नवम विश्व हिंदी सम्मलेन
क्या हिंदी की तकनीकी जटिलता उसकी अलोकप्रियता का कारण है?
22 से 24 सितंबर को जोहानिसबर्ग [दक्षिण अफ्रीका] में हिंदीभाषियों के गौरव के प्रतीक के रूप में नौवां विश्व हिंदी सम्मलेन निर्धारित विधिविधान के साथ संपन्न हो गया. सम्मलेन पर लगातार नज़र रखने वालों का कहना है कि भले ही इस बहाने दक्षिण अफ्रीका की गांधी जी के आंदोलन की स्मृतियों से जुडी पावन धरती का दौरा कर आए तमाम राज्याश्रित बुद्धिजीवी और अधिकारीगण अनेक उपलब्धियां गिना रहे हों, भीतरी सच्चाई यह है कि 'गांधी की हिंदी' के लिए पिछले कई अन्य विश्वस्तरीय मेलों की तरह यहाँ भी कुछ खास हो नहीं सका.
ऐसे में सारे प्रयास को तमाशा कहने की अतिवादिता से बचते हुए चलें तो भी कई बातें ध्यान खींचती हैं. एक बात तो पहले से चली आ रही है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए क्या रणनीति तय की गई है, यह साफ़ नहीं है. क्या हर तीन साल में नियमित रूप से सम्मलेन करने से हिंदी को घर-बाहर वह स्थान मिल जाएगा जिसके लिए ये सारे के सारे कथित अंतरराष्ट्रीय प्रपंच रचे जाते हैं?
ऐसे में सारे प्रयास को तमाशा कहने की अतिवादिता से बचते हुए चलें तो भी कई बातें ध्यान खींचती हैं. एक बात तो पहले से चली आ रही है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए क्या रणनीति तय की गई है, यह साफ़ नहीं है. क्या हर तीन साल में नियमित रूप से सम्मलेन करने से हिंदी को घर-बाहर वह स्थान मिल जाएगा जिसके लिए ये सारे के सारे कथित अंतरराष्ट्रीय प्रपंच रचे जाते हैं?
दूसरी, और निश्चय ही अधिक महत्वपूर्ण, बात यह है कि हिंदी के पक्ष में तमाम तरह के संख्याबल और बाजार के दबाव के बावजूद कम्प्यूटर और इंटरनेट पर उसका प्रसार अपेक्षित गति से क्यों नहीं हो रहा है. यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि हिंदी, जैसा कि कहा जाता है, कम्प्यूटर-फ्रेंडली भाषा है और देवनागरी सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि, तो विद्वानों से लेकर दुकानों तक अभी तक हिंदी के व्यवहार को स्वीकृति क्यों नहीं मिल पा रही है? दरअसल विश्व हिंदी सम्मलेन का एक विचार सत्र ‘’सूचना प्रौद्योगिकी - देवनागरी लिपि और हिंदी का सामर्थ्य’’ इसी चिंता को संबोधित था. लेकिन अभी तक नहीं पता कि इस सत्र में हिंदी और देवनागरी के तकनीकी प्रसार को सरल और क्षिप्र बनाने के लिए क्या योजनाएं सामने आईं. फोनेटिक के बहाने कहीं हम हिंदी को देवनागरी से मुक्त करने और रोमन लिपि को स्वीकारने की ओर तो प्रौद्योगिकी के हिंदी-प्रयोक्ता को नहीं धकेल रहे हैं? अगर ऐसा है तो कहना होगा कि संकेत खतरनाक हैं.
