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बुधवार, 17 मार्च 2010

दक्खिनी हिंदी का सूफी साहित्य



दक्खिनी हिंदी के साहित्य सृजन की परंपरा को एक ओर कण्हप्पा, पुफ्फयंत, नामदेव, गोन्दा, एकनाथ और संत तुकाराम से जोड़ा जाता है (डॉ. श्रीराम शर्मा, दक्खिनी का गद्य और पद्य) तो दूसरी ओर इसकी विकास रेखा को दक्कन के मुस्लिम राज्यों के ऐसे कवि- लेखकों के साथ जोड़ा जाता है जो इस्लाम के अनुयायी थे (डॉ. बाबूराम सक्सेना, दक्खिनी हिंदी, पृ.सं. 32)। दक्खिनी को इस क्षेत्र में राजभाषा और धर्मभाषा का गौरव प्राप्त था। ‘
‘इसमें चौदहवीं शती से साहित्य-रचना आरंभ हुई, जो लगभग 350 वर्षों से कुछ अधिक समय तक अविरल रूप से चलती रही। दिल्ली के आस-पास तथा हरियाणा और पंजाब (पश्चिमी क्षेत्र) के नव-मुसलमान उत्तर भारत से जो लोक-साहित्य अपने साथ लाए थे, उसी के आधार पर इस्लामी सूफ़ी दर्शन और रहस्यवाद का रंग चढ़ाकर एक अभिनव साहित्य-शैली का प्रवर्तन किया गया और उस शैली में रचित साहित्य ही दक्खिनी हिंदी का साहित्य है।’’ (डॉ. परमानंद पांचाल, दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन, पृ.सं. 65)।
ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों धाराएँ संयुक्त रूप से दक्खिनी हिंदी के प्रवर्तन के लिए उत्तरदायी है, यही कारण है कि नामदेव (1270) और ख़्वाजा बंदा नवाज गेसू दराज़ (1312) की भाषा में पर्याप्त समानता दिखाई देती है। एक ओर जहाँ नामदेव आदि की रचनाओं की लिपि पुरानी देवनागरी है वहीं बंदा नवाज और शाह राजू जैसे सूफ़ी संतों की रचनाएँ फारसी लिपि में प्राप्त हुई हैं । इनसे प्रारंभ 350 वर्षों तक चली दक्खिनी भाषा की साहित्यिक परंपरा में सूफ़ी दर्शन की प्रवृत्ति अत्यंत प्रखर और मुखर है। डॉ. परमानंद पांचाल ने ‘दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन’ (2008, साहित्य अकादेमी) की भूमिका में विस्तार से दक्खिनी हिंदी साहित्य के उद्भव और विकास पर प्रकाश डाला है जिसमें अनेक स्थलों पर इसकी प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में सूफ़ी साहित्य को रेखांकित किया गया है। इस तथ्य की पुष्टि संचयन में संकलित रचनाओं से भी भली प्रकार होती है।

