'अज्ञेय साहित्य समारोह' का उद्घाटन 30 को हैदराबाद, 29 अप्रैल, 2011 (विज्ञप्ति)। "सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' उत्तरछायावादी युग के एक गंभीर चिंतक और अपनी विचारणाओं के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध एवं निष्ठावान साहित्यकार रहे हैं। अज्ञेय एक बहुअधीत, प्रातिभ साहित्यकार होने के साथ साथ भारतीय सांस्कृतिक चेतना को आत्मसात करने वाले विचारवान कवि रहे हैं। परंपरा उनके लिए उपेक्षा की वस्तु नहीं रही है। नवता का जहाँ वे स्वागत करते हैं वहीं परंपरा की विरासत के मूल्य को भी समझते हैं। इसीलिए भारतीय चिंतन, दर्शन, संस्कृति और काव्यशास्त्र की मूलभूत स्थापनाओं से उन्हें न तो कोई गुरेज़ है और न ही परहेज़।" ये विचार यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में आयोजित 'अज्ञेय जन्म शती समारोह' का उद्घाटन करने के लिए मुंबई से पधारे प्रतिष्ठित काव्यशास्त्रीय विद्वान प्रो.त्रिभुवन राय ने एक खास बातचीत में प्रकट किए। 30 अप्रैल, शनिवार को होने वाले कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर प्रो.त्रिभुवन राय ने अज्ञेय के संबंध में बताते हुए यह कहा कि अज्ञेय के साहित्य का, खासतौर से उत्तरवर्ती साहित्य का पुनर्पाठ करने से यह बात स्पष्ट होती है कि वे भारतीय रस दृष्टि से अत्यधिक प्रभावित हैं। प्रो.राय ने कहा कि अज्ञेय के साहित्य में संकुचित नियता को विस्तृत समष्टि चेतना को अभिमुख करने की जो प्रवृत्ति पाई जाती है वह उन्हें भारतीय रस दृष्टि से जोड़ती है। इसी बिंदु पर वे हमारी संस्कृति और सौंदर्य चेतना के प्रगाड़ रचनाकार के रूप में सामने आते हैं। डॉ.त्रिभुवन राय ने यह भी याद दिलाया कि पूर्वाग्रह और असहृदय भाव से न अज्ञेय के साहित्य का अनुशील किया जा सकता है और न सही अर्थ में मूल्यांकन। उन्होंने कहा कि आवश्कता इस बात की है कि हम अज्ञेय को अज्ञेय के धरातल पर समझने और मूल्यांकित करने का प्रयत्न करें। उन्होंने आशा प्रकट की कि उच्च शिक्षा और शोध संस्थान द्वारा 'अज्ञेय और उनका साहित्य' पर आयोजित इस एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी और पोस्टर प्रदर्शनी से अज्ञेय के साहित्य को विचारधाराओं से मुक्त वस्तुपरक दृष्टि से समझने में सहायता मिलेगी। इस एकदिवसीय समारोह का उद्घाटन दक्षिण भारत हिंदी प्रचार, खैरताबाद स्थित परिसर में शनिवार को प्रातः 9.30 बजे होगा, जिसकी अध्यक्षता भाषाचिंतक प्रो.दिलीप सिंह करेंगे। अज्ञेय साहित्य के विशेषज्ञ डॉ.सच्चिदानंद चतुर्वेदी बीज व्याख्यान देंगे। विभिन्न सत्रों में डॉ.राधेश्याम शुक्ल, डॉ.टी,मोहन सिंह, डॉ.एम.वेंकटेश्वर, डॉ.जे.पी.डिमरी, डॉ.टी.वी.कट्टीमनी, डॉ.विष्णु भगवान शर्मा, डॉ.आलोक पांडेय, डॉ.गोपाल शर्मा, डॉ.घनश्याम, डॉ.साहिरा बानू, डॉ.मृत्युंजय सिंह, डॉ.जी.नीरजा, डॉ.बलविंदर कौर, डॉ.गोरखनाथ तिवारी, डॉ.पी.श्रीनिवास राव, डॉ.बी.बालाजी, चंदन कुमारी, मोहम्मद कुतुबुद्दीन और एम.राजकमला अज्ञेय जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विविध आयामों पर प्रकाश डालेंगे। सभी साहित्य प्रेमियों से समारोह में पधारने का अनुरोध है। |
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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011
अज्ञेय के साहित्य का पुनर्पाठ आवश्यक - डॉ. त्रिभुवन राय
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
निमंत्रण : अज्ञेय जन्मशती समारोह
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में
अज्ञेय जन्मशती समारोह
30 अप्रैल को
हैदराबाद,23 अप्रैल,2011 .
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा संचालित उच्च शिक्षा और शोध संस्थान तथा स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 30 अप्रैल, शनिवार, को सभा के खैरताबाद स्थित परिसर में सवेरे साढ़े नौ बजे से ‘अज्ञेय जन्मशती समारोह’ का आयोजन किया जा रहा है। इसके अंतर्गत ‘अज्ञेय और उनका साहित्य’ विषय पर केंद्रित ‘एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी’ तथा ‘पुस्तक एवं पोस्टर प्रदर्शनी’ आयोजित की जाएगी।
उल्लेखनीय है कि हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद और नई कविता के प्रवर्तक माने गए सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्म सौ वर्ष पूर्व 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में हुआ था। अज्ञेय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक क्रांतिकारी के रूप में चंद्रशेखर आजाद आदि के साथ सक्रिय रूप से सम्मिलित रहे थे। वे सरदार भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना में शामिल होने के अलावा बम बनाने और पिस्तौलों की मरम्मत का कारखाना कायम करने के सिलसिले में 15 नवंबर, 1930 को गिरफ्तार हुए थे। जेल यातना और नजरबंदी के सात वर्षों ने उनके व्यक्तित्व और लेखन को गहरे प्रभावित किया। युद्ध को गलत मानते हुए भी सुरक्षात्मक युद्ध की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए अज्ञेय 1943 से 1945 तक फासिस्ट विरोधी युद्ध में भाग लेने के लिए फौज में रहे। इस अवधि में उन्होंने असम के जन जीवन और संस्कृति का गहन परिचय प्राप्त किया। अज्ञेय ने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और प्रकाशन किया तथा कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रावृत्त, नाटक, निबंध, संस्मरण और अनुवाद सहित साहित्य की अनेक विधाओं को अपने लेखन द्वारा संपन्न बनाया। उन्हें 1979 में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ कविता संग्रह पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ जिसमें उतनी ही राशि अपने पास से मिलाकर अज्ञेय ने 1980 में समकालीन लेखकों-कवियों के निमित्त ‘वत्सल निधि’ की स्थापना की।’’
अज्ञेय की जन्मशती के अवसर पर आयोजित इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन खालसा कॉलेज, मुंबई के सेवानिवृत्त आचार्य डॉ. त्रिभुवन राय करेंगे तथा हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी बीज वक्तव्य देंगे। प्रख्यात समाजभाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करेंगे। अन्य सत्रों की अध्यक्षता डॉ. राधेश्याम शुक्ल, प्रो.टी. मोहन सिंह तथा प्रो. तेजस्वी कट्टीमनी करेंगे। समाकलन वक्तव्य और आशीर्वचन अंग्रेजी एवं भारतीय भाषा विश्वविद्यालय के प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी और प्रो. एम. वेंकटेश्वर देंगे। डॉ. विष्णु भगवान शर्मा प्रायोजक संस्था का प्रतिनिधित्व करेंगे।
इस अवसर पर दो विचार सत्रों में डॉ. आलोक पांडेय, प्रो. एम. वेंकटेश्वर, प्रो. गोपाल शर्मा, डॉ. घनश्याम, डॉ. पी. श्रीनिवास राव, डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. जी. नीरजा, डॉ. साहिरा बानू, डॉ. बलविंदर कौर, डॉ. गोरखनाथ तिवारी और प्रो. ऋषभदेव शर्मा अज्ञेय के जीवन, व्यक्तित्व और साहित्य के विविध पक्षों पर शोध पत्र प्रस्तुत करेंगे।
इस संगोष्ठी में अज्ञेय की रस चेतना, काव्यभाषा, संस्कृति चिंतन और साहित्यिक मान्यताओं पर मौलिक विचार-विमर्श होगा। सभी साहित्य प्रेमियों से इस आयोजन में उपस्थित रहने का अनुरोध है।
समारोह के एक विशेष आकर्षण के रूप में अज्ञेय के साहित्य और उनकी प्रमुख रचनाओं के अंशों के 100 से अधिक पोस्टरों की प्रदर्शनी का भी आयोजन किया जा रहा है जो अज्ञेय और उनकी रचनाधर्मिता को समझने के लिए बहुत उपयोगी है.
कृपया अज्ञेय जन्मशती समारोह के अंतर्गत आयोजित इस एकदिवसीय 'राष्ट्रीय संगोष्ठी 'और 'पुस्तक एवं पोस्टर प्रदर्शनी 'में पधार कर अनुगृहीत करें।
-ऋषभ देव शर्मा
शनिवार, 23 अप्रैल 2011
केदारनाथ अग्रवाल की कविता में प्रेम _व्याख्यान_चित्रावली
चित्र सौजन्य : संपत देवी मुरारका, अप्पल नायुडु और च.इंद्राणी : 21 अप्रैल 2011
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011
'केदारनाथ अग्रवाल की कविता में प्रेम' पर व्याख्यान संपन्न
अपने चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी ने 'कलम' पर रिपोर्ट लिख ही दी है, यों मैं क्या लिखूँ!
बुधवार, 20 अप्रैल 2011
संपूर्ण 'गीतगोविंद' का रूपांकन
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रविवार, 17 अप्रैल 2011
"हमारा समय और साहित्य" पर बोले अशोक वाजपेयी
हैदराबाद, १६ अप्रैल २०११.
एक अरसे बाद आज फिर अशोक वाजपेयी जी को सुनने का अवसर मिला. अवसर था हैदराबाद के यशस्वी पत्रकार मुनींद्र जी की प्रथम पुण्यतिथि पर आयोजित 'स्मारक व्याख्यानमाला' का. प्रथम व्याख्यानकर्ता के रूप में आए अशोक वाजपेयी ने ''हमारा समय और साहित्य'' पर रोचक और विस्तृत व्याख्यान दिया. यह और भी अच्छा लगा कि उन्होंने देशी-विदेशी नामों की झडी नहीं लगाई और सहज वार्तालाप जैसा अंदाज़ बनाए रखा.
जैसी कि उम्मीद थी अशोक वाजपेयी ने हमारे समय को मानव इतिहास में अब तक के सबसे हिंसक समय के रूप में निरूपित किया. यह याद दिलाते हुए उन्होंने अपनी बात शुरू की कि साहित्य से सामाजिक परिवर्तन की अपेक्षा करने का चलन बस डेढ़-दो सौ साल से है, वरना उसका प्रयोजन आनंदित करना ही मुख्यतः रहा है और इसीलिए पहले साहित्य से यह उम्मीद नहीं की जाती थी कि वह अपने समय और समाज का यथातथ्य चित्रण करे. बावजूद इसके वाजपेयी ने यह माना कि कालविद्ध होकर ही कोई साहित्य कालजयी हो पाता है. इसके बाद उन्होंने देर तक आज के समय को कोसा क्योंकि इस समय में न व्यक्ति की सत्ता बची है न समाज की. उन्होंने इन स्थापनाओं पर काफी समर्थन बटोरा कि आज न तो पड़ोस बचा है और न ही व्यक्तिगत एकांत के लिए जगह रह गई है; ऊपर से इतना सारा एकजैसापन कि परिवेश की स्थानीयता गुम हो गई है. उन्होंने साहित्य की प्रासंगिकता की चर्चा करते हुए कहा कि इन अनुपस्थित तत्वों को वह उपस्थित कर सकता है और दूसरेपन से ग्रस्त आधुनिक मनुष्य को 'हम' से 'वे' के रूप में आत्मविस्तार का मौका देकर इस दुनिया को बेहतर और खूबसूरत बना सकता है. उन्होंने कहा कि साहित्य हमें बड़े (उदार) सपने देखना सिखाता है . अपनी बात अशोक जी ने इस स्थापना के साथ समाप्त की कि अमरीकी तानाशाही के वैश्विक प्रसार और बाज़ार द्वारा निरंतर फैलाई जा रही हिंसा के बीच ऐसे समाज और बाज़ार के प्रतिपक्ष की लोकतांत्रिक भूमिका केवल साहित्य ही अदा कर सकता है.अंतत साहित्य को ब्यौरों का देवता घोषित करते हुए उन्होंने अपना मुनींद्र स्मारक व्याख्यान संपन्न किया. और हाँ,मातृभाषाओं को बचाने के लिए आंदोलन की ज़रूरत पर भी उन्होंने जोर दिया अपने व्याख्यान में.
खैर; अध्यक्षता कर रहे डॉ बालशौरि रेड्डी बोलने के लिए खड़े हो रहे थे कि मुझे खिसकना पड़ा - दरअसल बहुत तेज प्यास लगी थी. पानी पी ही रहा था कि अपने प्रो. गोपाल शर्मा जी और परमचरम कोटि के ब्लोगर चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी भी चुपके से निकल आए. तीन तिलंगों की गुलाबजामुनी हरकतों की ओर कुछ इशारा च.मौ.प्र. ने अपनी कलम से कर दिया है. .......पर...... एक खास बात रह गई. वह यह कि जब मैंने अशोक वाजपेयी जी का सम्मान किया तो गो.श.ने अपने स्थान पर बैठे बैठे दो फोटो खींचे - एक माला पहनाने का और दूसरा शाल उढ़ाने का. फोटो उन्होंने दिखाए तो हम लोगों की ऐसी हँसी छूटी कि रोके न रुकी. उन्होंने मेरे पश्च भाग को इस तरह फोकस किया कि बेचारे अशोक जी लगभग छिप ही गए - दिखे भी तो ऐसे कि व्यक्ति कम और स्टेच्यू ज्यादा लगें!
बुधवार, 13 अप्रैल 2011
मीडिया और साहित्य
[फरवरी २०११ के अंतिम सप्ताह में केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद में डॉ.आलोक पांडेय ने ''मीडिया,साहित्य और संस्कृति'' पर तीन दिन की वृहत राष्ट्रीय संगोष्ठी की थी. उन्हीं तिथियों में दिल्ली एक कार्यशाला में जाना पड़ा, इसलिए मैं उस गोष्ठी में उपस्थित न हो सका, इसका मलाल मुझे है. लेकिन डॉ. आलोक ने बाद में जब यह बताया कि उसी विषय पर वे एक पुस्तक भी संपादित कर रहे हैं और आदेश दिया कि उनके सुझाए विषय ''मीडिया और साहित्य'' पर मुझे जो कुछ संगोष्ठी में कहना था, लिख कर दे दूँ, तो यह आलेख लिखा गया. अपने जयप्रकाश मानस जी ने इसे 'सृजनगाथा' पर प्रकाशित भी कर दिया है.]
मीडिया और साहित्य के संबंध और एक दूसरे पर प्रभाव को लेकर हमारे यहाँ तरह तरह की बहसें चल रहीं हैं जो बड़ी सीमा तक बैठे ठाले का बुद्धि विलास भर है| कहा जा रहा है कि मीडिया के कारण साहित्य संकट में पड़ गया अथवा मीडिया साहित्य की उपेक्षा करता है अथवा मीडिया की तुलना में साहित्य की गति इतनी धीमी है कि वह आज के समय के सत्य को पकड़ने में पिछड़ जाता है| यह भी कहा जा रहा है कि मीडिया भाषा को भ्रष्ट कर रहा है| इतना ही नहीं वर्ग संघर्ष के कुछ अलमबरदारों को तो यहाँ भी थीसिस - एंटीथीसिस दिखाई देने लगी है - मीडिया उन्हें साधनसंपन्न वर्ग के रूप में पूंजीपति दिखाई दे रहा है और साहित्य को वे सदा का साधनहीन वर्ग अर्थात सर्वहारा मान रहे हैं - इस वर्ग अंतराल का परिणाम संघर्ष तो होना ही चाहिए; असली न सही तो नकली ही सही| ऐसी बहसों के बहाने कभी कभार साहित्य और मीडिया की अपनी अपनी मजबूरियों और सीमाओं की भी चर्चा उठ खड़ी होती है| इन दोनों के व्यवस्था के साथ संबंधों पर भी कभी कभार टिप्पणी सुनने को मिल जाती है| जनता पर साहित्य के स्थान पर मीडिया का अधिक असर क्यों दिखाई देता है यह सवाल भी कइयों को व्यथित करता दिखाई देता है| सनसनी और संवेदना से लेकर बाजार और घर तक के मुद्दे मीडिया और साहित्य की बहस के बहाने सामने आए हैं|
मेरे जैसे साधारण कलमघिस्सू की समझ में ये तमाम बड़ी बड़ी बातें नहीं आतीं| हमने काफी माथापच्ची की लेकिन यह बात हमारी तुच्छ बुद्धि में अभी तक नहीं घुसी कि बेसिकली मीडिया और साहित्य दो अलग चीजें हो कैसे सकती हैं| हमारी तो धारणा यही रही है कि साहित्य भी मीडिया ही है और दोनों ही बेसिकली संप्रेषण हैं | दोनों के अपने अपने प्रयोजन हैं, दोनों के संप्रेषक और ग्रहीता के अपने अपने संबंध और समीकरण हैं और दोनों के लक्ष्य समूह अपने अपने हैं| इसलिए दोनों की लक्ष्य सिद्धि भी अपनी अपनी है| मीडिया अगर अपने प्रयोजन, अपनी संप्रेषण पद्धति और अपने लक्ष्य ग्रहीता को साहित्य के प्रयोजन, संप्रेषण पद्धति और लक्ष्य ग्रहीता तक सीमित कर ले या साहित्य मीडिया को आदर्श बनाकर खुद को उसके जैसा बना ले तो दोनों का भेद मिट जाएगा| ज़रुरत पड़ने पर ऐसा किया भी जा सकता है| मीडिया से अभिप्राय अगर फ़िल्म,टीवी, इन्टरनेट आदि इलेक्ट्रानिक मीडिया से है तो इस चर्चा को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि यह माध्यम साहित्य के लिए किस प्रकार उपयागी हो सकता है - जैसे कि प्रिंट मीडिया साहित्य के लिए सदा उपयोगी रहा है|
