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रविवार, 15 मार्च 2009

अकथ कहानी कबीर





किंवदंतीपुरुष के मर्म की पहचान :
‘अकथ कहानी कबीर’

- ऋषभदेव शर्मा

अब्बा कबीर से छोटे-मोटे काम करवाते रहते थे। एक दिन बोले, ‘‘सुनो कबीर, यह दो गुच्छे सूत के रंगरेज काका से रंगवाके ला दे। दाएं हाथ वाला हरा व बाएं हाथ वाला नारंगी रंग रंगवाने हैं। एक छोटा है और एक बड़ा, समझे? बोल देना बराबर काका से।’’


कबीर ने रंगरेज काका के सामने दोनों गुच्दे रख दिए और अब्बू का संदेशा दे दिया।


‘‘तनिक ठहरो। मैं अपने हाथ का काम निपटा लूँ। पर यह बताओ कि तुम किसके बेटे हो?’’


तब एक ग्राहक ने, जो पास ही बैठा था, बीच में बोल दिया, ‘‘यह किसी का बेटा वेटा नहीं। इसे तो नीमा और नीरू ने नदी किनारे वाले घाट की सीढ़ियों पर पड़ा पाया था। किसी काफिर का जाया है यह छोरा।’’


उनके दिल पर एक हथौड़े की चोट हुई। उनका हृदय बैठ गया। उन्हें ऐसा लगा मानो उनके पाँवों तले की जमीन खिसक गई हो।


यह काफिर कौन सी बला का नाम है? न जाने क्यों बार-बार लोग मुझे काफिर के नाम की गाली देते हैं ? और ताज्जुब की बात यह है कि रामू मामा की पत्नी मुझे अछूत कहकर बुलाती है। उसका कहना है कि मेरा साया मात्र पड़ने से उनका खाना-पीना हराम हो जाएगा। अपवित्र हो जाएगा, नापाक हो जाएगा! यह कैसी अनहोनी सी बात है? मुलसमानों के लिए मैं काफिर हूँ और हिंदुओं के लिए अछूत! तो फिर मैं क्या हूँ? मैं क्यों
हूँ? मैं न इधर का रहा हूँ, न उधर का!! किसी के लिए काफिर हूँ और किसी के लिए अछूत!! यह कैसा अन्याय हो रहा है मेरे साथ?’’


उनकी आँखों में पानी भर आया। उठकर पास वाले पेड़ तले बैठ गए और रोने लगे। तब रंगरेजवा ने चिल्लाकर आवाज दी, ‘‘बेटे उस आदमी की बातों का बुरा मत मानना। वह कुछ भी अनाप-शनाप बकता रहता है।’’
उन्हें लगा कि काका कोमल दिल का मालिक है और उनकी पीड़ा को भाँप सकता है। तब उन्होंने महसूस किया कि इस जग में भांति-भांति के प्राणी है।


फिर भी वे उदास बैठे रहे और खुदा से गुफ्तगू करने लगे। प्रश्न पर प्रश्न पूछते गए।

हे राम, हे रहीम,
हे कृष्ण, के करीम,
हे अलख, हे इलाही,
कहाँ तेरी खुदाई?


उन्हें लगा उनके प्रश्नों का उत्तर कोई देगा ही नहीं। अचानक मन की अंधेरी गुफा से उन्हें रोशनी की किरण फूटती नज़र आई। चारों ओर उजाला फैल गया। भीतर से आवाज आई,

मोको कहां ढूढ़े रे बंदे
मैं तो तेरे पास में


‘‘अरे यह आवाज कहां से आ रही है?’’ वह उठ खड़ा हो गया। ‘‘यह बाहर की आवाज नहीं है। यह तो भीतर से गंूज रही है।’’


मैं तो तेरे पास हूं। तेरे पास नहीं तुझ में हूँ।
ना तीरथ में ना मूरत में
ना एकांत निवास में
यह तो अचरज की बात है। वह तो मेरे साँसों में बसा है।
ना मैं मंदिर ना मैं मस्जिद
ना काशी कैलाश में
ना मैं जप में ना मैं तप में
ना विरत उपास में


लोग उसे कहां कहां ढूंढ़ रहे है। मूर्तियों में ढंूढ़ रहे हैं, पूजा घरों में ढूंढ़ रहे हैं। पर इसे तो ढूंढ़ने की कोई जरूरत ही नहीं

ना क्रिया करम में रहता
ना जोग अभ्यास में।
खोजी होय तो तुरंत मिलहों
पल भर की तलाश में
लोग समझते क्यों नहीं ?


वे झूम उठे। अरे वाह, उनके प्रश्नों का उत्तर उन्हें मिल गया। उन्हें खुदा का संदेशा मिल गया। उनका पता भी मिल गया। वे खुद से कहने लगे।
‘‘मैं ख्वामख्वाह परेशान हुआ जा रहा था।’’
(अकथ कहानी कबीर, पृष्ठ 29-31)