मूलतः दिल्लीवासी ख़्वाजा बंदा नवाज गेसू दराज़ (1312-1421) अपनी वृद्धावस्था में बहमनी शासक फिरोज शाह के समय में गुलबर्गा आए थे| स्मरणीय है कि
‘‘बहमनी शासन काल में सरकारी कार्यालयों की भाषा हिंदी (दक्खिनी) ही थी। सूफ़ी संतों को धर्म प्रचार की पूर्ण स्वतंत्रता थी। बहमनी युग में इन्हीं सूफ़ी संतों ने धर्म प्रचार के लिए दक्खिनी में रचनाएँ कीं।’’ (वही, पृ.सं. 72)।
बंदा नवाज़ की रचनाओं में मैराजुल आशकीन, हिदायतनामा, तिलावतुलवजूद, शिकारनामा और रिसाला सहबारह तथा दूरूल उल्लेखनीय है। इनमें धर्मोपदेश, तसव्वुफ और हदीस की शिक्षा पर जोर दिया गया है। मैराजुल आशकीन में तसव्वुफ और धर्म की परिभाषाएँ दी गई हैं। आशिकों की मेराज अर्थात भक्तों की सीढ़ी शीर्षक यह ग्रंथ गद्य रचना है और इसे दक्खिनी में तसव्वुफ की शिक्षा देने वाला पहला ग्रंथ कहा जा सकता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि जहाँ अन्य भाषाओं में इस काल की सूफ़ी रचनाएँ पद्यात्मक है वहीं दक्खिनी हिंदी का यह आरंभिक सूफ़ी ग्रंथ गद्यात्मक है। संभवतः इसका कारण यह रहा हो कि बंदा नवाज़ का उद्देश्य मनोरंजन अथवा रसास्वादन न होकर धार्मिक उपदेश करना था। इस सूफ़ी धर्मोपदेश का एक उदाहरण द्रष्टव्य है -
‘‘इंसान के बूजने कूं पाँच तन, हर एक तन कूं पाँच दरवाज़े हैं, हौर पाँच दरबान हैं। पैला तन बाजिबुलवजूद मोकम उसका शैतानी, नफूस उसका उम्मारा, याने वाजिब के आंक सूं गै़र देखना। सौ हिरन के कान सों गै़र न सुनना सों। हसद नक सों बदबूई न लेना सों। बुग्जके ज़बान सूं बदबुई न लेना सों, कीना के शहवत कूं गै़र जाका ख़र्चना, सो पीर तबीब कामिल होना। नबज पिछान कर दवा देना।’’ (मुहीउद्दीन क़ादरी ‘ज़ोर’, दकनी अदब की तारीख, पृ.सं. 12)।
अपनी प्रसिद्ध संक्षिप्त कविता चक्कीनामा में भी कवि ने धर्म और दर्शन की बारीकियों को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया है - देखो वाजिब तन की चक्की/पीऊ चातर हौके सक्की/सोकन इब्लिस खिंच-थक्की/के या बिस्मिल्ला हो अल्ला।

सुल्तान अहमद शाह तृतीय (1460-1462) के दरबारी कवि निजामी बीदरी की प्रसिद्ध मसनवी ‘क़दमराव व पदमराव’ को दक्खिनी हिंदी का आदि चरित काव्य माना जाता है (डॉ. वी.पी. मोहम्मद कुंजमेत्तर, आधुनिक हिंदी का स्रोत, पृ.सं. 13)। इन्होंने परंपरागत धार्मिक लोकगाथा को आधार बनाया और धर्म शिक्षा के साथ-साथ लोकरंजन के उद्देश्य को भी साधा। इन्हें दक्खिनी हिंदी को धर्म भाषा से आगे जनभाषा बनाने का श्रेय प्राप्त है -
के जो तूं बोले मुझे दुक्ख ना/जो बोल्या करे भाई मुझे सुक्ख ना।
सूफ़ी सिद्धांतों की व्याख्या करने वाले कवि के रूप में शाह मीरांजी शम्सुल अश्शाक़ (1408-1496) का नाम उल्लेखनीय है। खुशनामा, खुश नग्ज, बशारतुलल जिक्र, शिकारनामा, शहादतुल हक़ीक, मग्ज़े-मरगूबे तथा चहार शहादत इनकी मुख्य रचनाएँ हैं। बंदा नवाज़ के शिष्य शाह मीरां जी ने जनभाषा में सूफ़ी मत का प्रचार करके इतनी लोकप्रियता प्राप्त की थी कि उन्हें शम्सुल उश्शाक अर्थात प्रेमियों का सूर्य कहा जाने लगा।

