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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

हिंदी भाषा की विश्वव्यापकता


  पिछली शताब्दी में हम ‘विश्व हिंदी दिवस’ जैसी किसी संकल्पना से परिचित नहीं थे। लेकिन आज हम जानते हैं कि भाषा के नाम पर तीन दिन हम मनाते हैं। एक जनवरी में मनाया जाता है – 10 जनवरी को, विश्व हिंदी दिवस। दूसरा फरवरी में मनाया जाता है – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, 21 फरवरी को। और तीसरा सितंबर में मनाया जाता है - 14 सितंबर को जिसे हम हिंदी दिवस कहते हैं, या भारतीय भाषा/राजभाषा दिवस कह सकते हैं। यहाँ हम अपनी चर्चा को ‘विश्व हिंदी दिवस’ तक सीमित रखेंगे। 10 जनवरी, 1975 को पहला विश्व हिंदी सम्मलेन नागपुर में आरंभ हुआ। उसमें जो प्रस्ताव पारित किए गए या विश्व हिंदी सम्मेलन के जो लक्ष्य हैं, उनमें से एक लक्ष्य हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की स्वीकृत आधिकारिक भाषाओं में सम्मिलित कराना भी रहा है। इसलिए उस दिन को 2006 से विशेष रूप से भारतीय दूतावासों में ‘विश्व हिंदी दिवस’ के रूप में मनाने की परंपरा आरंभ हुई। यह प्रथा अब शेष स्थानों पर भी फैलती जा रही है। लेकिन मूलतः इस दिन को जो हमारे भारतीय दूतावास विदेशों में काम करते हैं उनके माध्यम से वहां हिंदी की उपस्थिति को दर्शाने के लिए और कहीं न कहीं इस उद्देश्य से कि संयुक्त राष्ट्र में हमारी हिंदी की दावेदारी को पुख्ता किया जा सके - यह दिन मनाना आरंभ किया गया और अब आप जानते ही हैं कि यह सब जगह मनाया जा रहा है। इसके अलावा, विश्व मातृभाषा दिवस मनाने के पीछे यह चिंता निहित है कि यह महसूस किया जा रहा है कुछ समय से दुनिया भर में अनेक भाषाएँ/मातृभाषाएँ मर रही हैं। अतः मातृभाषाओं को बचाने के प्रति जागरूकता का संचार करने के उद्देश्य से 21 फरवरी को विश्व मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। इसके लिए 21 फरवरी चुनने का कारण यह है कि जिसे हम आज बांग्लादेश कहते हैं उस देश में 1952 में ढाका में भाषा संरक्षण आंदोलन के प्रदर्शनकारियों का हिंसापूर्वक दमन किया गया और बहुत सारे आंदोलनकारी उसमें मारे गए, मातृभाषा की रक्षा की माँग करते हुए। इसलिए उस संघर्ष को सम्मान देने के लिए विश्व मातृभाषा दिवस के रूप में 21 फरवरी को स्वीकार किया गया है। यह भाषा संरक्षण से संबंधित है और इसकी मूल स्थापना यह है कि विश्व में शांति स्थापित करने के लिए और विश्व की की जो बहुवचनीयता है, बहुलता है, उसकी रक्षा करने के लिए मातृभाषाओं का जीवित रहना और एक दूसरे की मातृभाषा का सम्मान करना बेहद जरूरी है। इन दोनों दिनों के अलावा, संविधान के अनुच्छेद 343 द्वारा भारत संघ की राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किए जाने की वर्षगाँठ के रूप में 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाए जाने की प्रथा है। इसके साथ ही संविधान में प्रांतीय भाषाओं को विभिन्न राज्यों की राजभाषा के रूप में चुने जाने भी प्रावधान किया गया है। अतः 14 सितंबर व्यापक अर्थ में राजभाषा/ भारतीय भाषा दिवस है। यह कटु सत्य भी अपनी जगह है कि संवैधानिक प्रावधान के बावजूद हिंदी सहित विविध भारतीय भाषाएँ व्यवहारतः अभी तक संघ/राज्यों की राजभाषा नहीं बन सकी हैं।


