पुस्तक चर्चा यदि हरिस्मरणे सरसम् मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम् -ऋषभदेव शर्मा
चित्रकला और कविता का गहरा संबंध है। दोनों ने समय समय पर एक दूसरे को प्रेरणा दी है, सहारा दिया है। विश्व के तमाम श्रेष्ठ काव्यों को आधार बनाकर कलाकृतियों के सृजन की लंबी परंपरा रही है। भारतीय चित्रकारों ने समय समय पर विभिन्न काव्यों में वर्णित प्रसंगों को रंग और रेखाओं में ढालकर अधिक संप्रेषणीय बनाने में कोई कोताही नहीं की है। खास तौर से रामायण, महाभारत, कालिदास की विभिन्न कृतियाँ और जयदेव कृत 'गीतगोविंद' ने चित्रकारों को अत्यधिक आकर्षित किया है। इनमें भी 'गीतगोविंद' की तो एक एक पंक्ति में इतनी चाक्षुषता निहित है कि यह काव्य चित्रकला की अपार संभावनाओं का स्रोत प्रतीत होता है। यही कारण है कि गीतगोविंद पर आधारित कलाकृतियों की एक लंबी परंपरा है। "गीतगोविंद की सारी अष्टपदियाँ इतनी बिंबात्मक और सहज लालित्य से भरपूर हैं कि उन्होंने चितेरों को, विशेषकर मध्यकालीन चितेरों को, बेहद आकृष्ट किया। मुगल, राजस्थानी, पहाड़ी और अनेक आंचलिक शैलियों में गीतगोविंद के प्रसंगों पर मनोरम रूपायन किए गए। गीतगोविंद के प्रसंगों पर आधारित सर्वप्रथम चित्र गुजरात शैली में मिलते हैं जिनका अंकन काल लगभग 1450 ई. है।" (डॉ.विद्यानिवास मिश्र, राधामाधव रंग रंगी, 1998/ 2002, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ.170)। इस परंपरा में सर्वाधिक अधुनातन कड़ी के रूप में आंध्र प्रदेश के प्रतिष्ठित चित्रकार डॉ. टी. साई कृष्णा की गीत गोविंद पर आधारित कलाकृतियों की लंबी शृंखला प्रकाशित होकर सामने आई हैं।
डॉ.टी.साई कृष्णा यों तो विज्ञान के विद्यार्थी रहे और एक शिक्षाविद् के रूप में प्रतिष्ठित हैं लेकिन उच्च कोटि के काव्य और पारंपरिक कला के प्रति उनका लगाव अप्रतिम है। 1972 से डॉ.साई कृष्णा ने एक चित्रकार और कलाविद् के रूप में ख्याति प्राप्त की। आंध्र प्रदेश की सभी अग्रणी पत्रिकाओं में उनके रेखांकन और चित्र निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। उन्होंने तेलुगु, हिंदी और संस्कृत के महान काव्यग्रंथों को अपनी चित्रमालाओं का प्रमुख आधार बनाया है। मनुचरित्र, पारिजात प्रहरणम्, गीतगोविंद, ऋतुसंहारम्, क्षेत्रय्या पदालु, अन्नमैया संकीर्तन, दक्षिण वेदम्, किन्नेरसानी और अमरुकम् शीर्षक उनकी साहित्याधारित चित्रमालाएँ अत्यंत लोकप्रिय हैं। उनकी कलाकृतियों की अनेक एकल प्रदर्शनियाँ भी अत्यंत सफल रही हैं।
किसी चित्रमाला का सृजन और प्रदर्शन एक अलग बात है और उसका पुस्तकाकार रूप में प्रकाशन एकदम दूसरी। यही कारण है कि डॉ.टी.साई कृष्णा के गीतगोविंद के चित्र प्रदर्शनों की अपार सफलता के बावजूद डिजिटल फार्म में बहुरंगी चित्रों के संकलन के रूप में इसके प्रकाशन के स्वप्न को साकार होने में लगभग तीस वर्ष का समय लगा। गीतगोविंद का परिशीलन करते हुए चित्रकार ने जब पहले पहल यह महसूस किया कि इसके पाठ में दृश्यमानता की अपार संभावनाएँ हैं तो उन्होंने आरंभ में 185 चित्र तैयार किए जिनकी हर ओर से प्रशंसा हुई और वास्तु योगी गौरु तिरुपति रेड्डी ने इन्हें मूल रचना के साथ प्रकाशित करने की प्रेरणा दी। परिणामतः चित्रकार ने गीतगोविंद की अनेक टीकाओं और व्याख्याओं का अध्ययन-मनन किया और प्रत्येक संस्कृत श्लोक का रोमन और तेलुगु में लिप्यंतरण करते हुए अंग्रेज़ी और तेलुगु में विशद व्याख्या की। इसी रूप में यह सामग्री बड़े आकार की सात सौ से अधिक पृष्ठों की त्रिभाषी कृति के रूप में प्रकाशित हुई है - ‘श्री जयदेव्स श्री गीतगोविंद काव्यम्’।
यह विशालकाय ग्रंथ अपने आप में गीतगोविंद का इकलौता संपूर्ण रूपांकन है जिसकी बराबरी गीतगोविंद के अब तक के अन्य किसी रूपांकन से नहीं की जा सकती। यद्यपि चित्रकार ने बार बार यह कहा है कि विभिन्न पदों की अंग्रेज़ी और तेलुगु में जो व्याख्या दी गई है वह केवल इस समग्र चित्रमाला के आस्वादन में सहायता करने के लिए है तथापि इसमें संदेह नहीं कि यह व्याख्या अत्यंत सहज और व्यापक है। ऐसा होने के पीछे लेखक का गहन दीवानगी भरा अध्ययन है। उन्होंने इस व्याख्या में प्रेम की विभिन्न दशाओं, संयोग शृंगार और विप्रलंभ शृंगार के विविध रूपों, हाव-भाव-अनुभावों और नायक-नायिका भेदों के आधार पर विवेचन करते हुए कृष्ण लीला के आध्यात्मिक पक्ष को भी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है। लेखक की सृजनात्मकता इस व्याख्या में भी उतनी ही मुखर है जितनी कि रेखांकन और रूपांकन में। उन्होंने अपने इस विलक्षण और अद्भुत कार्य से जहाँ यह सिद्ध किया है कि वे कलम और कूँची दोनों के धनी कलाकार हैं वहीं यह भी प्रतिपादित किया है कि कविता और चित्रकला राधा के दो सुंदर नेत्र हैं।
डॉ.टी.साई कृष्णा के रूपांकनों की एक मूलभूत विशेषता यह है कि वे विभिन्न अष्टपदियों के पाठ पर आधारित हैं । दूसरी विशेषता राधा और कृष्ण की परस्पर मुग्धता को आँखों के रेखांकन द्वारा व्यक्त करने में निहित है। तीसरी विशेषता इन चित्रों की, रंगों के एक ऐसे शीतल संयोजन में है जो दर्शक के चित्त पर शांतिकर प्रभाव छोड़ता है - उत्तेजित नहीं करता। उदाहरण के लिए यदि पृष्ठ 109 पर ‘अनेक नारी परिरंभ संभ्रमम्’ को देखें तो दृष्टि किसी गोपिका के उन्मुक्त उरोज और पृथुल नितंब पर फोकस होने के बजाय कृष्ण और गोपियों की आलिंगन मुद्रा और कृष्ण के किंचित खुले होंठों और किंचित निमीलित नेत्रों पर जाती है। नेत्रों के अंकन में कृष्णा को महारत हासिल हैं। इसी चित्र में चार गोपियाँ हैं और चारों के नेत्र भिन्न भंगिमा लिए हुए हैं। कुंज की ओर से राधा और उनकी सखी झाँकती हुई दिखाई गई हैं। उनके नेत्रों के भी भिन्न भाव है।