सूफ़ी प्रेम की काव्यात्मक अभिव्यक्ति लुतफी की गज़लों में भी द्रष्टव्य है -
खिलवत में सजन के मैं मोम की बती हूँ/यक पाँव पर खड़ी हूँ जलने पिरत पती हूँ/सब निस घड़ी जलूँगी जागा सूँ न हिलूँगी/ना जल को क्या करूँगी अवल सूं मद मती हूँ।
दक्खिनी साहित्य का प्रारंभिक काल 1300 से 1490 ई. माना जाता है। अब तक जिन रचनाकारों की चर्चा की गई वे इसी काल के हैं। 1490 से 1687 ई. को दक्खिनी साहित्य का मध्यकाल कहा जाता है जो अत्यधिक महत्वपूर्ण है इसे दक्खिनी का स्वर्ण युग भी माना जा सकता है। इस काल की सूफ़ी रचनाओं में भक्ति और शृंगार का अद्भुत समन्वय पाया गया है। शाह अशरफ (1459-1529) ने अपनी प्रसिद्ध मसनवी नौसरहार (1504) में कर्बला की घटनाओं को आधार बनाया| इसमें नौ अध्याय हैं , कवि ने अपनी भाषा को हिंदवी कहा है -
ऩज्म लिखी सब मौजूंआन, यों सब हिंदवी कर आसान।
कवि ने कर्बला की मूल कथा में परिवर्तन भी किया है और अन्य कथाओं का समावेश करके इसे यजीद और हुसेन के संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया है जिसका कारण जैनब नामक सुंदरी है। ऐसा करके सूफ़ी साधना के सोपानों को कथा में समाविष्ट किया गया है। ईश्वर के संबंध में कवि का यह कथन द्रष्टव्य है -
ऐसा क़ादिर एक खुदा, पैदा कीते शाह व गदा/कोई अयाने कोई फ़क़ीर, कोई अखीर/ आपीं छिप्पा खेले छंद, तुर्कन हिंदून लाया दंद।
कहा जाता है कि शाह अशरफ बीहड़ वनों में रहते थे इसलिए इन्हें अशरफ बयाबानी के नाम से भी जाना जाता है।

बीजापुर के आदिल शाही वंश (1490-1686) के शासकों (नौ) के धर्मसहिष्णु, उदार, सुसंस्कृत, विद्या व्यसनी और कलाप्रेमी होने के कारण इस काल में दक्खिनी साहित्य खूब फला-फूला। इस काल में ईरानियों का प्रभाव कम होने के साथ देशी भाषा और संस्कृत का सम्मान बढ़ा। इब्राहीम आदिल शाह के काल में
‘‘दक्खिनी को राज्य की सरकारी भाषा बना दिया गया। इससे इस भाषा की जडे़ं इतनी सुदृढ़ हो गई थीं कि इनके उत्तराधिकारी अली आदिल शाह के भरसक प्रयत्नों के बावजूद फ़ारसी का चलन न हो सका।’’ (डॉ. परमानंद पांचाल, दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन, पृ.सं. 80)।
