अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय , हैदराबाद, में नए-नए खुले ''हिन्दी एवं भारत अध्ययन विभाग'' में २४-२५ मार्च २०१० को भाषा, साहित्य और संस्कृति के समकालीन परिदृश्य पर विचार-विमर्श के लिए द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई. देश भर के दिग्गज विद्वान् पधारे. सचमुच उपयोगी, ज्ञानवर्धक और स्मरणीय चर्चाएँ हुईं.
विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर का अपुन पर सदा अहेतुक स्नेह रहा है. सो उनके बुलावे पर अपनेराम भी जा धमके ''संस्कृति'' विषयक सत्र में ''स्त्री और उपभोक्ता संस्कृति'' पर बोलने. बड़ा संकोच सा था. आखिर मंच पर अन्य वक्ताओं के रूप में प्रो. मैनेजर पांडेय और डॉ. जगदीश चतुर्वेदी व्यंग्य और आक्रमण की मुद्रा में गरज रहे थे. अध्यक्षासन पर हमारे समय के शीर्ष आलोचक श्रद्धेय प्रो.नामवर सिंह ऋषितुल्य साक्षीभाव लिए विराजमान थे.
अस्तु, वेंकटेश्वर जी के उकसावे पर हमने अपनी थीसिस धर ही दी कि उपभोक्तावाद और उपभोक्ता संस्कृति दो अलग-अलग चीज़ें हैं तथा स्त्री आज उपभोक्ता वस्तु और उपभोक्तावाद का शिकार नहीं रह गई है, बल्कि वह स्वयं एक ओर तो बाज़ार को प्रभावित करने वाली शक्ति के रूप में उभरी है तथा दूसरी ओर स्वयं उत्पादक एवं प्रबंधक की भूमिका में आ गई है. लेकिन मज़ा तो तब आया जब अध्यक्ष महोदय ने बड़ी सफाई से हमारे इस सारे पराक्रम को नकारते हुए इस विषय पर एक अक्षर तक बोलने से मना कर दिया.[चलो अच्छा हुआ, कम से कम चपत तो नहीं लगाई!]
पूरी रपट के लिए मैंने प्रो.एम.वेंकटेश्वर जी से निवेदन किया है. तब तक इतना ही सही.
1 टिप्पणी:
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
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