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बुधवार, 7 सितंबर 2022

भूमिका : "बनवासी बैगा : जीवनगाथा"


"बनवासी बैगा : जीवांगाथा" / प्रो. दिलीप सिंह/ 2022/ वाणी प्रकाशन, दिल्ली 

भूमिका

                                     - ऋषभदेव शर्मा 

हमारे समय के मूर्धन्य हिंदी भाषा चिंतक प्रो. दिलीप सिंह भाषा, साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान हैं। उन्होंने प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव और प्रो. विद्यानिवास मिश्र जैसे आचार्यों से संप्रेषण और सृजन की दीक्षा प्राप्त की है। यही कारण है कि उनके लेखन में एक ओर गहन शोध दृष्टि दिखाई देती है, तो दूसरी ओर लालित्य का सागर लहराता है। उन्होंने भाषा वैज्ञानिक लेखन से इतर अपने सर्जनात्मक लेखन में विधाओं की परंपरागत चौहद्दियों को तोड़ा है। संस्मरण और पाठ विश्लेषण को एक दूसरे में लपेटकर समीक्षा की एक नई शैली विकसित करना प्रो. दिलीप सिंह के ही बूते बात है। वे सही अर्थ में उत्तरआधुनिक युग के समीक्षक हैं। इस युग में हम विभिन्न वर्गीकरणों की सीमाओं को टूटते और एक दूसरे में विलीन होते देख रहे हैं। प्रो. दिलीप सिंह ने इसे विधाओं के स्तर पर चरितार्थ करके दिखाया है। प्रस्तुत कृति 'बनवासी बैगा' इसका नव्यतम उदाहरण है। उनकी इस कृति को किसी एक विधा के खाँचे में नहीं समेटा जा सकता। इसमें कथारस है, बतकही है, काव्यरस है, चित्रात्मकता है, स्मृतियों का खजाना है, रोजनामचे की क्रमिकता है, अनुभूतियों की गहराई है, कल्पना का सौंदर्य है, संवाद की स्वाभाविकता है, स्थितियों की नाटकीयता है, आख्याता की विश्वसनीयता है और लेखक की आत्मीयता है। इसलिए किसी विधाविशेष में वर्गीकृत करने से बचते हुए इस कृति के बारे में यह कहना काफी होगा कि यह निश्छल और प्रांजल गद्य है। ऐसा उत्कृष्ट गद्य जो अन्यत्र प्रायः दुर्लभ है!


प्रो. दिलीप सिंह ने इस कृति को उचित ही बैगा जनजाति के जीवन और जीवनदर्शन का सरल भाष्य कहा है। बैगा समुदाय के बहाने उन्होंने अरण्य, ग्रामीण और आदिवासी संस्कृति के उस आधारभूत मूल त्रिकोण की सहज साधना की है, जिसके आधार पर सभ्यता के उषाकाल में मानव संस्कृति की आदिम अधिसंरचना खड़ी हुई होगी। मध्यप्रदेश के वनवासी बैगा समुदाय के निकट सान्निध्य में रहकर प्रो. दिलीप सिंह ने यह अनुभव किया कि वह समुदाय पारंपरिक ज्ञान, कौशल और संस्कारों को तो बचाए हुए है ही, व्यापक भारतीय जीवन मूल्यों और आचार विचार का पोषक भी है। उनकी यह कृति इस समाज की संवाद संस्कृति को भी भली भांति बैगाओं की जुबानी हमें सुनाती है। एक समर्थ गद्यकार की रचना के रूप में इस कृति की बड़ी विशेषता इसमें धड़कती हुई लौकिक चेतना है, जो इड़ा की तुलना में श्रद्धा की सृष्टि अधिक प्रतीत होती है। इसमें एक ऐसे संसार की क्रमिक यात्रा है, जहाँ जड़ और चेतन सबके साथ बैगाओं का निजी रिश्ता है। इसलिए ये इतने प्राकृत हैं कि हँसें तो बहार छा जाए। वन इनमें और ये वन में रचे बसे हैं। इतने रचे बसे कि एक दूसरे के आनंद और संताप को आसानी को पहचान और परख लेते हैं। लेखक ने स्वयं को इनमें विलीन करके जंगल की माया का वैभव खुद जीकर देखा ही और अपनी लेखनी की सरस धार से उसे पाठकों के लिए पुनःसृजित किया है। उन्हें इस बात का मलाल भी है कि इन वनवासियों पर लिखने वालों ने घोटुल प्रथा तो देखी, लेकिन इस क्षेत्र की वनशोभा नहीं निहारी। कहना न होगा कि यह कृति इस अभाव की पूर्ति करने का समर्थ, सार्थक और सफल प्रयास है।

'वनवासी बैगा' अपने ललित प्रवाह में बैगा समुदाय की निजी पहचान को रेखांकित करती है। इस पहचान में शारीरिक बनावट से लेकर सजावट तक सब कुछ शामिल है। पोशाक और खानपान भी। मेले और पर्व भी। मौसम की अतियों को सहने की आदत भी- जैसे पता ही न हो कि अति हो गई! मौसम की मार इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती। लेखक ने अपने संपर्क में आए अनेक स्त्री-पुरुषों के साक्ष्य से यह दर्शाया है कि ये वनवासी प्रकृति के माधुर्य और उसकी हलचलों में इस तरह रमे हुए हैं कि उनके तन मन प्रकृति के साथ एकाकार हो गए हैं। लेखक ने लगभग पाँच वर्ष इस लोक में जीकर सचमुच सारे नगरीय कल्मष से मुक्ति पा ली है। इस अरण्यवास ने उन्हें ऋषितुल्य पारदर्शिता का वरदान दिया है। वही पारदर्शिता इस रचना के हर पृष्ठ से झाँक रही है। एक खास तरह की निरभिमानता और बाल सुलभ निश्छलता प्रो. दिलीप सिंह के व्यक्तित्व का सदा से हिस्सा रही है। इसी ने उन्हें प्रेरित किया होगा कि वे कभी गोपाल तो कभी बिरसीबाई के समक्ष जिज्ञासु शिष्य की तरह बैठकर लोक ज्ञान के उनके भंडार को अपनी अंजुली में समेटकर पी जाएँ । वे बैगाओं के गीतों और लोक कथाओं से लेकर उनके मिथकीय विश्वासों तक पर मुग्ध हैं। उन्हें लगता है कि नर्मदा मैया ने स्वयं उनके जीवन की धारा ही बदल दी है और वे अरण्यगान के सम्मोहन में जंगली होते जा रहे हैं। जंगली यानी प्रकृत। सहज। अकृत्रिम। सत्य। आत्मतत्व के दर्शन के लिए इसी साधना की तो जरूरत होती है। सारे आवरणों से मुक्त मादल के बोल, टिमकी की तिड़ तिड़ और करमा नृत्य। जैसा जीवन, वैसा ही नृत्य। आदिम भारत की सरल संस्कृति। वनवासियों ने ही भारत की आत्मा को बचाकर रखा हुआ है।

आज कोरोना काल में हम भले ही अलग अलग पैथियों के नाम पर अतिशय बुद्धिमत्तापूर्ण बयानबाजियाँ करते फिरें, लेकिन इस सत्य को नहीं नकार सकते कि जल, जंगल और जमीन की आदिम संतानें आज भी जड़ी बूटियों के जिस जगत की जानकारी पीढ़ी दर पीढ़ी सँजोए हुए हैं, उसकी काट किसी पैथी वाले के पास नहीं है। प्रो. दिलीप सिंह ने बैगाचक पहुँचकर यह जानकारी अर्जित की कि मानव शरीर की ही नहीं, पशुओं की भी समस्त व्याधियों का उपचार इन वनों में उपलब्ध है। जानकर किसे अचरज न होगा कि वहाँ नवजात शिशु की नाल बाँस के पत्ते से काटी जाती है। एक तरफ यह सारा ज्ञान, तो दूसरी तरफ वन प्रांतरों में बहती संगीत की अद्भुत धारा। यह कृति चेताती है कि वनवासियों की यह सारी संपदा – भाषा-भूषा, गीत-संगीत, नृत्य, कथा-कहानी, उत्सव-त्योहार, हवाओं-दवाओं का ज्ञान, लोकसंस्कृति - खो न जाए, मर न जाए। इससे पहले जागना होगा, अन्यथा अभी जिस तरह एक बैगा गीत में आग लगने पर जंगल चीखता है और आदिवासी विलाप करते हैं, कहीं उसी तरह इस तमाम अरण्य संस्कृति के लुप्त होने पर भारतमाता को न रोना पड़ जाए। इसे क्या कहिएगा कि जंगल में आग लगने पर इन वनवासियों को अपने निराश्रित होने की उतनी चिंता नहीं, जितनी पीड़ा यह सोचकर होती है कि जलता हुआ पेड़ कितना तड़पता होगा - सेवा लाख करि हम, पेड़वन कलपत हो!