थोड़ी देर के लिए सिनेमा जैसे व्यापक मीडिया कि बात करें तो यह कहना उचित न होगा कि उसकी साहित्य से या लेखकों और कवियों से शत्रुता रही है| हम इस तरह क्यों नहीं सोचते कि फिल्मकार भी लेखक ही तो है - बस माध्यम बदला हुआ है | अगर आप पिछले वर्ष की दुनिया भर की विभिन्न भाषाओं की दस शिखर फिल्मों को देखें तो पाएँगे कि उनमें से आठ किसी न किसी साहित्यिक कृति पर या तो सीधे सीधे आधारित हैं या उनका पुनर्पाठ प्रस्तुत करती हैं| अगर टीवी धारावाहिकों की बात करें तो यहाँ भी आप पाएँगे कि अगर रचना में और उसकी टीवी प्रस्तुति में मास अपील का दमखम है तो न तो सीरियल निर्माता उसे नकार सकते हैं और न जनता ही| प्रमाणस्वरूप विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं की साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों और धारावाहिकों की लंबी सूची को देखा जा सकता है - गोदान, चित्रलेखा, तीसरी कसम, शतरंज के खिलाड़ी,अंगूर, देवदास, किताब, मकबूल , ओमकारा, थ्री इडियट्स वगैरह वगैरह से लेकर रामायण, महाभारत को छोड़ भी दें तो निर्मला, रागदरबारी, तमस, लापतागंज, पापडपोल, तारक मेहता का उलटा चश्मा वगैरह वगैरह तक|
जो लोग मीडिया और साहित्य की रफ्तार की तुलना करते हैं वे यह क्यों भूल जाते हैं कि मीडिया टेक्नोलाजी है और हर टेक्नोलाजी की अपनी ख़ास पहचान होती है| उसके हिसाब से लिखने के लिए उसकी समझ होना पहली जरूरत है| अब फ़िल्म रूपी माध्यम को ही लें तो पता चलेगा कि माध्यम के रूप में उसकी तकनीकी विशेषताओं का सम्प्रेषण के लिए प्रभावी इस्तेमाल करने की समझ आने में हमें लगभग अस्सी साल लग गए| आज की फिल्में फ़िल्मभाषा की तकनीकी बारीकियों का बखूबी इस्तेमाल करती हैं जब कि आरंभ में कई दशक तक फिल्में किसी किताब को पढने या नाटक को देखने का सा ही अनुभव देती थीं| यह सीखने मे ही हमें आठ दशक लग गए कि फ़िल्म बनाना किताब लिखना या ड्रामा खेलना नहीं है, और तब जाकर वे फिल्में आ सकीं जिनमें साहित्य और थियेटर के अनुकरण के स्थान पर पैरलल नैरेशन का गठन किया जा रहा है| इसी तरह इन्टरनेट की खिड़की लेखन के लिए खुले अभी महज पंद्रह साल हुए हैं और हम हैं कि उससे बड़ी बड़ी मांगें करने लगे हैं| थोड़ा और समय चाहिए अभी हमारे कलमकारों को इस माध्यम को, इसकी विशेषताओं को और ताकत को आत्मसात करने और उनका अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल करने के लिए| इसके बावजूद हिंदी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में तमाम तरह के अच्छे बुरे ब्लॉग लिखे जा रहे हैं तो हमें प्रसन्न ही होना चाहिए और इसे इस माध्यम के प्रसार के रूप में ग्रहण करना चाहिए, कालांतर में इस में घनत्व का भी समावेश हो जाएगा|
इसी प्रकार मीडिया की भाषा और साहित्य की भाषा की तुलना करने से पहले यह जानना जरूरी है कि हमारा भाषा प्रयोग इस बात पर निर्भर करता है कि हम किसे संबोधित कर रहें हैं| जब तक साहित्य और इलेक्ट्रानिक माडिया का लक्ष्य पाठक/दर्शक/ श्रोता अलग अलग रहेगा तब तक उनकी भाषा भी अलग अलग रहेगी| साहित्य की अपेक्षा टीवी, सिनेमा और इन्टरनेट के लेखक के सामने अपेक्षाकृत अधिक बड़ा और वैविध्यपूर्ण प्रयोक्ता समाज होता है जिसके लिए इन माध्यमों को तदनुरूप भाषा रूपों का गठन करना पड़ता है| जब मीडिया ऐसा करता है तो शुद्धतावादियों को यह लगने लगता है कि उनकी भाषा को बिगाड़ा जा रहा है| भले आदमी, यह तो देखो कि किस माध्यम का लक्ष्य प्रयोक्ता या उपभोक्ता कौन है| जैसे जैसे यह उपभोक्ता समाज बढता जाता है इसके संस्तर भी बढते जाते हैं - अशिक्षित से लेकर उच्चशिक्षित तक और एकबोलीभाषी से लेकर बहुभाषाभाषी तक | इसीलिए तरह तरह के भाषा वैविध्य सामने आते हैं| इसके अलावा विषय और विधा के अनुरूप भी मीडिया की भाषा में वैविध्य स्वाभाविक है - जैसे मनोरंजन प्रधान लाइव प्रसारणों की भाषा वही नहीं हो सकती जो ज्ञान और सूचना प्रधान कार्यक्रमों की होगी| यह कहना कि मीडिया भाषा को खराब कर रहा है कतई गलत है क्योंकि जिसे आप खराब भाषा कह रहे हैं वह भी किसी वर्ग विशेष को लक्षित करके ही इस्तेमाल की जा रही है तथा उस वर्ग के बीच सम्प्रेषण को संभव बना रही है| दरअसल इलेक्ट्रानिक मीडिया साहित्य की तुलना में बहुत बड़ा मास मीडिया है, वह अपेक्षाकृत अधिक व्यापक जन माध्यम है जिसकी पहुँच उस लोक तक भी है जहां साहित्य के तथाकथित सूर्य की किरणें कभी नहीं पहुँच पातीं| इसलिए मेरी राय में तो भाषा की भ्रष्टता का मसला अपने अपने चयन का मसला है| कोई शुद्ध भाषा को चुनता है तो कोई भदेस को| हाँ, इस तथ्य को चिंतनीय माना जाना चाहिए कि कोई अखबार या चैनल षड्यंत्र पूर्वक आपकी भाषा को विदेशी शब्दों से अस्वाभाविक रूप से भर दे| यदि इस तरह अप्राकृतिक भाषा का प्रयोग किया जाएगा तो धीरे धीरे इसके पाठकों और दर्शकों की संख्या घटती जाएगी| आप जानते हैं न कि कोई भी कार्यक्रम या चैनल अपनी टीआरपी घटाना नहीं चाहता - फिर भला वह ऐसी भाषा का प्रयोग क्यों करने लगा जो उसके लक्ष्य दर्शक को अटपटी और अस्वीकार्य लगे| शुद्ध या तथाकथित साहित्यिक भाषा से परहेज का कारण भी यही है कि उससे इलेक्ट्रानिक मीडिया के बाजार पर कुप्रभाव पड़ता है| बेशक फ़िल्म और टीवी का प्रथम उद्देश्य बाजार है जबकि साहित्य का प्रथम उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति है| इसलिए भी दोनों की भाषा में अंतर दिखाई देना स्वाभाविक है| इसे दो वर्गों की लड़ाई के रूप में देखना बुद्धिमत्ता नहीं बल्कि राजनैतिक चालबाजी है|
नकली संघर्ष या संकट की दुहाई देने के बजाय यह इस बात पर विचार करना उपयोगी होगा कि साहित्य और मीडिया किस प्रकार एक दुसरे के सहयोगी हो सकते हैं| सहयोगी हो भी रहें हैं| जैसे कि तमाम तरह की साहित्यिक कृतियाँ अब इन्टरनेट के माध्यम से उन तमाम लोगों को भी उपलब्ध हो रही हैं जिन्हें वे कल तक उपलोब्ध नहीं थीं| अमेज़न के माध्यम से दुनिया भर में इन्टरनेट के जरिये सबसे अधिक किताबें बिक रही हैं तो यह मीडिया और साहित्य की दुश्मनी का नहीं, दोस्ती का प्रतीक हैं| दरअसल आप जो भी लिखते हैं, मीडिया का हर रूप उसके लिए माध्यम बनता है| इन्टरनेट ने आपके लेखन को बरसोंबरस डायरी में कैद रहने से मुक्त कर दिया है और प्रकाशकों के शोषण से बचने का भी रास्ता निकाला है| मैं तो कहूँगा कि साहित्य सृजन और उसके प्रकाशन को अधिक जनतांत्रिक बनाने में इन्टरनेट बड़े काम की चीज़ है| लिखिए, प्रकाशित कीजिए, दुनिया के किसी भी कोने में बैठे हुए अपने पाठक अथवा विशेषज्ञ की राय जानिए, अपने लेखन में संशोधन और परिवर्धन कीजिए, उसे मांजिए, निखारिए - यह सब पहले इतना सहज नहीं था| मीडिया को साहित्य का शत्रु बताने वाले विद्वान् ज़रा 'द टेलीग्राफ' में प्रकाशित इस समाचार पर गौर फरमाएँ कि इन्टरनेट के कारण कविता लेखन में भारी उछाल आया है| इस पोएट्री बूम का श्रेय इस तथ्य को जाता है कि इन्टरनेट लेखकों के लिए नए पाठक वर्ग के दरवाज़े खोलता है - ऑनलाइन सक्रिय अनेक ब्लॉग और चर्चा मंच इसके साक्षी हैं|
