुजीत जैसा कोई सच्चा मर्द सामने आ जाता है तो मुर्दों में भी जान पड़ जाती है.
अब रही एक कहानी 'अनुदित सूरज' जो एक ऐसे कवि की कहानी है जो गुमनामी के अंधेरे में खो गया है. कवि का नाम है सूरज. इस कहानी के सम्बन्ध में पुस्तक का यह प्रचारक वक्तव्य एकदम सही है कि, ''यह एक ऐसे अभिशप्त कवि की वेदनामयी कथा है जिसकी कविताएँ समाज के हाथों तक कभी नहीं पहुंचती. यह एक दुखद कथा है. लेखक श्री बसंत जीत स्वयं कवि हैं. इसलिए इस कहानी में उन्होंने सरस ग़ज़लों और गीतों को बड़ी कुशलता से पिरोया है. इनका सृजनात्मक संयोजन इतने सुंदर, सरल और रोचक ढंग से किया गया है कि ये कथानक का अटूट हिस्सा बन गए हैं. इनके कारण यह कहानी एक दीर्घ शोक कविता सी लगती है. कविता अनुरागी सहृदय पाठकों का इसकी और आकृष्ट होना स्वाभाविक होगा. "
अंत में यह कहना आवश्यक है कि 'नरक है' की कहानियों में जहाँ-जहाँ गाँव के सन्दर्भ आए हैं वे इतने जीवंत, स्वतः पूर्ण और वास्तविक हैं कि उनसे स्वतंत्र भारत के गाँव की दशा का यथार्थ रूप अपनी विसंगतियों के साथ उभर कर सामने आ जाता है. साथ ही तमाम तरह की विसंगतियों और अंतर्विरोधों के बावजूद मनुष्यता के प्रति लेखक का अडिग विश्वास सर्वत्र पाठक को अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने के लिए प्रेरित करता रहता है.
'नरक है'/
ठा. बसंतजीतसिंह हरचंद/
नेशनल पब्लिशिंग हाउस, २/३५, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - ११०००२/
२००८/
रु. २००/
पृष्ठ - १४८(सजिल्द) |
हिन्दी में दक्षिण भारतीय साहित्य*
सभी भारतीय भाषाओँ के बीच लेन -देन और आवाजाही की परम्परा बहुत पुरानी है.इस परम्परा के निर्माण में अनुवाद का बड़ा योगदान रहा है. आज़ादी के बाद हिन्दी को राजभाषा घोषित किए जाने के बाद से इस दिशा में सुनियोजित प्रयासों की श्रंखला आरम्भ होने के कारण विविध भारतीय भाषाओँ का इतना साहित्य हिन्दी में आगया है कि लंबे समय से उसके विधिवत इतिहास लेखन और मूल्यांकन की आवश्यकता अनुभव की जाती रही है.
इसी दृष्टि से दक्षिण भारतीय भाषाओँ के साहित्यिक अनुवादों के सूचीकरण और इतिहास लेखन का प्रशंसनीय प्रयास है डॉ. विजय राघव रेड्डी संपादित ''हिन्दी में दक्षिण भारतीय साहित्य [ अनूदित साहित्य के परिप्रेक्ष्य में] ''. डॉ. रेड्डी हिन्दी - तेलुगु अनुवादक के रूप में प्रतिष्ठित विद्वान हैं और अनुवाद्केंद्रित कई राष्ट्रीय आयोजनों के श्रेय भी उन्हें प्राप्त है. इसलिए उन्हें योजनाबद्ध ढंग से इस महत्कार्य को संपन्न करने में सफलता प्राप्त हो सकी है.उन्हें चारों दक्षिण भारतीय भाषाओँ के विद्वानों,अध्येताओं और अनुवादकों का सहयोग मिला है. स्वयं इस कार्य-क्षेत्र से ईमानदारी से जुड़े लेखकों के योगदान के कारण यह कृति सहज प्रामाणिक मानी जा सकती है.
संपादित पुस्तक में चार खंड है. एक-एक खंड में एक -एक भाषा [तमिल / तेलुगु / कन्नड़ / मलयालम ] के हिन्दी में अनूदित साहित्य को लिया गया है. हर खंड में सम्बंधित भाषा से अनुवाद के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर प्रकाश डालने के बाद प्राचीन काव्य से लेकर आधुनिक गद्य की विभिन्न विधाओं तक के हिन्दी अनुवाद-कार्यों का सर्वेक्षण अलग-अलग आलेखों में प्रस्तुत किया गया है.
