आज 8 अगस्त 2011 को प्रो. दिलीप सिंह जी साठ वर्ष के हो रहे हैं. मन में एक दशक पहले से यह साध है कि प्रोफ़ेसर सिंह की षष्ठिपूर्ति मनाई जाए और अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान पर एक ऐसी किताब उन्हें भेंट की जाए जो इस क्षेत्र में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनुरूप हो. दरअसल यह साध उस दिन जगी थी जिस दिन प्रो सिंह के दो प्रिय शोधार्थियों कविता वाचक्नवी और गोपाल शर्मा ने उनकी स्वर्ण जयंती मनाई थी. पर उसके बाद कालचक्र ऐसा घूमा कि हैदराबाद से दिलीप सिंह धारवाड़ चले गए - व फिर चेन्नई. कविता जी ब्रिटेन की हो गईं और शर्मा जी हिंदी की पीएचडी के बल पर लीबिया में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर हो गए. इन दोनों के बिना मेरे संकल्प को लुंज-पुंज होना ही था ; वही हुआ. लेकिन कुछ महीने पहले जाने कैसी आंतरिक प्रेरणा हुई और मैंने उस संकल्पित किताब के लिए ऊर्ध्वबाहु होकर आवाज़ लगाई. और देखिए चमत्कार कि इतनी सामग्री आ गई है कि सहेज नहीं पा रहा हूँ!
सर! आज तो नहीं लेकिन शीघ्र ही आपके देश-विदेश के मित्रों, परिचितों, प्रशंसकों, शुभचिंतकों, शिष्यों और साथियों की ओर से ...............[अभी इस वाक्य को अधूरा ही छोड़ना उचित है.]
प्रो. दिलीप सिंह के साठवें जन्मदिन पर उनके दीर्घायुष्य और नित्य उत्कर्ष की शुभकामना प्रेषित करते हुए प्रस्तुत कर रहा हूँ उनके सद्यःप्रकाशित दो ग्रंथों पर यह संक्षिप्त सी चर्चा.
अन्य भाषा शिक्षण और अनुवाद के वैश्विक परिप्रेक्ष्य पर प्रो.दिलीप सिंह की दो नई कृतियाँ
हिंदी में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान पर प्रामाणिक लेखन करने वाले विरले ही हैं. उनमें प्रो. दिलीप सिंह का नाम अत्यंत सम्मान के साथ गिना जाता है क्योंकि उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य भाषावैज्ञानिकों के विचारों का गहन अध्ययन करके उन्हें हिंदी के संदर्भ में विश्लेषित,व्याख्यायित और घटित किया है. व्यावसायिक हिंदी से लेकर पाठ विश्लेषण तक के व्यावहारिक प्रारूप प्रस्तुत करने वाली कई पुस्तकों के बाद गत दिनों उनकी दो नई पुस्तकें आई हैं जिनमें क्रमशः अन्य भाषा शिक्षण और अनुवाद चिंतन के आधुनिकतम संदर्भों के वैश्विक परिप्रेक्ष्य को रेखांकित किया गया है. परिपाटीगत अध्ययनों की तुलना में इन कृतियों की केंद्रीय चिंता भाषिक-सामाजिक संस्कृति और संप्रेषणीयता की रक्षा की है.
