[फरवरी २०११ के अंतिम सप्ताह में केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद में डॉ.आलोक पांडेय ने ''मीडिया,साहित्य और संस्कृति'' पर तीन दिन की वृहत राष्ट्रीय संगोष्ठी की थी. उन्हीं तिथियों में दिल्ली एक कार्यशाला में जाना पड़ा, इसलिए मैं उस गोष्ठी में उपस्थित न हो सका, इसका मलाल मुझे है. लेकिन डॉ. आलोक ने बाद में जब यह बताया कि उसी विषय पर वे एक पुस्तक भी संपादित कर रहे हैं और आदेश दिया कि उनके सुझाए विषय ''मीडिया और साहित्य'' पर मुझे जो कुछ संगोष्ठी में कहना था, लिख कर दे दूँ, तो यह आलेख लिखा गया. अपने जयप्रकाश मानस जी ने इसे 'सृजनगाथा' पर प्रकाशित भी कर दिया है.]
मीडिया और साहित्य के संबंध और एक दूसरे पर प्रभाव को लेकर हमारे यहाँ तरह तरह की बहसें चल रहीं हैं जो बड़ी सीमा तक बैठे ठाले का बुद्धि विलास भर है| कहा जा रहा है कि मीडिया के कारण साहित्य संकट में पड़ गया अथवा मीडिया साहित्य की उपेक्षा करता है अथवा मीडिया की तुलना में साहित्य की गति इतनी धीमी है कि वह आज के समय के सत्य को पकड़ने में पिछड़ जाता है| यह भी कहा जा रहा है कि मीडिया भाषा को भ्रष्ट कर रहा है| इतना ही नहीं वर्ग संघर्ष के कुछ अलमबरदारों को तो यहाँ भी थीसिस - एंटीथीसिस दिखाई देने लगी है - मीडिया उन्हें साधनसंपन्न वर्ग के रूप में पूंजीपति दिखाई दे रहा है और साहित्य को वे सदा का साधनहीन वर्ग अर्थात सर्वहारा मान रहे हैं - इस वर्ग अंतराल का परिणाम संघर्ष तो होना ही चाहिए; असली न सही तो नकली ही सही| ऐसी बहसों के बहाने कभी कभार साहित्य और मीडिया की अपनी अपनी मजबूरियों और सीमाओं की भी चर्चा उठ खड़ी होती है| इन दोनों के व्यवस्था के साथ संबंधों पर भी कभी कभार टिप्पणी सुनने को मिल जाती है| जनता पर साहित्य के स्थान पर मीडिया का अधिक असर क्यों दिखाई देता है यह सवाल भी कइयों को व्यथित करता दिखाई देता है| सनसनी और संवेदना से लेकर बाजार और घर तक के मुद्दे मीडिया और साहित्य की बहस के बहाने सामने आए हैं|
मेरे जैसे साधारण कलमघिस्सू की समझ में ये तमाम बड़ी बड़ी बातें नहीं आतीं| हमने काफी माथापच्ची की लेकिन यह बात हमारी तुच्छ बुद्धि में अभी तक नहीं घुसी कि बेसिकली मीडिया और साहित्य दो अलग चीजें हो कैसे सकती हैं| हमारी तो धारणा यही रही है कि साहित्य भी मीडिया ही है और दोनों ही बेसिकली संप्रेषण हैं | दोनों के अपने अपने प्रयोजन हैं, दोनों के संप्रेषक और ग्रहीता के अपने अपने संबंध और समीकरण हैं और दोनों के लक्ष्य समूह अपने अपने हैं| इसलिए दोनों की लक्ष्य सिद्धि भी अपनी अपनी है| मीडिया अगर अपने प्रयोजन, अपनी संप्रेषण पद्धति और अपने लक्ष्य ग्रहीता को साहित्य के प्रयोजन, संप्रेषण पद्धति और लक्ष्य ग्रहीता तक सीमित कर ले या साहित्य मीडिया को आदर्श बनाकर खुद को उसके जैसा बना ले तो दोनों का भेद मिट जाएगा| ज़रुरत पड़ने पर ऐसा किया भी जा सकता है| मीडिया से अभिप्राय अगर फ़िल्म,टीवी, इन्टरनेट आदि इलेक्ट्रानिक मीडिया से है तो इस चर्चा को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि यह माध्यम साहित्य के लिए किस प्रकार उपयागी हो सकता है - जैसे कि प्रिंट मीडिया साहित्य के लिए सदा उपयोगी रहा है|