तुलनात्मक साहित्य के अध्येताओं के लिए अनिवार्य इस ग्रन्थ का हिन्दी जगत में व्यापक स्वागत होना स्वाभाविक है.
[निस्संदेह मूल्य बहुत अधिक है !]
O
हिन्दी में दक्षिण भारतीय साहित्य [ अनूदित साहित्य के परिप्रेक्ष्य में ],
सम्पादक : डॉ. विजय राघव रेड्डी,
वर्ष २००८,
प्रकाशक : अकादमिक प्रतिभा , ४२ , एकता अपार्टमेन्ट , गीता कालोनी , दिल्ली - ११००३१,
मूल्य ४७५ रुपये,
पृष्ठ २१६. सजिल्द.
बुधवार, 26 अगस्त 2009
एक डायन की सच्ची कहानी
एक डायन की सच्ची कहानी
आप चाहें तो इसे कहानी मान सकते हैं। लेकिन यह कहानी नहीं है. एक दम ज्वलंत घटना है, शर्मनाक समाचार है. लेकिन हम इसे फिलहाल कहानी की तरह ही सुनाते हैं.
बात है इकीसवी सदी की, सन २००८ के अक्टूबर महीने का पहला इतवार था। राजस्थान नाम का एक ऐतिहासिक भूखंड भारत भूमि पर हुआ करता था, वहां एक जिला था सिरोही, और उस जिले में था एक गाँव खरा नाम का.
हाँ तो इस गाँव खरा में रहती थी घरासिया नाम की एक जन-जाति, अब यह तो आपको मालूम ही हैं कि महान भारतीय लोकतंत्र में उस ज़माने में भी ऐसी जनजातियों की अपनी पंचायतें हुआ करती थीं, सो इस गाँव की भी पंचायत थी। और पंचायत पर कब्ज़ा था पुरुषों का- जो अपने आपको भाग्यविधाता से कम नहीं समझते।
तो हुआ यूँ कि इस गाँव में एक महीने के भीतर घरासिया लोगों के घरों में दो मौतें हो गयीं, अब मौत हुई, तो उसके कारण की तलाश शुरू हुई। ज़रूर इसके पीछे किसी डायन का हाथ होगा. खोज शुरू हुई उस डायन की और बत्तीस साल की गुजरिया पर डायन होने की तोहमत मढ़ दी गई. मीसा और पोटा से ज्यादा खतरनाक हुआ करती है पुरूष वर्चस्व प्रधान पंचायत की चार्जशीट. आरोपी के ख़िलाफ़ कोई सबूत पेश नहीं किए जाते, बस आरोप लगाया जाता है और चुनौती दी जाती है कि हिम्मत है तो ख़ुद को पाक-साफ़ साबित करके दिखाओ, लाचार गुजरिया कैसे स्वयं को निर्दोष सिद्ध करती, या तो सर झुककर अपराध को स्वीकार कर लेती- जैसा उसने नहीं किया. या फिर परीक्षा देती. परीक्षा भारतीय स्त्रियाँ युगों से देती आई हैं - पुरुषों की शर्त पर. गुजरिया को भी परीक्षा से गुजरना पड़ा.
वह इतवार गुजरिया के लिए काला इतवार था। एक पात्र में गरमागरम तेल भरा गया. इस उबलते तेल में चाँदी का सिक्का डाला गया. गुजरिया को नंगे हाथों से यह सिक्का निकालना था. अगर वह भली औरत होगी तो उसके हाथ जलेंगे नहीं. और अगर हाथ जल गए तो साबित हो जाएगा कि वह सचमुच डायन है. गुजरिया गुजरिया थी, कोई सीता माता नहीं कि उसके हाथ न जलते. वैसे कहा तो यह भी जाता है कि अग्निपरीक्षा छाया-सीता ने दी थी, असली सीता तो पहले से अग्निदेव के घर में सुरक्षित थीं. लीला में ऐसा होता है.पर गुजरिया पर जो गुज़री वह लीला नहीं थी. क्रूर सच्चाई थी.