इसके अलावा इन्टरनेट ने लेखकों को हाइपर टेक्स्ट की ऐसी सुविधा प्रदान की है जिसका इस्तेमाल करके एक ही पाठ में एक अथवा अनेक लेखकों के एकाधिक पाठों को सम्मिलित किया जा सकता है| इसके लिए अलग अलग पाठों के हाइपर लिंक देना काफी है| लेखक और पाठक को ऐसी सुविधा कागज़ पर लिखने के जमाने में उपलब्ध न थी| आभासी यथार्थ के सृजन का यह सुख साहित्य के रचनाकार और पाठक को आधुनिक मीडिया ही उपलब्ध करा सकता है| इतना ही नहीं, कम्प्यूटर की सहायता से साहित्यिक पाठ निर्माण में मैट्रिक्स और ग्राफिक्स का रचनात्मक प्रयोग करके लेखिम के धरातल पर ही नहीं अर्थ के धरातल पर भी मौलिकता स्वायत्त की जा सकती है| धीरे धीरे ऐसी ई-पुस्तकों और फिल्मों का भी चलन होने लगा है जिनमें पाठक की भी भागीदारी किसी वीडियो गेम की तरह किसी नैरेशन के विकास में होगी| वस्तुतः मीडिया की बारीकियों को आत्मसात करके साहित्य स्वयं को और भी सम्प्रेषणीय तथा समयसापेक्ष बना सकता है अतः संकट और संघर्ष का बुद्धिविलास छोड़कर नए मीडिया का सहयोग करने और लेने की नीति साहित्य और मीडिया दोनों ही के लिए श्रेयस्कर होगी|
अंत में, इन्टरनेट टेक्नोलाजी के रचनात्मक उपयोग का एक उदाहरण द्रष्टव्य है जिसमें एक नक्षत्रमंडल के एक-एक सितारे के चिह्न को क्लिक करने से एक-एक कविता प्रकट होती है; यो काव्यपाठ किसी रोचक खेल जैसा प्रतीत होने लगता है. उसके एक पृष्ठ का स्क्रीन शाट निम्नवत है-
सोमवार, 11 अप्रैल 2011
रविवार, 10 अप्रैल 2011
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
मुनींद्र जी और उनकी हिंदीनिष्ठा
मुनींद्र जी को याद करना मेरे लिए हैदराबाद के हिंदी परिवार के किसी पुरखे को याद करने जैसा है। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर हिंदी आंदोलन तक उन्होंने जो भूमिका निभाई, उसके कारण वे राष्ट्रीयता और भाषा दोनों ही क्षेत्रों में हमारी पीढ़ी के आदरणीय और मार्गदर्शक बन गए। इन दोनों आंदोलनों ने मुनींद्र जी को उदारता का जो पाठ पढ़ाया उससे उनके व्यक्तित्व में एक खास तरह का बड़प्पन आ गया था, जिसके समक्ष सहज ही सम्मान से नतमस्तक होने की इच्छा होती थी। इसमें शक नहीं कि किसी व्यक्ति की करनी और कथनी में औदात्य तभी आता है जब उसने अपने जीवन को इस तरह तपाया हो कि अंतश्चेतना में औदात्य का उजाला जाग उठे। हमारे मन में उदात्तता का संस्कार होगा तो हमारे कर्मों और लेखन में भी उसे प्रभावी अभिव्यक्ति मिलेगी। मुनींद्र जी ने भी स्वतंत्रता आंदोलन के जमाने में अपनी किशोर अवस्था में इस औदात्य के संस्कार को तप तपकर अर्जित किया था।
मुनींद्र जी ने ‘कल्पना’ और ‘दक्षिण समाचार’ के माध्यम से, और अपने व्याख्यानों तथा वक्तव्यों के माध्यम से भी, हिंदी भाषा के मानकीकरण और पारिभाषिक शब्दावली की एकरूपता की जोरदार वकालत की। परिनिष्ठित भाषा का यह संस्कार उन्होंने ‘आज’ से पाया था। उल्लेखनीय है कि पूर्वी और पश्चिमी प्रभाव से मुक्त हिंदी अथवा खड़ीबोली को संस्कारित करनेवाले आंदोलन के इतिहास में हिंदी पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। स्मरणीय है कि हिंदी पत्रकारिता का स्वरूप कभी भी ठेठ हिंदी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा। इसलिए भाषा वैविध्य के अप्राकृतिक रूपों को तो काटने छाँटने के प्रयत्न हुए, लेकिन समाज स्वीकृत शैलीय भेदों के प्रयोग को हमेशा पत्रकार की भाषाई और सर्जनात्मक शक्ति के रूप में देखा गया। मुनींद्र जी भी मानकीकरण और वैविध्य के इस समानांतर चलनेवाले दोहरे मार्ग के सतत यात्री थे। उन्होंने सदा इस बात पर बल दिया कि हिंदी के लिए प्रचार की अपेक्षा प्रयोग की ज्यादा जरूरत है। इसीलिए उन्हें यह बात कतई नापसंद थी कि लोग हिंदी के नाम पर वैसे तो बड़े बड़े जलसे करें लेकिन चिट्ठियों पर पते अंग्रेज़ी में लिखे अथवा विवाह जैसे पारिवारिक और सांस्कृतिक आयोजन के निमंत्रण पत्र अंग्रेज़ी में छपवाएँ। वे चाहते थे कि हम अपने दैनिक जीवन में हर छोटॆ बड़े कार्य में हिंदी लिखने बोलने के आग्रही बनें - प्रचार से आगे प्रयोग का यही अर्थ है। हिंदी के साथ वे प्रांतीय भाषाओं का चोली दामन का साथ मानते थे और उन्हें तब बहुत बुरा लगता था जब कोई व्यक्ति हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को परस्पर प्रतिद्वन्द्वी के रूप में पेश करता था। उन्होंने एक स्थान पर लिखा भी है कि "भाषा अभिलेखागार की वस्तु नहीं है वह तो प्रयोग पर जीती और विकसित होती है। प्रयोगच्युत भाषा को सिर्फ परीक्षाओं के द्वारा न तो बचा सकते हैं न बढ़ा सकते हैं।"
हिंदी के प्रति यह आग्रह मुनींद्र जी ने स्वतंत्रता आंदोलन से ही विरासत में पाया था। स्मरणीय है कि महात्मा गांधी की राष्ट्रीय चेतना जितनी प्रखर थी उनका भाषा संबंधी दृष्टिकोण भी उतना ही प्रबल था। यही बात डॉ.राम मनोहर लोहिया पर भी सटीक उतरती है। मुनींद्र जी इन दोनों विभूतियों से प्रभावित थे। इस कारण उनके व्यक्तित्व और लेखन में राष्ट्रीयता और स्वभाषा के प्रति गहरा आग्रह दिखाई देता है। उनकी इस भाषा निष्ठा को कर्म रूप में परिणत करने में बद्रीविशाल पित्ती और डॉ.आर्येंद्र शर्मा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। पहले के संपर्क ने उन्हें शिष्ट, विनम्र, किंतु स्वाभिमानी एवं संघर्षशील पत्रकार का व्यक्तित्व विकसित करने में मदद की तो दूसरे ने ‘कल्पना’ के प्रधान संपादक के रूप में भाषा की शुद्धता, शब्दों के उपयुक्त चयन और हिंदी भाषा के विन्यास के अनुपालन की ओर प्रवृत्त किया। डॉ.आर्येंद्र शर्मा के निर्देशन में काम करते हुए ही मुनींद्र जी ने पहली बार यह अहसास किया कि लेखक और पाठक के बीच में संपादक की एक विशेष भूमिका होती है।
मुनींद्र जी के मन में एक संपादक या पत्रकार की भूमिका की धारणा एकदम साफ थी। वे चाहते थे कि स्वतंत्र भारत के निर्माण और उसके छवि गठन में पत्रकारिता अहम सर्जनात्मक भूमिका निभाए। परंतु आजादी के बाद जिस तरह से पत्रकारिता के मान मूल्यों का पतन हुआ उससे वे बड़े दुःखी थे। यह तथ्य उन्हें बहुत चुभता था कि जिस तरह राजनीति में हमने सेवा के बदले उपभोग को प्राथमिकता दी, उसी तरह पत्रकारिता क्षेत्र में जन शिक्षण के बदले मनोरंजन को महत्व दिया। उन्हें इस बात पर बड़ा खेद था कि "स्वतंत्र देश के नागरिकों का क्या दायित्व बनता है, यह बताने के बजाय हमने यह देखा कि हमारे नागरिकों की क्या पसंद है, और क्या पढ़ना पसंद करेंगे, इस दृष्टि से पत्र - पत्रिकाओं की सामग्री का संयोजन होने लगा। जिस तरह स्वतंत्रता सेनानियों का ध्यान सेवा और त्याग से हट कर सत्ता के उपयोग की ओर चला गया, उसी तरह पत्रकारों का ध्यान पाठकों के मनोरंजन की ओर चला गया। पत्रकारिता अब व्यवसाय और उद्योग बन गई।"
