फरवरी के अंतिम सप्ताह में मुम्बई जाना हुआ. साठये महाविद्यालय में द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी थी ५ और ६ तारीख को.
संयोजक डॉ. प्रदीप कुमार सिंह मध्यकालीन कविता के प्रति समर्पित विद्वान् हैं. संत काव्य और कृष्ण काव्य के बाद इस वर्ष उन्होंने सूफी काव्य पर संगोष्ठी की. अगले वर्ष के लिए राम काव्य का संकल्प भी जताया.
दो दिन में कोई ६ विचार सत्र तो हुए ही होंगे.उद्घाटन-समापन अलग से.दूर-दूर से विद्वान्,शोधार्थी और छात्र आए थे. अच्छी आवभगत हुई. महाराष्ट्र में सदा अच्छी आवभगत होती भी है. खूब प्रेम से मिलते हैं वहाँ के छात्र, और मान देते हैं.
प्रो.दिलीप सिंह [चेन्नई], प्रो.हरमहेंद्र सिंह बेदी [अमृतसर],प्रो.योगेंद्र प्रताप सिंह[इलाहाबाद],प्रो.कमला प्रसाद[भोपाल],प्रो.आद्या प्रसाद [गोवा],प्रो.त्रिभुवन राय और प्रो.दशरथ सिंह[मुंबई] जैसे दिग्गजों के साथ डॉ.बजरंग तिवारी[दिल्ली],डॉ.सुखदेव सिंह[चंडीगढ़] और ऋषभदेव शर्मा [हैदराबाद] तो थे ही,महाराष्ट्र भर से मध्यकालीन काव्य के अनेक विशेषज्ञ भी आलेख,वक्तव्य,व्याख्यान,टिप्पणी और प्रश्नों के साथ मंच पर और सामने उपस्थित थे. कुछ पिष्टपेषण अवश्य हुआ लेकिन खूब सारी बातें पुनर्मूल्यांकनपरक भी हुईं. कुछ विद्वानों के मतभेद और अंतर्विरोध भी सामने आए. पर कुल मिलाकर इस बात पर सब राजी दिखे कि प्रेम की इस कविता को साम्प्रदायिक दृष्टि के बजाय मनुष्यता की दृष्टि से देखा जाना चाहिए. यह भी सभी ने माना कि यह पुनर्मूल्यांकन सभी भारतीय भाषाओँ के सन्दर्भ द्वारा ही परिपूर्णता प्राप्त कर सकता है और इस दृष्टि से इस संगोष्ठी को सफल माना जा सकता है.
एक पत्रिका भी इस अवसर पर आरम्भ की गई .
पर्चों का परिचय भी शोध-सार शीर्षक से प्रकाशित किया गया.
आयोजन के बाद मैं पूरी तरह डॉ. मृगेंद्र राय के डिस्पोसल पर था. सो जहाँ-जहाँ वे ले गए ,मैं चला गया.१९९२ से दोस्ती है उनसे. उन्हें मेरे ग्राम्य-भयों की भले से जानकारी है और यह भी मालूम है कि मैं जो खाता हूँ , प्रसन्न भाव से खाता हूँ. इसीलिए पहले तो उन्होंने अपनी पसंद के समोसे-जलेबी खिलाए और फिर हिदायत दी कि शुगर और बी पी चेक कराने में देरी न करूँ. शायद मेरी थकान को उन्होंने लक्षित कर लिया था. मैं क्या कहता,लापरवाही से हँस दिया. भला ऐसे दोस्त जिसके पास हों कि जो महानगरीय व्यस्तता को भूलकर घंटों आपका सूटकेस ढोते साथ रहें ,वह हँसेगा क्यों नहीं. खैर, दादर में एक शर्मा जी का मिष्ठान्न भंडार है,वहाँ कई वर्ष पहले डॉ.महेंद्र कार्तिकेय ले गए थे, हम लोग वहाँ भी गए और उन दिनों को याद करते हुए चाय पी. जानबूझकर मैंने वैभव कार्तिकेय को सूचना नहीं दी क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि वे उतनी दूर से मिलने आएँ. पिछले साल ही की तो बात है जब मैं हिन्दुस्तानी सभा में ठहरा हुआ था तो स्वयं श्रीमती कार्तिकेय पुत्र और पुत्री के साथ मिलने आ गयी थीं;मैं बड़े संकोच में पड़ गया था. ऐसा अपनापन! इतनी सहज पारिवारिकता!! सच बताऊँ; मुझसे इतना स्नेह संभलता नहीं ,भावुक हो जाता हूँ.
डॉ.मृगेंद्र काफी देर स्टेशन पर भी मेरे साथ रहे. वहीं पुणे से पीयूष का फोन आया. मैं समझ गया कि शुभ समाचार है. हाँ,पीयूष की पत्नी मीनू ने उसी दिन पुत्र-रत्न को जन्म दिया था. पीयूष की आवाज़ से हर्ष छलक रहा था; और तभी ट्रेन आ पहुँचीं. डॉ.मृगेंद्र मुझे विधिवत ट्रेन में आसीन करने के बाद जब जाते हुए गले मिले तो गला भर आया था.
''चल खुसरो घर आपणे, रैन भई चहुँ देस!''
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