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सोमवार, 13 मई 2013

चमन में तन कहाँ खुशबू छिपाए....

पुस्तक : पत्तों पर पाजेब,
 कवि : अविनाश कुमार,
 संस्करण : 2011,
 प्रकाशक : वाणी प्रकाशन,
 4695, 21-ए, दरियागंज,
 नई दिल्ली - 110002,
 पृष्ठ : 122,
 मूल्य : रु. 200 (हार्डबाउंड).
हथौड़े की चोट को वे बेहतर जानते हैं जिन्हें लोहे की तकदीर मिली है और जो निहाई पर पड़े हैं. सभी की आँख हाथों की इस सफाई पर दीवानी है कि जिसके हाथ में खंजर था वह अब भोला कबूतर है. भूखे बच्चों की रोटी का मसला अब कोई मसला नहीं है, थाली में पानी भरकर चाँद दिखाने भर से काम चल जाता है. आजकल बच्चे युद्ध के नक़्शे में उलझकर शांति का रास्ता पूछते हैं. ऐसा क्यों होता है कि जिन बच्चों पर बचपन का कोई मौसम नहीं आता, वक्त उनके कुसुम-कोमल हाथों में शमशीर थमा देता है. नए पत्ते दुःख से भरे हैं और फूल थर-थर काँप रहे हैं क्योंकि कुछ दिनों से हवा गुलशन में खंजर लहराती घूम रही है. तमाम विदूषकों ने साहित्य के ध्वज उठा रखे हैं. और लगातार फतवे जारी कर रहे हैं जब कि कविगण बेहद लाचार हैं. 

इन तमाम सरोकारों से जुडे कवि अवनीश कुमार (1969) का दूसरा कविता संग्रह है ‘पत्तों पर पाजेब’ (2011) जिसमें उनकी 84 ग़ज़लें और 17 नज़्में संकलित हैं. उनका भाषा संस्कार यद्यपि उर्दू रुझान वाला है लेकिन रचना तेवर समकालीन हिंदी कविता से गहरे संपृक्त है. यही कारण है कि यथार्थ और रोमान को वे बहुत अच्छी तरह गूँथते हैं और अपना एक निजी स्वप्न जगत रचते हैं. सुख-दुःख के हर मौसम से गृहीत गंध के तमाम बिंब इन रचनाओं को पठनीय बनाते हैं. साथ ही जीवन को सुंदरतर बनाने के लिए प्रेरित भी करते हैं. यह कवि की अपनी इस स्थापना के अनुरूप ही है कि “एक ड्रीमलैंड की रचना किसी आइडियोलॉजी के तहत नहीं – सिर्फ इसलिए होती है कि वह मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है; एक स्वप्न के कारण कि यथार्थ को, जीवन को और बेहतर बनाया जा सकता है.” 

कवि को इस बात का मलाल है कि - अहसास का बोझ उठाते-उठाते लफ़्ज़ कुली हो गए हैं/ चमन में तन कहाँ खुशबू छिपाए कि उसका पैरहन तक जल गया है/ रोशनी नन्हे चिरागों के हवाले करके सूरज गुमनाम सी वादी में उतर जाता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कोमल संवेदनाएँ मर गई हों. यथार्थबोध के साथ ही कवि का सौंदर्यबोध भी जागृत है – कल बरसे बादल तेरे घर नमी थी मेरे अश्कों की, कच्चे आँगन से उठती है खुशबू क्या? खत में लिखना/ जब वो बोले लगे कानों में शहद सा घुल गया, पहन रक्खीं नीम की सींकों की जिसने बालियाँ/ किशोरी धूप दर्पण देखकर खुद से लजाई है, सूर्य ने जबसे उसके ब्याह की चर्चा चलाई है/ उसका इश्क मेरे लहू में दौड़ता है, मैं उसके साथ ही मुकम्मल होता हूँ. 

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपनी वर्तमान व्यथा को सुलझाते सुलझाते जिस स्थिति पर हम पहुँच जाना चाहते हैं, वहीं हमारी ड्रीमलैण्ड है।