जैसा कि मैंने पहले भी कहा मुनींद्र जी की पीढ़ी के लोगों के लिए राष्ट्रीयता और स्वभाषा एक ही सिक्के के दो पहलू भर थे - स्वदेशी का सिक्का। उनकी स्वदेशी भावना को संपूर्ण पृथ्वी को कुटुंब मानने की उदारता प्रिय थी। लेकिन अपने जीवन के अंतिम समय में जब उन्होंने इस भावना पर संपूर्ण विश्व को बाजार मानने की धारणा को हावी होते देखा तो वे विचलित हो उठे। उन्हें लगता था कि भारत को वैश्वीकरण के नारे ने अपने आकर्षण में फांस लिया है। उनका यह विचार आज भी अत्यंत प्रासंगिक है कि "अब ‘स्वदेशी’ जैसी कोई विचारधारा नहीं रह गई है। लेकिन हम लोग जो स्वतंत्रतापूर्व की पीढ़ी के हैं, उन्हें वैश्वीकरण का नारा एक छलावा लगता है, अंतरराष्ट्रीय आर्थिक शोषण का एक औज़ार लगता है। हमारी लगभग सभी राजनैतिक पार्टियाँ वैश्वीकरण के मोहजाल में फँस गई हैं। हम मानते हैं कि प्रत्येक देश को अपने प्राकृतिक संसाधनों और श्रम-शक्ति के आधार पर अपने आर्थिक ढ़ाँचे का निर्माण करना चाहिए। दूसरे देशों के साथ विनिमय अथवा लेनदेन के आधार पर संबंध बनाने चाहिए। यह जितना भारत के लिए लाभदायी है, उतना ही अमेरिका के लिए भी। अन्यथा हम अंतरराष्ट्रीय शोषण के शिकार हो जाएँगे।"
कहना न होगा कि मुनींद्र जी की यह राष्ट्रनिष्ठा उनकी हिंदीनिष्ठा को भी अधिक प्रशस्त और उन्मुक्त बनाती है। उनकी हिंदीनिष्ठा किसी एक भाषिक समाज का सपना नहीं देखती। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि मुनींद्र जी की हिंदीनिष्ठा सही अर्थ में राष्ट्रीय निष्ठा है जिसमें बहुभाषी भारतीय समाज की समस्त भाषाओं का परस्पर सह अस्तित्व वांछनीय है। वे चाहते थे कि हिंदी भारत की सामासिकता को व्यक्त करनेवाली भाषा बने। इस मामले में वे शुद्धतावाद के पक्के विरोधी थे। वे मेल जोल की एक ऐसी भाषा की कल्पना करते थे जिसका विकास एक ऐसे दफ़्तर में हो जहाँ देश की सभी भाषाओं के लोग अपने अपने ढ़ंग से हिंदी में काम करते हैं। उनका खयाल था कि ऐसे दफ्तर में जो हिंदी बनेगी वही देश की साझा भाषा बनेगी, हिंदी बनेगी। हाँ, इतना जरूर है कि लिपि और वर्तनी की शुद्धता और मानकता का खयाल तो रखना ही होगा, नहीं तो अराजकता फैल जाएगी।
अंत में एक और बात याद आती है कि मुनींद्र जी सदा इस बात पर जोर देते थे कि हिंदीभाषियों को हिंदी के अतिरिक्त कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा अवश्य सीखनी चाहिए और उसमें इतनी महारत हासिल करनी चाहिए कि उस भाषा के साहित्य को मूल रूप में पढ़ सकें, आत्मसात कर सकें और हिंदी की प्रकृति के अनुसार हिंदी में अनुवाद कर सकें। मुनींद्र जी का यह सपना अभी अधूरा है, लेकिन इसमें आनेवाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनने की अपार शक्ति विद्यमान है।
शनिवार, 2 अप्रैल 2011
हैदराबाद में शमशेरियत का पूरा चाँद देखने को मिला - नामवर सिंह
शमशेर राजनीति नहीं, सौंदर्य के कवि हैं - नामवर सिंह
हैदराबाद में शमशेरियत का पूरा चाँद देखने को मिला - नामवर सिंह
हैदराबाद, 2 अप्रैल, 2011।
‘‘शमशेर बहादुर सिंह हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के बड़े कवि थे। गद्यकार भी वे उतने ही बड़े थे। वे इकलौते ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने हाली की उर्दू रचना ‘मुसद्दस’ और मैथिलीशरण गुप्त की हिंदी रचना ‘भारत भारती’ की गहराई से तुलना करते हुए दोनों के रिश्ते की पहचान की। इक़बाल पर भी हिंदी में उन्होंने ही सबसे पहले लिखा। वे हिंदी और उर्दू के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव और टकराव के विरोधी थे। इसीलिए तो उन्होंने कहा था - ‘वो अपनों की बातें, वो अपनों की खू बू / हमारी ही हिंदी हमारी ही उर्दू।’ इतना ही नहीं, नितांत निजी क्षणों में भी उन्हें उर्दू ज़बान ही याद आती थी। उदाहरण के लिए मुक्तिबोध पर उनकी उर्दू में लिखी कविता को देखा जा सकता है।’’
ये विचार हिंदी समीक्षा के शलाका पुरुष प्रो. नामवर सिंह ने 30-31मार्च, 2011 को हैदराबाद में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘शमशेर शताब्दी समारोह’ के उद्घाटन सत्र में बुधवार को बीज व्याख्यान देते हुए व्यक्त किए। यह समारोह उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में संपन्न हुआ। प्रो. नामवर सिंह ने इसे एक अच्छी शुरुआत मानते हुए कहा कि शमशेर हिंदी-उर्दू की गंगा-जमुनी तहजीब के अपने ढंग के विरले अदीब थे। हिंदी और उर्दू की राष्ट्रीय महत्व की दो बड़ी संस्थाओं ने हिंदी-उर्दू के इस दोआब को पहचाना है, यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है। इस बहाने इन दोनों भाषाओं के परस्पर नज़दीक आने का जो सिलसिला शुरू हुआ है वह हैदराबाद से आरंभ होकर देश भर में फैलना चाहिए। डॉ. नामवर सिंह ने याद दिलाया कि शमशेर बहादुर सिंह ने 1948 में निजामशाही के खिलाफ भी एक छोटी सी नज़्म लिखी थी - ‘ये चालबाज हुकूमत दुरंगियों का गढ़/बनी हुई है अभी तक फिरंगियों का गढ़ / लगे अवाम की ठोकर निज़ाम शाही को।’ साथ ही डॉ. सिंह ने यह भी ध्यान दिलाया कि आप शमशेर को सियासी कवि न समझें, वे सही अर्थों में ऐस्थीट थे - सुंदरता के कवि थे। वे रंगों से खेलते थे, शब्दों से खेलते थे। उनके रचनाकार व्यक्तित्व का एक हिस्सा अपने प्यारे शायर मजाज़ का है पर वे उतने पॉलिटिकल नहीं हैं । वे चित्रकार भी थे और एक खास किस्म की एम्बिगुइटी, एक खास किस्म का पेंच, उनकी कविताओं में है। इसीलिए वे उतने पॉपुलर नहीं है जितने कि गर्जन-तर्जन करनेवाले सियासी कवि हुआ करते हैं।’’
डॉ. नामवर सिंह ने शमशेर के संकोची व्यक्तित्व से लेकर उनके चित्र और कविताओं के संबंध तक की व्याख्या की और कहा कि उनकी कविता इशारा ज्यादा करती है, बोलती कम है। शमशेर के गद्य की शक्ति को भी उन्होंने वाणी के संयम में निहित माना। उन्होंने कहा कि शमशेर की समग्र रचनावली आनेवाली है और उनकी रचनाएँ हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं का साझा सरमाया है। इसलिए उनके साहित्य पर, उसके हर एक पक्ष पर साझा दृष्टिकोण से विचार करने की जरूरत है। अंत में उन्होंने निष्कर्ष दिया कि दूसरा शमशेर नहीं हुआ - न हिंदी में, न उर्दू में। उन्होंने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया कि यह वर्ष मजाज़ का भी शताब्दी वर्ष है,परंतु साहित्य जगत का इस ओर कोई ध्यान नहीं है जबकि अपने समकालीन फैज अहमद फैज जैसे शायरों की तुलना में वे कहीं बड़े शायर हैं।
समारोह का उद्घाटन करते हुए डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने कहा कि लोक में शमशेर लोकप्रिय कवियों से ज्यादा रमे हुए हैं। वे मुकम्मिल तौर से हिंदुस्तान में रचे बसे ऐसे कवि हैं जिन्होंने प्रेमचंद की तरह उम्दा हिंदी और बेजोड़ उर्दू में लिखा है। उन्होंने हिंदी की कविताभाषा को हिंदुस्तानियत के लहजे से पुष्ट किया। इसी के कारण उनकी शमशेरियत लोगों से अपना लोहा मनवा लेती है। डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने आगे कहा कि यद्यपि शमशेर बहुत मुश्किल कवि हैं लेकिन उनके साहित्य से यह पता चलता है कि वे हिंदुस्तान से बेइंतहा मुहब्बत करनेवाले कवि हैं। यही कारण है कि गुरबत, युद्ध और आतंक के जो चित्र उन्होंने अपनी रचनाओं में उकेरे हैं वे ज्यादा प्रभावी हैं। खास तौर से हिंदुस्तानी भाषा के अपने संस्कार के कारण वे आज हमारे लिए बेहद प्रासंगिक हैं। गंगा प्रसाद विमल ने अपने खास अंदाज में जब यह कहा कि मैं तो चाहता हूँ कि हिंदी और उर्दूवाले उनके लिए इस तरह लडें जिस तरह कभी हिंदू और मुसलमान कबीर के लिए लड़े थे, तो सभाकक्ष करतल ध्वनियों से गूँज उठा। डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा कि जमहूरियत के इलाके में सेक्यूलर बनकर अपनी बातें कहनेवाले शमशेर हिंदुस्तानियत की मुहिम का आधार बन सकते हैं।