जैसे ही हिंदी या किसी विश्व भाषा की चर्चा छिड़ती है तो प्रायः हम यह कहने के अभ्यासी हैं कि दुनिया में इस भाषा का ‘साम्राज्य’ फैल रहा है। यह ‘साम्राज्य’ बड़ा खतरनाक शब्द है और इसके फैलने में ‘विस्तारवाद’ की गंध आती है। साम्राज्य-विस्तार लोकतांत्रिक अवधारणा नहीं है। हमें हिंदी का ‘साम्राज्य’ नहीं फैलाना है। वह साम्राज्य तो अंग्रेजी को मुबारक, चीनी को मुबारक! हमें तो हिंदी का ‘परिवार बढ़ाना’ है। हिंदी का परिवार बढ़ाने वाली जो बात है वह व्यापकता के साथ जुड़ी हुई है, विस्तारवाद से उसे कुछ लेना-देना नहीं। जहाँ-जहाँ भारत है यानि भारतवंशी हैं, भारतीयता है , वहाँ-वहाँ किसी न किसी रूप में हिंदी/ भारतीय भाषाएँ भी हैं। चूँकि आज दुनियाभर में भारतवंशी फैले हुए हैं इसलिए हिंदी दुनियाभर में किसी न किसी रूप में है। ‘किसी न किसी रूप में’ कहने का अर्थ यह भी है कि बहुत सी जगहों पर वह केवल बोली के रूप में है तो दूसरी बहुत सी जगहों पर बोलने-सुनने के साथ-साथ लिखी-पढ़ी भी जाती है। यह किसी से छिपा नहीं है कि हम स्वयं अपने देश में ऐसी स्थिति में पहुँचते जा रहे हैं कि हिंदी ‘बोली’ बनती जा रही है। हिंदी को उसके अपने घर में अधिकार प्राप्त नहीं है। तब हम सीना चौड़ा करके यह कहते फिरें कि हम विश्वव्यापक हैं, तो ये एक द्वंद्व - एक विसंगति – ही है। हम दुनिया में तो चाहते हैं कि हिंदी हो। लेकिन घर में हिंदी है कि नहीं, यह झाँककर नहीं देखना चाहते। यह स्थिति संतोषजनक नहीं मानी जा सकती। फिर भी हिंदी है और फैली हुई है दुनिया भर में।


यद्यपि संयुक्त राष्ट्र की भाषा संबंधी सूची के अनुसार तो विश्व की सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा मंदारिन/ चीनी है और हिंदी तीसरे या चौथे स्थान पर मानी जाती है। लेकिन भारतीय विद्वानों के द्वारा जो शोध किए गए हैं, पिछले चार दशकों में जो सर्वेक्षण से जो आँकड़े इकट्ठे किए गए हैं, उनसे यह स्थापित होता है कि हिंदी विश्व की सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा है। प्रश्न है कि, तब अंतरराष्ट्रीय आकलन में वह तीसरे/चौथे स्थान पर क्यों है?। इस विसंगति का कारण हमारे संविधान की अष्टम अनुसूची के अंतर्विरोधों में निहित है। अष्टम अनुसूची में उर्दू तो पहले से ही हिंदी से अलग खडी है, जो भाषाविज्ञान की धारणाओं के विपरीत केवल राजनैतिक कारणों से वहाँ है। राजनैतिक कारणों से ही अब मैथिली और नेपाली भी अलग हो गई हैं। कुछ और भी इसी राह पर चल रही हैं। अगर आप एक-एक मातृभाषा को ऐसे ही हिंदी से अलग करते जाएँगे तो कुनबा किसका छोटा होगा? हिंदी का संयुक्त परिवार इस तरह विघटित होकर बिखर रहा है और आँकड़ों की दौड़ में वह