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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मानव संबंधों की सहज सौम्य कहानियाँ : 'उजाले दूर नहीं'*



'उजाले दूर नहीं’ [२०१०] हैदराबाद की वरिष्ठ कहानीकार पवित्रा अग्रवाल [१९५२] की कहानियों का नया संकलन है। पवित्रा अग्रवाल ने बहुत अधिक नहीं लिखा है लेकिन जितना लिखा है, सोद्देश्य लिखा है। वे समसामयिक समाज की गतिविधियों, मध्यवर्गीय परिवारों की आंतरिक उथल पुथल और मानव मन के अंतर्द्वंद्व पर पैनी नज़र रखती हैं। मनुष्य स्वभाव की उन्हें गहरी परख है। इस पैनी नज़र और गहरी परख के सहारे वे अपने सामाजिक सरोकारों को कहानियों के ताने बाने में बुनती हैं। बुनावट उनकी एकदम सहज है। शायद इसीलिए पाठक को ये कहानियाँ अपने आसपास की, अपने पड़ोस की, कहानियाँ लगती हैं। मनुष्यता के सुंदर भविष्य के प्रति लेखिका का विश्वास इस संकलन के शीर्षक से ही ध्वनित हो जाता है। हताशापूर्ण मारकाट के युग में मानवीय आस्था को प्रकाशित करनेवाली ये कहानियाँ पढ़ना पाठकों के लिए सचमुच सुखकर और प्रीतिकर अनुभव होगा।

लेखिका ने ‘पुराना प्रेमी’ में जहाँ एक ओर पति पत्नी संबंधों में खुलेपन और सहज विश्वास की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है, वहीं पुरुष की संदेहशील वृत्ति और दोहरे आचरण की ओर भी इशारा किया है। उन्होंने मैत्री और प्रेम में किसी भी प्रकार के दुराव को छल और धोखा माना है, भले ही उसके पीछे कोई गंभीर दुर्भावना निहित न हो।

‘समझौता’ में पारिवारिक सद्भाव को नष्ट करने में स्त्री के अहं की भूमिका को बिना लागलपेट के उधेड़ा गया है। पुरुष की विवेकशून्यता किस प्रकार उसे ऐसी स्त्री की कठपुतली बना सकती है, यह भी यहाँ उभर कर सामने आया है। बदली हुई परिस्थिति में स्त्री जब समझौता करती है तो लेखिका इसे हृदय परिवर्तन का नाम नहीं देतीं, बल्कि इसे भी वे उसी प्रकार अभिनय ही बताती हैं जिस प्रकार ‘पुराना प्रेमी’ में पति के आचरण को अभिनय बताया था। साफ है कि लेखिका स्त्री या पुरुष में किसी एक ही को सदा सर्वदा खलपात्र के रूप में प्रस्तुत करने वाले विमर्श के दायरे में कैद नहीं हैं। इसके विपरीत उनके लिए पारिवारिक और सामाजिक आचरण की पारदर्शिता तथा मानवीय मूल्य अधिक महत्वपूर्ण हैं।

स्त्री सशक्तीकरण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्त्री शिक्षा की आवश्यकता , उसके विवेक के सम्मान और आत्मनिर्णय के अधिकार को कई छोटे छोटे उपकथासूत्रों की सहायता से ‘शुभचिंतक’ में बखूबी रेखांकित किया गया है। अर्थपिशाच व्यक्ति किस प्रकार परिवार को स्त्री के लिए यातनाशिविर बना सकता है, यह भी उभर कर आया है। निकट संबंधियों की परिवारतोड़क भूमिका के प्रति सावधान करती यह कहानी अर्थ और प्रेम के द्वंद्व के बहाने पुरुष के कुचक्री, शोषक तथा कामुक रूप को बेनकाब करते हुए सास बहू के संबंध में संभावित स्त्री बहनापे का भली प्रकार प्रतिपादन करती है। स्पष्ट है कि यदि स्त्री स्त्री का साथ दे तो ही पुरुषवर्चस्व को तोड़ा जा सकता है।

