पुस्तक
चर्चा: ऋषभ देव शर्मा
समकाल को समझने की सार्थक कोशिश
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पतझड़ का इतिहास/ ए. अरविंदाक्षन (कविता संग्रह)/ पृष्ठ – 104/
मूल्य – रु. 125/ 2013/ मानव प्रकाशन, 131, चित्तरंजन एवेन्यू, कोलकाता – 700 073.
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‘पतझड़ का इतिहास’ (2013)
प्रो. ए. अरविंदाक्षन की आठवीं काव्य कृति है. हिंदी और मलयालम में समान गति रखने
वाले ए. अरविंदाक्षन कवि, आलोचक और अनुवादक के रूप में अनेक राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित हैं. उनकी कविताएँ जटिलताओं भरे समकाल को समझने
की सार्थक कोशिश की सटीक परिणतियाँ हैं. उन्होंने भूमिका में सही ही कहा है कि
कविता के बनने की प्रक्रिया में केवल समकाल ही समाहित नहीं होता बल्कि इसमें एक
बृहत्तर समय अथवा बृहत्तर संस्कृति का योगदान रहता है.
अस्सी
कविताओं के इस संग्रह की शीर्षक कविता समय और संवेदना के संबंध को आँकने की कोशिश
करती हुई कहती है - “पतझड़ के इतिहास को
जानना है/ तो चाहिए/ विभिन्न ऋतुओं से संवाद करें/ वे बता सकते हैं/ पतझड़ का
इतिहास/ शायद वसंत ही बता पाएगा/ पतझड़ कितना दुखद है/ पतझड़ कितना दारुण है.” (पतझड़ का इतिहास). पतझड़ और वसंत की इस विरोधी समानांतरता
में द्वंद्व और तनाव तो है ही लेकिन इससे अभिव्यक्त होने वाला बृहत्तर समय का
नैरंतर्य कवि के जीवन दर्शन का वाचक है.
इस
संग्रह में शब्द और मौन का द्वंद्व बार बार उभरा है जो वस्तुतः आज के शब्दकर्मियों
की त्रासदी को दर्शाता है क्योंकि वे एक ऐसे तानाशाह समय में रह रहे हैं जिसमें “किसी का रोना धोना/ भावुक होना/ फुसफुसाना/ शब्दों का
अपव्यय करना/ क़ानूनन अपराध है.” (राजा रानी की
कहानी). यह ऐसा समय है जिसमें “ध्वनियों की गूढ़
वक्रताओं और/ अट्टहासों के बलात्कारों ने/ हमारी श्रवण शक्ति को खत्म कर दिया है.” (प्रियतर शब्द). इस समय में एक अद्भुत मौन से घिरे
हुए व्यक्ति को बस इतना मालूम है कि “मुझे मालूम नहीं/
मैं भी क्यों मौन हो गया?” (अद्भुत मौन). यह
व्यक्ति इसलिए बेहद बेचैन है कि “सआदत हसन मंटो के
साथ/ मैं संवाद कर पाता हूँ./ बावजूद इसके/ वह अपरिचित था मेरे लिए./ अपने देश के
नेताओं से मैं संवाद नहीं कर पा रहा हूँ/ उनकी जुबान एकदम अजनबी है मेरे लिए/ वह
कौन सी जुबान है?” (संवाद क्यों संभव
नहीं है?). ऐसे में कवि जब अपनी जमीन से खदेड़ दिए गए लोगों की तस्वीर की आँखों में
झाँककर देखता है तो उसे बेहद तकलीफ होती है क्योंकि “दोनों इतने गहरे हैं/ जहाँ मौन का अंधेरा ही अंधेरा
है/ कुछ और दिखाई नहीं देता है” (मौन की गहराई).
और
भी कई तरह का मौन डॉ. अरविंदाक्षन की इन कविताओं में मुखर हुआ है लेकिन भाषा, शब्द
और संगीत भी अपनी समस्त व्यंजना के साथ यहाँ उपस्थित हैं. एक कविता देखते चलें - “उसे बस/ शब्दों से ही जानना हुआ/ शब्द इतने सुडौल थे
उसके/ और गंध युक्त भी/ एक बार उसके शब्दों का स्पर्श किया गया-/ पहली बार मुझे
लगा/ शब्द को छुआ जा सकता है/ शब्दों के अंग-प्रत्यंगों को/ उनके खुरदरेपन को/
मुझे लगा/ शब्दों की मात्र बाहरी बुनावट नहीं/ शब्दों में जीवन-स्पंदन भी है.” (शब्दों से जानना)
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