पिछड़ती प्रतीत हो रही है। सब अपना-अपना अलग कुनबा लेकर अगर बैठ जाएँगे तो नुकसान तो उसका होगा न, जो ऊपर प्रजापति है? हिंदी जो प्रजापति है, अगर ये प्रजाएँ उससे अपने आपको अलग कर लेंगी, तो संख्या बल तो हिंदी का ही कम होगा न? जैसे ही आप उर्दू को इसमें शामिल करेंगे तो पाकिस्तान और बांग्लादेश के ही नहीं, खाडी देशों के भी उर्दू जाननेवाले लोगों को इसमें जोड़ना होगा। संख्या बढ़ जायेगी। यह जो संख्या आप गिनवाते हैं, वह मातृभाषियों की गिनवाते हैं, हिंदी मातृभाषियों के अलावा जो पूरे ख और ग क्षेत्रों में हिंदी जानने वालों की संख्या है उसे भी हिंदी की सारी मातृभाषाओं के प्रयोक्ताओं के साथ जोड़ा जाए, तो आँकड़ों के साथ लगातार वृद्धि होगी। इसी आधार पर पिछले चार दशकों के निरंतर सर्वेक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि हिंदी आज विश्व की सर्वाधिक बोली जानेवाली , प्रयोग में आनेवाली, भाषा है। याद रहे कि मंदारिन (जिसे सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा प्रायः माना जाता है) की गणना करते समय उसकी सारी बोलियों की गणना कर ली जाती है जबकि वे परस्पर उतनी भिन्न हैं जितनी उत्तर भारत और दक्षिण भारत की भाषाएँ। इसीलिए एक मत यह भी है कि हिंदी की गणना करते समय सभी भारतीय भाषाओं को साथ जोड़ना चाहिए। लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसा किए बिना भी हिंदी विश्व की प्रथम भाषा है।


यह तो हुई व्यावहारिक सच्चाई। लेकिन ‘संयुक्त राष्ट्र की भाषा’ होना, कुछ दूसरी चीज़ है। यहाँ मैं दो अवधारणाओं की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा – एक, अंतरराष्ट्रीय भाषा (इंटरनेशनल लेंगुएज) और दूसरी, विश्व भाषा (ग्लोबल लेंगुएज)। प्रायः हम दोनों को एक ही तरह इस्तेमाल करते हैं। लेकिन तकनीकी रूप से अगर देखें तो अंतरराष्ट्रीय भाषाएँ वे हैं जो संयुक्त राष्ट्र के कामकाज के लिए स्वीकृत भाषाएँ हैं और वे सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की भाषाएँ हैं। हम चाहते हैं कि हिंदी भी उसमें शामिल हो जाए, इसीलिए आँकड़ों आदि की बात उठती है। एक दूसरी अवधारणा है ग्लोबल लैंग्वेज की, जिसे हम है विश्व भाषा या वैश्विक भाषा कह रहे हैं। यह किसी संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था के बनाने से नहीं बनती। संयुक्त राष्ट्र में जिन भाषाओं का व्यवहार होता है, क्या वे सारी दुनिया में व्यवहृत हैं? पूरी दुनिया के सारे देशों में उनका व्यवहार होना जरुरी नहीं है। दूसरी ओर, वैश्विक भाषा या विश्व भाषा वही भाषा हो सकती है जो दुनिया भर में अधिकांश देशों में पाई जा रही है, व्यवहृत हो रही है और जीवंत है। इस दृष्टि से व्यापार जगत, सिनेमा जगत , कम्प्यूटर, इंटरनेट, मीडिया – इन सबके माध्यम से हिंदी, भले ही संयुक्त राष्ट्र की भाषा न हो , अपने आपको वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करती है। यही उसकी विश्वव्यापकता है।


हिंदी को यह विश्वव्यापकता उपलब्ध कराने में अनुवाद की भी बड़ी भूमिका है। हिंदी में ‘रामचरित मानस’ और प्रेमचंद का साहित्य ऐसे उदाहरण हैं जिनका दुनिया भर की अधिकतर भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है। यह हिंदी की वैश्विक ताकत है। हिंदी फिल्मों के विश्वव्यापी बाज़ार से तो सभी परिचित हैं। हिंदी फिल्मों और गीत-संगीत की रूस आदि में लोकप्रियता की तो सभी बात करते ही हैं, लेकिन यह तथ्य भी जानने लायक है कि चीन में भी भारत की फिल्मों का बाज़ार बढ़ रहा है। वहाँ इन्हें दाब करके दिखाया जाता है लेकिन गीतों को प्रायः हिंदी में ही रहने दिया जाता है। जर्मनी में भी भारत की, बॉलीवुड की, फ़िल्में बहुत पसंद की जाती हैं। वहाँ ऐसे भी टीवी चैनल हैं जो 24 घंटे बॉलीवुड की फ़िल्में दिखाते हैं- अपनी भाषा में डब करके। ऐसे चैनल पूरी तरह से केवल विज्ञापन की आय पर जीवित रहनेवाले चैनल हैं। इसका अर्थ है कि इन देशों में हिंदी से अनुवाद का बड़ा बाज़ार है। फिल्म या मनोरंजन इंडस्ट्री के रूप में हिंदी का बहुत बड़ा व्यावसायिक पक्ष जुड़ा हुआ है जो अनुवाद और डबिंग के द्वारा सिद्ध होता है। अनुवाद और डबिंग के माध्यम से ही एक भाषा अपनी संस्कृति को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लेकर जाती है। अनुवाद की भाषा के रूप में हिंदी की यह स्वीकार्यता, उसकी विश्वव्यापकता का बड़ा प्रमाण है।


यह बात तो बार-बार कही ही जाती है कि दुनिया के 40-50 देशों में, कम से कम 600 या उससे अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ी-पढाई जाती है। यह आँकड़ों की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। हिंदी के पाठक और लेखक, पुस्तकीय लेखन के रूप में, पत्रिका लेखन के रूप में, ऑनलाइन, फेसबुक जैसे मंचों और ब्लॉग लेखन के रूप में बहुत सारे देशों में हिंदी भाषा को समृद्ध कर रहे हैं। भारत के बाहर फिजी, नेपाल, श्रीलंका, संयुक्त अमेरिका, रूस , चीन, नार्वे, फिनलैंड, हंगरी , बेल्जियम, बल्गारिया सहित अनेक देशों के नाम लिए जा सकते हैं। पर नामों को गिनवाने की कोई ज़रूरत है नहीं। अनेक देश हैं जहाँ लोग, भले ही कोई एक ही लेखक हो, हिंदी में लिखने का कुछ न कुछ काम कर रहे हैं। इस लेखन की क्या सीमा है, वह अलग चर्चा का विषय है। लेकिन विडंबना यही है कि भारत में ‘राजभाषा’ होकर भी हिंदी ‘राजभाषा नहीं’ है। कानून बनने और फैसले दिए जाने की भाषा अंग्रेजी है, उच्च शिक्षा की भाषा आज भी अंग्रेजी है, नौकरियों की ही नहीं सारे बौद्धिक विमर्श की भाषा भी बड़ी हद तक अंग्रेज़ी है। माना जाता है कि अगर कहीं बौद्धिक चिंतन हो रहा है तो वह अंग्रेजी में ही शायद संभव है। यह स्थिति जो बनी हुई है, यह वैसी किसी भाषा के लिए बहुत काम्य स्थिति नहीं है जो विश्वव्यापक होने का दावा ठोंकती हो। ऐसे समय हमें गांधी और लोहिया याद आने चाहिए। बार-बार की कही हुई बात गांधी की कि आजादी के साथ ही गांधी अंग्रेजी भूल जाते हैं। लोहिया कहते हैं कि अगर इस देश की जमीन और इस देश की मिटटी से जुड़ना है तो वह बिना भारतीय भाषाओं के संभव नहीं। हमारा किसी भाषा से द्वेष नहीं, लेकिन राजकाज से लेकर शिक्षा तक की भाषा यदि अंग्रेजी बनी रहे तो यह उसके विश्व भाषा बनने में सबसे बड़ा व्यवधान कहा जाना चाहिए। स्मरणीय है कि संविधान की भावना के विरुद्ध जाकर 24 जनवरी 1965 को जब विधिवत भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया कि एक भी राज्य के असहमत होने की दशा में भारत संघ की राजभाषा के रूप में हिंदी के साथ अंग्रेजी भी मान्य रहेगी ही, तो सह राजभाषा का प्रावधान हो गया। उस दिन को भारतीय भाषाओं के लिए काले दिन के रूप में याद रखना ज़रूरी है।


हिंदी की विश्वव्यापकता पर चर्चा के दौरान यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि, हिंदी को दुनिया भर में फैलने की ताकत कहाँ से मिलती है ? कोई भी भाषा विश्वव्यापक कैसे हो ? उत्तर बड़ा सहज है। अपने घर से निकलेगी तो ही विश्वव्यापक होगी न! जो भाषा अपने आपको कूपमंडूक बनाकर रखेगी, रिजिड बनाकर रखेगी, वह अपने शुद्धतम रूप में तो सुरक्षित रहेगी, लेकिन फैल नहीं पाएगी। समाज-भाषावैज्ञानिक दृष्टि से एक खास शक्ति है हिंदी में जिसे हम केंद्रापसारी प्रवृत्ति कहते हैं – अपने केंद्र से बाहर की ओर फैलने की शक्ति। यह प्रवृत्ति हिंदी भाषा को ‘लचीला’ बनाती है। अतः हिंदी की खासियत, उसके विश्वव्यापक होने का आधार उसका लचीला होना है। उसका एक सुग्राहक भाषा होना है। हर भाषा से, दुनिया की हर सभ्यता से वह शब्द लेने को तैयार है। अपने संस्कार में ढालकर लेने को तैयार है। कई बार उसके संस्कार के साथ भी ग्रहण कर लेती है। यह जो इसकी ग्रहणशीलता है, सुचालकता है, यही इसे दुनिया में फैलने की शक्ति देती है। यही कारण है कि पिछले 30 वर्षों में विश्व-बाज़ार की दिलचस्पी हिंदी में बढ़ी है। दुनियाभर के उत्पादकों की दृष्टि भारत नाम के उस बड़े बाजार के ऊपर है जिसे हिंदी में एक विज्ञापन देकर संबोधित किया जा सकता है। केवल भारत ही नहीं, बल्कि जिन्हें हम दक्षेस देश (सार्क कंट्रीज़) कहते हैं, या फिर खाड़ी देश कहते हैं, या जहाँ-जहाँ भी भारतवंशी या प्रवासी भारतीय हैं, वहाँ-वहाँ आप सब जगह हिंदी के एक विज्ञापन से अपना व्यापार बढ़ा सकते हैं। व्यापार के विस्तार की यह संभावना हिंदी के पक्ष में एक बहुत बड़ी ताकत है। इसे मैं यों कहना चाहूँगा कि हिंदी ‘बाजार दोस्त’ भाषा है। अनेक अवतार ले लेती है बाजार के हिसाब से। विज्ञापनों की भाषा पर अब अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं। इसी तरह मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि हिंदी ‘तकनीक दोस्त’ भाषा है। अर्थात बाजार फ्रेंडली और टेकनीक फ्रेंडली। कुछ दशक पहले तक लोग सोचते थे कि कंप्यूटर आ गया, तो हिंदी को मार देगा, खा लेगा। लेकिन हुआ उलटा। कंप्यूटर को खा लिया हिंदी ने। आत्मसात कर लिया। इतनी तेजी से हिंदी की उपस्थिति कंप्यूटर के ऊपर बढ़ी है कि हमारे युवा चाहे वे गाँव के हों चाहे शहर के हों लगातार में काम कर रहे