पवित्रा अग्रवाल ने अपने स्वतंत्रतासेनानी और आर्यसमाजी परिवार के संस्कारों को जीवन और लेखन में उतारने का यथासंभव ईमानदार प्रयास किया है। उन्हें व्यवहार के दोगलेपन तथा अंधविश्वासों से चिढ़ है। वे हर घटना की तर्कपूर्ण व्याख्या खोजने का प्रयास करती हैं तथा चमत्कार और श्रद्धावाद को स्वीकार नहीं करतीं। ‘चमत्कार का इंतजार’ में उन्होंने अध्यात्म का व्यवसाय करने वालों पर मीठी चोट की है। माताजी के आशीर्वाद से तथाकथित गर्भ धारण करने वाली स्त्री की अवसादग्रस्तता इसी ओर इशारा करती है। लेखिका ने संतानहीन दंपति के लिए सुझाव भी दिए हैं लेकिन उनके क्रियान्वयन में पीढ़ी-अंतराल के कारण आने वाली बाधा से भी मुँह नहीं फेरा है। ध्यान देने की बात है कि लेखिका जहाँ यह अपेक्षा करती हैं कि पुरानी पीढ़ी अपने जड़ सोच से बाहर आए, वहीं नई पीढ़ी की स्त्री से वे दृढ़ता, संयम और आत्मनिर्णय के अपने अधिकार के उपयोग की भी अपेक्षा करती है। यह कहना अनुचित न होगा कि उनकी कहानियों में हमें ऐसी आत्मविश्वासी सशक्त स्त्री उभरती हुई दिखाई देती है जो अबला छवि को ध्वस्त कर सकती है।

स्त्री जितनी ही सशक्त होती जा रही है, दुर्भाग्य का विषय है कि पुरुष द्वारा उसके शोषण के नए नए तरीके भी उतनी ही शिद्दत से ईजाद किए जा रहे हैं। अब इसे क्या कहेंगे कि कोई पुरुष स्वयं माँगकर किसी युवती से विवाह करे और बाद में पता चले कि वह पंद्रह दिन पहले एक और विवाह कर चुका है। विवाह और तलाक का खेल खेलने के ऐसे कई मामले पिछले दिनों प्रकाश में आ चुके हैं। पवित्रा ने ‘छल’ में उन्हें ही आधार बनाया है लेकिन मामले को किसी मीडियाकर्मी या वकील की तरह संवेदनहीन होकर नहीं देखा है, बल्कि पुरुष के पक्ष को भी सहानुभूति से सामने रखा है और यह दर्शाया है कि सामान्य रूप से जो व्यक्ति विश्वासघाती दिखाई दे रहा है, हो सकता है कि वह स्वयं अन्य किसी प्रकार के छल का शिकार हो। प्रकारांतर से यह भी कहा गया है कि नारीस्वतंत्रता और नारीन्याय को पूरी सामाजिक सच्चाई के संदर्भ में व्याख्यायित किया जाना चाहिए अन्यथा वह भी अन्याय का हेतु बन सकता है।

पीढ़ी अंतराल का मुद्दा ‘अंतिम फैसला’ में भी दिखाई देता है। कन्याभ्रूणहत्या के लिए असहमत बहू की दृढ़ता के साथ ही यहाँ पति और सास का हृदय परिवर्तन भी दिखाया गया है जो इस तथ्य का सूचक है कि नहीं; प्रेम अभी मरा नहीं है। प्रेम, लेकिन यदि , आंख बंद करके किया जाए और उसके लिए झूठ पर झूठ बोलने पड़ें तो वह गले की फाँस बन जाता है। ‘एक और अदालत’ में प्रेम विवाह की ऐसी ही परिणति चित्रित है। इसका अर्थ यह नहीं कि लेखिका स्त्री के प्रेम करने के अधिकार को अस्वीकार करती हैं, बल्कि यह है कि यदि इसे साहसपूर्वक समाज के समक्ष स्वीकार नहीं किया जाता तो यह आपराधिक कृत्य, ब्लैकमेलिंग तथा आजीवन पीड़ा देने वाला दंश बन सकता है। प्रेम और अवैध संबंध के फर्क को मिटाया नहीं जा सकता - यह एक सामाजिक सच्चाई है।

रामायण और महाभारत के युग से आज तक स्त्री से सहज ही यह प्रश्न पूछा जाता रहा है कि उसकी संतान का पिता कौन है। पवित्रा की कहानियों में भी यह सवाल घूमफिरकर कई बार आता है। इस सवाल के डर से जाने कितने बच्चे नदी में बहाए गए होंगे हौर जाने कितनी स्त्रियाँ धरती माता की गोद में समा गई होंगी। लेकिन ‘अधिकार के लिए’ की स्त्री इन रास्तों पर नहीं जाती और अपने बच्चे को पिता का नाम दिलाने के लिए लोकतांत्रिक ढंग से संघर्ष करती है।

वृद्धावस्थाजनित असुरक्षाभाव के बावजूद ‘मैं भगोड़ी नहीं’ की वृद्धा अपना गाँव छोड़कर बेटे के साथ शहर जाकर नहीं बसना चाहती। लेखिका ने उसके मनोविज्ञान और ग्रामीण संस्कार को बखूबी किस्से की तरह बखाना है। अपने संघर्षमय अतीत से दीप्त यह वृद्धा तनिक भी विचलित नहीं दीखती।

संतानहीनता के समाधान के रूप में लेखिका ने एक से अधिक कहानियों में अनाथालय से बच्चा गोद लेने का सुझाव दिया है। ‘यह सब किसलिए’ में यह सुझाव पुरानी पीढ़ी की ओर से आया है। वैसे यह कहानी श्राद्ध के औचित्य पर सीधे सवाल उठाती है और वृद्ध मातापिता को उनके जीवित रहते श्रद्धा व सम्मान देने की प्रेरणा देती है। श्राद्ध की ही भांति जन्मदिन को भी समाज सेवा के कार्य के साथ जोड़ा जा सकता है। ‘दूसरा बेटा’ इसका उदाहरण है।

सफेद दाग के साथ जुड़े हुए अंधविश्वासों का खंडन ‘एक दूजे के लिए’ में किया गया है और यहाँ भी निस्संतान दंपति को अनाथालय से बच्चा गोद लेने की सलाह दी गई है। ‘कितना करूँ इंतजार’ रूढ़िभंजन को समर्पित कहानी है। इसमें प्रेम में मुक्ति की कामना और संस्कार के द्वंद्व को भी उभरने का मौका मिला है। स्त्री की दृढ़ता यहाँ भी दिखाई गई है। ‘दुविधा के बादल’ में लेखिका ने वास्तुशास्त्र की प्रासंगिकता पर विचार किया है और यह दर्शाया है कि शुभ अशुभ और सुख दुःख का वास्तु से कुछ लेना देना नहीं है, बल्कि यह विशुद्ध अंधविश्वास है।

पवित्रा अग्रवाल की अधिकतर कहानियों में दांपत्य से जुड़ी अलग-अलग प्रकार की समस्याएँ दिखाई देती हैं जिनका संबंध अगर एक ओर आर्थिक स्थिति और पीढ़ी अंतराल से है तो दूसरी ओर परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच असामंजस्य से है। पारिवारिक दायित्व के प्रति उपेक्षा भाव, पारस्परिक ईर्ष्या और अहंकार को लेखिका ने परिवार व्यवस्था की जड़ पर आघात करनेवाले विषाणु माना है। ऐसे अवसर पर वे स्त्री से उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करती हैं। स्त्री विमर्शकों को पसंद हो या न हो पर ‘कहीं देर न हो जाए’ की रुष्ट स्त्री ज्ञानोदय होने पर पति के बुलावे की प्रतीक्षा नहीं करती और स्वयं उसके पास लौटने का निश्चय कर लेती है।

मानवीय संवेदना का विस्तार अंगदान के रूप में प्राणदान तक संभव है, इस संभावना को ‘एक कोशिश ’ में देखा जा सकता है। यह तथ्य भी ध्यान आकर्षित करता है कि पवित्रा अग्रवाल समस्यासंकुल जीवन को भावुकता की दृष्टि से नहीं संवेदना की दृष्टि से देखती है। उनका यह दृष्टिकोण ही ‘दूसरा बेटा’ की युवा विधवा को पुनर्विवाह करने के बावजूद पहले पति के परिवार के प्रति भी अपने दायित्व का निर्वाह करने के लिए प्रेरित करता है। ‘किसी से न कहना वरना’ में धीर गंभीर पवित्रा जी का हँसमुख चेहरा दिखाई देता है तो ‘जिजीविषा’ में उन्होंने जहाँ एक ओर यह दर्शाया है कि बीमारी आदमी को किस कदर तोड़ देती है वहीं यह भी दर्शाया है कि प्रेम और विश्वास के बल पर उससे किस प्रकार लड़ा जा सकता है।

‘काश ऐसा ही हो’ में अति भावुक और एकपक्षीय प्रेम से उत्पन्न मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याओं की तरफ ध्यान खींचा गया है। यहाँ भी दांपत्य संबंधों को विषाक्त करने में संदेह की घातक भूमिका को दर्शाया गया है - संदेह का यह रोग पुरुष को भी हो सकता है और स्त्री को भी। हीन भावना और असुरक्षा भाव इन संदेहों की जड़ में रहते हैं।

कुल मिलाकर अगर यह कहा जाए कि पवित्रा अग्रवाल मानव संबंधों की ऐसी कहानीकार हैं जिनकी दृष्टि इन संबंधों को मधुमय और विषमय बनानेवाले कारणों पर केंद्रित रहती है, तो गलत न होगा। लेखिका का मनुष्य की सर्वोपरिता में विश्वास है , इसीलिए वे अपनी हर कहानी के माध्यम से मनुष्य जीवन को सुंदर और बेहतर बनाने के सपने को रूपायित करती दिखाई देती हैं। विभिन्न प्रकार के विमर्शों की नारेबाजी के बीच उनकी यह सहज सौम्य अभिव्यक्ति सहृदय पाठकों का मन मोह लेने में समर्थ है।0


*उजाले दूर नहीं / कहानी संग्रह / पवित्रा अग्रवाल / गीता प्रकाशन,हैदराबाद / २०१० / पृष्ठ १६० / १२५ रूपए


रविवार, 25 जुलाई 2010

सृजनात्मक लेखन पर डॉ. गोपाल शर्मा - ८

आज सवेरे से ही छात्रों के फोन आ रहे थे - गुरु पूर्णिमा जो है. पर अपन ठहरे कलियुगी गुरु. देर से सोना , देर तक सोना. तीसरी कॉल से खीझ होनी शुरू हो गई थी. ''इन लोगों को रविवार को एक निशाचर की नींद में हस्तक्षेप का घोर पाप लगेगा''- स्नेहभरा शाप देकर सोने का प्रयास कर रहा था कि जोर की घंटी बजी. चश्मे के बिना देखा तो लगा कि स्क्रीन पर कोई नया नंबर है. सो, किसी छात्र का फ़ोन समझकर उसकी बात सुने बिना ही आँख मूँद कर आशीर्वाद बरसा दिया - प्रसन्न रहो . पर उस पार कोई छात्र नहीं था, दुनिया भर को खुले आम लिखना सिखाने का मधुर पाप करने वाले लीबियाप्रवासी गुरुघंटाल यानी प्रोफ़ेसर गोपाल शर्मा जी थे. जान कर अच्छा लगा कि २ अगस्त को वे महीने भर के लिए भारत आ रहे हैं छुट्टी मनाने. कुछ इधर उधर की बातें हुईं पर उन्हें यहाँ क्या लिखना? फिलहाल तो - आओ लिखना सीखें.......




वैसे इरशाद देव शर्मा है कौन ..By the way, who is Irshad Dev Sharma?



Dainik Jagran's : City Plus.

शनिवार, 24 जुलाई 2010

कविता शिक्षण पर विशेष व्याख्यान


अभी दो दिन पूर्व केंद्रीय हिंदी संस्थान [हैदराबाद केंद्र] की रीडर डॉ. अनीता गांगुली का फोन आया - 'केंद्रीय हिंदी संस्थान में महाराष्‍ट्र के धुले जिले के हिंदी शिक्षकों के लिए इक्कीस दिवसीय नवीकरण पाठ्‍यक्रम चल रहा है - आपको कल ३ बजे आना है - ‘कविता शिक्षण’ के संबंध में विशेष व्याख्यान दीजिएगा.' इन्कार की गुंजाइश उन्होंने छोड़ी न थी. सो २३ जुलाई को जाना ही पड़ा. आनन फानन तैयारी की. प्रो. सुरेश कुमार का दिया एक मॉडल उनके एक आलेख में मिल गया. बिटिया लिपि ने उसके आधार पर पावर पॉइंट प्रोग्राम बना डाला और अपुन को २ घंटे धाराप्रवाह व्याख्यान के लिए बढ़िया सहारा मिल गया.


वैसे सच तो यही है कि 'कविता शिक्षण' की अनेक प्रणालियाँ होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि कोई पद्धति सर्वश्रेष्‍ठ तथा परिपूर्ण है क्योंकि ध्वनि और व्यंजना की प्रधानता के कारण हर श्रेष्‍ठ कविता के अनेक पाठ और अर्थ संभव हो सकते हैं। कविता के आस्वादन को संभव बनाने के लिए, जैसा कि प्रो.सुरेश कुमार भी कहते हैं, अध्यापक को उसकी भाषा, बुनावट, गठन, साहित्यिक रूढ़ि, पृष्‍ठभूमि और समीक्षात्मक प्रतिमानों के स्तरों से संबंधित अध्ययन बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए।


खैर इस बहाने केंद्रीय हिंदी संस्थान के प्रो.टी.के. नारायण पिल्लै, प्रो. शकुंतला रेड्डी, प्रो.हेम राज मीणा और डॉ. राम निवास साहू का सत्संग मिल गया. प्रतिभागी अध्यापकों के प्रश्नों पर चर्चा में तो मज़ा आया ही.

सोमवार, 19 जुलाई 2010

''पुस्तक चर्चा और लोकार्पण समारोह'' संपन्न


ज्योति नारायण की काव्यकृति 'ज्योति सागर' विमोचित

हैदराबाद, १८ जुलाई २०१० .

भारतीय भाषाओं और साहित्य की सेवा के लिए समर्पित नवगठित संस्था ''साहित्य मंथन'' के तत्वावधान में यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सभागार में आयोजित समारोह में हैदराबाद की चर्चित कवयित्री ज्योति नारायण की चौथी कविता पुस्तक ''ज्योति सागर'' का लोकार्पण समारोह संपन्न हुआ .उल्लेखनीय है कि ज्योतिनारायण की अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं - 'प्रेम ज्योति का सूरज', 'चेतना ज्योति', ज्योति कलश' और 'ज्योति सागर' ;तथा वे देश-विदेश में काव्य पाठ कर चुकी हैं.



लोकार्पण करते हुए मुख्य अतिथि डॉ. राधे श्याम शुक्ल ने कहा कि 'ज्योति सागर' में ज्योति नारायण का अब तक का सर्वश्रेष्ठ सृजन संकलित है. उन्होंने कविताओं की चर्चा करते हुए कहा कि इनमें प्रेम की अभिव्यक्ति को संकोचहीन होकर ग्रहण करना आवश्यक है क्योंकि लौकिक प्रेम भी बड़े उदात्त भाव के साथ जुड़ा हुआ है. डॉ. शुक्ल ने आगे कहा कि राग ही मानव मन का एकमात्र स्थायी भाव है तथा दूसरे सब भाव और रस उसी से उपजते हैं.


इस अवसर पर ज्योति नारायण की अब तक प्रकाशित समस्त [कुल चार] काव्यकृतियों पर अलग अलग समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुत किए गए.


''पुस्तक चर्चा'' के दौरान मुख्यवक्ता प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने कहा कि ज्योति नारायण की काव्ययात्रा का मानचित्र आरंभिक दो पुस्तकों में क्षैतिज और सरलरेखीय रहने के बाद दो नई पुस्तकों में सहसा ऊर्ध्व दिशा की ओर गतिमान दिखाई देता है जो उनकी प्रगति और उन्नति का प्रमाण है. उल्लेखनीय है कि कवयित्री ने इस साहित्यिक कायाकल्प का श्रेय अपने गुरुजन को दिया है.


वरिष्ठ कवयित्री डॉ. अहिल्या मिश्र ने ज्योति नारायण के संघर्ष और साधना पर विचार प्रकट किए तथा कवि पत्रकार डॉ. राम जी सिंह उदयन ने उन्हें घर और आँगन की कवयित्री बताते हुए उनकी भावसमृद्धि की प्रशंसा की.

लोकार्पित कृति 'ज्योति सागर' पर केंद्रित आलेख में युवा समीक्षक डॉ. जी. नीरजा ने कहा कि कवयित्री का काव्यप्रयोजन जीवन की सच्चाइयों को खरी बात की तरह अभिव्यक्त करना है और वे सामाजिक विसंगतियों से उद्वेलित होकर ऐसे नए समाज की कल्पना करती हैं जिसमें न तो साम्प्रदायिकता हो ओर न शोषण . संकलन के मुक्तकों में मातृत्व के जीवंत पक्ष पर भी डॉ. नीरजा ने प्रकाश डाला.