उद्घाटन सत्र के आरंभ में संयोजक प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि शमशेर जैसी शख्सियत हिंदी-उर्दू दोनों जबानों में दूसरी बहुत मुश्किल से मिलेगी। उन्होंने नामवर सिंह के हवाले से कहा कि हम लोग यहाँ शमशेरियत की खोज के लिए ही जुटे हैं। प्रमुख भाषाचिंतक दिलीप सिंह ने यह भी कहा कि शमशेर उर्दू काव्यभाषा के संस्कार को हिंदी में संभव बनानेवाले कवि हैं इसलिए उन्हें हिंदी के साथ साथ उर्दू भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया जाना चाहिए।
विषिष्ट अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रो. आमिना किशोर ने शमशेर के साहित्य को अंतरअनुशासनीय शोध का विषय बनाने की जरूरत बताई और कहा कि हिंदी-उर्दू के ऐसे रचनाकारों को खोजा जाना चाहिए जिनमें दोनों ज़बानों का मेल है। उन्होंने भारत-पाक क्रिकेट मैच वाले दिन भी खचाखच भरे सभागार की ओर इशारा करते हुए यह कहा कि साहित्य के द्वारा जो वैश्विक संदेश दिया जा सकता है, कोई क्रिकेट वैसा नहीं कर सकता।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मोहम्मद मियाँ ने की। अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने संगोष्ठी की समसामयिक प्रासंगिकता और हिंदी-उर्दू को नज़दीक लाने के लिए इसके स्थायी महत्व का समर्थन किया और कहा कि भविष्य में शमशेर और मजाज़ पर संयुक्त संगोष्ठी की जानी चाहिए।
उद्घाटन के बाद ‘शमशेर की स्मृति’ पर केंद्रित सत्र में प्रो. दिलीप सिंह ने 'शमशेर : व्यक्ति और रचनाकार’ शीर्षक आलेख प्रस्तुत किया। उन्होंने मुक्तिबोध के हवाले से कहा कि शमशेर की जिंदगी ठहराव में रवानी की दास्तान है। अनेक प्रमाणों के साथ उन्होंने शमशेर के इस वक्तव्य की भी परीक्षा की कि ‘सारी कलाएँ एक दूसरे में समोई हुई हैं’ और यह दर्शाया कि शमशेर चित्र, संगीत, नाटक और नृत्य को भी संप्रेषण युक्ति की तरह इस्तेमाल करते हैं। प्रो. दिलीप सिंह ने जहाँ एक ओर यह कहा कि शमशेर ने निराला से आगे जाकर नए नए काव्यरूप और भाषा की संभावना की तलाश की है, वहीं यह भी कहा कि निरंतर निज से संवाद करनेवाले इस कवि की उर्दू साहित्य के लिए दीवानगी अद्वितीय है। डॉ. दिलीप सिंह के अनुसार शमशेर विचलन के कवि हैं जो उनकी मानसिक जटिलता के साथ साथ भाषा कौशल को जाँचने की उनकी ताकत का भी प्रतीक है। डॉ. सिंह ने याद दिलाया कि सुंदरता समशेर की कविता का बड़ा हिस्सा घेरती है, ‘लीला’ उनका प्रिय शब्द है, वे विराम चिह्नों और रिक्त स्थान तक का बहुत सतर्कता से प्रयोग करनेवाले लेखक हैं तथा सभी प्रमुख कवियों और आलोचकों ने उन पर लिखा है और उन्होंने भी इन पर लिखा है जो अपने समकालीनों से उनके रिश्तों का पता देता है।
प्रो. तेजस्वी कट्टीमनी ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए ‘लोगों की स्मृतियों में बसे हुए शमशेर' पर प्रकाश डाला। खास तौर से नरेंद्र शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, नामवर सिंह और रंजना अरगडे के हवाले से उन्होंने कहा कि संकोची स्वभाव वाले शमशेर अपने समय के सबसे अधिक बहुमुखी प्रतिभावाले कवि थे। उन्होंने शमशेर की उदारता के किस्से सुनाते हुए बताया कि वे तंगदिल नहीं थे और विपन्न लोगों के प्रति उनके मन में बड़ी करुणा थी। चरित्र के ऐसे ही गुण शमशेर को केवल अच्छा कवि ही नहीं अच्छा आदमी भी बनाते हैं।
इस सत्र में डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने शमशेर बहादुर सिंह से जुड़े कई रोचक प्रसंग सुनाए और उनकी नज़ाकत-नफ़ासत का खासतौर पर ज़िक्र करते हुए यह भी बताया कि उनका कलाओं के प्रति इतना लगाव था कि प्रायः कला दीर्घाओं के चक्कर लगाते रहते थे। फ़ारसी साहित्य के प्रति शमशेर के प्रेम पर भी उन्होंने प्रकाश डाला।
मुंबई से पधारे ‘हिंदुस्तानी’ के समर्थक भाषावैज्ञानिक डॉ. अब्दुस्सत्तार दलवी ने स्मृति सत्र की अध्यक्षता करते हुए कहा कि ‘‘शमशेर महात्मा गांधी की हिंदुस्तानी भाषानीति का सबसे खूबसूरत उदाहरण पेश करते हैं। वे ऐसे अदीब हैं जिनका साहित्य हमारी तहज़ीबी जिंदगी का बड़ा सरमाया है, जिसमें भारत की संस्कृति को पहचाना जा सकता है।’’ उन्होंने कहा कि शमशेर बहादुर सिंह के साहित्य को पढ़कर यह बात समझ में आती है कि हिंदी. के बिना उर्दू, और उर्दू के बिना हिंदी, पूरी नहीं हो सकती। प्रो. दलवी ने इस बात की ओर भी इशारा किया कि शमशेर की भाषा में सामाजिक शैली की विविधता अहेतुक नहीं है बल्कि उनके काव्यरूप और भाषारूप में गहरा भीतरी नाता है। 'शमशेर की स्मृति’ विषयक इस सत्र का संयोजन प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने किया तथा डॉ. मृत्युंजय सिंह ने वक्ताओं के प्रति आभार प्रकट किया।
‘शमशेर की कविता’ पर केंद्रित विचार सत्र की अध्यक्षता इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से पधारे प्रो.सत्यकाम ने की। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि शमशेर बहादुर सिंह जैसी बड़ी प्रतिभा को प्रगतिवाद, प्रयोगवाद या अतियथार्थवाद जैसे किसी खेमे में कैद नहीं किया जा सकता। उन्होंने शमशेर को लोककवि और जनकवि बताते हुए कहा कि उनकी बहुत सी कविताएँ सीधे मजदूर या संघर्ष करने वालों से जुड़ती हैं, उनकी कविता में धर्मनिरपेक्षता की बातें निहित हैं और वे चिंतनपरक होने के बावजूद अपनी संवेदनशीलता के कारण हमारे हृदय को भेदती हैं। डॉ. सत्यकाम ने कहा कि शमशेर एक कवि नहीं, कवियों के पुंज हैं क्योंकि उनकी कविताओं में परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले कई कवि झाँकते प्रतीत होते हैं।
अलीगढ़ विश्वविद्यालय से आए डॉ. अब्दुल अलीम ने 'शमशेर : काव्यानुभूति के आयाम’ विषय पर अपने आलेख में कहा कि शमशेर की कविताओं का रेंज बहुत व्यापक है, वे न विषय का सीमाबंधन स्वीकार कर सकते हैं और न किसी एक भाषारूप का। विजयदेव नारायण साही के हवाले से शमशेर को बिंबों का कवि बताते हुए उन्होंने कहा कि उनके काव्य में मानवीयता और विश्वव्यापी चेतना मौजूद है जो यथार्थसापेक्ष है, और समयसापेक्ष भी।
‘शमशेर की काव्यभाषा’ पर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह ने आलेख प्रस्तुत करते हुए यह माना कि भाषा के स्तर पर शमशेर का पाठ-विश्लेषण कठिन काम है जो पाठक की मानसिकता और भावना के बिना संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि शमशेर की कविता जीवन में प्रेम और सत्य का स्थान खोजती हुई कविता है। प्रो. सिंह ने सिद्ध किया कि आंतरिक स्तर पर शमशेर की समस्त कविता ‘हिंदवी की लय’ से युक्त है और उनकी काव्यभाषा बहुत लचीली और संकेतात्मक है। इस लचीलेपन के कारण ही वह अर्थ-सघन और संश्लिष्ट बन सकी है। शमशेर की काव्यभाषा में सूफियाना ढब को रेखांकित करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि सांप्रदायिक सौहार्द को संभव बनानेवाली लोकभाषा के साथ शमशेर के पास उर्दू शब्दावली ही नहीं, उर्दू साहित्य की पूरी परंपरा और भाषिक विधान भी मौजूद है। उन्होंने शमशेर को शैली के संयम और भाषा के नियंत्रण में कुशल भाषा-सर्जक कवि सिद्ध किया।
काव्यभाषा विषयक चर्चा को आगे बढ़ाया उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, हैदराबाद के डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने। उन्होंने समाजभाषाविज्ञान की एक संकल्पना का आधार लेकर ‘शमशेर की कविता में रंग’ पर पर्चा पढ़ा। डॉ.ऋषभ के अनुसार ‘‘शमशेर की कविताओं में विविध रंगों का विविध रूपों में प्रयोग सर्वथा समाजसिद्ध है और यह सिद्ध करने में समर्थ है कि अपनी समग्र निजता में कवि शमशेर बहादुर सिंह लोक, समाज और संस्कृति के विविधवर्णीय सौंदर्य से अनुप्राणित रचनाकार हैं। रंगों के प्रति उनका आकर्षण उनके विविध अभिप्रायों की गहरी समझ से जुड़ा हुआ है।’’ उन्होंने ख़ासतौर पर शमशेर की - ये शाम है, कत्थई गुलाब, पूरा आसमान का आसमान, एक पीली शाम, यह गुलदाउदी शाम, सूर्यास्त, उषा, प्रभात, एक स्टिल लाइफ, फिर गया है समय का रथ, वसंत आया, शंख पंख, धूप कोठरी के आईने में खड़ी, दिन किशमिशी , पूर्णिमा का चाँद, भुवनश्वर, शरीर स्वप्न, एक नीला दरिया बरस रहा, वो एक हरा-नीला सा कगार न था, अम्न का राग, सौंदर्य, होली : रंग और दिशाएँ तथा सावन जैसी कविताओं का समाजभाषिक विश्लेषण करते हुए प्रतिपादित किया कि ‘‘शमशेर बहादुर सिंह की संवेदनशीलता का प्रसार पौराणिक और छायावादी संस्कारों से लेकर अंग्रेज़ी और ख़ासतौर पर उर्दू परंपरा तक परिव्याप्त है। समाजसिद्ध भाषा के अनेक धरातलों और संस्कारों को एक साथ साध पाने के सामर्थ्य के कारण ही वे बड़े कवि हैं - महान, कालजयी और अद्वितीय; जिनका अनुकरण नहीं हो सकता।’’
जोधपुर से पधारे डॉ. श्रवण कुमार मीणा ने शमशेर की गज़लों का विश्लेषण किया और कहा कि इनमें प्रेम और सौंदर्य के साथ साथ तत्कालीन कविता के वर्ण्य विषयों मोहभंग, निराशा और आम आदमी की पीड़ा को भी अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। उन्होंने यह भी दिखाने की कोशिश की कि शमशेर के गज़लकार पर उनका कवि रूप हावी है।
दिल्ली से पधारे कविवर डॉ. हीरालाल बाछोतिया के सुचिंतित आलेख का विषय था ‘शमशेर : शोक गीतों के आईने में’ जिसमें उन्होंने जवाहरलाल नेहरु, सुभद्राकुमारी चौहान, मुक्तिबोध, भुवनेश्वर और मोहन राकेश पर लिखी शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं की संवेदनशीलता , गहरे मानवीय बोध और शैलीय बुनावट की व्याख्या करते हुए कहा कि मौत को भी रोमांटिक रूप में प्रस्तुत करना केवल शमशेर के लिए ही संभव है। अध्यक्ष मंडल के सदस्य प्रो. टी.मोहन सिंह ने शमशेर की जनपक्षधरता और प्रयोगधर्मिता को तेलुगु साहित्यकार श्रीश्री से तुलनीय बताया जो कि शमशेर के समवयस्क और समकालीन थे।
इस सत्र का संयोजन डॉ. जी.वी. रत्नाकर ने किया तथा डॉ. जी. नीरजा ने वक्ताओं और श्रोताओं का धन्यवाद प्रकट किया।
दूसरे दिन यानी 31 मार्च, 2011 (गुरुवार) को आयोजित विशेष सत्र में प्रो. नामवर सिंह ने लगभग पौन घंटा शमशेर से संबंधित संस्मरण सुनाकर श्रोताओं को भावविगलित तो किया ही, वैचारिक रूप से समृद्ध भी बनाया। उन्होंने बनारस, इलाहाबाद, दिल्ली, उज्जैन और अहमदाबाद में शमशेर से अपनी मुलाकातों की चर्चा करते हुए बताया कि एक समय शमशेर कम्युनिस्ट पार्टी के कम्यून में रहते थे जहाँ उनकी घनिष्ठता बच्चन और नरेंद्र शर्मा के अलावा प्रकाश चंद्र गुप्त और तीन अग्रवाल बहनों से थी। नामवर जी ने बताया कि शमशेर की आँखों पर कम उम्र में ही मोटा चश्मा चढ़ गया था। वे नरेंद्र शर्मा की गिरफ्तारी और देवरी कैंट जेल में कारावास से काफ़ी विचलित हुए थे और उस समय आयोजित कविगोष्ठी में उन्होंने अपने से पहले नरेंद्र शर्मा की कविता सुनाई थी। अतीत में गोता लगाते हुए डॉ. नामवर सिंह ने याद किया कि शमशेर थरथराती काँपती सी आवाज में काव्यपाठ करते थे और उस समय भावावेश के कारण उनकी इकहरी काया खुद बेंत की तरह थरथराती थी -सरापा खुद नज़्म हो जैसे। डॉ. नामवर सिंह ने यह भी बताया कि सड़क साहित्य की रचना में भी शमशेर बहादुर सिंह का जोड़ नहीं था। उनकी सरलता और भावुकता के भी किस्से नामवर जी ने सुनाए और यह भी बताया कि किस तरह उनका छोटा सा कमरा अनेक साहित्यकारों का मिलन स्थल बन गया था। नामवर सिंह के अनुसार शमशेर बहादुर सिंह सही अर्थों में ‘उखड़े हुए लोग’ थे जो कभी कहीं ढंग से बस न सके और जीवन भर शरणार्थी बने रहे। उन्होंने कहा कि ‘‘बेसिकली शमशेर उर्दू के आदमी थे, उनकी मादरी ज़बान और पढ़ाई-लिखाई की भाषा उर्दू ही थी। इसीलिए उर्दू की उनकी काबिलियत को देखते हुए ही ख्वाजा अहमद फारूक़ी ने उन्हें उर्दू-हिंदी शब्दकोष के संपादन का काम सौंपा था।’’
दूसरे दिन के दो विचार सत्र शमशेर के गद्य को समर्पित रहे। इन सत्रों की अध्यक्षता केंद्रीय हिंदी संस्थान के प्रो. हेमराज मीणा और ‘स्वतंत्र वार्ता’ के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने की तथा संयोजन डॉ. करनसिंह ऊटवाल और डॉ. शेषुबाबु ने किया। डॉ. हेमराज मीणा ने अपने पीएच.डी. शोध कार्य के दौरान तीन वर्ष शमशेर के साथ रहने के मार्मिक संस्मरण सुनाए। शमशेर जी साधारण चाय के स्थान पर हल्दी की चाय खुद बनाकर पीते थे और आर्थिक विपन्नता का आलम यह था कि घिसे और फटे हुए कुर्ते को हाथ से सिलकर काम चलाना पड़ता था।
डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने शमशेर बहादुर सिंह को हिंदी और उर्दू की गंगा जमुनी तहज़ीब का कवि मानते हुए उनकी काव्यभाषा को हिंदवी मानने पर ज़ोर दिया। डॉ. शुक्ल ने कहा कि भारतेंदु, प्रेमचंद और शमशेर बहादुर सिंह जैसे साहित्यकारों की भाषा मेलजोल और सामंजस्य की भाषा है जिसे अपनाकर देश में सांप्रदायिक सद्भाव को मजबूत किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह मिली जुली काव्यभाषा संगम की भाँति है जहाँ भाषारूपी जल तीर्थ बन जाता है।
एरणाकुलम (केरल) से आई प्रो. सुनीता मंजनबैल ने शमशेर के डायरी लेखन पर केंद्रित आलेख में यह बताया कि उन्होंने अपनी डायरी में अपनी चिंताएँ, इच्छाएँ, वैचारिकता और सपनों को स्वभावगत भावुकता, संवेदनशीलता और संकोच के साथ व्यक्त किया है। उदाहरण देकर उन्होंने बताया कि इनमें लेखक के अकेलेपन, गहरी पीड़ा, तनाव और निजी अनुभूतियों को अकृत्रिम अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। डॉ. सुनीता ने यह भी जानकारी दी कि अपनी डायरी में शमशेर ने हिंदी नॉवल का ऐसा इतिहास लिखने की ख्वाहिश भी अंकित की है जिसमें हिंदी और उर्दू दोनों के उपन्यास शामिल हों।