हैं। आपने उन्हें मोबाइल दिया और कहा, कर लो दुनिया मुट्ठी में। आपकी मज़बूरी थी, आपको उस मोबाइल में भारतीय भाषा का प्रावधान करना पड़ा। भारतीय भाषा का प्रावधान करते ही आप देखिए कि वह क्या-क्या चमत्कार कर रही है। तकनीक दोस्त भाषा के रूप में बड़ी तेजी से हिंदी ने सोशल मीडिया के ऊपर कब्ज़ा किया है। यह उसकी व्यापकता का आधार है। इसी का विस्तार करें तो हम कह सकते हैं कि हिंदी ‘मीडिया दोस्त’ भाषा है। मीडिया में प्रचलित हिंदी के तरह-तरह के रूप इसे प्रमाणित करते हैं। यही कारण है कि गूगल हो या माइक्रोसॉफ्ट, उन्हें हिंदी में ट्रांसलेशन, ट्रांसलिट्रेशन, फ़ोनेटिक, स्पीच टू टेक्स्ट, टेक्स्ट टू स्पीच जैसी सुविधाएँ देनी पड़ी हैं और आगे भी इसमें शोधकार्य चल रहे हैं। हिंदी में इधर प्रूफ रीडिंग के, व्याकरण और वर्तनी संशोधन के जो नए सॉफ्टवेयर आनेवाले हैं, जिनपर काम चल रहा है, वे आ जाएंगे, तो निश्चय ही हिंदी में ऑनलाइन काम करना और भी सरल हो जाएगा। इससे दुनिया भर के लोगों के लिए उससे सुविधा होगी। गूगल और माइक्रोसॉफ्ट हिंदी पुस्तकों का भी बड़ी तेजी से डिजिटलाइजेशन करा रहे हैं। अर्थात ऐसा नहीं है कि किताबें पीछे छूट जाएंगी। हिंदी की किताबें भी डिजिटलाइज होकर आ रहीं हैं। जो ऑनलाइन पुस्तकें हैं, वहाँ भी हिंदी ने अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी है। विडंबना यह है कि हमारे बहुत से स्थापित रचनाकार अभी तक टेकनीक फ्रेंडली नहीं हैं। जितनी तेजी से बदलाव आना चाहिए था और किताबों का पूरा का पूरा बाजार जो इंटरनेट पर ऑनलाइन हो जाना चाहिए था, वह नहीं संभव हो रहा है। इसमें प्रकाशकों की भी कुछ भूमिका हो सकती है। लेकिन फेसबुक और व्हाट्सएप्प जैसे सोशल मीडिया मंचों से हिंदी प्रयोक्ताओं का तालमेल मजे का है।


मनोरंजन इंडस्ट्री की मैंने बात की। इसी प्रकार पर्यटन उद्योग भी विश्व को हिंदी में संबोधित करके नई ज़मीन तोड़ सकता है। विभिन्न मंत्रालयों और दूतावासों में हिंदी में काम करने को प्रोत्साहित किया जाना ज़रूरी है। वहाँ अगर हिंदी को दोयम दर्जे का नागरिक बनने को मजबूर किया जाता रहेगा तो भला कोई देशी या विदेशी हिंदीतरभाषी व्यक्ति या संस्थान हिंदी की ओर आकर्षित क्यों होगा? यह सुखद है कि राजनीति और कूटनीति के हलक़ों में हिंदी अनुवादकों को प्रोत्साहित किया जा रहा है और हिंदी में बोलने में शरमाना धीरे-धीरे कम हो रहा है। हमारे राजनेता और ही नहीं कई कूटनीतिज्ञों को हिंदी पर गर्व करना और दुनिया के सामने यह जाताना आना चाहिए कि भारत की भी अपनी एक राष्ट्रभाषा है। हिंदी को राष्ट्रभाषा भले ही संविधान में न कहा गया हो, लेकिन अलिखित परंपरा से वह भारत की राष्ट्रभाषा है, इसे खुलकर स्वीकारने की ज़रूरत है। वह भारत की साझा संस्कृति की वाहक तो है ही, स्वतंत्रता संग्राम की भाषा के रूप में अपनी सार्वदेशिक स्वीकार्यता भी सिद्ध कर चुकी है। राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा के रूप में भी भारत में सब दिशाओं में