हिंदी के लिए जिनके मन में तड़प है, उन्हें इस सम्मेलनोत्तर परिवेश में मथने वाले कुछ मुद्दे इंटरनेट पर अत्यंत सक्रिय कई मंचों पर अलग तरह से चर्चा का विषय बने. उदाहरण के लिए ‘हिंदी भारत’ और ‘हिंदी शिक्षक बंधु’ जैसे चर्चा-समूहों पर हरिराम ने एक प्रश्नावली जारी करके नवम विश्व हिंदी सम्मलेन के अंग बने विद्वानों से 10 ‘तथ्यपरक व चुनौतीपूर्ण प्रश्न’ किए. उन्होंने अत्यंत बलपूर्वक सबसे पहले तो यह कहा कि ‘’हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए कई वर्षों से आवाज़ उठती आ रही है. कहा जाता है कि इसमें कई सौ करोड का खर्चा आएगा. बिजली व पानी की तरह भाषा/ राष्ट्रभाषा/ राजभाषा भी इन्फ्रास्ट्रक्चर [आनुषंगिक सुविधा] होती है; अतः चाहे जितना भी खर्च हो, भारत सरकार को इसकी व्यवस्था के लिए प्राथमिकता देनी चाहिए.’’ सहज जिज्ञासा है कि सम्मलेन ने इस दिशा में क्या कार्य-योजना बनाई. केवल पुराने प्रस्ताव पर नई मुहर लगाना इसके लिए काफी नहीं माना जा सकता. हिंदी जगत को नियमित रूप से बताया जाना चाहिए कि इस दिशा में क्या-क्या किया जा रहा है और क्या किया जाना है.
प्रश्नावली में यह अत्यंत महत्वपूर्ण और ठोस सवाल उठाया गया है कि तकनीकी रूप से जटिल मानी गई हिंदी को कम्प्यूटर-सहज बनाने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं. भावुकता से बचते हुए इस तथ्य को स्वीकार करना ही होगा कि कम्प्यूटरीकरण के बाद से हिंदी का ‘’आम प्रयोग’’ काफी कम होता जा रहा है. डाकघरों से लेकर रेलवे बुकिंग के चार्ट तक यह प्रमाणित करते हैं कि या तो अंग्रेज़ी लिखी जा रही है या गलत-सलत लिप्यन्तरण हो रहा है. छोटे से छोटे दूकानदार भी अब अंग्रेज़ी में लिखी कम्प्यूटर-पर्ची दे रहे हैं जबकि पहले वे हिंदी/ देवनागरी हाथ से लिखते थे. अतः यह पूछना सही है कि डाकघर जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों में मूलतः हिंदी में कम्प्यूटर में डेटा-प्रविष्टि के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं और रेलवे आरक्षण आदि के अवसर पर मूलतः हिंदी में डेटा-प्रविष्टि और प्रोग्रामन के लिए क्या व्यवस्था की जा रही है. इसके अलावा मोबाइल में हिंदी का विकल्प होना भर काफी नहीं; बल्कि हिंदी-संदेशों को सस्ता बनाने के उपाय किए जाने अपेक्षित हैं क्योंकि फिलहाल हिंदी का संदेश अंग्रेज़ी से तिगुना महँगा पड़ता है.
हिदी के नए प्रयोक्ता आकर्षित करने के लिए उसके प्रयोग को आसान बनाना बेहद ज़रूरी है. प्रयोक्ता को परेशान करने वाली एक समस्या यह भी है कि हिंदी शब्दकोष के लिए विभिन्न डेटाबेस देवनागरी के अलग-अलग सॉर्टिंग-ऑर्डर का प्रयोग कर रहे हैं. सवाल है कि हिंदी/देवनागरी को अकारादि क्रम से यूनीकोड में मानकीकृत करने तथा सभी के उपयोग के लिए उपलब्ध कराने हेतु क्या कदम उठाए जा रहे हैं. यहीं यह भी कि ऑनलाइन फ़ार्म आदि हिंदी में प्रस्तुत करने के लिए डेटाबेस उपलब्ध कराने की दिशा में क्या किया जा रहा है. साथ ही, ‘’अभी तक हिंदी की मानक वर्तनी के अनुसार यूनीकोड आधारित कोई वर्तनी संशोधक प्रोग्राम आम जनता के उपयोग के लिए निःशुल्क उपलब्ध नहीं है.’’ यह भी चौकाने वाला तथ्य है कि इनबिल्ट हिंदी-समर्थन के बावजूद कम्प्यूटर के अधिकांश उपयोक्ता इससे अनभिज्ञ हैं. इसलिए ज़रूरी है कि आम जनता को इस संबंध में अवगत कराया जाए और स्कूल स्तर से ही कम्प्यूटर पर हिंदी के अनुप्रयोग को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए. पूछा जा सकता है कि नवम विश्व हिंदी सम्मलेन ने इन चिंताओं को दूर करने के लिए क्या-क्या फैसले लिए हैं.
