हैदराबाद, १६ अप्रैल २०११.
एक अरसे बाद आज फिर अशोक वाजपेयी जी को सुनने का अवसर मिला. अवसर था हैदराबाद के यशस्वी पत्रकार मुनींद्र जी की प्रथम पुण्यतिथि पर आयोजित 'स्मारक व्याख्यानमाला' का. प्रथम व्याख्यानकर्ता के रूप में आए अशोक वाजपेयी ने ''हमारा समय और साहित्य'' पर रोचक और विस्तृत व्याख्यान दिया. यह और भी अच्छा लगा कि उन्होंने देशी-विदेशी नामों की झडी नहीं लगाई और सहज वार्तालाप जैसा अंदाज़ बनाए रखा.
जैसी कि उम्मीद थी अशोक वाजपेयी ने हमारे समय को मानव इतिहास में अब तक के सबसे हिंसक समय के रूप में निरूपित किया. यह याद दिलाते हुए उन्होंने अपनी बात शुरू की कि साहित्य से सामाजिक परिवर्तन की अपेक्षा करने का चलन बस डेढ़-दो सौ साल से है, वरना उसका प्रयोजन आनंदित करना ही मुख्यतः रहा है और इसीलिए पहले साहित्य से यह उम्मीद नहीं की जाती थी कि वह अपने समय और समाज का यथातथ्य चित्रण करे. बावजूद इसके वाजपेयी ने यह माना कि कालविद्ध होकर ही कोई साहित्य कालजयी हो पाता है. इसके बाद उन्होंने देर तक आज के समय को कोसा क्योंकि इस समय में न व्यक्ति की सत्ता बची है न समाज की. उन्होंने इन स्थापनाओं पर काफी समर्थन बटोरा कि आज न तो पड़ोस बचा है और न ही व्यक्तिगत एकांत के लिए जगह रह गई है; ऊपर से इतना सारा एकजैसापन कि परिवेश की स्थानीयता गुम हो गई है. उन्होंने साहित्य की प्रासंगिकता की चर्चा करते हुए कहा कि इन अनुपस्थित तत्वों को वह उपस्थित कर सकता है और दूसरेपन से ग्रस्त आधुनिक मनुष्य को 'हम' से 'वे' के रूप में आत्मविस्तार का मौका देकर इस दुनिया को बेहतर और खूबसूरत बना सकता है. उन्होंने कहा कि साहित्य हमें बड़े (उदार) सपने देखना सिखाता है . अपनी बात अशोक जी ने इस स्थापना के साथ समाप्त की कि अमरीकी तानाशाही के वैश्विक प्रसार और बाज़ार द्वारा निरंतर फैलाई जा रही हिंसा के बीच ऐसे समाज और बाज़ार के प्रतिपक्ष की लोकतांत्रिक भूमिका केवल साहित्य ही अदा कर सकता है.अंतत साहित्य को ब्यौरों का देवता घोषित करते हुए उन्होंने अपना मुनींद्र स्मारक व्याख्यान संपन्न किया. और हाँ,मातृभाषाओं को बचाने के लिए आंदोलन की ज़रूरत पर भी उन्होंने जोर दिया अपने व्याख्यान में.

2 टिप्पणियां:
हमारा समय और साहित्य, हिन्दी पर बल देने की सतत आवश्यकता है।
आदरणीय प्रोफेसर साहब,
यह सही है कि आज का समय हिंसक है ... पर पीठ दिखाना कोई वीरता तो नहीं :)
आपका
परमचरण स्पर्शी :)
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