आप समझ ही गए होंगे कि अग्नि परीक्षा में गुजरिया अनुतीर्ण हो गई॥ बस फिर क्या था घोषणा हो गई -- यह चुडैल है, डायन है, पिशाचिनी है, मारो इसे !!!
हर ओर से गुजरिया पर प्रहार किए गए। गरम लोहे की सलाखों से उसकी देह दागी गई. मारे सरियों के उसका सिर फूट गया. इस बहाने जाने किस किस ने उससे क्या क्या बदले चुका लिए !
डायन से अपेक्षा की जाती है कि वह त्रस्त परिवार को कष्टों से मुक्त कर दे। गुजरिया भला कैसे किसी को कष्टों से मुक्त कर पाती. इसलिए उसे मार पीट कर उसके घर के दरवाज़े पर फ़ेंक दिया गया.पति और घर के सभी सदस्य इतने आतंकित कि उसे घर के भीतर नहीं ला सके. अंततः बेहोशी की हालत में उसे अस्पताल ले जाया गया.
तो यह थी सन २००८ के उत्तरआधुनिक भारत की एक बर्बर दास्तान।
क्या इस कहानी का मोरल यही माना जाए कि भारत में आज भी अंध-विश्वास, अवैज्ञानिकता, अशिक्षा मूर्खता के साथ साथ स्त्री के प्रति सर्वथा अमानुषिक दृष्टिकोण विद्यमान है, और सारे सामजिक , राजनैतिक और बौद्धिक नेतृत्व ने इस सचाई की ओर से आँख मूंद रक्खी है? स्त्रियाँ यहाँ पहले भी डायन थी और आज भी डायन हैं!
इस वीभत्सता में भी सुख और संतोष का अनुभव करने वाला समाज क्या भीतर सड़-गल नहीं चुका है?
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
‘‘शोध की दिशाएँ’’ विषयक एकदिवसीय संगोष्ठी संपन्न
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सोमवार, 24 अगस्त 2009
सोमवार, 10 अगस्त 2009
हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की परंपरा
आज 21वीं शताब्दी के पहले दशक में जब हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर पुस्तकों की माँग की जाती है तो प्रायः यह सुनने में आता है कि इसके लिए आधारभूत सामग्री उपलब्ध नहीं है और हिंदी आदि भारतीय भाषाएँ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से समर्थ नहीं हैं। हम आरंभ में ही यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह धारणा निराधार, असत्य और भ्रामक है क्योंकि हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं में सब प्रकार की प्रगतिपरक संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान को सहज और गहन दोनों रूपों में अभिव्यक्त और संप्रेषित करने की संपूर्ण शक्ति विद्यमान है। साहित्य की ही भाँति वैज्ञानिक लेखन की भी इस देश में सुदृढ़ परंपरा रही है और हिंदी सहित सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं ने उसे विरासत के रूप में प्राप्त किया है। इस विरासत को आगे विकसित करने के लिए आधुनिक विषयों और अनुसंधानों के अनुरूप हमने अपने भाषाकोश का पर्याप्त विकास किया है तथा विकास की यह प्रक्रिया वैज्ञानिक जगत के विकास के साथ-साथ आज भी निरंतर चल रही है। यदि हम पुरानी परंपरा की चर्चा न भी करें, तब भी इसमें संदेह नहीं कि खड़ीबोली हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन की परंपरा लगभग दो सौ साल पुरानी है।
वैज्ञानिक लेखन के लिए विशिष्ट पारिभाषिक शब्दावली की आवश्यकता को हिंदी ने बहुत पहले पहचान लिया था। जैसा कि बाबू श्यामसुंदरदास ने काशी नागरी प्रचारणी सभा के पारिभाषिक शब्दनिर्माण संबंधी कार्यक्रम की प्रासंगिकता के बारे में बताया है, ''जब कभी किसी व्यक्ति से किसी वैज्ञानिक विषय की पुस्तक लिखने या अनुवाद करने के लिए कहा जाता है तो वह इसके लिए तभी तैयार होता है जब सभा उन वैज्ञानिक शब्दों के पर्यायवाची शब्द हिंदी में बनाकर दे दे जिनकी उस पुस्तक या लेख को लिखने में जरूरत पड़ेगी।'' आज भी