तुलसी जयंती( 3अगस्त 2014) के अवसर पर विशेष
महाकवि तुलसीदास (1497 ई.- 1623 ई.) को हुए पांच सौ वर्ष से अधिक बीत गए. लेकिन वे आज भी अपने अमर महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के माध्यम से मनुष्य जाति का मार्गदर्शन कर रहे हैं, उसे समन्वय, आदर्श और मर्यादा की शिक्षा दे रहे हैं. संवत 1554 की श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्मे इस अद्भुत बालक का मुंह देखने तक से जब अमंगल की आशंका से पिता ने इनकार किया होगा और केवल चार दिन की उम्र में माँ ने सेविका को सौंप कर प्राण त्यागे होंगे, तब भला किसे पता था कि यह बालक चिरकाल तक लोकमंगल के संदेशवाहक के रूप में कालजयी कीर्ति का कारण बनेगा. इस महान आत्मा ने अपने जीवनकाल में रामचरितमानस (1574 ई. – 1576 ई.) सहित 24 काव्यकृतियों की रचना की जिनमें रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामाज्ञाप्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, सतसई, छंदावली रामायण, कुंडलिया रामायण, राम शलाका, संकटमोचन, बरवै रामायण, रोला रामायण, झूलना, छप्पय रामायण, कवित्त रामायण, कलिधर्माधर्म निरूपण और हनुमान चालीसा शामिल हैं.
रामचरितमानस काव्य की दृष्टि से तो भारतीय साहित्य का सिरमौर महाकाव्य है ही, लेकिन इसकी वैश्विक प्रतिष्ठा का कारण इसमें उपलब्ध अद्वितीय उदात्त तत्व में निहित है. आदर्श गृहस्थ जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन और आदर्श लोकधर्म के साथ यह काव्य, भक्ति, ज्ञान, त्याग, वैराग्य और सदाचार की शिक्षा देने वाला है. इसके नायक राम परात्पर ब्रह्म होते हुए सगुण साकार मनुष्य हैं तथा अपने सत्य, शील और प्रेम से संपूर्ण सृष्टि को संरक्षण प्रदान करने वाले हैं.
तुलसी ने जिस काल में रामचरितमानस की रचना की और राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम महानायक की सृष्टि की, वह समय भारतीय इतिहास में अत्यंत उथल-पुथल और मूल्यमूढता का समय था. अब इसे आप क्या कहेंगे कि आज का समय भी सामजिक, सांस्कृतिक दृष्टि से वैसी ही मूल्यमूढता का समय है. हनुमानप्रसाद पोद्दार ने गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित रामचरितमानस के ‘निवेदन’ में यह बिलकुल सही कहा है कि वर्तमान समय में तो, जब सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है, सारा संसार दुःख एवं अशांति की भीषण ज्वाला से जल रहा है, जगत के कोने कोने में मारकाट मची हुई है और प्रतिदिन हज़ारों मनुष्यों का संहार हो रहा है, करोड़ों-अरबों की संपत्ति एक दूसरे के विनाश के लिए खर्च की जा रही है, विज्ञान की सारी शक्ति पृथ्वी को श्मशान के रूप में परिणत करने में लगी हुई है, संसार के बड़े से बड़े मस्तिष्क संहार के नए-नए साधनों को ढूंढ निकालने में व्यस्त हैं, जगत में सुख-शांति एवं प्रेम का प्रसार करने के लिए रामचरितमानस का अनुशीलन परम आवश्यक है.
यहाँ हमें आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन भी याद आता है कि तुलसीदास के सामने तत्कालीन समाज में प्रचलित एक बड़ा भारी संदेह उनके चित्त को आंदोलित किये हुए था, वह यह कि जो ब्रह्म सब प्रकार की धारणाओं से ऊपर है, व्यापक है, निर्गुण है, अजन्मा है, वह क्या मनुष्य के रूप में अवतार धारण कर सकता है. इस संदेह के कारण ही निर्गुण और सगुण का विवाद उठ खड़ा हुआ था. तुलसीदास ने देखा कि यह निराधार विवाद भारतीय समाज को विखंडित कर रहा है इसीलिए उन्होंने सगुण साकार राम को अपना आराध्य मानते हुए लोगों को यह समझाया कि वे निर्गुण निराकार परात्पर ब्रह्म का ही अवतार हैं – मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहु सो दसरथ अजिर विहारी. इस प्रकार उन्होंने निर्गुण और सगुण का अथवा साकार और निराकार का तो समन्वय किया ही ‘ईश्वर अंश जीव अविनासी’ कह कर द्वैत और अद्वैत का भी समन्वय कर दिया. इतना ही नहीं, उनके राम शिव को पूजते हैं और शिव निरंतर राम को भजते हैं. इसका अर्थ यह है कि तुलसी ने रामचरितमानस द्वारा शैव और वैष्णव मतों का भी समन्वय किया. अगर यह कहा जाए कि रामचरितमानस संपूर्ण समाज को संगठित करने की समन्वय चेष्टा से ओतप्रोत है तो अतिशयोक्ति न होगी. आप तनिक सा ध्यान देकर यह देख सकते हैं कि रामचरितमानस में लोक और शास्त्र का समन्वय है, भक्ति, कर्म और योग का समन्वय है, नर और वानर का समन्वय है, नगर और अरण्य का समन्वय है, राजकुल और गुरुकुल का समन्वय है. राम वनगमन से लेकर लंकाविजय अभियान के पूर्ण होने तक केवट, निषादराज, ऋषि-मुनि, कोल-भील-किरात, गीधराज, रीछ-वानर और राक्षसों तक से भाईचारा स्थापित करते हैं. यह समनवय की विराट चेष्टा नहीं है तो और क्या है? जॉर्ज ग्रियर्सन ने इसी कारण तुलसी को बुद्ध के बाद सबसे बड़ा लोकनायक माना है. इस समन्वय साधना में रामचरितमानस भारतवर्ष के अथवा भारतीय संस्कृति के सर्वोत्तम, महान, सरल और भव्य अंश की उदात्त अभिव्यक्ति बन गया है. यह महाकाव्य मनुष्य के नित्य जीवन में घटने वाले ईर्ष्या, द्वेष, सुख-दुःख और लोभ-मोह के विकारों के भीतर से मनुष्यता के परम लक्ष्य की ओर ले जाने वाला काव्य है. आगे द्विवेदी जी ने यह भी कहा है कि “रामचरित मानस के राम शोभा और सौंदर्य के आगार हैं. शौर्य और पराक्रम के निधान हैं, प्रेम के वश्य हैं. वे आरति-हरण और सरण-सुखद हैं. नरभूपाल रूप में दिखाई देने पर भी वे साक्षात परब्रह्म हैं और समस्त देवताओं द्वारा सेवित हैं. इन विविध रूपों में तुलसी दास ने अद्भुत सामंजस्य और अविरोध दिखाया है.”
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि तुलसी ईश्वर भक्ति और समर्पण में परम आस्था रखते हुए भी मनुष्य और मनुष्यत्व की तनिक भी उपेक्षा नहीं करते. उनके राम परात्पर ब्रह्म हैं, इसके बावजूद वे कहीं भी ईश्वरीय चमत्कार का सहारा नहीं लेते. वे नर-चरित के लिए पृथ्वी पर आए हैं तो मनुष्य के रूप में ही सारा संघर्ष करते हैं. इस संबंध में डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि ‘’ईश्वर में पूरी आस्था और मनुष्य का पूरा सम्मान ये दोनों दृष्टियाँ तुलसी में एक दूसरे से जुडी हुई हैं. सियाराम मय सब जग जानी, करहूँ प्रणाम जोरि जुग पानी – जैसी पंक्तियाँ इस गहरे आत्मविश्वास पर ही लिखी जा सकती हैं जहां ईश्वर और मनुष्य दोनों की एक साथ प्रतिष्ठा हो. ‘सियाराम’ यदि उनकी भक्ति के लिए आश्रय स्थल हैं तो ‘सब जग’ उनके रचनाकर्म के लिए. इतना ही नहीं, तुलसी की पहुँच घर-घर में है या वे व्यापक समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं तो इसका मुख्य कारण यह है कि गृहस्थ जीवन और आत्मनिवेदन इन दोनों अनुभव क्षेत्रों के वे बड़े कवि हैं.’’ और इस बड़प्पन का आधार राम का वह चरित्र है जो मर्यादा पुरुषोत्तम है और हर तरह से विग्रहवान धर्म का प्रतीक है – आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र, आदर्श भाई, आदर्श पति और आदर्श राजा.