थोड़ी देर के लिए सिनेमा जैसे व्यापक मीडिया कि बात करें तो यह कहना उचित न होगा कि उसकी साहित्य से या लेखकों और कवियों से शत्रुता रही है| हम इस तरह क्यों नहीं सोचते कि फिल्मकार भी लेखक ही तो है - बस माध्यम बदला हुआ है | अगर आप पिछले वर्ष की दुनिया भर की विभिन्न भाषाओं की दस शिखर फिल्मों को देखें तो पाएँगे कि उनमें से आठ किसी न किसी साहित्यिक कृति पर या तो सीधे सीधे आधारित हैं या उनका पुनर्पाठ प्रस्तुत करती हैं| अगर टीवी धारावाहिकों की बात करें तो यहाँ भी आप पाएँगे कि अगर रचना में और उसकी टीवी प्रस्तुति में मास अपील का दमखम है तो न तो सीरियल निर्माता उसे नकार सकते हैं और न जनता ही| प्रमाणस्वरूप विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं की साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों और धारावाहिकों की लंबी सूची को देखा जा सकता है - गोदान, चित्रलेखा, तीसरी कसम, शतरंज के खिलाड़ी,अंगूर, देवदास, किताब, मकबूल , ओमकारा, थ्री इडियट्स वगैरह वगैरह से लेकर रामायण, महाभारत को छोड़ भी दें तो निर्मला, रागदरबारी, तमस, लापतागंज, पापडपोल, तारक मेहता का उलटा चश्मा वगैरह वगैरह तक|
जो लोग मीडिया और साहित्य की रफ्तार की तुलना करते हैं वे यह क्यों भूल जाते हैं कि मीडिया टेक्नोलाजी है और हर टेक्नोलाजी की अपनी ख़ास पहचान होती है| उसके हिसाब से लिखने के लिए उसकी समझ होना पहली जरूरत है| अब फ़िल्म रूपी माध्यम को ही लें तो पता चलेगा कि माध्यम के रूप में उसकी तकनीकी विशेषताओं का सम्प्रेषण के लिए प्रभावी इस्तेमाल करने की समझ आने में हमें लगभग अस्सी साल लग गए| आज की फिल्में फ़िल्मभाषा की तकनीकी बारीकियों का बखूबी इस्तेमाल करती हैं जब कि आरंभ में कई दशक तक फिल्में किसी किताब को पढने या नाटक को देखने का सा ही अनुभव देती थीं| यह सीखने मे ही हमें आठ दशक लग गए कि फ़िल्म बनाना किताब लिखना या ड्रामा खेलना नहीं है, और तब जाकर वे फिल्में आ सकीं जिनमें साहित्य और थियेटर के अनुकरण के स्थान पर पैरलल नैरेशन का गठन किया जा रहा है| इसी तरह इन्टरनेट की खिड़की लेखन के लिए खुले अभी महज पंद्रह साल हुए हैं और हम हैं कि उससे बड़ी बड़ी मांगें करने लगे हैं| थोड़ा और समय चाहिए अभी हमारे कलमकारों को इस माध्यम को, इसकी विशेषताओं को और ताकत को आत्मसात करने और उनका अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल करने के लिए| इसके बावजूद हिंदी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में तमाम तरह के अच्छे बुरे ब्लॉग लिखे जा रहे हैं तो हमें प्रसन्न ही होना चाहिए और इसे इस माध्यम के प्रसार के रूप में ग्रहण करना चाहिए, कालांतर में इस में घनत्व का भी समावेश हो जाएगा|