राधा-कृष्ण की विभिन्न संयोग मुद्राओं को चित्रकार ने इस प्रकार अंकित किया है कि उनका अपने आप में डूबना दर्शक को भी डुबो ले जाता है। पृष्ठ 179 पर ‘मधुसूदन मुदित मनोजम’ में रति सुख श्रांत राधा-कृष्ण की परस्पर लीनता इस संदर्भ में द्रष्टव्य है। पृष्ठ 263 पर ‘मन्मथ ज्वर’ का अंकन इसके ठीक विपरीत विरह वेदना और तज्जनित व्याकुलता को व्यंजित करता प्रतीत होता है। ये चित्र इस दृष्टि से भी ध्यान खींचते हैं कि इनमें प्रकृति और प्रेमी मन की ऐसी अनुकूलता दिखाई देती है कि प्रक्रुति और मन एक दूसरे के बिंब-प्रतिबिंब जैसे लगते हैं।
गीतगोविंद प्रेम की विजय का काव्य है। यह काव्य कुछ इस प्रकार आरंभ होता है कि शाम का समय है, घटा गहरा रही है, घर दूर है और पिता नंद कृष्ण का हाथ राधा को सौंपते हुए कहते हैं कि इस डरपोक लड़के को तनिक घर तक पहुँचा देना। राधा यहाँ मार्गदर्शक हैं और कृष्ण उनके अनुचर। सही अर्थ में अनुचर हैं कृष्ण गीतगोविंद में राधा के। उनके मन में राधा के मुखचंद्र को देखकर समुद्र जैसी तरंगें उठतीं हैं। इस तरंगित भाव को पृष्ठ 589 के चित्र ‘तरलित तुंग तरंगम्’ में कुछ इस तरह रूपायित किया गया है कि राधिका की उचकी हुई एड़ी से लेकर कृष्ण के लहराए हुए पीतांबर तक सब कुछ तरंगित-सा प्रतीत होता है। आगे जब कृष्ण राधिका को प्रसन्न कर लेते हैं तो जैसा कि जयदेव बताते हैं, राधा समस्त सौंदर्य का सागर बन जाती हैं, उनका अंक कृष्ण की लीलास्थली बन जाता है। यह लीला दोनों को एकाकार कर देती है। पृष्ठ 613 के चित्र ‘सौंदर्यैक निधि’ में ऊपर उठकर एक दूसरे में लीन होती हुई रेखाएँ इस एकाकारता तो सहज व्यंजित कर पा रही हैं। इतना ही नहीं स्वयं को 'पद्मावती चरण चारण चक्रवर्ती' घोषित करने वाले जयदेव के कृष्ण चारुशीला राधिका का संपूर्ण शृंगार करते हैं। पृष्ठ 621 पर वे राधिका के चरणकमल अपने हाथों में लिए हुए हैं और राधा मानो उनके इस प्रेम पर पिघल-पिघल जा रही हैं। परिणामस्वरूप वे पृष्ठ 641 पर ‘पौरुष प्रेम विलास’ (विपरीत रति) द्वारा कृष्ण को विभोर करती हैं। कृष्ण राधिका के वक्ष पर कस्तूरी से चित्रांकन करते हैं (मृगमद पत्रकम्, 657), आँखों में काजल आँजते हैं जो चुंबन के समय पुँछ गया था (कज्जलम उज्ज्वलय , 659), कानों में कुंड़ल पहनाते हैं (श्रुति मंडले, 661), बिखरी और उलझी लटों को सँवारते हैं (भ्रमर रचना, 663), रति श्रम से आए पसीने के कारण तिरछी हो गई बिंदिया को ठीक से सजाते हैं (मृगमद तिलकम्, 665), वेणी गूँथकर गजरा लगाते हैं (कुसुम रचना, 667), रस-लीला में खिसक गई करधनी की गाँठ को ठीक करते हैं (रति जघन विलासम्, 669) और अंततः नूपुरों को ठीक करने के बहाने रासेश्वरी राधारानी के चरणकमलों का स्पर्श करते हैं (रचय, 673)।
अंत में इस मूलभूत प्रश्न का उत्तर जानना जरूरी है कि प्रेम की जय और स्त्री की विजय के इस काव्य का अधिकारी कौन है। यह प्रश्न जयदेव से लेकर डॉ.टी.साई कृष्णा तक गीतगोविंद के सभी पाठकर्ताओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। जयदेव ने आरंभ में ही कह दिया है - "यदि हरिस्मरणे सरसम् मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।