संभावित लेखक ऐसी ही माँग करते हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि आज पहले जैसी स्थिति नहीं है। अब शब्दों को बनाने की उतनी जरूरत नहीं जितनी बनाए जा चुके शब्दों के प्रयोग की। वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग आदि संस्थाओं ने लाखों की संख्या में विभिन्न विज्ञानों के शब्द बना डाले हैं और नित नए विषयों पर शब्दनिर्माण का काम अनेक स्तरों पर चल रहा है। अतः शब्दावली की अनुपलब्धता अब एक बहाना मात्र है। आवश्यकता है कि विभिन्न विषयों के विद्वान और वैज्ञानिक इस देश के आम जन को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय भाषाओं में वैज्ञानिक लेखन में प्रवृत्त हों। इसके लिए उन्हें अपने लक्ष्य पाठक समाज को ध्यान में रखकर अलग-अलग प्रकार की शैलियाँ विकसित करनी होंगी, क्योंकि बच्चों के लिए, विद्यार्थियों के लिए, जनसाधारण के लिए और विशेषज्ञों के लिए वैज्ञानिक लेखन की शैली एक जैसी नहीं हो सकती।
यहाँ हम भारत के महान गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय (1150 ई.) के ग्रंथ 'सिद्धांत शिरोमणि' के अंतर्गत 'गोलाध्याय' में बताई गई वैज्ञानिक लेखन की विशेषताओं का उल्लेख करना चाहेंगे जो इस प्रकार हैं -
1. वैज्ञानिक साहित्य की भाषा अधिक कठिन नहीं होनी चाहिए।
2. उसमें अनावश्यक विवरण नहीं होने चाहिए।
3. उसमें मूल सिद्धांतों की सही-सही और सटीक व्याख्या की जानी चाहिए।
4. उसमें भाषागत स्पष्टता और गरिमा का निर्वाह किया जाना चाहिए।
5. उसमें विषय को पर्याप्त उदाहरणों द्वारा पुष्ट किया जाना चाहिए।
आज भी हम हिंदी में मौलिक वैज्ञानिक लेखन से ऐसी ही अपेक्षाएँ रखते हैं और चाहते हैं कि वह अनुवादाश्रित जटिलता और दुरूहता से अपने आपको बचाए रखे। तभी उसमें बोधगम्यता और सम्प्रेषणीयता जैसे गुण आ सकेंगे।
संभवतः इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए जब पहले पहल खड़ीबोली में वैज्ञानिक विषयों पर पाठ्य पुस्तकें तैयार करने की चुनौती सामने आई होगी तब अंग्रेज़ी से आए वैज्ञानिक शब्दों के हिंदी पर्याय तैयार करना लाजमी प्रतीत हुआ होगा। इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु खड़ीबोली में वैज्ञानिक शब्द संग्रह और पुस्तक रचना का काम साथ साथ शुरू हुआ। तकनीकी विषयों पर लिखनेवालों के लिए ऐसे शब्द संग्रह का प्रणयन लल्लूलाल जी ने किया। हम प्रायः खड़ीबोली गद्य के चार आरंभिक उन्नायकों में एक के रूप में उन्हें याद करते हैं, लेकिन उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण 1810 ई. में प्रकाशित उनके द्वारा संग्रहीत 3500 शब्दों की वह सूची है जिसमें हिंदी की वैज्ञानिक शब्दावली को फ़ारसी और अंग्रेज़ी प्रतिरूपों के साथ प्रस्तुत किया गया है।
शब्द संग्रह के अनंतर पुस्तक लेखन का काम शुरू हुआ और 1847 में स्कूल बुक्स सोसाइटी, आगरा ने 'रसायन प्रकाश प्रश्नोत्तर' का प्रकाशन किया। विभिन्न वैज्ञानिक विषयों की पुस्तकें हिंदी में तैयार करने का बहुत बड़ा काम कायस्थ राजकीय पाठशाला के गणित अध्यापक पं. लक्ष्मीशंकर मिश्र ने किया। उनके संबंध में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 'कवि वचन सुधा' (23 अगस्त 1873) में यह जानकारी दी है कि उन्होंने हिंदी भाषा में '' सरल त्रिकोणमिति '' उस समय तक प्रस्तुत कर दी थी और हिंदी भाषा में गणित विद्या की पूरी श्रेणी बनाने के काम में जुट गए थे। वस्तुतः पं. लक्ष्मीशंकर मिश्र ने गणित, स्थिति विद्या, गति विद्या, वायुमंडल विज्ञान, प्राकृतिक भूगोल और पदार्थ विज्ञान जैसे विषयों पर पुस्तकें लिखकर हिंदी के आरंभिक वैज्ञानिक लेखन को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। आगे चलकर महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी ने 'चलन कलन' तथा विशंभरनाथ शर्मा ने 'रसायन संग्रह' (1896, बड़ा बाज़ार, कलकत्ता) की रचना की। ये सभी उदाहरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि तकनीकी विषयों की अभिव्यक्ति में हिंदी आरंभ से समर्थ और सचेष्ट रही है।