समन्वय चेष्टा और आदर्श स्थापना ही वे गुण हैं जिनके कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल तुलसीदास को लोकमंगल का प्रतिमान मानते हैं और डॉ. नामवर सिंह समाज का अग्रचेता. तुलसी के काव्य से समाज ने उच्च कोटि की लोकनीति और नई मर्यादा की शिक्षा प्राप्त की. नामवर सिंह के शब्दों में, “भारतीय तुलसी के लोक हितकारी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के लिए, साध्वी सती सीता के लिए, त्यागी तथा स्नेहमूर्ति अनुज लक्ष्मण तथा भरत के लिए और अनन्य भक्त हनुमान के लिए मानस को पढ़ते हैं और पढते रहेंगे. हम आज भी तुलसी को अपने में, अपने को तुलसी में पाते हैं, इसीलिए उन्हें और केवल उन्हें पढ़ते हैं.”
वास्तव में गोस्वामी तुलसीदास किसी परलोक या स्वर्ग को चाहने वाले कवि नहीं थे. वे नरक बन चुके इसी संसार में स्वर्ग को उतारना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने अध्यात्म-साधना के व्यक्तिधर्म के ऊपर समाज-साधना रूपी लोकधर्म को रखा. कहना न होगा कि तुलसी का यह लोकधर्म ईश्वर की तुलना में जनता के व्यावहारिक जीवन में व्यवस्था और मर्यादा स्थापित करने से संबंधित है. वे इस लोकधर्म के सहारे ही भारतीय समाज का नियमन करना चाहते हैं. उन्होंने देखा कि भारतीय समाज सामाजिक-सांप्रदायिक विषमता का शिकार हो रहा है, तो उसके सामने ऐसे सुशासन की संकल्पना रखी जिसमें समाज के सभी वर्ग एक समान प्रगति और समृद्धि के स्वामी हों तथा किसी प्रकार का रोग-शोक न हो, दरिद्रता न हो, दीनता न हो - रामराज बैठे त्रैलोका , हर्षित भये गए सब शोका. यहाँ हम पुनः डॉ.नामवर सिंह के इस कथन को दुहराना चाहेंगे कि “इसके लिए उन्होंने रामराज्य का आदर्श रखा है जिसमें भिन्न भिन्न वर्णों के बीच कर्म एवं मर्यादा की लकीरें स्पष्ट खिंची हैं. यों तो उन्होंने राज्य की सुव्यवस्था के लिए एक राजा को आवश्यक बतलाया किंतु लोकमत पर सदा ज़ोर दिया. उनके राम स्वेच्छाचारी नहीं अपितु जनता के साथ बैठे हुए हैं. xxx वे समष्टि की उन्नति में व्यष्टि के भावों को कुचलने के पक्ष में नहीं हैं, वे व्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल्य समझते हैं. गोस्वामी जी के ये विचार आज भी कितने नवीन से लगते हैं - न वे जॉन स्टुअर्ट मिल की तरह व्यक्तिवाद के एक छोर पर हैं न नीत्शे की तरह राज्य के एक छोर पर. यहाँ भी गोस्वामी जी समन्वयवादी हैं.’’
अंत में यह कहा जा सकता है कि समन्वय, मर्यादा और आदर्श को समर्पित तुलसी का काव्य रामराज्य के रूप में एक ऐसे समाज की अवधारणा को सामने रखता है जहां ज्ञानबल, बाहुबल, धनबल और सेवाबल का समुचित समन्वय है. इस व्यवस्था में विभाजन की तुलना में समन्वय केंद्रीय तत्व है –
बैर न कर काहू सन कोई / राम प्रताप विषमता खोई / सब नर करहिं परस्पर प्रीति / चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति.
(संपादकीय / रामायण संदर्शन / अगस्त 2014)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें