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शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा

जन्मदिवस [27 नवंबर] पर विशेष
बच्चन के काव्य में मनुष्य


Picture of Harivansh Rai Bachchan

‘‘मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा।’’


कविता और गद्य दोनों में निरंतर निश्छल रूप से अपने आपको पाठकों में समक्ष प्रस्तुत करने वाले अनन्य शब्दशिल्पी डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन’ (27 नवंबर 1907 - 18 जनवरी 2003) ने कभी इसकी परवाह नहीं कि जग उन्हें साधु समझता है या शैतान। उन्होंने तो सहृदय लोक को अपनी कसौटी माना और उसे ही अपना प्रियतम मानकर अपनी ‘मधुशाला’ समर्पित कर दी, जग तो प्रसाद पाता ही -

'‘पहले भोग लगा लूं तेरा, फिर प्रसाद जग पाएगा।’'


छलरहित व्यवहार, जो जाने कितने अयाचित शत्रुओं को तलवारें भाँजने को प्रेरित करता है - बस निश्छल प्यार भर है। यों तो जग और जीवन भार ही है पर प्यार इसे सह्य और मधुर बना देता है -

'‘मैं जग जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ।’'


प्यार लिए फिरोगे तो जग तुम्हें ऐसे कभी न जाने देगा! पर प्यार करने वाले भला जग की परवाह कब करते हैं? यों भी स्नेह-सुरा का सेवन करने वालों को इतनी फुरसत कहां कि दुनिया वालों का कुत्सित प्रलाप सुनते बैठें -

'‘मैं स्नेह सुधा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ।’'


लुकाछिपी की जरूरत भी क्या है ? छिपाते तो वे हैं जो प्यार को पाप समझते हैं। बच्चन के मूल्य बोध में प्रेम कोई वर्जित फल नहीं है। वह तो सृष्टि का हेतु है - उतना ही सहज और निष्कलुष जितना दिवा-रात्रि का प्रत्यावर्तन:

'‘सृष्टि के आरंभ में मैंने उषा के गाल चूमे।
बाल रवि के भाग्य वाले दीप्त भाल विशाल चूमे।।
प्रथम संध्या के अरुण दृग चूमकर मैंने सुलाए।
तारिका कलिका सुसज्जित नव निशा के बाल चूमे।।’’


बच्चन के लिए प्रेम प्रकृति का उत्सव है। प्रकृति और पुरुष जब भी जहाँ भी मिल गए, वहीं आनंद की वृष्टि हो गई, वहीं उल्लास की सृष्टि हो गई -

'‘जहाँ कहीं मिल बैठे हम-तुम, वहीं हो गई मधुशाला।’'


मधुशाला भी ऐसी वैसी नहीं, इंद्रधनुष को चुनौती देने वाली -

‘‘महँदी रंजित मृदुल हथेली
में माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले
स्वर्णवर्ण साकी बाला,
पाग पैंजनी जामा नीला
डाट डटे पीने वाले -
इंद्रधनुष से होड़ रही ले
आज रंगीली मधुशाला।’’


ऐसा अवसर मिले और छद्म ओढ़कर मनुष्य उसे छिपने-छिपाने के पापबोध में ही गँवा दे, यह न उचित है न वांछित। यह अवसर है मनुष्य होने का सौभाग्य, और यह मधुशाला है जीवन। मधु शराब नहीं है, प्रेम है - अनिवार प्रेम । काम तो मनुष्य और पशु दोनों में सामान्य है।प्रेम के रूप में आत्मा का विस्तार केवल मनुष्य जीवन की उपलब्धि है। उसे ओक से पीने में कैसी लाज-

‘‘आज मिला अवसर तब क्यों
मैं न छकूँ जी भर हाला,
आज मिला मौका तब फिर क्यों
ढाल न लूं जी भर प्याला ;
छेड़छाड़ अपने साकी से
आज न क्यों जी भर कर लूं -
एक बार ही तो मिलती है
जीवन की यह मधुशाला।’’


जीवन रूपी यह मधुशाला अनंत उल्लास का स्रोत बनी रहे, इसके लिए प्रेमपात्र और प्रिय के मध्य द्वैताद्वैत की क्रीड़ा चला करती है। थकना और सोना इस क्रीड़ा में नहीं चलता। एक सतत चलने वाला रास-महारास! निरंतर चलने वाला संवाद! तभी तो बच्चन को कहना पड़ा :

‘‘साथी! सो न, कर कुछ बात।
बात करते सेा गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू!
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात।’’
असल बात तो यह है कि सो जाना मर जाना है -

‘आओ, सो जाएँ , मर जाएँ ।’


पर मरना न तो कवि स्वीकार करता है, न प्रेमी (‘‘हम न मरैं, मरिहै संसारा’' - कबीर) इसलिए ‘अग्निपथ’ का भी वरण करना पड़े तो बच्चन को स्वीकार है! इस पथ पर धोखा भी मिल जाए, तो कोई शिकवा नहीं-

‘‘किस्मत में था खाली खप्पर
खोज रहा था मैं प्याला,
ढूंढ़ रहा था मैं मृगनयनी
किस्मत में थी मृगछाला ;
किसने अपना भाग्य समझने में
मुझ सा धोखा खाया -
किस्मत में था अवघट मरघट
खोज रहा था मधुशाला।’’


कवि बच्चन के लिए काव्य साधना मानव जीवन को बेहतर और उच्चतर बनाने की साधना थी। साहित्यकार के दायित्व के संबंध में उनका प्रश्न था कि क्या यूरोप के सारे साहित्यकार मिलकर प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध को रोक सके। उनकी दृष्टि में साहित्यकार का अपना क्षेत्र या स्वधर्म मानव को अधिक मानवीय चेतना देना है। वे चाहते थे कि साहित्य मनुष्य को केवल मनुष्य के नाते समझे और उसके अहं को इतना छील दे कि वह दूसरे मनुष्य के साथ अपनी समता देख सके। इससे उसका व्यवहार छलरहित हो सकेगा और तब उसे कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं होगी। वैसे प्रेम तो न छिपाया जा सकता है, न बताया। जिसे छिपाना संभव हो, वह प्यार ही क्या! पर जिसे बताना पड़े, वह प्यार भी क्या -

‘‘प्यार किसी को करना,
लेकिन कहकर उसे बताना क्या?’’


वस्तुतः बच्चन का काव्य उनके जीवनक्रम के साथ-साथ मधुकाव्य, विषादकाव्य, प्रणयकाव्य और राजनैतिक-सामाजिक काव्य जैसे सोपान पार करते हुए अपनी विकासयात्रा संपन्न करता है (डॉ. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, 428)। इस विकासयात्रा में उनका काव्यनायक अथवा अभिप्रेत मनुष्य भी निरंतर विकास करता चलता है। मधुकाव्य (मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश) का मनुष्य उत्तरछायावाद की प्रवृत्ति के अनुरूप शरीर के अनुभवों को अधिक महत्व देता दिखाई पड़ता है। वह नियति, भाग्यवाद और मृत्युबोध से ग्रस्त होने के दौर को पार करता हुआ क्रमशः यौवन का उल्लास, साहस और चुनौतियों का सामना करने का उत्साह संजोकर अवसाद को जीतने का प्रयास करता है। अकेलेपन के घनघोर अँधेरे के पार झिलझिलाते प्रकाश के प्रति आस्था बच्चन के मधुकाव्य के मनुष्य को ‘साधारण मनुष्यों का नायकत्व’ प्रदान करती है। यह मनुष्य विषादकाव्य (निशानिमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर) में अवसाद की कड़ी चोटें झेलता दिखाई देता है परंतु नीड़ उजड़ जाने पर भी हताश नहीं है तथा अपने शोक को इस प्रकार श्लोकत्व प्रदान करता है कि अनुभूति की सघनता और करुणा के योग से उसमें देवत्व को भी ललकार सकने वाली तेजस्विता जन्म लेती है। इस तेजस्विता में दुर्बलता को दुलराने वाली दुर्लभ मानवता (‘‘दुर्बलता को दुलराने वाली मानवता दुर्लभ है’’- डॉ. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, 429) निहित है। इस मनुष्य का अनुभूतिजन्य करुण आत्मविश्वास द्रष्टव्य है :