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सुश्री रीटा शहाणी के नाम से सिंधी और हिंदी साहित्य के पाठक सुपरिचित हैं। विविध विधाओं की तीस से अधिक पुस्तकों की रचनाकार रीटा शहाणी की कृति ‘मीराबाई से वार्तालाप’ हिंदी जगत में पर्याप्त चर्चित और लोकप्रिय रही है। हिंदी में अब तक उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित थीं ‘रंगरेजवा ने रंग दी’, ‘सिंधी साहित्य में नारी’ तथा ‘मीराबाई से वार्तालाप’। इसके अतिरिक्त उन्होंने सिंधी
भाषा और साहित्य संबंधी ज्ञान कोशों और इतिहास ग्रंथों के लिए शोधपूर्ण निबंध भी लिखे हैं। ‘मीराबाई से वार्तालाप’ में उन्होंने भक्तिकाल की प्रमुख कवयित्री मीराबाई के जीवन और साहित्य पर संवाद और कथा की मिली-जुली विधा में अत्यंत रोचक शैली में प्रकाश डाला है। उस कृति के चतुर्दिक स्वागत ने लेखिका को भक्ति साहित्य के एक अन्य शिखर रचनाकार संत कबीर पर केंद्रित कृति के प्रणयन
के लिए प्रोत्साहित किया। प्रस्तुत कृति ‘अकथ कहानी कबीर’ उसी की सृजनात्मक परिणति है। 
इस में संदेह नहीं कि कबीर निरक्षरता के बावजूद ऐसे साहित्यकार हैं जिनकी रचनाएँ समीक्षकों, व्याख्याकारों, दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों को लगातार चुनौती देती रही हैं। कबीर बेहद सहज और लोक प्रचलित कवि होने के साथ-साथ अनेक स्थलों पर बेहद अबूझ और गंभीर रचनाकार हैं। लेखिका रीटा शहाणी ने उनके दोहों में निहित दर्शन और मनोविज्ञान का सरलीकरण करते हुए उनके भीतरी गुप्त अर्थ को
उद्घाटित करने के उद्देश्य से इस कृति की रचना की है। निस्संदेह वे इस उद्देश्य में सफल रही हैं। 


कबीर को क्रमशः उजागर करने के लिए अपनी कृति को लेखिका ने छह सोपानों में आबद्ध किया है। ‘यात्रा’ खंड में कबीर के जन्म की गाथा है तो ‘प्रारंभिक जीवन वार्ता’ विषयक खंड में बाल्यावस्था और किशोरावस्था के जीवन संघर्ष को उकेरने का प्रयास किया गया है, ‘गोष्ठियाँ’ में कबीर का जीवनदर्शन सहज ढंग से व्याख्यायित है। चैथा खंड लोककथाओं पर आधारित है तो पाँचवें खंड में उलटबाँसियों को
सुलटाया गया है। प्रथम खंड से कबीर के साथ कविता के वार्तालाप की जो फैंटेसी आरंभ की गई है, छठे खंड में उसकी परिणति अत्यंत आकर्षक बन पड़ी है। इस प्रकार यह कृति रचनाकार का आत्मालाप भी है, आत्मान्वेषण भी और कबीर के जीवन तथा साहित्य की रेखाओं के आधार पर उनका पुनरवलोकन भी। 


कबीर की विशेषता है कि वे जिसे पकड़ लेते हैं, उनके दोहों की गूंज आजीवन उसके भीतर बजती रहती हैं। रीटा शहाणी ने भी कबीर के दोहों का आस्वादन बचपन में क्या किया कि वे आज तक उनकी चेतना में अमृत की धार की तरह बरसते हैं - बरसा बादल पे्रम का, भीज गया सब अंग। इसीलिए यह संभव हो सका कि वे इस किंवदंतीपुरुष के मर्म को पहचान सकीं और भूमंडलीकरण के आज के युग में उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित
कर सकी हैं। यह कृति एक ओर कथारस से आप्लावित है तो दूसरी ओर अनुभूतिजन्य ज्ञान से प्रकाशित। 



लेखिका द्वारा रचित फैंटेसी में काव्यचेतना कबीर के जन्म के साथ ही उनके भीतर प्रवेश करती है और वार्तालाप तक आते-आते यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि कबीर और कविता दो नहीं हैं, एक हैं। कबीर और कविता का यह अद्वैत लेखिका की मौलिक स्थापना है जो इस प्रश्न को ही पूरी तरह असंगत सिद्ध कर देती है कि कबीर कवि थे या संत थे या समाज सुधारक थे। कबीर तो कबीर थे, कविता थे, स्वयं वह उलटबाँसी थे
जिसकी चेतना उलटी होकर आज भी सारे संसार को वेध रही है। कबीर बुनकर भी हैं, और बुनी जानी वाली चादर भी। बुनकर और चादर में भी द्वैत नहीं है क्योंकि झीनी-झीनी इस बुनाई के लिए सतत जागरूकता जरूरी है - जागकर जीना ही इस बुनाई का रहस्य है, इस बुनकर की साधना है, इस कवि की कविता है। और इसीलिए कविता कबीर की चादर को ओढ लेती है। कबीर सुरत की मधुशाला के अपने अनुभव को जगत से बाँटते हैं - तेरा
साहब है घर माहीं, बाहर नैना क्यों खोले?


निश्चय ही ऐसी रोचक और सारगर्भित कृति के लिए लेखिका अभिनंदनीय है। इस कृति का साहित्य जगत में व्यापक स्वागत होना चाहिए। 



’अकथ कहानी कबीर@रीटा शहाणी@सैनबन पब्लिशर्ज़, ए-78, नारायण इंडस्ट्रियल एरिया,
फे़ज-1, नई दिल्ली-110 028@2009@100 रुपये@पृष्ठ 96

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