फ़ॉलोअर

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

'लोकतंत्र के घाट पर' की 'भूमिका' : प्रो. गोपाल शर्मा

 



भूमिका


भारत में चुनाव कैसे जीते जाते हैं? भारत का प्रजातंत्र कैसे आगे बढ़ रहा है और कौन इसे पीछे धकेल रहा है? क्या यहाँ जुगाड़ काम करता है ? ऐसे बहुत से सवाल आपके मन में भी हर चुनाव को लेकर उठते होंगे। इसके बावजूद इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि हम भारतवासियों की रग-रग में इलेक्शन समाया हुआ है, क्योंकि हम इसे प्रजातंत्र से साक्षात्कार का आसान तरीका समझते हैं। 

पान की दुकान से लेकर प्राइम टाइम के दंगल तक जब आपको कोई ठीक-ठिकाने की बात सीधी तरह से न समझा पाए, तो आप इस ‘लोकतंत्र के घाट पर’ के पाठ द्वारा राहत पा सकते हैं। यहाँ आपके लिए आपकी भाषा में कुछ अनसुलझे समीकरणों का सुलझाव है; और है इस महाप्रपंच का रोजनामचा जिसे बीते एक वर्ष (2018-19) के दौरान लिखा गया है। हमारे चुनावी माहौल में बहुत कुछ उल्टा-सीधा होता है और इसे सीधा करके दिखाने का काम इन संपादकीयों के द्वारा किया गया है। भारत ने चुनाव एक निरंतर चलायमान लोकपर्व है, यह पूर्ण होकर भी अपूर्ण (अवशिष्ट) रहता है। समकाल के इस सतत पाठ को आपके पाठ और अनुभवी कमेंट की दरकार है। आप ही इसे पूर्ण कर सकते हैं। 

डॉ. ऋषभदेव शर्मा (1957) पिछले कई वर्षों से भारतीय चुनावों, राजनीति और ज्वलंत सामाजिक- आर्थिक मुद्दों पर पक्षपात रहित होकर प्रामाणिकता से लिखने के कारण, समकालीन चर्चित चिंतकों में भी गिने जाने लगे हैं। हिंदी कविता में तेवरी काव्यांदोलन के पुरोधा कवि और हिंदी भाषा तथा साहित्य के मर्मी विद्वान प्रोफेसर एवं लेखक तो हैं ही। 

छोटे मुँह बड़ी बात है, फिर भी कहे देते हैं कि इन टु द पॉइंट, सरल और निष्पक्ष–निरपेक्ष दो-दो पेजी चुटीली और कभी चुभीली टिप्पणियों में मिस्सी रोटी-सा स्वाद है और तासीर भी गज़ब की है । आपका पढ़ना इस लेखन को गुड़-सा गुणकारी भी बना देगा; इसी विश्वास और आशा के साथ प्रस्तुत है – ‘लोकतंत्र के घाट पर'। हैप्पी रीडिंग ! 

-        गोपाल शर्मा

अरबा मींच विश्वविद्यालय

इथियोपिया

कोई टिप्पणी नहीं: