‘दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन’*
हिंदी भाषा ने अपने वर्तमान रूप को प्राप्त करने से पूर्व जिन सोपानों को पार किया है उनमें दक्खिनी हिंदी भी एक है। वास्तव में दक्खिनी हिंदी खड़ीबोली, मानक हिंदी और उर्दू की पूर्वज है जिसे 14 वीं शती से लेकर 18 वीं शती तक दक्षिण भारत के बहमनी, कुतुबशाही और आदिलशाही राजवंशों के समय फलने-फूलने का अवसर मिला था। कालांतर में इसकी साहित्यिक परंपरा क्षीण हो गई और हिंदी का यह साहित्य अरबी-फ़ारसी लिपि में होने के कारण विस्मृत हो गया। डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. श्रीराम शर्मा और महापंडित राहुल सांकृत्यायन सरीखे खोजी विद्वानों ने इस साहित्य का पुनरुद्धार करने की दिशा में महत्कार्य संपन्न किया। इस कड़ी में डॉ. परमानंद पांचाल ने ‘दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन’ (2008) प्रस्तुत कर अपना महनीय योगदान दिया है।
डॉ. परमानंद पांचाल (1930) प्रतिष्ठित भाषाविद् और इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत के एक द्वीप ‘मिनीकॉय’ की भाषा ‘महल’ और उसकी लिपि ‘दिवेही’ पर तो गवेषणात्मक कार्य किया ही है, दक्खिनी हिंदी के आधिकारिक विद्वान के रूप में भी पर्यांत प्रतिष्ठा अर्जित की है। भाषा और साहित्य के क्षेत्र में उनकी खोजपूर्ण कृतियाँ हैं - हिंदी के मुस्लिम साहित्यकार, दक्खिनी हिंदी की पारिभाषिक शब्दावली, दक्खिनी हिंदी ः विकास और इतिहास, भारत के संुदर द्वीप, विदेशी यात्रियों की नज़र में भारत, हिंदी भाषा ः राजभाषा और लिपि, कथा दशक, अमीर खुसरो और सोहनलाल द्विवेदी तथा विवेच्य कृति ‘दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन’।
‘दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन’ में संपादक ने दक्खिनी हिंदी के 51 कवियों की उपलब्ध रचनाओं में से चुनी गई कविताओं का देवनागरी लिप्यंतरण प्रस्तुत किया है। अनुमान किया जाता है कि यह दक्खिनी हिंदी काव्य की एक झांकी मात्र है क्योंकि इस काव्य के अनेक उन्नायकों की रचनाएँ अब तक अंधकार में पड़ी हुई हैं। इस उपलब्ध सामग्री को तीन कालों में विभक्त करके संयोजित किया गया है। विभिन्न विद्वानों द्वारा सुझाए गए काल विभाजन का अनुशीलन करके डॉ. पांचाल ने इन तीनों कालों की सीमा क्रमशः 1300-1490 ई. 1491-1687 ई. तथा 1688-1850 ई. निर्धारित की है। इस काल विभाजन के लिए उन्होंने मुख्यतः साहित्य के उत्तरोत्तर विकास के क्रम और उसकी शैली में हुए परिवर्तनों को ही आधार माना है, किंतु साथ ही विकास के इस क्रम में उन राजवंशों और शासकों के योगदान की भी उपेक्षा नहीं की है जिनके संरक्षण में यह साहित्य समृद्ध हुआ था। उन्होंने इस तथ्य की ओर भी ध्यान दिलाया है कि दक्खिनी हिंदी जिस भू-भाग में विकसित हो रही थी, वह मातृभाषा के रूप में अन्य भाषाओं का क्षेत्र था और उनका साहित्य पहले से ही पर्याप्त विकसित था तथा दक्खिन के मूल निवासियों ने दक्खिनी में साहित्य रचना में कोई रुचि नहीं ली थी। इस सामग्री को प्रस्तुत करने के साथ ही डॉ. पांचाल यह सूचना भी देते हैं कि अभी दक्खिनी का ऐसा प्रचुर साहित्य केरल, तमिलनाडु, पांडिचेरी और तिरुचुनापल्ली सहित सारे दक्खिन में प्राप्य है जिसके लिप्यंतरण, पाठशोधन और अध्ययन की आवश्यकता है। तब संभवतः दक्खिनी का इतिहास और भी विस्तृत रूप में लिखा जा सकेगा। भूमिका के रूप में संपादक ने पर्याप्त विस्तारपूर्वक (90 पृष्ठों में) ‘दक्खिनी हिंदी काव्य का ऐतिहासिक संदर्भ’ विवेचित किया है। दक्खिनी साहित्य की पूर्वपीठिका पर विचार करते हुए उन्होंने कहा है -