/ मधुरकोमलकान्तपदावलीम् शृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्॥" पंडित विद्यानिवास मिश्र ने इस श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखा है कि "जयदेव ने कहा है कि मेरी कोमलकान्तपदावली, श्रीराधा के नूपुर की तरह रुनझुन बजती पदावली को सुनना चाहते हो तो अपने भीतर जाँचो कि कहीं हरि के इस स्मरण के लिए मन में रस है भी तुम्हारे भीतर या नहीं ? हरि का स्मरण करते हुए तुम्हें स्वाद मिलता है या नहीं? केवल यांत्रिक रूप से हरि का स्मरण करते हो या हरि का स्मरण करते करते कहीं भीगते भी हो? और यही काफी नहीं है। तुम हरि का स्मरण करो और मन से स्मरण करो। तुम्हारे भीतर संसार में प्यार के कितने रूप होते हैं - ईर्ष्या, मोह, खीझ, उत्कंठा, प्रतीक्षा, मिलन और एकदम लय हो जाना, लय हो जाने के बाद भी ऐसा लगना कि मिलना हुआ नहीं, फिर कब ऐसा मिलना होगा, या ऐसा मिलना नहीं होगा, इस प्रकार की चिंताओं की अनंत शृंखला को जानने, समझने के लिए मन में तुम्हारे कुछ कुतूहल है, कुछ उत्सुकता है, कुछ अपने को ऐसी निरंतर चलनेवाली लीला में झोंक देने की तैयारी है कि जहाँ इसका जोखिम बना हुआ है, वहाँ तुम न रहोगे? यदि ये दोनों तैयारियाँ तुम्हारे मन में हों, तो यह काव्य तुम्हारा ही है।"
कविता और कला का यह विस्मयकारी संयोजन चित्रकार डॉ.टी.साई कृष्णा की निष्ठा और साधना का सुफल है; इसके लिए वे अभिनंदनीय हैं। 0
श्री जयदेव्स श्री गीतगोविंद काव्यम् / डॉ. टी. साई कृष्णा / प्रजाहिता पब्लिशर्स, 1-1-1/18/1, गोलकोंडा क्रास रोड, हैदराबाद - 500 020 / 2010/ रु. 1100 /
|
4 टिप्पणियां:
Sahi kaha Rishabh ji aapne..chitrakala aur kavita ka anyonyashray sambandh hai...maine khud ise mahsus kiya hai...thori bahut kavita bhi likh leta hun aur thora chintrankan bhi kar leta hun..samay mile to mere blogsite pe jarur jaiye.
ab aaun aapki paricharcha par...Ramayan aur Mahabharat jahan chitrakari ko puri tarah prasfutit hone ka mauka nahi dete(Mere vichar se) wahin, jaidev ka Geetgovind puri tarah chitrakaaron ki kalpna ko moort roop dene mein saksham hai...karan yahi ki yahan prem ki abhivyakti ko pankh lag jaate aur ramcharitmanas aur mahabharat mere vichar se samajikta aur usse juri samasyaon par ek samvidhan ke roop me mana jaata raha hai.
Aapne itni acchi jaankari di, iske liye dhanyavaad..main aapke site ka prashanshak aur follower ban raha hun...achhi jankariyan milti rahengi bhavishya mein bhi.
गहरी साधना के बाद ही कोई कलाकार काव्य के मर्म को समझ कर चित्र बना सकता है। इस समीक्षा को पढ कर पुस्तक देकने कि प्यास बढ गई है। आशा है कभी आप इन चित्रों को पिकासा में लगा देंगे :)
गीत गोविंद सृजन का केन्द्र रही है।
आदरणीय सर्वश्री विजय रंजन जी,च.मौ.प्रसाद जी एवं प्रवीण पांडे जी,
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ.
'गीत गोविंद' पर चित्रमाला के बहाने कविता और चित्रकला पर आपके भी विचार जानना अच्छा लगा.
एक टिप्पणी भेजें