महात्मा गांधी के ‘हिंद स्वराज’ [1908] के 102 वर्ष बाद केजरीवाल का ‘स्वराज’ [2012] आया है. वह भी एक आदर्श स्वप्न था, यह भी एक आदर्श स्वप्न है. केजरीवाल न तो महात्मा हैं न गांधी; लेकिन व्यवस्था परिवर्तन की उनकी जिद उन्हें आज के तमाम यथास्थितिवादी परिवेश के बीच औरों से अलग पहचान देती है. गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ के मॉडल पर नए भारत के निर्माण की कामना की थी जिसे उनके जीते-जी उनके प्रिय उत्तराधिकारियों ने दरकिनार कर दिया था. केजरीवाल के ‘स्वराज’ को उनके प्रिय पुरोधा अन्ना हजारे ने व्यवस्था परिवर्तन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने आंदोलन का घोषणापत्र और ‘असली स्वराज लाने का प्रभावशाली मॉडल’कहा है – दोनों के आपसी अंतर्विरोध अपनी जगह !
2011 के भ्रष्टाचार विरोधी जनलोकपाल आंदोलन की दयनीय परिणति का एक कारण जन असंतोष को राजनैतिक चेतना में न बदल पाना रहा. अरविन्द केजरीवाल की यह पुस्तक उसी का रास्ता बताती है. 175 पेज की इस पुस्तक में याद दिलाया गया है कि भारत की आज़ादी आज़ादी नहीं मात्र गोरे शोषकों के हाथों से काले शोषकों के हाथों में सत्ता का हस्तांतरण थी. गांधी चाहते थे कि मुल्क से अंग्रेजियत चली जाए भले अँगरेज़ यहाँ रहें. केजरीवाल बताते हैं कि अँगरेज़ चले गए लेकिन अंग्रेजियत नहीं गई – सारी व्यवस्था वही बनी रही जो अंग्रेजों ने स्थापित की थी. स्वराज अभी तक नहीं आया – स्वराज मतलब जनता का राज, हमारा राज. केजरीवाल चाहते हैं कि अपने गाँव, अपने शहर, अपने मोहल्ले के बारे में सीधे जनता निर्णय ले तथा संसद और विधानसभाओं में पारित होने वाले क़ानून भी जनता की मर्जी से बनाए जाएँ. संदेश साफ है कि संविधान के बदलने का समय आ गया है. इस काम में जितना विलम्ब होगा लोककल्याण और सहज मानवीय न्याय पर आधारित भारतीय प्रकृति वाले जनतंत्र की स्थापना उतनी ही दूर होती जाएगी.
स्वराज की राह देख रही देश की आम जनता को समर्पित इस ‘स्वराज’ में पहले तो यह खुलासा किया गया है कि वर्त्तमान व्यवस्था जनता से पूरी तरह विमुख है, फिर यह माँग की गई है कि जनता का तिलक करो.इसके लिए ज़रूरी होगा कि सरकारी कर्मचारियों पर नियंत्रण हो, सरकारी पैसों पर नियंत्रण हो, ग्राम सभाओं को सशक्त बनाया जाए, कानूनों और नीतियों पर जनता की राय ली जाए, प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण हो, सरकार के विभिन्न स्टारों के बीच कार्य विभाजन हो, निर्णय लेने का हक लोगों के पास हो तथा पंचायती राज व अन्य कानूनों में व्यापक बदलाव किया जाए. ऐसी ही अनेक अच्छी-अच्छी बातें कही गई हैं और पाठकों का आह्ववान किया गया है कि लेखक के आंदोलन का हिस्सा बनें. पर दिल्ली अभी दूर लगती है क्योंकि जिस व्यापक सामाजिक, राजनैतिक और संवैधानिक बदलाव की ज़रूरत इक्कीसवीं सदी के भारत को है उसके लिए एकमत होकर जूझने वाली जनशक्ति का संगृहीत होना बिलकुल आसान नहीं है. फिर भी जयशंकर प्रसाद के शब्दों में यह मंगल कामना तो की ही जा सकती है –
शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।
स्वराज;
अरविन्द केजरीवाल;
2012,
हार्पर हिंदी, ए – 53, सेक्टर 57, नौएडा – 201301;
पृष्ठ - 175,
मूल्य – रु. 99 .
- भास्वर भारत [प्रवेशांक]- अक्टूबर 2012- पृष्ठ 60.
3 टिप्पणियां:
आप की समीक्षा पढ़ कर लगा कि यह एक उपयोगी एवम् पठनीय पुस्तक है ।
यह समीक्षा भास्वर भारत के प़थम अंक में छपी है । आशा है कि इस के अगले
अंक भी छपे होंगे , जो देखने को नहीं मिले ।
@SP Sudhesh
मान्यवर,
पत्रिका तब से प्रतिमास नियमित छप रही है.
शायद डिस्पैच की गडबड वश आपके पास नहीं पहुँची.
देखता हूँ.
निश्चय ही पठनीय पुस्तक, मानवता विजयनी हो जाये।
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