‘अन्य भाषा शिक्षण के बृहत् संदर्भ’ : संप्रेषण पर ज़ोर
प्रो.दिलीप सिंह [1951] तीस वर्ष से अधिक अवधि से हिंदी भाषा और साहित्य के शिक्षण और अध्यापन से जुड़े हुए हैं। इस लगभग सारी अवधि में उन्हें हिंदीतरभाषी छात्रों को पढ़ाने का अवसर मिला है – देशी भी विदेशी भी। अर्थात् वे हिंदी को द्वितीय और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाने का व्यापक अनुभव रखते हैं। अन्य भाषा शिक्षण के लिए पाठ्यक्रम बनाने से लेकर पाठ सामग्री तैयार करने, पाठ्यपुस्तकें लिखने-लिखवाने और हिंदीतरभाषी भारतीय तथा विदेशी छात्रों के बीच उन्हें पढ़ाने के उनके अनुभव का निचोड़ है - ‘अन्य भाषा शिक्षण के बृहत् संदर्भ’ (2010) शीर्षक पुस्तक। यह संयोग नहीं है कि उन्होंने यह पुस्तक अपने पिताजी को समर्पित करते हुए यह समर्पण वाक्य लिखा है - ‘‘पापा को - जो माँ भी थे और पिता भी, शिक्षक भी थे और मित्र भी, आदर्श भी थे और संस्कार भी।’’ वास्तव में भाषा शिक्षक से ये ही सारी अपेक्षाएँ की भी जाती हैं। इससे पहले ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ में भी प्रो. दिलीप सिंह इस तथ्य को प्रतिपादित कर चुके हैं कि भाषा सिखाने का अर्थ व्याकरणसम्मत वाक्यरचना भर सिखाना नहीं है बल्कि उस भाषा समाज के साहित्य और संस्कृति के मर्म से अध्येता को परिचित कराना है। अन्य भाषा शिक्षण का यह सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टिकोण इस पुस्तक ‘अन्य भाषा शिक्षण के बृहत् संदर्भ’ में भी पूरी तरह सक्रिय दिखाई देता है; साथ ही शैलीवैज्ञानिक आयाम भी।
जो खास बात प्रो. दिलीप सिंह के अन्य भाषा शिक्षण संबंधी लेखन में सबसे पहले ध्यान खींचती है वह है उनका सैद्धांतिकी की अपेक्षा व्यावहारिकता पर अधिक जोर देना। यह बात दीगर है कि इस विवेचन के माध्यम से सिद्धांत अपने आप हृदयंगम होने लगते हैं। ‘‘अन्य भाषा शिक्षण (द्वितीय और विदेशी) के इसी परिवर्तनशील स्वरूप को इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। बातें यहाँ सैद्धांतिक कम, व्यावहारिक अधिक हैं। अन्य भाषा शिक्षण में इलेक्ट्रानिक मीडिया और कंप्यूटर की भूमिका पर चर्चा के साथ साथ संप्रेषणपरक द्वितीय भाषा शिक्षण पर यहाँ सम्यक विचार किया गया है। साहित्य भाषा शिक्षण के लिए इकबाल के ‘तराना-ए-हिंदी’ का विश्लेषण उस नई प्रविधि का एक नमूना है जिसे भाषा शिक्षण के लिए अपनाने पर आज विशेष बल दिया जा रहा है। साहित्यिक पाठ के माध्यम से भाषा दक्षता को बढ़ावा देनेवाला यह ढाँचा अन्य भाषा शिक्षण के प्रमुख सिद्धांतों को भी सामने ले आता है।’’ (अन्य भाषा शिक्षण के बृहत् संदर्भ, पृष्ठ 7-8)। भाषा शिक्षण की आधुनिक भूमिका पर प्रकाश डालते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने संप्रेषणपरक भाषा शिक्षण पर सर्वाधिक बल दिया है और यह दर्शाया है कि भाषा सीखने का अर्थ भाषा प्रयोग के नियमों को सीखना है, न कि भाषा के व्याकरणिक नियमों को।
अन्य भाषा शिक्षण पर विचार करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने जोर देकर इस धारणा का खंडन किया है कि मातृभाषाएँ आधुनिक या अंतरराष्ट्रीय संप्रेषण व्यापार के लिए अपर्याप्त एवं सीमित हो जाती हैं। अपर्याप्तता की इस अवधारणा को उन्होंने एक समाज-राजनैतिक मिथक माना है जिसे केवल इसलिए गढ़ा गया है कि एकजुट और जागरूक सामान्य जन को ज्ञान-विज्ञान और सत्ता से वंचित रखा जा सके। प्रो. सिंह मानते हैं कि कोई भी भाषा अपने में असक्षम, असमर्थ या अपघटित नहीं होती। वे याद दिलाते हैं कि जिस शिक्षार्थी को अपनी ही भाषा के प्रति