इसी प्रकार मीडिया की भाषा और साहित्य की भाषा की तुलना करने से पहले यह जानना जरूरी है कि हमारा भाषा प्रयोग इस बात पर निर्भर करता है कि हम किसे संबोधित कर रहें हैं| जब तक साहित्य और इलेक्ट्रानिक माडिया का लक्ष्य पाठक/दर्शक/ श्रोता अलग अलग रहेगा तब तक उनकी भाषा भी अलग अलग रहेगी| साहित्य की अपेक्षा टीवी, सिनेमा और इन्टरनेट के लेखक के सामने अपेक्षाकृत अधिक बड़ा और वैविध्यपूर्ण प्रयोक्ता समाज होता है जिसके लिए इन माध्यमों को तदनुरूप भाषा रूपों का गठन करना पड़ता है| जब मीडिया ऐसा करता है तो शुद्धतावादियों को यह लगने लगता है कि उनकी भाषा को बिगाड़ा जा रहा है| भले आदमी, यह तो देखो कि किस माध्यम का लक्ष्य प्रयोक्ता या उपभोक्ता कौन है| जैसे जैसे यह उपभोक्ता समाज बढता जाता है इसके संस्तर भी बढते जाते हैं - अशिक्षित से लेकर उच्चशिक्षित तक और एकबोलीभाषी से लेकर बहुभाषाभाषी तक | इसीलिए तरह तरह के भाषा वैविध्य सामने आते हैं| इसके अलावा विषय और विधा के अनुरूप भी मीडिया की भाषा में वैविध्य स्वाभाविक है - जैसे मनोरंजन प्रधान लाइव प्रसारणों की भाषा वही नहीं हो सकती जो ज्ञान और सूचना प्रधान कार्यक्रमों की होगी| यह कहना कि मीडिया भाषा को खराब कर रहा है कतई गलत है क्योंकि जिसे आप खराब भाषा कह रहे हैं वह भी किसी वर्ग विशेष को लक्षित करके ही इस्तेमाल की जा रही है तथा उस वर्ग के बीच सम्प्रेषण को संभव बना रही है| दरअसल इलेक्ट्रानिक मीडिया साहित्य की तुलना में बहुत बड़ा मास मीडिया है, वह अपेक्षाकृत अधिक व्यापक जन माध्यम है जिसकी पहुँच उस लोक तक भी है जहां साहित्य के तथाकथित सूर्य की किरणें कभी नहीं पहुँच पातीं| इसलिए मेरी राय में तो भाषा की भ्रष्टता का मसला अपने अपने चयन का मसला है| कोई शुद्ध भाषा को चुनता है तो कोई भदेस को| हाँ, इस तथ्य को चिंतनीय माना जाना चाहिए कि कोई अखबार या चैनल षड्यंत्र पूर्वक आपकी भाषा को विदेशी शब्दों से अस्वाभाविक रूप से भर दे| यदि इस तरह अप्राकृतिक भाषा का प्रयोग किया जाएगा तो धीरे धीरे इसके पाठकों और दर्शकों की संख्या घटती जाएगी| आप जानते हैं न कि कोई भी कार्यक्रम या चैनल अपनी टीआरपी घटाना नहीं चाहता - फिर भला वह ऐसी भाषा का प्रयोग क्यों करने लगा जो उसके लक्ष्य दर्शक को अटपटी और अस्वीकार्य लगे| शुद्ध या तथाकथित साहित्यिक भाषा से परहेज का कारण भी यही है कि उससे इलेक्ट्रानिक मीडिया के बाजार पर कुप्रभाव पड़ता है| बेशक फ़िल्म और टीवी का प्रथम उद्देश्य बाजार है जबकि साहित्य का प्रथम उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति है| इसलिए भी दोनों की भाषा में अंतर दिखाई देना स्वाभाविक है| इसे दो वर्गों की लड़ाई के रूप में देखना बुद्धिमत्ता नहीं बल्कि राजनैतिक चालबाजी है|