‘‘यह सही है कि मुसलमानों के दक्षिण पर आक्रमण और देवगिरि को राजधानी बनाए जाने के बाद दक्खिन में उत्तर से आई खड़ी बोली का प्रचार बढ़ा और इस भाषा ने साहित्यिक रूप ग्रहण कर लिया जिसका इस प्रदेश पर सांस्कृतिक और भाषाई प्रभाव भी पड़ा। किंतु यह मानना पड़ेगा कि अलाउद्दीन और मुहम्मद तुगलक के आक्रमण से पहले भी इस्लाम का प्रभाव दक्षिण भारत पर पड़ रहा था। xxx इब्ने बतूना ने अपनी भारत यात्रा में कालीकट, कर्नाटक और मलाबार के अनेक स्थानों का उल्लेख किया है जहाँ मुस्लिमों की आबादी थी और अनेक सूफी संत अपने मतों का प्रचार कर रहे थे। महाराष्ट्र और कर्नाटक के क्षेत्रों में अरबी शब्दों के प्रवेश का भी यही कारण प्रतीत होता है। उत्तर से जो संत और भक्त दक्षिण में मदुरै, रामेश्वरम आदि की तीर्थयात्रा पर आया करते थे, वे अपने साथ उत्तर की भाषा और शब्दों को भी लाते थे। इस प्रकार दक्षिण के इस प्रदेश में उत्तर की भाषा के विकास की पृष्ठभूमि पहले से तैयार थी। xxx दक्खिन में हिंदी को लोकप्रिय बनाने में केवल इस्लाम के अनुयायियों और सूफी संतों का ही हाथ नहीं रहा, शैव, वैष्णव, नाथ, जैन और महानुभाव जैसे पंथों के अनुयायियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।’’
विभिन्न विद्वानों के साक्ष्य से संपादक ने यह भी प्रतिपादित किया है कि दक्खिनी, हिंदी साहित्य के विकास की एक ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी है जिसे पृथक नहीं किया जा सकता। इसके स्वरूप, उद्भव, नामकरण और क्षेत्र पर विचार करने के बाद लेखक ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विवेचन किया है। यह प्रश्न विचारणीय है कि दक्खिनी के रूप में खड़ीबोली का विकास दक्षिण में ही क्यों हुआ! इसके कई कारण लेखक ने गिनवाए हैं। जैसे,
- इस्लाम की सांस्कृतिक कट्टरता यहाँ अपेक्षाकृत ढीली थी,
- दिल्ली और आगरा की खड़ीबोली के उर्दू के रूप में वहाँ की राजभाषा बनने पर दक्षिण के लोग भी खड़ीबोली सीखने लगे थे,
- दक्षिण में हिंदू-मुस्लिम एकता उत्तर की अपेक्षा अधिक उपजी जिससे भाषा और संस्कारों का मेल-जोल हुआ,
- मराठी के संतों की भाषा ने भी इसके लिए पृष्ठभूमि तैयार की, दक्खिन के मुस्लिम शासकों ने इस भाषा को संरक्षण प्रदान किया,
- दक्खिन के इन राज्यों का उत्तर से कट जाना भी दक्खिनी के विकास के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ।
वे यह भी मानते हैं कि यही कारण है कि दक्खिनी के इन राज्यशासनों के पतन के बाद दक्खिनी का स्वाभाविक विकास रुक गया और वह ‘दक्खिनी’ नहीं रही।
लेखक ने दक्खिनी की भाषिक विशेषताओं, पहचान, वैयाकरणिक विशेषताओं तथा उस पर अन्य भाषाओं के प्रभाव की सोदाहरण चर्चा की है। दक्षिण भारतीय भाषाओं के दक्खिनी पर प्रभाव से संबंधित अंश कुछ और विस्तार की अपेक्षा रखता है तथा इस क्षेत्र में काफ़ी अध्ययन की संभावना है। दक्खिनी का साहित्येतिहास लिखते हुए विस्तार से प्रत्येक काल की राजनैतिक पृष्ठभूमि का जिक्र किया गया है तथा प्रमुख रचनाकारों और उनकी रचनाओं व प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला गया है। निश्चय ही यह ‘भूमिका’ हिंदी साहित्य के इतिहास में शामिल होने योग्य है।
आवश्यकता इस बात की है कि दक्खिनी भाषा और साहित्य को अलग-थलग न रखकर हिंदी साहित्य के तत्कालीन रचनाकारों के साथ जोड़कर पढ़ा और पढ़ाया जाए ताकि हिंदी साहित्य के इतिहास में समग्रता का बोध हो। दक्खिनी हिंदी काव्य के गहन और विशद अध्ययन की इस दृष्टि से और भी आवश्यकता है कि यह वस्तुतः राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और धर्मनिरपेक्ष चरित्रवाला ऐसा उत्कृष्ट काव्य है जिसकी मूल चेतना समन्वय और सामंजस्य की है। विस्तारभय से यहाँ इस संचयन के केवल कुछ अंश उद्धृत किए जा रहे हैं -
1. मैं आशिक उस पीव का जिने मुजे जीव दिया है।
ऊ पीव मेरे जीव का यरमा लिया है।
(ख़्वाजा बंदानेवाज़ गेसूदराज़)
2. रामची भगती दुहेली रे बापा।
सकल निरंतर चीन्ह ले आपा।।
(नामदेव)
3. न पर मुख खाई कोई तन अखाए।
न आपस मुए बिन कोई सुरग जाए।।
(फख्र्रुद्दीन निज़ामी बीदरी)
4. प्यारी के मुख म्याने खेल्या वसंत
फूलों हौज थे चरके छिड़क्या वसंत
वसंत बास चुन-चुन के चुनरी बँधे
जो उभर कर लहराँ सो आया वसंत।
(मुहम्मद कुली कु़तुबशाह)
5. लिया है जब सूँ मोहन ने तरीका खुद नुमाई का
चढ्या है आरसी पर ‘तब सूँ रंग हैरत फजाई का।।
अपस की जुल्फे-काफिर केश की झलकार टुक दिखला के
जाहिद बेख़बर दम मारता है पारसाई का।।
(वली दकनी)
6. अरे मन नको रे नको हो दिवाना,
अरे मन मुझे बोल तेरा ठिकाना,
कहाँ सूँ हुआ है यहाँ तेरा आना।
न तेरा यहाँ खैंश ना कोई यगाना,
यहाँ सूँ कहाँ फिर तेरा होगा जाना।
(शाह तुराब)
इसमें संदेह नहीं कि डॉ. परमानंद पांचाल ने ‘दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन’ की प्रस्तुति द्वारा इस क्षेत्र में अध्ययन की अनेक संभावनाओं का सूत्रपात किया है। भाषा, साहित्य, संस्कृति और पंरपरा केंद्रित शोध कार्यों के लिए यह ग्रन्थ अत्यंत उपयोगी आधारभूमि प्रदान करता है। संपादक और प्रकाशक इस महत्कार्य के लिए अभिनंदन के पात्र हैं। साथ ही इसी प्रकार ‘दक्खिनी हिंदी गद्य संचयन’ भी प्रत्याशित और प्रतीक्षित है।
* 'दक्खिनी हिंदी काव्य संचयन'
सं. परमानंद पांचाल
साहित्य अकादेमी, 35 फ़ीरोज़शाह मार्ग, नई दिल्ली-110 001
2008
300 रु.
622 पृष्ठ (सजिल्द)
1 टिप्पणी:
यह कार्य वस्तुत; ऐतिहासिक महत्व का है। जहाँ तक मेरा अनुमान है, सम्भवत: यह पहली बार दक्कनी के लोक साहित्य को भाषा के साहित्य के रूप में संकलित/प्रस्तुत किया गया है. हिन्दी के शैलीवैविध्य का सुन्दररूप इस से लिपिबद्ध हुआ है्; जो निस्सन्देह भाषा के भावी विद्यार्थियों व अध्येताओं को प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध कराएगा।
परिचित करवाने के लिए धन्यवाद।
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