शाह मीरां जी के पुत्र बुरहानुद्दीन ‘जानम’ (1544-1583) महान सूफ़ी कवि और धर्मोपदेशक थे| इनकी रचनाओं में इर्शादनामा, सुख सुहेला, वसीयतुल हादी, मुनफअतुल ईमान, हजतल बक, कुफ्रनामा, मुसाफिरत शेखांमियां, नुक्ते वाहिद, नसीमुल्कलाम, विशारतुल-जिकर, पंचगंज, दोहरे और खयाल, रमूजलवासलीन, कलमातुल हकायक, मजमुआतुल आशिया आदि के नाम शामिल हैं। इर्शादनामा में कवि ने तसव्वुफ के विषयों पर भली प्रकार प्रकाश डाला है। सुख-सुहेला में आत्मा और परमात्मा के आध्यात्मिक प्रेम की प्रशंसा की गई है। यह भी उल्लेखनीय है कि इन्होंने एक ओर हिंदू -मुस्लिम भेदभाव तथा धार्मिक पाखंड की आलोचना की है तथा दूसरी ओर प्रेम की महिमा में दोहरे और खयाल भी रचे है -
निस दिन जागे बिरह मारी/न नींदा देखा नैन पड़े/पलखे मेरी आग बेल क्यों/सपने देखूँ सोये खड़ें।
बुराहनुद्दीन जानम (1544-1583) की कुछ रचनाएँ सीधे-सीधे कबीर (1398-1518) की याद दिलाती हैं -
मसि कागद थे क्यों होवे ग्यान, पकड़ेगे कुछ ल्या ईमान/कोई बेस खिल्वत भूक मरे, कोई देसंतर लेय फिरे/ xxx/पढ़-पढ़ पंडित जनम गंवाया रहे सुन रीज/पुरान पुस्तक देख ढंढोले बसे निराला नीज/xxx/जाकिर होकर दम चलावे मनके लेकर हात/दिल के मनके फेर्यां नाहै तब लग ख़ाली बात।
मुहब्बतनामा, रम्जूस्सालकीन, रिसालागुफ्तारशाह जैसी कृतियों के रचनाकार अमीनुद्दीन अली आला (1508-1675) ने सूफ़ी साधना का विवेचन करते हुए कहा है कि - '
मज़हब हमारा सूफ़िया और मशरफ हमारा दीद है, तो दिल में आया कि बयान करूँ हर दो कोम के सूफ़ियाँ का दक्खिनी ज़बान सूं।'
इन्होंने सब धर्मों की समानता को तर्कपूर्वक स्थापित किया। यह जानकारी काफी रोचक है कि हिंदू धर्म विषयक शब्दों की एक पारिभाषिक शब्दावली भी इन्होंने बनाई जो इस प्रकार हैं -
ऋग्वेद = किताबे तौरते, ब्रह्मादिवेद = वजूद, अवस्था = हाल, यजुर्वेद = किताबे इंजील, सामवेद = किताबे जंबूर, अथर्ववेद = दाऊद पैगंबर, अंतरंगववेद = कुरान, अशुरदेव = मुहम्मद साहब आदि।
इसके उपरांत बहरी की प्रसिद्ध रचना मनलगन (1702) का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें हिंदी भाषा में अनेक धार्मिक विषयों पर चर्चा की गई हैं -
हिंदी तो ज़ुबान च है हमारी/कहने न लग हमन को भारी।
इन्होंने अरबी शब्दों के स्थान पर प्रयुक्त हिंदी पर्यायों की एक सूची भी मनलगन के अंत में दी है।