शर्मिंदगी महसूस करने को बाध्य किया जाता है या जिसे अपनी भाषा आदत के प्रति शर्मसार बनाया जाता है वह कभी एक पूर्ण मानव के रूप में विकसित नहीं हो सकता। ‘‘किसी को भी विशेषकर एक बच्चे को अपनी ही भाषा के प्रति हीन भावना से भरना उतना ही अक्षम्य अपराध माना जाना चाहिए जितना कि किसी को उसकी त्वचा के रंग के कारण हीन घोषित करना। अतः द्वितीय भाषा शिक्षण और भाषा प्रकार्यों के संदर्भ में किसी भाषा की अक्षमता अथवा हीनता की चर्चा आज निरर्थक ही मानी जानी चाहिए। कहना यह है कि हर भाषा किसी भी भाव संदर्भ को व्यक्त कर पाने में पूरी तरह सक्षम होती है।’’ (वही; पृ. 78)। काश हमारे नीति निर्धारकों की समझ में इतनी सी मूलभूत सच्चाई आ जाती! प्रो. दिलीप सिंह ने अन्य भाषा सीखने की प्रक्रिया को मातृभाषा की तुलना में विशिष्ट माना है क्योंकि यह दो प्रकार के संबंधों के नेटवर्क को सीखने की प्रक्रिया है - ‘‘भाषिक और समाज-सांस्कृतिक। इसीलिए उन्होंने इस शिक्षण के लिए संप्रेषणपरक व्याकरण के विकास पर बल दिया है और विदेशी भाषा के रूप में हिंदी सिखाने के लिए पारंपरिक पाठ्यपुस्तकों से अधिक महत्वपूर्ण मीडिया की सामग्री को माना है। अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने सिनेमा, वीडियो, रेडियो और टी वी के भाषा शिक्षण में उपयोग के लिए व्यावहारिक सुझाव दिए हैं जिनको अमल में लाकर संप्रेषणपरक क्षमता अर्जित की जा सकती है। इतना ही नहीं उन्होंने कंप्यूटरसाधित भाषा शिक्षण के भी प्रारूप प्रस्तुत किए हैं जिनकी सहायता से विद्यार्थी की संप्रेषणपरक लेखन क्षमता भी बढ़ाई जा सकती है।
दरअसल प्रो. दिलीप सिंह का ध्यान शिक्षाशास्त्री के रूप में भी लगातार सामाजिक संदर्भ पर केंद्रित रहता है। यही कारण है कि उन्होंने अन्य भाषा शिक्षण के समाजभाषिक पक्षों को इस पुस्तक में विस्तार से विवेचित किया है तथा सामाजिक मूल्य, भाषा विकल्पन, कोड प्रयोग और शब्द संदर्भ जैसी समाजभाषिक संकल्पनाओं के अन्य भाषा शिक्षण हेतु कारगर उपयोग के रास्ते सुझाए हैं। इसमें संदेह नहीं कि भाषा अध्येता को भाषा के संपर्कसापेक्ष प्रकार्यों से पूरी तरह संपन्न करने के लिए उनके ये सुझाव अत्यंत उपयोगी हैं और इन्हें हिंदी भाषा शिक्षण के सभी पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किए जाने की जरूरत है।
‘अनुवाद की व्यापक संकल्पना’ : समाजभाषावैज्ञानिक संदर्भ
प्रो. दिलीप सिंह मूलतः समाजभाषावैज्ञानिक और शैलीवैज्ञानिक हैं। उनके अनुवाद चिंतन में भी उनका यह रूप झलकता है।‘अनुवाद की व्यापक संकल्पना’ (2011) में उन्होंने जहाँ एक ओर अनुवादक की भूमिका को पाठभाषाविज्ञान और संकेतविज्ञान से जोड़ा है वहीं दूसरी ओर अनुवाद के सामाजिक दायित्वों और सामाजिक उद्देश्यों को समाजभाषाविज्ञान तथा सामाजिक अर्थविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में पुनर्विवेचित किया है। वे अनुवाद के संदर्भ में कला और विज्ञान की प्रचलित बहस को निरर्थक मानते हैं और यह घोषित करते हें कि अनुवाद प्रक्रिया हमेशा वैज्ञानिक होती है, चाहे उसका लक्षित पाठ साहित्यिक हो या साहित्येतर। (अनुवाद की व्यापक संकल्पना, पृ.12)। भारतीय साहित्य के एक होने की धारणा को पुष्ट करने और तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के लिए प्रो. दिलीप सिंह ने अनुवाद की भूमिका को निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हुए साहित्येतर अनुवाद की उपादेयता को भी उभारा है। उनकी राय में इस उपादेयता के कारण ही अनुवाद को आज एक सामाजिक कार्य मानना आवश्यक है और उसे उपभोक्ता सापेक्ष स्वीकार करते हुए पाठ की प्रकृति पर प्रकार्यात्मक दृष्टि से विचार करना वांछित है। (वही, पृ. 16)।