‘‘मुझ में है देवत्व जहाँ पर,
झुक जाएगा लोक वहाँ पर,
पर न मिलेंगे मेरी दुर्बलता को दुलराने वाले!’’
(निशा निमंत्रण, गीत 70)|


इसी से वह संकल्पवान और आस्थाशील मनुष्य प्रकट होता है जो ‘क्षतशीश’ होकर भी ‘नतशीश’ होने को तत्पर नहीं है। इस मनुष्य का अगला विकास प्रणयकाव्य (सतरंगिनी, मिलनयामिनी, प्रणय पत्रिका) में नीड़ का फिर-फिर निर्माण करने तथा अँधेरी रात के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी अँधेरे के सामने आत्मसमर्पण किए बिना दीवा जलाकर अंधकार पर प्रकाश की जीत को सुनिश्चित करने वाले धीर नायक के रूप में सामने आता है। सामाजिक-राजनैतिक कविताओं (बंगाल का काल, खादी के फूल, सूत की माला, धार के इधर-उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूँटे, दो चट्टानें, जाल समेटा) तक आते-आते बच्चन का यह काव्य-नायक मनुष्य अपने व्यक्तित्व के रूपांतरण और समाजीकरण में सफल हो जाता है ; और यही मनुष्यत्व की सार्थकता है - कवित्व की भी :

‘‘ओ जो तुम बाँधकर चलते हो हिम्मत का हथियार,
ओ जो तुम करते हो मुसीबतों व मुश्किलों का शिकार,
ओ जो तुम मौत के साथ करते हो खिलवार,
ओ जो तुम अपने अट्टहास से डरा देते हो मरघटों का सुनसान,
भर देते हो मुर्दों में जान,
ओ जो तुम उठाते हो नारा - उत्थान, पुनरुत्थान, अभ्युत्थान!
तुम्हारे ही लिए तो उठता है मेरा क़लम,
खुलती है मेरी ज़बान।
ओ जो तुम ताजे़,
ओ जो तुम जवान!’’
(‘आह्वान’, बुद्ध और नाचघर, 28)


बच्चन की दृष्टि में वह मनुष्य मनुष्य नहीं, पशु है जिसका स्वाभिमान जीवित न हो। उनका काव्य ऐसे मनुष्य की ख़ोज का काव्य है जो युद्धक्षेत्र में भुजबल दिखलाता हुआ प्रतिपल अविचल और अविजित रहे। यह मनुष्य अपने खून-पसीने से प्राप्त अधिकार का उपभोग करता है तथा भाग्यवाद का प्रचार करने वाले मठ, मस्जिद और गिरजाघरों को ‘मनुज-पराजय के स्मारक’ मानता है :

‘‘झुकी हुई अभिमानी गर्दन,
बँधे हाथ, नत-निष्प्रभ लोचन!
यह मनुष्य का चित्र नहीं है, पशु का है, रे कायर!
प्रार्थना मत कर, मत कर, मत कर!’’
(बच्चन रचनावली - 1, एकांत संगीत, 254)

बच्चन अपनी कविता में जिस मनुष्य को गढ़ते हैं, वे चाहते हैं कि वह भले ही दोस्तों की बेवफाई का शिकार बनकर अभागा रह जाए लेकिन उनके चेहरे पर पड़े मित्रता के उस आवरण को छिन्न-भिन्न न करे जिसके आधे तार उसके अपने हाथ के काते और बुने हैं ;परंतु शत्रु के समक्ष किसी भी प्रकार की भीरुता उन्हें सह्य नहीं है, तभी तो -

