पुस्तक : गोरा,
लेखक : रवींद्रनाथ ठाकुर, अनुवादक : प्रो.देवराज, संस्करण : 2012, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, 1 – बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली - 110002, पृष्ठ : 416,
मूल्य : रु. 500 (हार्डबाउंड).
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इस वर्ष रवींद्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मिलने की शताब्दी है. अभी कुछ वर्ष पहले उनके उपन्यास ‘गोरा’ की शताब्दी थी. जिस वर्ष महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ लिखा गुरुदेव का ‘गोरा’ भी उसी वर्ष अर्थात 1909 में रचा गया. उस समय तक रवि बाबू और गांधी जी परिचित नहीं थे. लेकिन दोनों ने अपनी इन कालजयी कृतियों द्वारा उस दौर में भारत और भारतीयता की कालांतरगामी व्याख्या की.
‘गोरा’ यों तो एक प्रेमकथा है. पर उसकी वैचारिकी अत्यंत पुष्ट है. इस कृति में रवींद्रनाथ ठाकुर ने जाति, धर्म, क्षेत्र और वर्ण से परे देशभक्ति की व्याख्या की तथा भारतीय समाज के अंतर्विरोधों को भी सामने लाने का साहस दिखाया. ब्रह्मसमाज के सामने लेखक ने गोरा को खड़ा किया और नई-पुरानी विचारधाराओं के संघर्ष को उभारकर इसे भारतीय साहित्य का गौरव ग्रंथ बना दिया. उस समय भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव से समाज के पिछड़े समुदाय असंतोषग्रस्त थे. बाह्याचार और रीति-रिवाज में नई पीढ़ी घुटन महसूस कर रही थी. धार्मिक और सामाजिक आंदोलन सुधार और उद्धार की बात कर रहे थे. ऐसे में ‘गोरा’ ने यह प्रस्तावित किया कि उद्धार से बड़ी बात है प्रेम की, श्रद्धा की – पहले हम एक हों, उद्धार अपने आप हो जाएगा. कहना न होगा कि यह सूक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 1909 में रही होगी.
‘गोरा’ की प्रासंगिकता उसे आज फिर बार-बार पढ़ने की जरूरत जताती है. इस उपन्यास का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. हिंदी में बहुत पहले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने इसका अनुवाद किया था. अब इसका एक और अनुवाद प्रो.देवराज ने किया है. स्मरणीय है कि “’गोरा में कितने ही ऐसे विभिन्न कोटियों के शब्द और प्रयोग हैं जिनके सांस्कृतिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक और लोकजीवन के दैनिक प्रयोगों से जुड़े संदर्भों को जाने बिना ‘गोरा’ का मूल पाठ नहीं समझा जा सकता. अनुवाद में इनके प्रयोग के साथ ही पाद-टिप्पणियों में इनकी व्याख्या कर दी गई है. अब तक देशीया विदेशी भाषाओं में ‘गोरा’ के जितने भी अनुवाद हुए हैं, उनमें से किसी में भी यह विशेषता मौजूद नहीं है’. इस दृष्टि से ‘गोरा’ का यह अब तक का सबसे प्रामाणिक अनुवाद है.”
डॉ.देवराज ने यह अनुवाद प्रस्तुत करते समय मूल रचना की सांस्कृतिक चेतना को ही नहीं बल्कि भाषिक संरचना को भी भलीभाँति खोलकर पुनःसृजित किया है. स्मरणीय है कि ‘गोरा’ की कथा भाषा अत्यंत अर्थगर्भी मानी जाती है क्योंकि इसमें लेखक ने पश्चिम बंग की साधु बांग्ला, पूर्वी बांग्ला (वर्तमान बांग्लादेश) की बांगाल भाषा, लोक में व्यवहृत बांग्ला के विविध रूपों, प्राचीन पारम्परीण शब्दों, सांस्कृतिक शब्दावली, नवनिर्मित शब्दावली और भौगोलिक शब्दावली के लोक प्रचलित रूपों का अद्भुत समन्वय किया है. कविताओं और गीतों के अलावा बाउल गीतों और लोक गीतों का प्रयोग इसकी भाषा को और भी संश्लिष्ट बना देता है. अनुवादक ने इन सब स्तरों और वैविध्यों को पहचानकर प्रस्तुत अनूदित पाठ तैयार किया है.
अंततः पाठकों के विचारार्थ ‘गोरा’ का यह स्त्रीविमर्श –
“गोरा अपने मन पर स्वयं ही आश्चर्यचकित हो गया. जितने दिन भारत की नारी उसके लिए अनुभव गोचर नहीं थी, उतने दिन भारतवर्ष को वह कितने अधूरे रूप में उपलब्ध करता रहा था, इसके पूर्व वह जानता ही नहीं था. नारी जब गोरा के लिए अत्यंत छायामय थी, तब देश के संबंध में उसका जो कर्तव्य-बोध था, उसमें कितनी कमी थी! मानो, शक्ति थी, किंतु उसमें प्राण नहीं थे. जैसे मांसपेशियाँ थीं, पर नाडियाँ नहीं थीं. गोरा एक पल में समझ गया, नारी को हमने जितना ही दूर हटा कर, क्षुद्र बना कर रखा है, हमारा पुरुष भी उतना ही शीर्ण होकर मरा.”
2 टिप्पणियां:
संभवतः देवराजजी का अनुवाद नहीं पढ़ा है, उस समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में शब्दों का अर्थ और भी स्पष्ट हो जाता है।
अज्ञेय जी और प्रोफेसर देवराज इन दोनों में किनका अनुवाद ज्यादा बेहतर है , बताने का कष्ट करें
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