बेशक इन सारे सवालों के जवाब में ठीकरा किसी के भी सिर पर फोड़ा जा सकता है. मसलन कहा जा सकता है कि हम हिंदी वालों की अपनी भाषा के प्रति श्रद्धा बेहद छूँछी है; या यह कि हमारे राजनैतिक नेतृत्व के पास संकल्पशक्ति और ईमानदारी का अभाव है; या कि हमारे बुद्धिजीवी दोगले आचरण के शिकार हैं; मगर विचारणीय समस्या यह है कि कहीं हिंदी की लोकप्रियता और वैश्विक स्वीकार्यता के मार्ग में उसकी तकनीकी जटिलता ही तो रोडे नहीं अटका रही है.
नवम विश्व हिंदी सम्मलेन के आयोजन से लेकर इसके फलितार्थ तक पर चल रही बहस का समाहार करते हुए डॉ. कविता वाचक्नवी ने विभिन्न इंटरनेट-मंचों के अलावा अपने ब्लॉग ‘’वागर्थ’’ पर पर्याप्त संतुलित और निष्पक्ष विचार व्यक्त किए. वे कहती है कि ‘’विश्वहिंदी सम्मेलन पर युद्ध करने और ताल ठोंकने वालों के लिए आवश्यक है कि वे इसका अर्थ समझें कि इसका अर्थ हिंदी का एक बड़ा अंतर-राष्ट्रीय सम्मेलन नहीं है, अपितु विश्वहिंदी अर्थात् हिंदी के वैश्विक स्वरूप और स्थिति से संबन्धित एक सम्मेलन है। जिस दिन यह बात लोग आत्मसात कर लेंगे उस दिन सम्मेलन पर और हिंदी पर बड़ा उपकार करेंगे, वरना इस सम्मेलन के लिए मचने वाली बंदरबाँट यों ही चलती रहेगी और जिन्हें प्रसाद नहीं मिलेगा वे वंचित रहने की पीड़ा के चलते हाय-तौबा मचाते रहेंगे। इन सब के बीच जो वास्तविक लोग हैं, उनकी यथावत् न पूछ होगी, न आवाज बचेगी और जाने किस दिन कौन सच्चा सिपाही थक-हार कर कूच कर जाएगा....पर तमाशा यों ही चलता रहेगा। यों राजनीति और हायधर्म, दौड़धर्म और जुगाड़धर्म आदि सारे धर्मों का अस्तित्व विदेशों में बसे हिंदीभाषी हिंदी वालों में भी भारत की बराबरी का ही है। इसलिए मैं हिंदी को लेकर कोई बड़ा स्वप्न फिलहाल नहीं देखती। संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने के बाद हमारे इन सब धर्मों को नाम का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ही मिलना बचा है, वस्तुतः ये वैश्विक तो पहले से हैं ही।‘’
कुछ स्वनामधन्य हिंदी प्रेमियों ने तो विश्व हिंदी सम्मेलनों को बंद किए जाने तक की माँग कर डाली है. उन्हें लक्ष्य करके कविता वाचकनवी का यह कहना दूरदर्शितापूर्ण लगता है कि सम्मेलन को बंद किया जाना भी कोई समझदारीपूर्ण समाधान नहीं है। तब तो हिंदी के लिए सरकार के नाममात्र के दायित्व की भी इतिश्री हो जाएगी। वस्तुतः चीजों को पारदर्शी बनाना, गुणवत्ता को तय करना, ठोस कार्यरूप देना आदि के लिए कड़ाई से कुछ करना होगा। अर्थात् सम्मेलन का विरोध नहीं, सम्मेलन की विधि और दोष का विरोध हो।
एक दूसरे को गरियाने की अपेक्षा हिंदी/देवनागरी को तकनीकी दृष्टि से सहज और सुगम बनाने के प्रयासों की बड़ी आवश्यकता है वरना-
आज यदि सो जाएँगे हम तान कर चादर;रोज़ ओढ़े जाएँगे फिर मान कर चादर.
- भास्वर भारत [प्रवेशांक]- अक्टूबर 2012- पृष्ठ 8-9.