‘‘शत्रु तेरा
आज तुझ पर वार करता
तो तुझे ललकारता मैं -
उठ,
नहीं तू यदि
नपुंसक, भीरु, निर्बल,
चल उठा तलवार
औ’ स्वीकार कर उसकी चुनौती।’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘दोस्तों के सदमे’, 91)


यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कवि को अपनी कविता के लिए भले और बुरे दोनों ही तरह के मनुष्य मिले हैं, परंतु उसकी खोज का लक्ष्य केवल वही मनुष्य है जो मनुष्यता के उदात्त गुणों से संपन्न हो। यह खोज तब तक चलती रहेगी जब तक विश्वासघात करने वाला आदमजात सचमुच अपने दृष्टिकोण को कम-से-कम इतना बड़ा न बना ले कि किसी का सम्मान कर सके, किसी की कमज़ोरी का आदर कर सके, क्योंकि इसी गुण से मनुष्य को देवत्व प्राप्त होता है :

‘‘बहुत बड़ा कलेजा चाहिए
किसी का करने को सम्मान,
और किसी की कमज़ोरियों का आदर -
यह है फ़रिश्तों के बूते की बात,
देवताओं का काम!’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘कडुया अनुभव’, 105)


पहाड़ी चिड़िया के बहाने अपने काव्य नायक को संबोधित करते हुए बच्चन उसे किसी भी प्रकार का प्रलोभन या बंधन स्वीकार करने से रोकते हैं तथा उसे मुक्त आकाश, पृथ्वी और पवन से प्रेरणा प्राप्त करने को कहते हैं। कवि अपने मनुष्य से चाहता है कि वह कभी पराजय स्वीकार न करे बल्कि चुनौतियों का डटकर मुक़ाबला करे -

‘‘बादलों के गर्जनों से,
बात करते तरु-दलों से,
साँस लेते निर्झरों से
राग सीखो। xxx
नीड़ बिजली की लताओं पर बनाओ।
इंद्रधनु के गीत गाओ।’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘काल विहंगिनी’, 116)


चिड़िया से आगे बढ़कर कवि चील-कौए और पपीहे के द्वंद्व के माध्यम से मनुष्य की अंतर्वृत्तियों के संघर्ष को रूपायित करता है। सब कुछ को हस्तगत करने की अविवेकपूर्ण क्षुद्र वासना के चील-कौए मनुष्य की अंतश्चेतना में तभी बस पाते हैं जब वह केवल स्वाति-जल की रट लगाने वाले पपीहे की गर्दन तोड़ देता है। मनुष्यत्व का संस्कार जगता है तो मनुष्य फिर से पपीहे की प्रतीक्षा करता है :

‘‘पालना उर में
पपीहे का कठिन है,
चील-कौए का, कठिनतर,
पर कठिनतम
रक्त, मज्जा,
मांस अपना
चील-कौए को खिलाना,
साथ पानी
स्वप्न स्वाती का
पपीहे को पिलाना। xxx
तुम अगर इंसान हो तो
इस विभाजन,
इस लड़ाई
से अपरिचित हो नहीं तुम!’’


बच्चन की कविता के मनुष्य का आदर्श वह स्फटिक निर्मल और दर्पण-स्वच्छ हिमखंड कदापि नहीं हो सकता जो गल-पिघल और नीचे को ढलककर मिट्टी से नहीं मिलता। उसका आदर्श तो वह नदी है जो मिट्टी के कलंक को भी अपने अंक में लेकर जीवन की गत के साथ मचलती है। समाज का वह कथित कुलीन वर्ग जो साधारण जीवन के लोकानुभवों से वंचित है, बच्चन का काव्यनायक नहीं है। हिमखंड अपने ठोस दुर्लभ आभिजात्य में कितना भी इतरा ले, कवि के मनुष्य का आदर्श तो नदी जल की सर्वत्र अयत्न सुलभता ही है -

‘‘उतर आओ
और मिट्टी में सनो,
ज़िंदा बनो,
यह कोढ़ छोड़ो,
रंग लाओ,
खिलखिलाओ,
महमहाओ।
तोड़ते हैं प्रेयसी-प्रियतम तुम्हें ?
सौभाग्य समझो,
हाथ आओ,
साथ जाओ।’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘चोटी की बरफ’, 126)


मनुष्यता की जययात्रा के मूल में मनुष्य की अदम्य जिजीविषा तथा अपराजेय संघर्षशीलता की परंपरा विद्यमान रही है। कवि बच्चन का मनुष्य इस परंपरा के दाय को स्वीकार करता है और इसके प्रति अपने उत्तरदायित्व से विमुख नहीं है। परंपरा का ऋण-शोधन करके ही विकास के क्रम को आगे बढ़ाया जा सकता है -

‘‘जो शकट हम
घाटियों से
ठेलकर लाए यहाँ तक,
अब हमारे वंशजों की
आन ,
उसको खींच ऊपर को चढ़ाएँ
चोटियों तक।’’
(बुद्ध और नाचघर, ‘युग का जुआ’, 129)


मनुष्य का जीवन निरंतर ऊहापोह, उत्थान-पतन और परिवर्तन की गाथा है : ऐसे परिवर्तन जो उसके ऊपर एकांत और निर्वासन की त्रासदी को नियति की तरह छोड़ देते हैं। इस एकाकी और निर्वासित मनुष्य की बेचैनी और उदासी साँझ के उस पिछड़े पंछी की तरह है जिसका नीड़ उजड़ चुका है। नीड़ का यह पंछी वह अनिकेतन मनुष्य है जिसकी पीड़ा को कवि ने अपने अनुभव से जाना है -

‘‘अंतरिक्ष में आकुल-आतुर,
कभी इधर उड़, कभी उधर उड़,
पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक - अकेला!
बीत चली संध्या की वेला!’’
(निशानिमंत्रण, गीत - 5)


साँझ की बेला बीतती है, तो अँधियारा और घनघोर तथा भयावह हो जाता है, लेकिन बच्चन का पथिक-मनुष्य इस अँधरे से डरकर न तो रुककर बैठ जाता है, न चुपचाप दबे पाँव चलता है ; इसके विपरीत वह सुनसान अंधकार के डर को ऊँचे स्वर के गीत की आरी से काटता है -

‘‘डर न लगे सुनसान सड़क पर,
इसीलिए कुछ ऊँचा कर स्वर,
विलग साथियों से हो कोई पथिक, सुनो, गाता आता है।
अंधकार बढ़ता जाता है।’’
(निशानिमंत्रण, गीत - 8)


अंधकार बढ़ता है, तो रात और गहरी होती है। रात गहराती है, तो प्रवंचनाओं की संभावना बढ़ जाती है। असंभव सपनों में खोए अपने काव्यनायक को सावधान करते हुए कवि कहता है -

‘‘सत्य कर सपने असंभव!
पर, ठहर, नादान, मानव --
हो रहा है साथ में तेरे बड़ा भारी प्रवंचन
अब निशा देती निमंत्रण।’’
(निशानिमंत्रण, गीत - 17)


काल की प्रवंचना और मनुष्य के प्रयत्न के द्वंद्व से ही मनुष्यता निखरती है। काल से जूझता हुआ यह मनुष्य अब कोई एकाकी व्यक्ति मात्र नहीं है, संपूर्ण मानवजाति का प्रतिनिधि है। कवि इस विश्वमानव के लिए शुभकामना व्यक्त करता है -

‘‘मानव का सच हो सपना सब,
हमें चाहिए और न कुछ अब,
याद रहे हमको बस इतना - मानव जाति हमारी !
जय हो, हे संसार, तुम्हारी!’’
(निशानिमंत्रण, गीत - 98)


इस विश्वमानव का दर्शन कवि बच्चन ने अपनी काव्ययात्रा के आरंभ में ही कर लिया था। उन्हें वह मनुष्य नहीं चाहिए जो संपूर्ण जगत को धर्म, जाति, वर्ग, संप्रदाय आदि के आधार पर बाँटता हो, बल्कि वे केवल ऐसे विद्रोही मनुष्य का ही स्वागत करने को तैयार हैं जो इन तमाम भेदों का अतिक्रमण कर चुका हो और ‘वसुधैव कुटुम्बकं' तथा ‘विश्वबंधुत्व’ का प्रतीक हो -

