भूमिका
साहित्य भाषा के सर्जनात्मक
व्यवहार से जन्म लेता है. यही कारण है कि उसे भाषिक कला और शब्दों पर झेले गए
सौंदर्य के प्रतिफलन के रूप में व्याख्यायित किया जाता है. भाषा के सर्जनात्मक
व्यवहार से साहित्य में प्रयुक्त शब्द रमणीय अर्थ का प्रतिपादक बन पाता है. यह रमणीय
अर्थवत्ता प्राप्त करने से पहले शब्द को सामाजिक व्यवहार में संसिद्धि प्राप्त
करनी होती है. शैलीविज्ञान जहाँ शब्द की रमणीय अर्थप्रतिपदाकता को पाठ के स्तर पर
परखता है वहीं साहित्यिक शब्द प्रयोग के औचित्य की पड़ताल की जिम्मेदारी समाजभाषाविज्ञान
बखूबी वहन करता है. परंतु विस्मय की बात है कि साहित्य भाषा को समाजभाषिक और समाज
शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से विवेचित करने वाले समीक्षा ग्रंथ हिंदी में बहुत कम हैं. डॉ.
एन. लक्ष्मी का यह ग्रंथ इस दृष्टि से एक नई जमीन तोड़ने का प्रयास कहा जा सकता है.
इसमें कविता और कथा के पाठ विश्लेषण के लिए समाज शैलीवैज्ञानिक व्याख्या के रूप
में आलोचना की जो प्रणाली प्रतिपादित की गई है वह सामाजिक दृष्टि से साहित्य भाषा
के व्यवहारौचित्य पर केंद्रित होने के कारण अत्यंत विश्वसनीय है.
लेखिका ने विस्तारपूर्वक
समाज शैलीविज्ञान की सैद्धांतिक पीठिका का विवेचन किया है. इसके लिए उन्होंने भाषा
और समाज के संबंध की विवेचना करते हुए भाषा की सामाजिक अवधारणा को स्पष्ट करने के
बाद समाजभाषाविज्ञान की संकल्पना और उसके लक्षणों पर प्रकाश डाला है.
समाजभाषाविज्ञान की संकल्पनाओं के अंतर्गत भाषा व्यवहार, भाषा व्यवस्था, भाषा
समुदाय, द्विभाषिकता, बहुभाषिकता, कोड मिश्रण, कोड परिवर्तन, पिजिन और क्रियोल पर सैद्धांतिक
चर्चा के उपरांत इस ग्रंथ में समाज शैलीविज्ञान के नियामक बिंदुओं पर भी सरल, सहज ढंग
से प्रकाश डाला गया है. लेखिका ने औपचारिक, अनौपचारिक और बाजारू शैली के अंतर को स्पष्ट
करने के बाद समाज शैलीविज्ञान की अत्यंत महत्वपूर्ण संकल्पनाओं के रूप में शब्द
चयन, संवाद, एकालाप, सर्वनाम और संबोधन प्रयोग तथा प्रोक्ति गठन को समझाने का
प्रयास किया है. कहना न होगा कि समाज शैलीविज्ञान की दृष्टि से साहित्य भाषा के विवेचन
के लिए ये ही सब उपकरण अपनाए जा सकते हैं. व्यावहारिक खंड में लेखिका ने ऐसा ही
किया भी है.
इस ग्रंथ के
व्यावहारिक आलोचना पक्ष में कथाभाषा और काव्यभाषा का विश्लेषण शामिल है. साहित्य
भाषा के इन दोनों रूपों की सैद्धांतिकी को विविध विद्वानों के विचारों का मंथन
करते हुए सुस्थिर किया गया है. कथाभाषा और काव्यभाषा दोनों में ही भाषा की लोच का
उपयोग किया जाता है. पर दोनों की यह लोच अलग अलग होती है जो मिट्टी और पानी के प्रकार
और अनुपात से कुम्हार की बर्तन बनाने वाली सामग्री की तरह नियंत्रित होती है. मिट्टी
का अनुपात अधिक होने से कथाभाषा और पानी का अनुपात अधिक होने से काव्यभाषा!