शोधछात्रा अर्पणा दीप्ति ने अपने शोधपत्र में 'प्रेम ज्योति का सूरज' के मुख्य सरोकारों की पड़ताल करते हुए कहा कि गृहिणी होते हुए भी कवयित्री का काव्य संसार घर और चूल्हे तक सीमित नहीं है, बल्कि वे समाज, राजनीति, जीवन और जगत के बारे में अपने स्वतंत्र विचार रखती हैं.

उर्दू विश्वविद्यालय के डॉ. करन सिंह ऊटवाल ने 'चेतना ज्योति' शीर्षक पुस्तक की समीक्षा करते हुए कहा कि इसमें मुख्य रूप से देशप्रेम को सहज गीतात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की गई है जिसे प्रकृति और अध्यात्म के सन्दर्भों से नई चमक प्राप्त हुई है.


समारोह के संयोजक डॉ. बी. बालाजी ने 'ज्योति कलश : चेतना और शिल्प' विषयक अपने शोधपूर्ण विस्तृत आलेख में कहा कि इस संग्रह [ ज्योति कलश] के पहले आठ गीत राष्ट्रीय चेतना से संपन्न हैं जबकि शेष ३२ गीत प्रेम की विविध मनोदशाओं का खुलासा करने वाले हैं तथा तीसों गज़लें पर्याप्त कसी हुई हैं.उन्होंने यह भी दर्शाया कि वस्तु और शिल्प में कुछ रचनाएं हिंदी-उर्दू के कई प्रसिद्ध रचनाकारों से प्रभावित प्रतीत होती हैं.

अध्यक्षासन से संबोधित करते हुए प्रो. टी. मोहन सिंह ने कहा कि कवयित्री के मन और काव्य दोनों में एक आदर्श भारातीय समाज की परिकल्पना है, वे अपने साहित्य के द्वारा भारत एवं विश्व के कल्याण की कामना व्यक्त करती हैं तथा हिन्दी के प्रति उनका प्रेम प्रशंसनीय है.

आरम्भ में अतिथियों ने सरस्वती-दीप प्रज्वलित किया और के. नागेश्वर राव ने सरस्वती वन्दना प्रस्तुत की . इस अवसर पर कवयित्री ज्योति नारायण का सारस्वत सम्मान 'साहित्य मंथन' द्वारा किया गया तथा कवयित्री ने अपनी कुछ प्रतिनिधि कविताएँ भी सुनाईं.


कार्यक्रम को सफल बनाने में डॉ.किशोरी लाल व्यास,डॉ.गोरखनाथ तिवारी,डॉ. बलविंदर कौर, डॉ. पी. श्रीनिवास राव, डॉ.मृत्युंजय सिंह, प्रेम शंकर नारायण, रामकृष्णा, धन्वन्तरी ,गिरिजेश त्रिपाठी ,मोहन कुमार ,प्रवीण शर्मा ,विष्णु प्रिया,मधु , एकता नारायण,

माला गुरुबानी,संपत देवी मुरारका, डॉ. अर्चना झा,डॉ. मिथलेश सागर,गुरु दयाल अग्रवाल,प्रदीप नानावती, नीलम नानावती, मुरारीलाल,मधु गौड़, एस.सुजाता , वी. वरलक्ष्मी , विनीता शर्मा, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, जी.परमेश्वर, सूरज प्रसाद सोनी, विशेष वर राज,पवित्रा अग्रवाल , अनीता श्रीवास्तव, रवि श्रीवास्तव, शांति अग्रवाल, सरिता सुराना जैन, मीना खोंड, जुगल बंग जुगल, मुहम्मद सिकंदर अली, पुष्पा वर्मा, अनुषा नारायण, सुभाष कुमार शर्मा, शशि कोठारी,विनायक खोंड, एस.के. कोठारी, अशोक कुमार तिवारी, सीमा मिश्र, वी. अनिल राव, रेखा मिश्र, साधना शंकर, शोभा श्रीनिवास देशपांडे,बुद्ध प्रकाश सागर, डॉ.शक्ति द्विवेदी,डॉ. देवेन्द्र शर्मा, डॉ. पी मानिक्याम्बा, सविता सोनी, प्रवीन प्रकाश,मोहन, सुषमा बैद , वीर प्रकाश लाहोटी 'सावन' तथा वेणु गोपाल भट्टड़ आदि कवियों, विद्वानों और साहित्यप्रेमियों की गरिमामयी उपस्थिति का महत्वपूर्ण योगदान रहा.


'जन गण मन' के साथ समारोह का समापन हुआ.

~~प्रस्तुति : डॉ. बी. बालाजी [ संस्थापक-संयोजक , साहित्य मंथन ],१३-२/१/ए, गुप्ता गार्डन,रामंतापुर, हैदराबाद - ५०००१३~~

सृजनात्मक लेखन पर डॉ. गोपाल शर्मा - ७

शनिवार, 17 जुलाई 2010

देश को जगाओ

भूमिका

"देश को जगाओ" डॉ.गौनि अंजन भगवान दास गौड़ की उद्‍बोधनात्मक कविताओं का संकलन है। भगवान दास जी ने कविता को सामाजिक और राजनैतिक चेतना जगाने का माध्यम बनाया है। उनका कवि मन इस बात से क्षुब्ध है कि स्वतंत्रता प्राप्‍ति के बाद इतने वर्ष बीत जाने पर भी न तो भारत को सच्ची स्वतंत्रता का अनुभव हो सका है और न ही लोकतंत्र के माध्यम से वह कल्याणकारी व्यवस्था स्थापित हो सकी है जिसकी कल्पना रामराज्य के आदर्श के रूप में की गई थी। इसके लिए वे जनता की अचेतनता और जन प्रतिनिधियों की अवसरवादिता को उत्तरदायी मानते हैं तथा एक ऐसी क्रांति की कामना करते हैं जो शोषण की व्यवस्था को ध्वस्त करके नए मानवतावादी समाज की स्थापना कर सके। समाजसुधार की दृष्‍टि से लिखी गई इन कविताओं में भाषा और शिल्प संबंधी अनगढ़ता के बावजूद पाठक को चेताने की ताकत है जो कि इनकी संबोधन मुद्रा के कारण संभव हुआ है। कवि कहीं भी एकांत में बड़बड़ाता दिखाई नहीं देता। इसके विपरीत उसके समक्ष अपना पाठक/श्रोता सदा उपस्थित है। इस संबोध्यता ने ही निबंध जैसे विषयों के प्रतिपादन में कवितात्मकता का आभास ला दिया है।

कवि का उद्देश्य एकदम साफ है - देश को जगाओ। देश को जगाना है तो मंदिर, मस्जिद और समाधिस्थलों पर घंटे, अज़ान और अगरबत्तियों वाले अनुष्‍ठान करने के बजाय देश और मनुष्य की पूजा करनी होगी। आए दिन हर शहर में यातायात की सुविधा को बाधित करनेवाली ऐसी समाधियों को लेकर विवाद उठते हैं जो सड़क के बीचोंबीच ठाठ के साथ जमी हुई हैं (समाधि रे महान)। ऐसे सांप्रदायिक और राजनैतिक पाखंड को कवि भगवान दास ने निर्जीव की आराधना माना है। वे इसे वोट के लिए किया गया राजनीतिज्ञों का अलोकतांत्रिक आचरण मानते हैं। दरअसल लोकतंत्र की विफलता कवि को अत्यंत विचलित करती है। उन्हें लगता है कि अब सब ओर गुंडाराज कायम है और चुनाव रूपी पर्व लोकतंत्र को हर्षित करने के बजाय तड़पाता है (चुनाव पर्व)। चुनाव के समय नेता वोट की भीख मांगने आते हैं और बाद में अपने दुष्कर्म द्वारा जनता को भिक्षुक बनाते हैं (आज के नेता)। कवि प्रश्‍न करता है कि इस व्यवस्था में समता, सौजन्य और मानवता जैसे मूल्य कहाँ हैं ।और जब उत्तर मिलता है _ कहीं नहीं, तो वह जनता को एक ऐसे महासंग्राम के शंखनाद के लिए आहूत करता है जिसके द्वारा मानव मूल्यों को जगाया जा सके (समता का महासंग्राम)।

लोकतंत्र की विफलता का एक बड़ा उदाहरण तेलंगाना समस्या है। भगवान दास जी तेलुगुभाषी हैं और तेलंगानावासी। इसलिए तेलंगाना की दुर्दशा पर उनका क्षोभ स्वाभाविक है। वे मानते हैं कि तेलंगाना की जनता अभी तक न तो स्वतंत्र है और न सुखी, इसीलिए महान तेलंगाना समरांगण बना हुआ है (तेलंगाना रे महान)। इसी प्रकार वर्ग भेद, जाति भेद तथा पिछडे/दलित/आदिवासी समुदायों के प्रति उच्च वर्ग, उच्च वर्ण और प्रभुसत्ता द्वारा भेदभाव ने भी कवि को भीतर तक झकझोरा है। वे इस भेदभाव को जनता के सजीव दहन की राजनीति मानते हैं और सवर्णों के जातिअभिमान को अधार्मिक और अमानुषिक घोषित करते हुए निम्न वर्ग की एकता का आह्‍वान करते हैं ताकि अग्र वर्ण के अहंकार का ध्वंस किया जा सके (जात-पाँत)।