सूफ़ी कवि शाह अबुल हसन कादरी की रचना सुखअंजन बहुत प्रसिद्ध है जिसमें आंखमिचौनी के खेल के माध्यम से सूफ़ी सिद्धांतों की व्याख्या की गई है -
खेल में ऐसा खेल होवे/पिया मिलन का मेल होवे। (डॉ. सैयदा जाफ़र, सुखअंजन, पृ.सं. 111)|
1508 से 1687 ई. का काल दक्कन में कुतुबशाही शासन का काल है। इस वंश के शासक (आठ) भी उदार, सहिष्णु तथा कलाप्रेमी थे तथा इस अवधि में भी दक्खिनी को राजभाषा का सम्मान प्राप्त था। सम्राट अकबर के समकालीन मोहम्मद कुली कुतुबशाह (1565-1611) दक्खिनी हिंदी के ऐसे पहले कवि माने जाते हैं जिन्होंने भारतीय जीवन में गहरे पैठकर कविताएँ रचीं।
‘‘इनके काव्य में व्यापक जन-जीवन का चित्रण है। इनकी कविताओं का लगभग 1800 पृष्ठों का एक बृहत् संग्रह कुलियात कुली कुतुबशह के नाम से प्रकाशित हुआ है। इन्हें दक्खिनी का हाफ़िज़ कहा जाता है। कुली के काव्य में भावों की भी विविधता और व्यापकता है। यदि एक ओर सूफ़ी संतों के रहस्यात्मक पारलौकिक प्रेम का चित्रण है तो दूसरी ओर इहलौकिक प्रेम का सतरंगी रंग इनकी भावभूमि में है।’’ (डॉ. परमानंद पांचाल, द.हि.का.स., पृ.सं. 91)।
यहाँ कुली कुतुबशाह की एक प्रसिद्ध ग़ज़ल द्रष्टव्य है -
पिया बाज प्याला पिया जाए ना/पिया बाज इक तिल जिया जाए ना/कहे थे पिया बिन सबूरी करूँ/कह्या जाए अम्मा किया जाए ना/नहीं इश्क जिस वह बड़ा कूढ़ है/कधीं उससे मिल बैसिया जाए ना/‘कुतुबशाह’ न दे मुँझ दिवाने कूँ पंद/दिवाने कूँ कुच पंद दिया जाए ना।
कुतुबशाही काल के महानतम कवि मुल्ला वजही गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे। इन्होंने अपनी कृति कुतुबमुश्तरी (1600 ई.) में कुतुब (बादशाह कुतुबशाह) और मुश्तरी (भागमती) की प्रेमगाथा लिखी है जिसमें स्थान-स्थान पर प्रेम, विरह और ज्ञान को पारिभाषित किया गया है -
नको छांड़ साहब की ख़िदमत तू कर/के ख़िदमत ते होत है प्यार नफ़र।
उल्लेखनीय है कि
‘‘वजही ने 1635 ई. में सबरस नाम से एक महान गद्य-ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें सूफ़ी साधना के गूढ़ विचार प्रतीकों के रूप में साहित्यिक सरसता के साथ प्रस्तुत किए गए हैं। सबरस दक्खिनी की सर्वोत्तम रचना मानी जाती है। वजही की इस रचना को हम तुकांत गद्य कह सकते हैं। स्वयं लेखक ने भी इसकी ओर संकेत करते हुए कहा है -
आज लग न कोई इस जहान में, हिंदोस्तान में हिंदी ज़बान में इस लताफत इस छंदों से नज़्म और नस्र मिलाकर, गुला कर नहीं बोल्या।
भाषावैज्ञानिक और साहित्यिक दोनों ही दृष्टियों से वजही के सबरस को दक्खिनी की अमर कृति कहा जा सकता है। इस पुस्तक में वर्णित कथा एक प्रकार का रूपक है, जो सूफ़ी विचारधारा पर आधारित है। इसमें बुद्धि और प्रेम का संघर्ष चलता है। कथा का आरंभ इस प्रकार से होता है, नक़ल-एक शहर था। शहर का नाउं सीस्तान, इस सीस्तान के बादशाह का नाउं अक़्ल, दीन व दुनिया का सारा काम उसतै चलता, इसके हुक्म बाज़ जर्रा कई नइँ हिलता। इसके फर्माए पर जिनो चले, हर दो जहाँ में हुए भले दुनिया में ख़ूब कहवाए, चार लोकों में इज्जित पाए। सबरस का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। यह महत्व केवल कथानक के कारण ही नहीं है, अपितु वजही की निजी शैली, अगाध पांडित्य और बहुज्ञता के कारण है। वजही ने सबरस में भी भारतीय उपमाओं और आख्यायिकाओं का उपयोग किया है - साहब वही च जिसे साहबी करना आई, नफ़र (सेवक) वही च जो कर जानना है नफराई। राम जैसा साहब आए तो हनुमंता जैसा नफ़र पैदा होए। दरिया होकर बैठे कोई तो वहाँ अपै गौहर पैदा होए।’’ (वही, पृ.सं. 93-94)।
इन्होंने अपनी गद्य रचना ताजुल हकायक में अख़लाक़ और तसव्वुफ का तर्कपूर्वक प्रतिपादन किया है जैसे -
‘‘अरे भाई गांडा था सो शकर हुआ। शकर थी सो अब्लूज हुई, अब्लूज था सो नबात हुई। यो जहू पकड़ते आई खुदाई। शकर का खानहारा, आग के खानहारे कूं क्या पहचाने। शरबत का सौदा देख्या सो ज़हर का सौदा क्या जाने।’’ (आले अहमद सरूर, अलीगढ़ तारीख़ अदब उर्दू, पृ.सं 379)।
सैफुलमलूक व बदीउज्जमाल, तूतीनामा और मैना सतवंती के रचनाकार गवासी ने अपनी कृतियों में अलिफ लैला, शुकसप्तति और लोककथाओं को आधार बनाया है। मैना सतवंती (1608) को भारतीय परंपरा का प्रेमाख्यानक कहा गया है तथा इसकी तुलना मौलाना दाऊद कृत चंदायन से की जाती है।

इसी क्रम में इब्नेनिशाती के प्रेमाख्यानक फूलबन की भी चर्चा की जा सकती है जिसमें केशव के काव्य की भाँति आलंकारिकता का आग्रह है। खास बात यह है कि इनके काव्य में जन कविता का मुहावरा पाया जाता है -
भिबूती ले अपस मूं को लगाई/पूनम का चांद बादल में छुपाई/बिरह के दर्द दुःख लूं पदमिनी वो/चली वनवास ले वैरागनी वो। (देवीसिंग चौहान , फूलबन, पृ.सं. 21)।
इनके अलावा मध्यकाल के प्रभावशाली सूफ़ी संत शाह राजू हुसैनी ने भी अपने काव्य में तसव्वुफ़ और इरफान पर प्रकाश डाला है - सुन री सुहागन सुन री सुन/यक-यक बोल चित धर सुन/कन सूए कैत पाकी कमान/खोलना कहना भेद बयान।

दक्खिनी साहित्य के इतिहास का उत्तर काल (1687-1840 ई.) एक प्रकार से कवियों के राज्याश्रय से वंचित होते जाने का काल है। परंतु क्योंकि दक्खिनी केवल राजदरबार तक ही सीमित नहीं थी बल्कि जनता में भी इसे व्यापक स्वीकृति प्राप्त थी, इसलिए साहित्य सृजन का प्रवाह राज्याश्रय हटने के साथ एकाएक रुक नहीं सका। हाँ, यह जरूर सच है कि औरंगजेब की बीजापुर और गोलकोंडा विजय के बाद इस प्रवाह का वेग क्रमशः धीमा पड़ता गया।

दक्खिनी के अंतिम और उर्दू के प्रथम कवि वली दक्खिनी (1668-1741) ने सूफ़ी प्रेम को अपने काव्य का विषय बनाया -
पिरत की जो कंठा पहने, उसे घर बार करना क्या/हुई जोगिन जो कोई पी की, उसे संसार करना क्या/जो पीवै नीर नैनां का उसे क्या काम पानी सो/जो भोजन दुःख का करते हैं उसे आधार करना क्या। (सैयद नूरुल हसन हाशमी, कुलियात वली, पृ.सं. 49)।
तिरुनामल (तिरुअण्णामलै, तमिलनाडु) के निवासी सूफ़ी संत शाहतुराब () ने दक्खिनी में ज़हुर कुल्ली, गंजुल असरार, गुलज़ारे वहदत, ग्यानसरूप, मसनबी महज़बीं-ओ-मुल्ला तथा मन समझावन की रचना की। मन समझावन में दार्शनिक विचारों को बहुत सहज ढंग से स्पष्ट किया गया है। जैसे ‘सृष्टि से पूर्व क्या था?’ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है -
न आकाश ना तेज़ ना पिरथवी जल/न था सूर चनदर, विरसपत न मंगल/न शंक शशि, बुध न वायु न बादल/न पाताल, नौखंड, ना डोगरा जल/गुरु जी कहो राम जी कां अर्थ तब/न था कुच यो मंडान सरपंच का जब।
अंततः हातिम कृत सूफ़ी आस्थाओं से अभिभूत आख्यानक किस्सा हुस्नोदिल का भी उल्लेख यहाँ आवश्यक है, जिसमें कवि ने
‘‘प्रेम एवं बुद्धि के संघर्ष को अच्छी तरह व्यक्त किया है। कहानी का कथानक वजही का सबरस है। सूफ़ियों की आस्था के अनुसार सौंदर्य और हृदय के मध्य एक पर्दा है। पर्दा हटते ही दोनों का मिलन होता है -
हुस्न होर दिल बीच था पर्दा हिजाब/दिल हुआ उसकूं मरातिब बेहिजाब।’’ (डॉ. परमानंद पांचाल, द.हि.का.सं., पृ.सं. 103)।
इस प्रकार स्पष्ट है कि दक्खिनी हिंदी में सूफ़ी काव्यसृजन की प्रवृत्ति असंदिग्ध रूप से समृद्ध है। हिंदी की सूफ़ी काव्य परंपरा का पाठ इसके बिना अधूरा समझा जाना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि दक्खिनी कवियों की सूफ़ी रचनाओं का सावधानीपूर्वक लिप्यंतरण और पाठालोचन करके इन्हें देवनागरी लिपि में उपलब्ध कराया जाए तथा समग्र मूल्यांकन द्वारा हिंदी साहित्य में सम्मिलित करके पूर्वस्वीकृत सूफ़ी काव्यधारा में उचित स्थान पर प्रतिष्ठित किया जाए। हिंदी भाषा और साहित्य का जो यह प्रवाह मुख्यधारा से दूर छिटका हुआ अकेला पड़ा है, उसके योग से वह धारा और भी परिपुष्ट हो सकेगी। इसके अतिरिक्त दक्खिनी सूफ़ी साहित्य को अपनी मुख्यधारा में समाविष्ट करके हिंदी साहित्य अधिक धर्मनिरपेक्ष, अधिक लोकतांत्रिक, अधिक राष्ट्रीय और अधिक अखिलभारतीय होने का प्रमाण दे सकता है।



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