२३/२४ दिसंबर, २०११
कलंब, महाराष्ट्र;
शिक्षण महर्षि ज्ञानदेव मोहेकर महाविद्यालय.
द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी : उद्घाटन सत्र समापन सत्र में
शुभाशंसा भाषण : ऋषभ देव शर्मा
हिंदी और मराठी पत्रकारिता के बदलते स्वरूप
- १८३२: मराठी का पहला अखबार : दर्पण: मुंबई से: संपादक बालशास्त्री जांभेकर : उद्देश्य वाक्य – ‘’लोक-स्थिति, धर्म-रीति में उपयोगी परिवर्तन घटित करना.’’
- ‘ज्ञानप्रकाश’ [अखबार] :१८ अप्रैल १८७८ ; ‘’भारत का शासन सुन्दर परन्तु छिनाल स्त्री की भांति है.उसका सौंदर्य आकर्षक एवं मोहक है.लेकिन वह अत्यंत धूर्त, धोखा देने वाली और बेरहम है. एक बार वह प्रेम से देखेगी तो दूसरे ही क्षण किसी कों घायल करेगी.’’
- कष्ट विलासिनी [पत्र] पुणे : ‘’अंग्रेजी राज्यकर्ता लुच्चे हैं.......लेकिन सब एकजुट हो जायं तो इन उचक्कों कों हकालना कुछ कठिन नहीं है.’’ [१८८०]
- लोकमान्य तिलक –१८८० से १९२० तक केसरी और मराठा – स्वतंत्रता चाहने वाली जनता की विजय गाथा. ‘’मेरे क्लेश से मेरे कार्य का उत्कर्ष होगा, संभवतः यही ईश्वर का संकेत है.’’
- स्वातंत्र्योत्तर काल में दो बड़े परिवर्तन-
- १.पत्रकारिता/समाज की सर्वांगीण उन्नति के उद्देश्य के स्थान पर/ व्यापार या व्यवसाय/ मिशन बनाम प्रोफेशन . २.संपादक की जनजीवन से प्रतिबद्धता महत्वहीन हो गई/ लाभ अर्जित करना/ संपादक का कद घटा, जनता कों प्रभावित करने की शक्ति भी घटी.
- [स्रोत- भारतीय भाषा पत्रकारिता:एक अवलोकन में डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर का निबंध]
आज की पत्रकारिता के बदलते स्वरूप के कुछ पहलू
[लिपि भारद्वाज से चर्चा के आधार पर]
१. इतने सारे न्यूज़ चैनल / २४ घंटे न्यूज़ फॉर्मेट/ इसलिए न्यूज़ के साथ नॉन-न्यूज़ भी/ बाबागण.
२. सब कुछ को सनसनीखेज कर दिया गया है/ पैकेजिंग ऐसी कि सबकी पुतलियाँ बड़ी हों / मर्डर स्टोरी में बैकग्राउंड म्यूजिक डाल देंगे/ रेप का नाट्य रूपांतर.
३. विश्वसनीयता और प्रामाणिकता दांव पर/ गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा/ पीपली लाइव/ चार न्यूज़ चैनल – चार भिन्न विवरण/ हमारे सूत्र के अनुसार ४० – १००- २० मरे.
४. कारण/ पाठक-दर्शक को यही चाहिए/ यही बिकता है./ डीडी न्यूज़ प्लेन और बोरिंग./ बरखा दत्त चिल्लाएगी – वी द पीपुल...इण्डिया क्वेश्चंस....सनसनी पैदा होती है.....भले ही वाहन इण्डिया के नाम पर १५ लोग हों.
५. दो प्रकार के न्यूज़ फोर्मेट/ एक – ब्लाक. दो- इंटीग्रेटेड/ ब्लाक फोर्मेट – बीबीसी,डीडी- औपचारिक सेटिंग्स, औपचारिक भाषा , औपचारिक भूषा./ इंटीग्रेटेड फोर्मेट – अपेक्षाकृत इन्फोर्मल- प्रस्तुतीकरण की शैली, वेशभूषा, सेटिंग्स. मुख्य अंतर कि ब्लोक फोर्मेट का स्वरूप स्थिर होता है – अलग अलग खण्डों के लिए संतुलित अवधि निर्धारित होती है/ इंटीग्रेटेड फॉर्मेट लचीला – मैच जीता तो वही प्रथम समाचार...साथ ही आक्रामक भाषा.