कथाभाषा की सैद्धांतिकी
को स्पष्ट करते हुए लिखिका ने हिंदी कथाभाषा के विकास के विविध चरणों का ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य तो उभारा ही है, उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य को भी रेखांकित किया है. इसी
प्रकार काव्यभाषा की सैद्धांतिक चर्चा को आधुनिक युग की विभिन्न काव्यधाराओं के
संदर्भ में विवेचित किया गया है. हिंदी काव्यभाषा के बारे में मुझे आदिकाल से आज
तक यह तथ्य बहुत रोचक लगता है कि जब जब किसी विशिष्ट धारा या कवि के द्वारा काव्यभाषा
अथवा काव्यशैली को अनुल्लंघ्य उत्कृष्ट ऊँचाई पर पहुँचा दिया जाता है अथवा विशिष्ट
और असाधारण बना दिया जाता है तब तब हिंदी काव्यभाषा साधारणता की ओर नया प्रस्थान चुनती
है. हिंदी काव्यभाषा के विभिन्न वर्तन बिंदु साधारणता की खोज के बिंदु है.
डॉ. एन. लक्ष्मी के
इस ग्रंथ का व्यावहारिक पक्ष अत्यंत प्रबल है. जहाँ उन्होंने प्रेमचंद, रेणु,
भगवती चरण वर्मा, कमलेश्वर और अमरकांत की कथाभाषा की शैलीय विशेषताओं को विश्लेषित
किया है वहीं मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, महादेवी, पंत, निराला, अज्ञेय, रघुवीर सहाय
और बच्चन की काव्यभाषा की भी शैलीय विशेषताओं को भली प्रकार उकेरा है .
यह ग्रंथ काव्यभाषा
और कथाभाषा के समाजशैलीय दृष्टि से पाठ विश्लेषण के कारण भी विशिष्ट, महत्वपूर्ण
और संग्रहणीय बन गया है. हिंदी में साहित्यिक ‘पाठ विश्लेषण’ के पुरोधा भाषावैज्ञानिक
प्रो. दिलीप सिंह द्वारा निर्धारित मानकों का यथाशक्ति उपयोग करते हुए इस ग्रंथ की
लेखिका ने गुल्लीडंडा (प्रेमचंद), अजविलाप (संजीव), गउन (कृष्णा अग्निहोत्री) और
सुहागिनें (मोहन राकेश) जैसी कहानियों का समाजभाषिक पाठ विश्लेषण किया है तो दूसरी
ओर अरुण कमल (फिर वही आवाज/ ओह बेचारी बूढ़ी बुढ़िया/ करमा का गीत/ छोटी दुनिया), केदारनाथ
सिंह (कुछ सूत्र जो किसान बाप ने बेटे को दिए), हेमंत पुकरेती (शोक प्रकट करने के
लिए जाती औरतें), जितेंद्र श्रीवास्तव (एक सोते हुए आदमी को देखकर) और विनोद कुमार
शुक्ल (एक विशाल चट्टान के ऊपर/ तथा) जैसे विशिष्ट शैलीकार कवियों की चयनित
कविताओं के पाठ का समाजभाषिक दृष्टि से सूक्ष्म विश्लेषण किया है.
साहित्यिक पाठ
विमर्श के लिए समाज शैलीविज्ञान के उपकरणों को आधार बनाकर किए गए कथाभाषा और
काव्यभाषा के इस विश्लेषण से गुजरने पर किसी को भी यह सुखद विस्मय होना स्वाभाविक
है कि इस पद्धति द्वारा किसी साहित्यिक कृति में निहित सर्जनात्मकता और सूक्ष्म
अर्थों की पहचान अत्यंत सटीकता और विश्वसनीयता के साथ की जा सकती है. विश्वास किया
जाना चाहिए कि यह ग्रंथ साहित्य और भाषा के अध्येताओं के लिए उपयोगी और रोचक सिद्ध
होगा.
शुभकामनाओं सहित
18 जुलाई 2014 - ऋषभ देव शर्मा
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