इसके पश्चात डॉ. मृत्युंजय सिंह ने ‘घनत्व और प्रसार का गद्य’ शीर्षक अपने आलेख में यह प्रतिपादित किया कि शमशेर का गद्य अमूर्तन से मूर्तन की ओर बढ़नेवाला गद्य है जिसमें उनका चिंतन और अनुचिंतन समाहित है। डॉ. सिंह ने कहा कि चाहे कविता हो, या कहानी, या फिर संस्मरण जैसी अकाल्पनिक गद्य विधा ही हो - तीनों में शमशेर के व्यक्तित्व की निश्छलता, भावप्रवणता, अध्ययनशीलता और सौंदर्य दृष्टि के वैशिष्ट्य को साफ साफ पहचाना जा सकता है।
‘शमशेर की कहानियाँ’ विषयक आलेख में डॉ.जी. नीरजा ने खासतौर से युद्ध पर केंद्रित शमशेर की कहानी ‘प्लाट का मोर्चा’ के वस्तु और शिल्प का विश्लेषण किया और बताया कि इतने मर्मस्पर्शी ढंग से महायुद्ध के प्रभाव को चित्रित करनेवाले वे अज्ञेय के बाद अकेले कहानीकार हैं। इस कहानी की भाषा में खड़ीबोली क्षेत्र का ठेठपन और खुरदरा अंदाज पाठक को आकर्षित करता है।
गद्य संबंधी इस सत्र के अंत में डॉ. बलविंदर कौर ने सभी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।
इसी क्रम में संगोष्ठी के अंतिम विचार सत्र में प्रो. अमर ज्योति (धारवाड) ने ‘शमशेर की आलोचना दृष्टि’ शीर्षक अपने आलेख में यह बताया कि शमशेर एक आलोचक कवि के रूप में अत्यंत अध्ययनशील और विचारशील हैं। इसलिए उनके आलोचना-गद्य को पढ़ते हुए गालिब, निराला, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और पाब्लो नेरुदा को ढूँढ़ा जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि संघर्ष और चुनौतियों से भरे जीवन को कलात्मक प्रयोगशाला मानने के कारण अन्य कवियों की तुलना में शमशेर की आलोचना रचनात्मक, कलात्मक और सृजनशील है।
अलीगढ़ विश्वविद्यालय से आए डॉ. राजीव लोचन नाथ शुक्ल ने ‘शमशेर की भाषादृष्टि’ पर अपने शोधपत्र में कहा कि ‘‘शमशेर भाषा के व्यावहारिक रूप को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं। वे अभिव्यक्ति में निकटता, आत्मीयता, गंभीरता और विस्तार लाने के लिए सर्वनामों, संज्ञाओं, अव्ययों तथा अनुवर्तन का रचनात्मक प्रयोग करते हैं।’’ डॉ. राजीव लोचन ने आगे कहा कि शमशेर ‘संवेदना की भाषा और भाषा की संवेदना’ के रचनाकार हैं।
इस सत्र के अंत में डॉ. गोरख नाथ तिवारी ने आगंतुकों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
समापन सत्र में मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने समाकलन भाषण दिया और इस आयोजन को शमशेर के बहाने हिंदी-उर्दू सामंजस्य की नई पहल बताया। श्रीवेंकटेश्वर विश्वविद्यालय, तिरुपति के डॉ. आई.एन. चंद्रशेखर रेड्डी तथा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की डॉ. साहिरा बानू ने अपनी टिप्पणियों में कार्यक्रम की भूरि भूरि प्रशंसा की और कहा कि शमशेर को समझने में इस संगोष्ठी से बड़ी सहायता मिली।
कार्यक्रम के परिकल्पक प्रो. दिलीप सिंह ने संतोष जताया कि पूरा आयोजन योजना के अनुरूप चला और शमशेर के व्यक्तित्व और कृतित्व से संबंधित कई गुत्थियाँ खुलीं। उन्होंने हर्ष व्यक्त किया कि सभी शोध पत्रों में वादनिरपेक्ष और पाठकेंद्रित आलोचनादृष्टि देखने को मिली।
कार्यक्रम के परिकल्पक प्रो. दिलीप सिंह ने संतोष जताया कि पूरा आयोजन योजना के अनुरूप चला और शमशेर के व्यक्तित्व और कृतित्व से संबंधित कई गुत्थियाँ खुलीं। उन्होंने हर्ष व्यक्त किया कि सभी शोध पत्रों में वादनिरपेक्ष और पाठकेंद्रित आलोचनादृष्टि देखने को मिली।
समापन समारोह के मुख्य अतिथि के आसन से संबोधित करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने बताया, ‘‘पिछले दिनों दिल्ली मैं तथा अन्य स्थानों पर शमशेर पर कई गोष्ठियाँ हुईं परंतु उनमें पुनरावृत्ति ही अधिक दिखाई दी तथा कविता पर ही अधिक ज़ोर रहा। इसके विपरीत हैदराबाद के इस समारोह की यह उपलब्धि रही कि यहाँ नई बातें हुईं; अलग अलग दृष्टि से बातें हुईं, सब विधाओं की बातें हुईं और एक खास बात यह है कि शमशेर की नई रचनाएँ उद्धृत की गईं। वक्ताओं ने हिंदी और उर्दू दोनों को उद्धृत किया।’’ डॉ. नामवर सिंह ने इस तुलना को आगे बढ़ाते हुए कहा कि लोग आधा चाँद लिए नाच रहे थे, यहाँ पूरा चाँद देखने को मिला - शमशेर की शमशेरियत का पूरा चाँद। उन्होंने कहा कि इस समारोह की सारी सामग्री को पुस्तक रूप में जरूर छापा जाना चाहिए। अंत मे नामवर जी ने अपने गुरुवर डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्मरण करते हुए ऋषि विश्वनिंदक का पौराणिक संदर्भ सुनाया और कहा कि ‘इतना अच्छा होना भी अच्छा नहीं’ तो ऑडिटोरियम तालियों और ठहाकों से गूँज उठा।
समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने भी इस बात का समर्थन किया कि यह संगोष्ठी विषयकेंद्रित रही और शमशेर की रचनात्मक प्रतिभा के जो आयाम पहले नहीं देखे गए थे, उन्हें यहाँ भली प्रकार उद्घाटित किया गया। उन्होंने कहा कि ‘‘शमशेर जैसी बड़ी सर्जनात्मक प्रतिभाओं के अर्थ खोलना नई दुनिया के दर्शन सरीखा है। इस आयोजन से यह भी स्पष्ट हुआ है कि ''शमशेर का काव्य ही नहीं, गद्य भी कम विस्मय में डालने वाला नहीं है क्योंकि वे भाषिक संरचनाओं का खेल खेलनेवाले पहले दर्जे के खिलाड़ी हैं।’’
समापन समारोह का संयोजन शमशेर की उक्तियों के माध्यम से प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने इतनी रोचक शैली में किया कि स्वयं प्रो. नामवर सिंह ने उनकी संयोजन शैली की मंच से मुक्तकंठ से प्रशंसा की।
इस द्विदिवसीय समारोह में राष्ट्रीय संगोष्ठी के अतिरिक्त तीन अन्य विशिष्ट कार्यक्रम भी संपन्न हुए। एक तो यह कि, डॉ. नामवर सिंह ने डॉ. टी.वी. कट्टीमनी द्वारा संपादित समीक्षाकृति ‘दक्खिनी भाषा और साहित्य’ तथा हैदराबाद के प्रतिष्ठित क्रांतिकारी कवि शशि नारायण ‘स्वाधीन’ की काव्यकृति ‘भूख, धान और चिड़िया’ का लोकार्पण किया। दूसरा यह कि, पहले दिन की साँझ एकपात्री नाटक ‘मैं राही मासूम’ का मंचन किया गया जिसके अभिनेता विनय वर्मा का अभिनंदन करते हुए डॉ. नामवर सिंह इतने गद्गद हो गए कि उनका गला भर आया और आँखें नम हो आईं जब उन्होंने कहा कि मैं तो हैदराबाद में शमशेर से मिलने आया था पर मुझे मालूम न था कि आप मुझे यहाँ मेरे भाई डॉ. राही मासूम रज़ा से मिलवा देंगे। और तीसरा कि, संगोष्ठी के समापन सत्र के उपरांत ‘अलिफ’ के तत्वावधान में प्रो. खालिद सईद ने ‘बहुभाषा कवि सम्मेलन’ आयोजित किया जिसमें हिंदी, उर्दू और तेलुगु के कवियों ने डॉ. नामवर सिंह, डॉ. गंगा प्रसाद विमल, डॉ. अब्दुस्सत्तार दलवी और डॉ. हीरालाल बाछोतिया के सान्निध्य में काव्यपाठ किया।
बेशक हिंदी और उर्दू की दो अग्रणी संस्थाओं के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित यह समारोह लंबे समय तक प्रतिभागियों की यादों में गूँजता रहेग!
(रिपोर्टर : संगोष्ठी स्थल से डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ जी. नीरजा, डॉ.बलविंदर कौर एवं डॉ.गोरख नाथ तिवारी)
[चित्र : डॉ. जी. नीरजा, डॉ. बी. बालाजी एवं राधाकृष्ण मिरियाला]
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