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मंगलवार, 17 नवंबर 2009

ऋषिकोंडा : मैं तो घोड़ी चढूँगा

शहर तो अच्छा ही है विशाखापट्टनम .अपने हैदराबाद से छोटा है ,तो शांत भी है.लोग भी भले हैं - अपनेपन से आतिथ्य निभाने वाले [अपवादस्वरूप 'शिविर' संयोजक स्थानीय संस्था की सर्वोच्च पदाधिकारी को छोड़कर]. मेरे तो कई सारे साहित्यिक मित्र और शिष्य भी हैं वहाँ. जिस बात का खतरा था वही हुआ. ट्रेन पर यूनस और अनुपमा अपने अपने जीवनसाथी और गाड़ी के साथ उपस्थित थे. दोनों का मीठा सा झगड़ा हुआ , पर गुरूजी को दो हिस्सों में बाँटने जैसी बुद्धिमत्तापूर्ण दुर्घटना नहीं हो सकी. तय हुआ कि आतिथ्य का प्रथम सौभाग्य सौभाग्यवती अनुपमा तिवारी को मिले. उनके घर से विदा होकर शिविरस्थल पर पहुँचे तो व्यवस्था संतोषजनक न लगने के कारण प्रिय यूनस अली रज़ा अपने आवास पर ले जाने की ज़िद पर अड़ गए. जाना पड़ा. गीता बेहद खुश थी [दरअसल यूनस-गीता मेरे पहले बैच के छात्र हैं. सहपाठी रहे; प्रेम किया ; विवाह किया - अंतरजातीय ].

मैं तो ठहरा कमराजीवी जंतु. कहीं भी जाता हूँ तो काम-धाम पूरा होने के बाद कमरा बंद करके सो जाता हूँ. लेकिन सब तो ऐसे असामाजिक प्राणी नहीं होते. घर से बाहर आते हैं तो घूमते-फिरते हैं, धर्म-लाभ करते हैं, पिकनिक मनाते हैं, दृश्यावलोकन करते हैं, और करते हैं ढेर सारी फोटोग्राफी - हर दृश्य पर अपने आपको डाल कर. डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ यद्यपि बहुत उत्सुक न थे लेकिन डॉ. अनुसूया अग्रवाल अपने बैंकाधिकारी पतिदेव के साथ आई थीं , तो स्वाभाविक था कि वे कुछ तो पिकनिक जैसा चाहती ही थीं. सयोजकों को कई बार इशारा भी किया गया, पर उन्होंने तो जैसे इशारों की भाषा सीखी ही नहीं थी. ऐसे में जब अचानक यूनस ने ऋषिकोंडा समुद्रतट चलने का प्रस्ताव रखा तो मानो कल्पवृक्ष ही मिल गया.

सचमुच अलग है ऋषिकोंडा. गोवा. मुंबई, चेन्नई, कोवलम और पांडिचेरी से यहाँ का समुद्र इस अर्थ में अलग प्रकृति का बताया जाता है कि शोर अधिक नहीं करता पर चोर किस्म का है. चुपचाप विशाल फन फैलाए व्यालों सी लहरें बेहद खतरनाक हैं. खैर , प्रकृति के तत्व के निकट पहुँचते ही मनुष्य जिस तरह सहज हो जाता है, हम भी होगए - बचपना अचानक छलकने लगा. पानी का भी मज़ा लिया और रेत का भी. हममें सबसे बुजुर्ग थे अमिताभ जी, वही सबसे ज्यादा किलक रहे थे. लौटने लगे तो बोले - बिना काव्यपाठ के जाएँगे ! तो जम गई कविता की बैठक - रेत पर अलग अलग आकार के केकड़े रेंग रहे थे, हम लोग उनके बिलों पर विराजमान थे; पर शायद हिंदी के कवि समझकर उन्होंने हम पर कृपादृष्टि नहीं की!

सूरज छिप चला था, हम भी चलने लगे ; तो प्रदीप कुमार अग्रवाल जी मचल उठे - मैं तो घोड़ी चढूँगा. अनुसूया जी ने आज्ञा दे दी.

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

"सयोजकों को कई बार इशारा भी किया गया, पर उन्होंने तो जैसे इशारों की भाषा सीखी ही नहीं थी."

इशारों की भाषा समझते तो पैसे कैसे बचाते! संयोजन का लाभ कैसे मिलता :)

कवि गोष्ठी पर केकडे़ श्रोता हो तो एक दूसरे की टांग खींचने ही व्यस्त रहे होंगे, या फिर हो सकता है किसी गोष्ठी संयोजकों की आत्मा रही होगी :)