६. प्रोक्सिमिटी - स्थानीयता महत्वपूर्ण/ अंतरराष्ट्रीय समाचार तभी लीड जब उसमें कुछ इण्डिया-कनेक्शन हो./ क्षेत्रीय और लोक भाषाओँ और लोक संस्कृति को केंद्रीय स्थान/ कल तक हाशिए पर थे.
७. मुखपृष्ठ सम्पूर्णतः विज्ञापन कों समर्पित.....आगे देखिये!.
८. पेड न्यूज़/ भारतीय पत्रकारिता जगत में नया संकट...न्यू क्राइसिस इन इण्डिया/ जर्नलिस्म फॉर सेल/ चार तरह के पॅकेज – १. अतिशयतापूर्ण न्यूज़ स्टोरी; २. अतिशयतापूर्ण न्यूज़ स्टोरी प्लस एड; ३. प्लस प्रोफाइल; ४. प्लस निगेटिव कैंपेन./ मनी फॉर स्पेस/ अनैतिक/ लिफ़ाफ़े देना पुरानी बात हो गई./ इलेक्शन प्रीमियम का प्रकाशन/ महाराष्ट्र के चुनावों में वोटिंग से तीन दिन पहले अशोक चह्वाण का स्तुतिगान समाचार के रूप में/ लोकमत – पुढारी pudhari- महाराष्ट्र टाइम्स / प्रतिष्ठित परस्पर प्रतिद्वंद्वी मराठी दैनिक / करोड़ों का विज्ञापन – हमारे संवाददाता की बाईलाइन के साथ/ घोषित खर्च रु. ११,३७९/- मात्र/ अशोक पर्व...विकास पर्व.
९. संपादक नामक संस्था कमज़ोर / एम जे अकबर को उनके अपने अखबार से निकाल बाहर किया गया.
१०. भाषा पक्ष... सरलीकरण की प्रवृत्ति...भाषा मिश्रण-खतरनाक स्तर तक......सरकार की सब्जी में ज़हर नहीं...अलर्ट हो जाओ टीम इण्डिया....डी यू स्टूडेंट का दिन दहाड़े मर्डर....विवेक विहार में रिटायर्ड टीचर की हत्या...टेरर लिंक की जांच हो.../साथ ही प्रगतिशील भाषा की छवि और नई नई प्रोक्तियों-प्रयुक्तियों का विकास/ उत्तर संस्कृति...फास्ट लाइफ ....संक्षेपण प्रवृत्ति.../ तल्ख़, धारदार, तिलमिला देने वाली भाषा.....पुलिस का तांडव, धोनी सेना ने धूल चटाई, दो शून्य से रौंदा,...आतंकवादी हमले में दहला पाक...फिर बरसीं लाठियां...मोदी कों फंसाने के लिए साज़िश रच रहा है केन्द्र.../ नजाकत नफासत के ज़माने लद गए./ देहभाषा और अनुतान का प्रयोग. ‘’जनपद सुख बोध्य’’ भाषारूप की तलाश की छटपटाहट.
११. पत्रकारिता/मीडिया के मूल्य क्षरण को समाज में अन्यत्र-सर्वत्र व्याप्त मूल्य क्षरण की ही अभिव्यक्ति अथवा उत्तरजीविता[सर्वाइवल] की अपरिहार्य मजबूरी कहकर उचित सिद्ध करने के प्रयास हमारी दृष्टि में अनुचित/ व्यावसायिकता का निदर्शन भर नहीं मीडिया, बल्कि बाजारवाद मीडिया के पंखों पर चढ़कर आया है और अब मीडिया उपभोक्तावाद का प्रसारक बना हुआ है. व्यावसायिकता के बावजूद सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व बोध अपेक्षित.
१२. तेवरी अंश -
माना कि भारत वर्ष यह संयम की खान है
झंडे के बीच चक्र का लेकिन निशान है.
कुछ लोग जेब में उसे धर घूम रहे हैं
सबसे विशाल विश्व में जो संविधान है.
गूँगा तमाशबीन बना क्यों खड़ा है तू
तेरी कलम कलम नहीं, युग की ज़ुबान है.