19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विभिन्न स्तरों पर आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के दौरान यह महसूस किया गया कि समाज में नवजागरण तभी संभव है जब भाग्यवादी अंधविश्वासों के स्थान पर तर्क और वैज्ञानिकता पर आधारित सोच का विकास किया जाय। समाज के मानस को वैज्ञानिक संस्कार देने के लिए, साइंटिफिक टेंपरामेंट विकसित करने के लिए, भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक लेखन को और अधिक मजबूत किए जाने की जरूरत थी (और आज भी है।)। इस दृष्टि से साइंटिफिक सोसाइटी अलीगढ़, वाद विवाद क्लब बनारस, काशी नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी, गुरुकुल कांगडी और विज्ञान परिषद इलाहाबाद जैसी संस्थाओं ने आंदोलनात्मक ढंग से काम किया और हिंदी के वैज्ञानिक लेखन को विस्तार दिया। इस प्रक्रिया में जहाँ एक ओर अंग्रेज़ी तथा दूसरी यूरोपीय भाषाओं से वैज्ञानिक साहित्य का उर्दू, हिंदी और फ़ारसी में अनुवाद किया गया वहीं शब्दावली निर्माण, पत्र-पत्रिकाओं में वैज्ञानिक लेखन और मौलिक ग्रंथों के प्रणयन को भी प्रोत्साहित किया गया। खास बात यह है कि रेलवे, कपास, औषधि, कृषि आदि तमाम विषयों पर इस दौर में लिखित निबंध और पुस्तकें सरल, सहज तथा बोधगम्य भाषा में रचित हैं। हिंदी में वैज्ञानिक शिक्षा देने के आंदोलन को संगोष्ठी और व्याख्यान मालाओं की सहायता से जनजनव्यापी बनाने का प्रयास किया गया। 8 वर्ष के परिश्रम से काशी नागरी प्रचारणी सभा ने 1898 में पारिभाषिक शब्दावली प्रस्तुत की। हिंदी में पारिभाषिक शब्द निर्माण के इस सर्वप्रथम सर्वाधिक सुनियोजित, संस्थागत प्रयास में गुजराती, मराठी और बंगला में हुए इसी प्रकार के कार्यों का समुचित उपयोग किया गया। सभा का यह कार्य देश में सभी प्रचलित भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली और साहित्य के निर्माण की शृंखलाबद्ध प्रक्रिया का सूत्रपात करनेवाला सिद्ध हुआ।
हिंदी के वैज्ञानिक लेखन को इस बात से बड़ा बल मिला कि गुरुकुल कांगडी (1900) ने विज्ञान सहित सभी विषयों की शिक्षा के लिए हिंदी को माध्यम बनाया और तदनुरूप 17 पुस्तकों का प्रणयन भी किया। यहाँ यह जानना रोचक होगा कि भारतेंदु और द्विवेदी युगीन लेखकों और संपादकों ने हिंदी में पर्याप्त वैज्ञानिक लेखन भी किया। पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' और पं. रामचंद्र शुक्ल जैसे साहित्यकारों ने वैज्ञानिक विषयों पर भी अत्यंत सहज ढंग से लिखा और इस क्रम में अनेकानेक वैज्ञानिक शब्दावली और अभिव्यक्तियों का निर्माण किया।
इलाहाबाद में 1913 में स्थापित विज्ञान परिषद ने 1914 में 'विज्ञान पत्रिका' आरंभ की और वैज्ञानिक लेखन के लिए नए आयाम खोले। हिंदी भाषासमाज के लिए यह गर्व का विषय है कि 'विज्ञान पत्रिका' तब से अब तक निरंतर प्रकाशित होती आ रही है। हमारा प्रस्ताव है कि वर्ष 2013-2014 को अखिल भारतीय स्तर पर 'विज्ञान पत्रिका' के 'शताब्दी वर्ष' के रूप में मनाया जाय और वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली को लोकप्रिय बनाने का चरणबद्ध आंदोलन चलाया जाए।
हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की संभावनाओं को अनंत आकाश उपलब्ध कराने की दृष्टि से डॉ. रघुवीर के कार्य को कभी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने 1943-46 के दौरान लाहौर से हिंदी, तमिल, बंगला और कन्नड - इन चार लिपियों में तकनीकी शब्दकोश प्रकाशित किया। बाद में 1950 में उनकी कंसोलिडेटड डिक्शनरी प्रकाशित हुई। लोकेशचंद्र के साथ प्रस्तुत किए गए उनके बृहद कार्य 'ए कम्प्रहेंसिव इंग्लिश हिंदी डिक्शनरी ऑफ़ गवर्नमेंटल एंड एजूकेशन वड्र्स एंड फ्रेजिस' (1955, भारत सरकार) से तो सब परिचित हैं ही। डॉ. रघुवीर ने संस्कृत की धातु, उपसर्ग और प्रत्यय पर आधारित शब्द निर्माण प्रक्रिया द्वारा लाखों वैज्ञानिक शब्द बनाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। आगे वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग ने देश भर के वैज्ञानिकों, भाषाविदों और संसाधकों की सहायता से इसे सर्वथा नई चुनौतियों के अनुरूप नया स्वरूप प्रदान किया।
इसमें संदेह नहीं कि आज वैज्ञानिक शब्दावली और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी अत्यंत समृद्ध है। इतने पर भी आज वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में लेखन बहुत ही कम और अपर्याप्त है। इसका कारण भाषा की अशक्तता कदापि नहीं है बल्कि वैज्ञानिकों का इस दिशा में रुझान न होना ही हमारी दरिद्रता का कारण बना हुआ है। जैसा कि कहा जाता है, भारत ऐसा देश है जो संपन्न होते हुए भी दरिद्र है। वैज्ञानिक लेखन के क्षेत्र में भी यही बात सच है। इसका निराकरण तभी संभव है जब एक तो, शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को अपनाया जाय तथा दूसरे, वैज्ञानिकों को हिंदी में बोलने और लिखने के लिए प्रेरित किया जाए। यहाँ पारिभाषिक शब्दावली की दुरूहता की बात उठाई जा सकती है, परंतु सच यही है कि भारतीय व्यक्ति के लिए भारतीय भाषाओं की शब्दावली अंग्रेज़ी की अपेक्षा अधिक पारदर्शी और बोधगम्य है। उसे समझने के लिए विज्ञान के विद्यार्थियों तथा वैज्ञानिकों को अनुप्रयुक्त संस्कृत का छोटा सा लगभग 30 घंटे का प्रशिक्षण दिया जा सकता है ताकि वे इन शब्दों के निर्माण में प्रयुक्त धातु, उपसर्ग और प्रत्यय को पहचान सकें। यदि ऐसा किया जा सके तो निश्चय ही हिंदी के माध्यम से वैज्ञानिक चेतना भारत के जनगण तक पहुँच सकती है क्योंकि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि विज्ञान तभी लोकप्रिय हुआ है जब उसने लोकभाषा को अपनाया|इटली में गेलीलियो ने पहले लैटिन में लिखा लेकिन उन्हें प्रचार-प्रसार इतालवी में लिखने (1632) पर ही मिला। न्यूटन ने भी 1637 में 'प्रिंसिपिया' की रचना लैटिन में की परंतु उन्हें लोकव्याप्ति 1704 के अंग्रेज़ी लेखन से मिली जिसका बाद में लैटिन में भी अनुवाद हुआ। इतना ही नहीं डार्विन ने भी अपने सिद्धांत अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किए और कालांतर में यूरोप में लैटिन में वैज्ञानिक लेखन बंद हो गया। विज्ञान के इस माध्यम परिवर्तन में यदि यूरोप के वैज्ञानिकों की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण रही, तो क्यों नहीं भारत के वैज्ञानिक भी भारत की जनता की खातिर भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक लेखन को समृद्ध बना सकते ?
रविवार, 9 अगस्त 2009
किसानों के सिवा सभी को रोटी चाहिए!
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