अनुवाद के इस सामाजिक संदर्भ को परिपुष्ट करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने समतुल्यता के सिद्धांत को व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया है और प्रेमचंद की कहानी ‘बाबाजी का भोग’ के दो अनुवादों के सहारे यह प्रतिपादित किया है कि ‘‘अगर अनुवाद का लक्ष्य मूलपाठ में निहित संस्कृति, स्थानीय परिवेश, सामाजिक तत्व आदि का संप्रेषण है तब समतुल्यता का सिद्धांत एक ढंग से सिद्ध होगा और अगर उसका लक्ष्य किसी साहित्यिक कृति को मात्र साहित्यिक रूप में लक्ष्यभाषा के पाठकों तक पहुँचाना है तब समतुल्यता का सिद्धांत दूसरे ढंग से प्रतिफलित होगा। एक में मूलपाठ के संस्कृतिनिष्ठ एवं सामाजिक अर्थ की द्योतक भाषिक अभिव्यक्तियों के यथातथ्य संप्रेषण के लिए समतुल्य भाषिक उपकरणों का चयन होगा और दूसरे में लक्ष्य भाषा की अपनी सांस्कृतिक चेतना के रूपांतरण के रूप में समतुल्यता के सिद्धांत का निर्वाह होगा। एक पाठधर्मी अनुवाद का परिणाम माना जाएगा और दूसरा प्रभावधर्मी अनुवाद का उदाहरण समझा जाएगा। (वही; पृ.41)।
इसी प्रकार अनुवाद समस्या की व्यापक समीक्षा करते हुए प्रो. सिंह ने सवाल उठाया है कि क्या अनुवाद का कार्य मात्र तात्पर्य को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य भाषा में परिवर्तित कर देना ही है, अथवा क्या भाषा की प्रकृति ऐसी स्थिर होती है कि एक भाषा की इकाई को दूसरी भाषा की इकाई द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सके। दरअसल इस तरह के सवाल खुद अनुवादक को बहुत विचलित करते हैं क्योंकि जब वह तात्पर्य को सुरक्षित करने चलता है तो स्रोत भाषा और उसका सौंदर्य उसे छूटता सा लगता है और जब वह भाषा की इकाइयों पर ध्यान देता है तो कभी समान इकाई नहीं मिलती या कभी एक से अधिक इकाइयाँ मिल जाती हैं या फिर कभी यह अनुवाद मक्षिका-स्थाने-मक्षिका होने के कारण निर्जीव लगने लगता है। इसलिए डॉ. सिंह ने अनुवाद की समस्याओं को समतुल्यता की खोज की समस्याएँ माना है और भाषिक तथा भाषेतर संदर्भों पर इस दृष्टि से विस्तृत विमर्श किया है। वे मानते हैं कि संदेश की संप्रेषणीयता व प्रकार्यात्मक स्तरों पर जो कठिनाइयाँ आती हैं वे ही अनुवाद की समस्याएँ हैं और उन्होंने ही अनुवाद को चुनौतीपूर्ण कौशल बनाया है।
अनुवाद समीक्षा और अनुवाद मूल्यांकन अनूदित पाठों की विश्वसनीयता के लिए बेहद जरूरी हैं लेकिन अभी तक इनकी कोई सर्वमान्य प्रविधि हमारे पास नहीं है। इस संदर्भ में प्रो. दिलीप सिंह सैद्धांतिकी के जंजाल में फँसने-फँसाने के स्थान पर इन्हें अनुवाद करने की प्रणाली से जोड़ते हुए व्यावहारिक प्रारूपों द्वारा स्पष्ट करते हैं। इसके लिए उन्होंने जहाँ एक ओर ‘गोदान’ के हिंदी-अंग्रेजी पाठों की व्यापक तुलना की है वहीं ‘लाइट ऑफ एशिया’ के आचार्य रामचंद्र शुक्ल कृत काव्यानुवाद ‘बुद्धचरित’ की गहरी पड़ताल की है। अनुवाद मूल्यांकन/समीक्षा की दृष्टि से शुक्ल जी की समीक्षा शैली का अनुवाद के संदर्भ में विवेचन भी अनूदित पाठों के अध्ययन के लिए नया दरीचा खोलता प्रतीत होता है। यहाँ प्रो. दिलीप सिंह की यह स्थापना भी ध्यान खींचती है कि ‘‘शुक्ल जी ने जो अनुवाद किए हैं या जिन मूल अंग्रेजी ग्रंथों को अपने चिंतन में सहायक बनाया है उनमें उनकी दृष्टि अनुवाद-उन्मुखता से अधिक मूल के भाव, मंतव्य पर रही है। तभी वे उन मंतव्यों के विरोध में भी जा पाते हैं या उसमें अपना भी कुछ जोड़ पाते हैं। हिंदी समीक्षा और समीक्षा भाषा के विकास में शुक्ल जी जैसे अनुवादक की भूमिका मौलिक लेखक से कहीं ज्यादा कठिन, श्रमसाध्य और उपयोगी सिद्ध होती है क्योंकि उनमें मौलिक लेखक जैसी (या उससे अधिक भी) पैनी संवेदनशीलता है।’’ (वही; पृ. 71)।
इसमें संदेह नहीं कि संचार क्रांति को संभव बनाने में अनुवाद का बड़ा हाथ है - बल्कि सबसे बड़ा हाथ है। आज मीडिया के सभी रूपों - मुद्रित पत्र-पत्रिका, रेडियो, टीवी, फिल्म, इंटरनेट, मोबाइल - का जो भूमंडलीकृत स्वरूप उभर कर आया है उसने अनुवाद को भाषाई, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य के साथ-साथ अनेक संभावनाओं से युक्त व्यावसायिक कर्म बना दिया है। प्रो. दिलीप सिंह ने साहित्यिक और साहित्येतर पाठों के हवाले से अनुवाद की इस निरंतर फैलती जा रही दुनिया की समुचित मीमांसा करते हुए एक समाजभाषावैज्ञानिक की तरह इसे हिंदी के वैश्विक प्रसार के संदर्भ में व्याख्यायित किया है। वे मानते हैं कि ‘‘अनुवाद के इन व्यापक होते आयामों को भारतीय भाषाओं के संदर्भ में काफी गहराई से देखने की आवश्यकता है। अनूदित पाठ की संप्रेषणीयता, शुद्धता और बोधगम्यता का आकलन अनुवादकों को गंभीर बना सकता है। केवल दो भाषाओं की जानकारी ही अनुवादक की अर्हता नहीं है। अनुवाद का कार्य मुख्यतः प्रभाववादी है। मूल का भाव ग्रहण करके उसके प्रभाव को अन्य भाषा पाठ में प्रतिस्थापित करना ही उसका लक्ष्य है जिसे हम अनूदित पाठ की गुणवत्ता कह सकते हैं।’’(वही; पृ.149)। कहना होगा कि इस कृति के माध्यम से प्रो. दिलीप सिंह ने हिंदी अनुवाद चिंतन की दुनिया को सचमुच संपन्नतर बनाया है।
* अन्य भाषा-शिक्षण के बृहत् संदर्भ / प्रो. दिलीप सिंह / वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली – 110002/ 2010 / मूल्य 250 रुपए/ पृष्ठ 156.
** अनुवाद की व्यापक संकल्पना / प्रो. दिलीप सिंह / वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली – 110002/ 2011 / मूल्य 325 रुपए / पृष्ठ 156.
5 टिप्पणियां:
प्रो. दिलीप सिंह को सब से पहले जन्मदिन की बधाई। ईश्वर उन्हें लम्बी आयु दें ताकि वह हिंदी की सेवा निरंतर करते रहें। उन्हें कई बार सुनने का अवसर मुझे मिला और जब भी सुना, एक नई अनुभूति हुई। उनके कहने का ढंग एक भाषा वैज्ञानिक के पांडित्य का नहीं बल्कि श्रोताओं को ध्यान में रखकर होता है॥ वे देशज शब्दों का प्रयोग भी खूब करते है। भाषा विज्ञान को शुष्क विषय माना जाता है परंतु उसे रोचक बनाना प्रो. दिलीप सिंह जी के बस की ही बात है। इसका प्रमाण आपकी इन समीक्षाओं में मिलता है जिन पर आपने लिखा है। उन्हें पुनः पुनः जन्मदिवस की बधाई॥
भारत जैसे बहुभाषी देश में इन विषयों का महत्व गुरुतर है। स्तुत्य कार्य और जन्मदिन की बधाईयाँ।
प्रो. दिलीप सिंह जी के लिए उनके जन्मदिवस पर शत शत शुभकामनाएँ, अभिनंदन और बधाइयाँ। वे अपने आप में इकलौते हैं अपनी तरह के। मेरे लिए तो उनका स्नेहाशीष अविस्मरणीय है।
डॉ.दिलीप सिंह की विकास-यात्रा केंद्रीय हिंदी संस्थान से शुरु होकर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार तक अपने बहुआयामीय व्यक्तित्वकेसाथ गतिमान है।इसबीच उनकी विभिन्न विषयों पर विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ रचनाएँ
उन्हें प्रो.रवींद्रनाथ का सही उत्तराधिकार सिद्ध करता है ।
हिंदीजगत उनकी दीर्घायु कीकामना करती है ।
वशिनी शर्मा
प्रो॰ दिलीप सिंह जी को षष्ठिपूर्ति पर शतश: बधाइयाँ। आपने सही अवसर पर उनका सटीक आकलन प्रस्तुत किया है। आप भी बधाई के पात्र हैं।
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