हमारे साहित्य के इतिहासकारों को हिंदी इतिहास की पुनर्रचना में जुट जाना चाहिए। सिर्फ लिपी के आधार पर दक्खनी को दरकिनार नहीं किया जा सकता। इसे तो हिंदी और उर्दू के सेतु के रूप में देखना होगा। तब ही तो स्थिति स्पष्ट होगी। एक खोजपूर्ण लेख के लिए साधुवाद।
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हमारे साहित्य के इतिहासकारों को हिंदी इतिहास की पुनर्रचना में जुट जाना चाहिए। सिर्फ लिपी के आधार पर दक्खनी को दरकिनार नहीं किया जा सकता। इसे तो हिंदी और उर्दू के सेतु के रूप में देखना होगा। तब ही तो स्थिति स्पष्ट होगी। एक खोजपूर्ण लेख के लिए साधुवाद।
लेख महत्वपूर्ण व भाषा की संरचना में निहित समाजभाषिक सूत्रों की परतें खोलता है.साहित्य व संस्कृति की समरसता को व्याख्यायित करता है।
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