‘‘धर्म-ग्रंथ सब जला चुकी है
जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मस्जिद, गिरजे-सबको
तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादरि़यों के
फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का
स्वागत मेरी मधुशाला।’’
(बच्चन रचनावली -1, ‘मधुशाला’, 47)


अपनी शक्ति पर विश्वास तथा संघर्ष के प्रति दृढ़ संकल्प वे मूल्य हैं जिनसे कवि बच्चन ने अपने काव्यनायक के सहज मानवीय व्यक्तित्व को गढ़ा है। ये मूल्य उनके काव्य में अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार से व्यक्त हुए हैं। विपरीत परिस्थितियों की भीषणता से भयभीत होकर अपने प्रयत्न को छोड़ बैठना या अंतिम क्षण तक लड़े बिना ही हार मान बैठना बच्चन के मनुष्य का स्वभाव नहीं है ; उसे साधनहीनता के
बावजूद असाध्य ध्येय को भी साध लेने की अपनी क्षमता पर अटूट विश्वास है :
‘‘जायगा उड़ पाल होकर तार-तार विशद गगन में,
टूटकर मस्तूल सिर पर आ गिरेगा एक क्षण में,
नाव से होकर अलग पतवार धारा में बहेगी,
डाँड छूटेगा करों से, पर बचा यदि प्राण तन में

तैर कर ही क्या न अपने ध्येय को मैं जा सकूंगा ;
मथ चुके हैं कर न जाने बार कितनी विश्व-सागर!

धूलिमय नभ, क्या इसी से बाँध दूँ मैं नाव तट पर ?’’
(बच्चन रचनावली -1, 140)


इस सतत संघर्षशील, सहज संकल्पशाली, दृढ़व्रती तथा अपराजेय मनुष्य को अग्नि के अनंत पथ पर चलना स्वीकार है परंतु किसी बड़े वृक्ष से एक पत्ता-भर भी, छाँह माँगना गवारा नहीं। इसने कभी भी न थकने, न थमने और न मुड़ने की शपथ ली है। आँसू, पसीने और खून से लथपथ साधारण मनुष्य का यह संघर्ष असाधारण है; और इसीलिए महान भी :

‘‘अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

वृक्ष हों भले बड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत,माँग मत!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी! - कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

यह महान दृश्य है -
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!’’
(बच्चन रचनावली -1, ‘एकांत गीत’, 247)|


11 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

कभी न कण-भर खाली होगा
लाख पिएं, दो लाख पिएं!

कालजयी रचनाकार पर जितना कुछ भी लिखा जाय, कभी पूरा नहीं होता, पर आपने उस महान कवि की रचनाओं की आत्मा को यहां प्रस्तुत करके हमे धन्य कर दिया॥

kavita verma ने कहा…

gagar me sagar.sadhuvad.

Udan Tashtari ने कहा…

बेहद उम्दा आलेख!!

‘‘मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा।’’

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत शानदार आलेख. बधाई.

Kusum Thakur ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Kusum Thakur ने कहा…

इतने अच्छे आलेख को एक बार पढ़कर संतुष्टि नहीं मिलती है . बहुत बहुत धन्यवाद !!

Naveen Gupta ने कहा…

Nice

bhuwan ने कहा…

अति सुन्दर एवम ज्ञानवर्धक 🙏

Upendra Yadav ने कहा…

Hai agar tumme ye jajba Sagar de bhi takra saktey ho.jivan ki chunautiyo ko pal bar me dhul me uda saktey ho

परित्याग ने कहा…

सच ही अद्भुत

Niks ने कहा…

आपकी काव्य शेली में विद्या और कला की देवी माँ सरस्वती की कृपा है और बहुत ही अद्भुत आपने मन के भावों को कविता के माध्यम से व्यक्त किया है .