प्रेम और मानवता को सर्वोपरि माननेवाले कवि भगवान दास ने पर्यावरण संरक्षण, नेत्र दान, रक्‍तदान, कन्या विक्रय विरोध, कन्या भ्रूण हत्या विरोध, शहीदों के सम्मान, स्त्री की मर्यादा, अंध आधुनिकीकरण के दुष्परिणाम , युवा शक्‍ति की दुर्निवारता, क्रांति की अपरिहार्यता जैसे विषयों पर प्रचार शैली में काफी कविताएँ लिखी हैं जिनकी कुछ पंक्‍तियाँ तो सामाजिक आंदोलनों में नारों की तरह इस्तेमाल करने लायक हैं। कवि की नज़र से न तो कौवा बचा है न चींटी। पेड़ के माध्यम से भी उन्होंने शिक्षा दी हैं। भीख माँगते बच्चे भी उन्हें द्रवित करते हैं। इन तमाम विषयों की अभिव्यक्ति में रामकथा और कृष्णकथा से लिए गए मिथकों का सटीक प्रयोग खास तौर पर ध्यान खींचता है | ये सारी चीजें उनकी राष्‍ट्रीय और सामाजिक चेतना को पुष्‍ट करती हैं। यही चेतना उन्हें भारत की अखंड़ता और एकता के लिए भारतीय भाषाओं और विशेषकर हिंदी का प्रबल पक्षधर बनाती है। उन्हें गर्व है कि तेलुगु उनकी मातृभाषा है। उसमें उन्हें माँ की ममता मिलती है। वह उनके लिए श्रीचंदन और मातृत्व का मधुर बंधन है (तेलुगु की तेजस्विता)। लेकिन उनका यह तेलुगु प्रेम किसी भी प्रकार संकीर्ण नहीं है। वे जानते हैं और मानते हैं कि हिंदी की सार्वदेशिक स्वीकृति इस देश का सांस्कृतिक एकता का आधार है अत: उसकी उपेक्षा करना देशद्रोह है। उनका हिंदी प्रेम इतना सघन है कि राष्‍ट्रभाषा का तिरस्कार करने वालों केलिए वे मृत्युदंड का विधान चाहते हैं -
"दंड दो/ मृत्यु दंड दो/ बीच बाजार में / जनता के सामने/ पथभ्रष्‍ट कर्तव्यहीन नेताओं को/ देश के अंग्रेजी प्रबल समर्थकों को/ निरभिमानियों को/ मातृद्रोही व्यक्‍तियों को।/ हम सब हिन्दुस्तानी हैं/ आपस में भाई-भाई हैं/ अलग नहीं आपस में हम/ अखंड भारत के प्रतीक हैं हम/ हिंदी के प्रतिपादक हैं हम/ राष्‍ट्रीय अखंडता के गायक हैं हम।"(देश की आशा - स्वभाषा)।

आशा की जानी चाहिए कि हिंदी जगत इस तेलुगुभाषी रचनाकार की इन कवितात्मक अभिव्यक्‍तियों का उदार मन से स्वागत करेगा।

- ऋषभदेव शर्मा

रविवार, 11 जुलाई 2010

कविता जी की पांच कविताएं

गत-दिनों किसी ब्लॉग का लिंक मिला. क्लिक किया तो डॉ. कविता वाचक्नवी की पांच कवितायें दिखाई दीं.
मुझे लगा कि डॉ. राधेश्याम शुक्ल को ये रचनाएं पसंद आएँगी. सो, उन्हें अग्रेषित कर दीं....
और हर्षदायी विस्मय कि आज 'स्वतंत्र वार्ता' के साहित्य वाले पृष्ठ पर उन्होंने ये रचनाएं ससम्मान प्रकाशित भी कर दीं.

सृजनात्मक लेखन पर डॉ. गोपाल शर्मा - ६