प्रो. दिलीप सिंह ने यों तो इस पुस्तक में बैगा समुदाय के तमाम संस्कारों की चर्चा की है, लेकिन अंतिम संस्कार का वर्णन बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है। वे बताते हैं, बैगाओं में दोनों प्रथाएँ प्रचलित हैं - मृत शरीर को मिट्टी में गाड़ने की भी और चिताग्नि देने की भी। प्रायः सयानों को आग और युवाओं को मिट्टी दी जाती है। वनवासियों का कोई संस्कार भला संगीत के बिना कैसे हो सकता है! वे मृत्यु पर भी नगाड़ा बजाते हैं। लेकिन मृत्यु-ताल अलग ही होती है। स्थिर और दुखभरी। लेखक ने विस्तार से श्मसान के कर्मकांड का बखान किया है और धीमे से टिप्पणी की है - इन वनवासियों को भी मृत्यु की वेदना हमारे ही जैसी सालती है! एक खास बात का वे और जिक्र करते हैं कि मृत्यु संस्कार के रिवाजों में समधी और समधिन को बहुत महत्व दिया जाता है। अनुमान किया जा सकता है कि इस समधी-समधिन सम्मान से वैवाहिक रिश्तों और बेटी-बहू के सम्मान को कितना बल मिलता होगा। यह विडंबना ही है कि हमारे सभ्य समाज में समधी समधिन पारिवारिक संस्कारों से दूर दूर ही रखे जाते हैं। कन्या पक्ष के माता पिता तो जीवन भर हीन और बेचारे ही बने रहते हैं। लेखक ने कहा नहीं है, लेकिन इसका अर्थ यही है कि वनवासी समाज तथाकथित सभ्य समाज की तुलना में रिश्ते नातों को अधिक सच्चा सम्मान देते हैं। इसके अलावा मृत्यु गाथा के बाद रात्रि में राम गाथा सुनते समय लेखक को इस सत्य की अनुभूति होती है कि जीवन मृत्यु से बड़ा है। लिखते समय वे इस प्रवास के साथी और आख्याता चर्रा का भाव-विगलित होकर स्मरण करते हैं - मृत्यु यहीं तो हार जाती है जीवन से। यदि हम मृत्यु को जीवन का ही एक चरण स्वीकार कर लें तो फिर मृत्यु का अवसाद कैसा, वेदना कैसी? आगे वे निष्कर्ष देते हैं कि हमारे बैगा बंधु बांधव इस जीवन सत्य को अपनी जिंदगी में उतार कर, घोल घोल कर पी चुके हैं। कहना ही होगा कि वह मृत्युंजय बोध पोथियाँ पढ़ पढ़ कर नहीं मिल सकता, जिसे प्रकृति की ये आदिम औलादें पल पल जीती हैं। प्रकृति से उपजा यह जीवन दर्शन ही आत्मा की अमरता के दर्शन वाली भारतीय संस्कृति का मूल है।