नकली संघर्ष या संकट की दुहाई देने के बजाय यह इस बात पर विचार करना उपयोगी होगा कि साहित्य और मीडिया किस प्रकार एक दुसरे के सहयोगी हो सकते हैं| सहयोगी हो भी रहें हैं| जैसे कि तमाम तरह की साहित्यिक कृतियाँ अब इन्टरनेट के माध्यम से उन तमाम लोगों को भी उपलब्ध हो रही हैं जिन्हें वे कल तक उपलोब्ध नहीं थीं| अमेज़न के माध्यम से दुनिया भर में इन्टरनेट के जरिये सबसे अधिक किताबें बिक रही हैं तो यह मीडिया और साहित्य की दुश्मनी का नहीं, दोस्ती का प्रतीक हैं| दरअसल आप जो भी लिखते हैं, मीडिया का हर रूप उसके लिए माध्यम बनता है| इन्टरनेट ने आपके लेखन को बरसोंबरस डायरी में कैद रहने से मुक्त कर दिया है और प्रकाशकों के शोषण से बचने का भी रास्ता निकाला है| मैं तो कहूँगा कि साहित्य सृजन और उसके प्रकाशन को अधिक जनतांत्रिक बनाने में इन्टरनेट बड़े काम की चीज़ है| लिखिए, प्रकाशित कीजिए, दुनिया के किसी भी कोने में बैठे हुए अपने पाठक अथवा विशेषज्ञ की राय जानिए, अपने लेखन में संशोधन और परिवर्धन कीजिए, उसे मांजिए, निखारिए - यह सब पहले इतना सहज नहीं था| मीडिया को साहित्य का शत्रु बताने वाले विद्वान् ज़रा 'द टेलीग्राफ' में प्रकाशित इस समाचार पर गौर फरमाएँ कि इन्टरनेट के कारण कविता लेखन में भारी उछाल आया है| इस पोएट्री बूम का श्रेय इस तथ्य को जाता है कि इन्टरनेट लेखकों के लिए नए पाठक वर्ग के दरवाज़े खोलता है - ऑनलाइन सक्रिय अनेक ब्लॉग और चर्चा मंच इसके साक्षी हैं|
इसके अलावा इन्टरनेट ने लेखकों को हाइपर टेक्स्ट की ऐसी सुविधा प्रदान की है जिसका इस्तेमाल करके एक ही पाठ में एक अथवा अनेक लेखकों के एकाधिक पाठों को सम्मिलित किया जा सकता है| इसके लिए अलग अलग पाठों के हाइपर लिंक देना काफी है| लेखक और पाठक को ऐसी सुविधा कागज़ पर लिखने के जमाने में उपलब्ध न थी| आभासी यथार्थ के सृजन का यह सुख साहित्य के रचनाकार और पाठक को आधुनिक मीडिया ही उपलब्ध करा सकता है| इतना ही नहीं, कम्प्यूटर की सहायता से साहित्यिक पाठ निर्माण में मैट्रिक्स और ग्राफिक्स का रचनात्मक प्रयोग करके लेखिम के धरातल पर ही नहीं अर्थ के धरातल पर भी मौलिकता स्वायत्त की जा सकती है| धीरे धीरे ऐसी ई-पुस्तकों और फिल्मों का भी चलन होने लगा है जिनमें पाठक की भी भागीदारी किसी वीडियो गेम की तरह किसी नैरेशन के विकास में होगी| वस्तुतः मीडिया की बारीकियों को आत्मसात करके साहित्य स्वयं को और भी सम्प्रेषणीय तथा समयसापेक्ष बना सकता है अतः संकट और संघर्ष का बुद्धिविलास छोड़कर नए मीडिया का सहयोग करने और लेने की नीति साहित्य और मीडिया दोनों ही के लिए श्रेयस्कर होगी|
अंत में, इन्टरनेट टेक्नोलाजी के रचनात्मक उपयोग का एक उदाहरण द्रष्टव्य है जिसमें एक नक्षत्रमंडल के एक-एक सितारे के चिह्न को क्लिक करने से एक-एक कविता प्रकट होती है; यो काव्यपाठ किसी रोचक खेल जैसा प्रतीत होने लगता है. उसके एक पृष्ठ का स्क्रीन शाट निम्नवत है-
2 टिप्पणियां:
जल में रेखायें खीचने जैसा प्रयास है, कभी दिखती है पर शीघ्र ही मिट जाती है।
मीडिया, साहित्य और अब अंतरजाल ... सभी एक दूसरे के पूरक हैं। यदि कोई यह समझे कि मीडिया में भाषा को विकृत किया जा रहा है तो उसे केवल दो सीरियल इसे गलत प्रमाणित करने के लिए काफ़ी हैं- चाण्क्य और मुक्तिबंधन॥ अंतरजाल पर तो भाषा का सागर देखने को मिलेगा और आपने तो आकाश भी दिखा दिया है :)
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