लेखक ने बैगाओं के नाच-रंग का बड़ा ही जीवंत, बिंबात्मक और सरस वर्णन किया है; लोक के साथ अपनी आत्मा को एकाकार करते हुए। प्रो. दिलीप सिंह खाँटी बनारसी हैं; बैगा नाच उन्हें बनारस पहुँचा देता है और वे मानो मादल पर थाप देकर अलग अलग गीतों की ताल निकालने लगते हैं। उन्हें इस लोक संगीत में संतों की चार-धाम यात्रा दिखाई देती है। लोक का रहस्य ही समवेत और सम्मिलित जीवन में छिपा है। लोक में मनुष्य अपने अपने अजनबी द्वीपों की सृष्टि नहीं करते, बल्कि मिल जुल कर महाद्वीप हो जाते हैं। सुख-दुख, जन्म-मृत्यु, गीत-संगीत, नृत्य-कला सबमें समवेत का यह भाव व्यक्तिवादी अँधेरे में पड़ी दुनिया से इस दुनिया को अलग करता है। यहाँ जैसे व्यक्ति है ही नहीं। लोक का एक अंश भर है वह। अपने में पूरे लोक को समेटे हुए। यह लोक संस्कृति भारत के हर हिस्से में मिल जाएगी - क्योंकि यही मूल है। लेखक ने रेखांकित किया भी है कि मिल बैठ कर गाने की रीत, स्वरों को छोड़ने पकड़ने का कौशल, मानवीय अनुभवों और जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति आपको भारत के सभी प्रांतों के लोक गीतों में मिल जाएगी।

वनवासियों-आदिवासियों को अशिष्ट और असभ्य कहने वाले तथाकथित सभ्यों को यह जानकर शर्म आनी चाहिए कि बैगा भाषा में गालियाँ नहीं हैं। शहर के बाजार से जरूर आ गई हैं! भला ऐसी संस्कृति में माँ और बहन की गालियाँ कैसे होंगी, जहाँ स्त्रियों को पूजा जाता हो। यही वजह है कि समाजभाषाविज्ञानी लेखक बैगा भाषा में अश्लील शब्दों को खोजने में विफल रहे!। यह भी पता चला कि उस समाज में समलैगिंकता बिलकुल नहीं। इस लोक में शब्द-वर्जनाओं के लिए भी कोई स्थान नहीं है। वे जैसा जीते हैं, वैसा बोलते हैं - कोई आवरण नहीं, कोई दुराव छिपाव नहीं।

लेखक ने इस लोक में रम कर उसके हर्ष-विषाद का प्रामाणिक लेखा जोखा अपनी डायरियों के सहारे इस किताब में उतार दिया है। लोक कथाओं को एक पूरा संसार वे पाठकों के सामने खोल कर धर देते हैं। बच्चों के खेलों के वर्णन में वे खुद बालक बन जाते हैं। पर्व-त्योहार की बात आती है, तो लोक प्रथाओं की एक एक बारीकी से परिचय कराते चलते हैं। कुल मिलाकर, बैगा वनवासियों की समग्र जीवन गाथा को उन्होंने उसमें डूबकर अपने माध्यम से व्यक्त किया है। यहाँ साक्षी भाव नहीं है। भोक्ता भाव भी नहीं। एक उन्मुक्त सहचर हैं दिलीप सिंह यहाँ बैगा लोकजीवन के। किनारे बैठकर तो दुनिया लहरों को गिनती है, लेकिन मोती उन्हें ही मिलते हैं , जो पानियों में गहरे पैठते हैं। प्रो. दिलीप सिंह ऐसे ही गोताखोर हैं। इतनी गहरी डुबकी लगाते हैं कि लोक बोध के मोतियों से मुट्ठियाँ भर भर लाते हैं। पाठक भी जितनी गहरी डुबकी लगाएँगे, शब्द से लेकर बोध तक की लोक संपदा इस अनोखी कृति में पाएँगे। तभी तो वह स्थिति उत्पन्न होगी कि बैगाचक से दूर जाकर भी मन वही रमा रहे - ऊधो मोहि ब्रज (बैगाचक) बिसरत नाहीं!

अंततः यही कि प्रो. दिलीप सिंह की यह अनूठी कृति लोक अध्ययन के नए क्षितिजों का उद्घाटन करने वाली है।…


- ऋषभदेव  शर्मा
4 जुलाई, 2021