हिंदी के सम्मान को देखते हुए 1940 के दौर में दुनिया के बड़े देशों ने यह सोचकर कि आजाद होते ही भारत हिंदी में काम करने लगेगा, अपने यहाँ हिंदी सीखना–सिखाना शुरू कर दिया था। लेकिन आज़ादी मिलने के एक दशक के भीतर ही उन देशों की समझ में आ गया कि हिंदी पर मेहनत करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि भारतीयों के मन, वचन और कर्म से कहीं भी अपनी भाषा के प्रति स्वाभिमान नहीं झलकता। उन्होंने देखा कि कामचलाऊ अंग्रेजी के माध्यम से यह देश चलता है, तो धीरे-धीरे उन्होंने हिंदी से मुँह मोड़ना शुरू कर दिया। स्मरणीय है कि विश्व राजनीति में भारत के भावी महत्व को ध्यान में रखते हुए 1950 और 1955 में क्रमशः अमेरिका और सोवियत संघ ने भारत का दो बार मन टटोला कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ले ले। लेकिन भारत ने आदर्शवादी रुख अपनाया और अपनी दावेदारी चीन के लिए छोड़ दी। वैसा न होता और भारत उस समय सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बन गया होता तो हमारी भाषा हिंदी स्वतः ही संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बन गई होती। लेकिन अब स्थितियाँ कुछ आर हैं इसीलिए हिंदी को उस स्थान के लिए आज संघर्ष करना पड़ रहा है। अब संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा या अंतरराष्ट्रीय भाषा का रुतबा पाने के लिए जिस विधिक प्रक्रिया का पालन ज़रूरी है, उसमें एक पक्ष तो 193 के दो तिहाई अर्थात 129 देशों के समर्थन का है, जिसे भारत जुटाने में समर्थ है। लेकिन दूसरा पक्ष 400 करोड़ रुपए के खर्च की व्यवस्था का है। भारत इसमें भी समर्थ है, लेकिन यह सामर्थ्य स्वीकार्य नहीं है। स्वीकृत प्रक्रिया के अनुसार यह खर्च सब समर्थक देशों को उठाना होगा। जिसके लिए सबको राजी करना आसान नहीं। इसीलिए हिंदी फिलहाल तो संयुक्त राष्ट्र संघ के दरवाजे दस्तक देते हुए खड़ी रहने को विवश है।


संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा न होते हुए भी हिंदी अपने प्रयोक्ता समुदाय के बल पर आज विश्व भाषा (ग्लोबल लेंगुएज) है। उसे यह वैश्विक विस्तार इतिहास की लंबी यात्रा से मिला है। हिंदी के दुनियाभर में फैलने की कहानी बहुत लंबी है। इसके चार चरण हैं। पहला चरण, अशोक तक का समय , जब व्यापार, वाणिज्य और धर्म (मुख्यतः बौद्ध धर्म) प्रचार के लिए दुनियाभर में भारत के लोग गए; और उनके साथ हिंदी गई। दूसरा, उपनिवेश काल, जब अंग्रेज लोग भारत से धोखा देकर के लोगों को उन देशों में ले गए जिन्हें आज गिरमिटिया कहा जाता है – इस काल में शिक्षा और रोजगार के लिए अन्य देशों भी भारतीय गए; इन सबके साथ हिंदी भी वहाँ गई। तीसरा चरण, जब आज़ादी के बाद भारतीय विदेशों में गए और बसे; वे अपने साथ हिंदी भी लेकर गए। चौथा चरण, जब 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण के दौर में भारतीय नागरिक सारी दुनिया में गए और जा रहे हैं; स्वाभाविक है कि वे भी हिंदी को साथ लेकर गए और ले जा रहे हैं। स्मरणीय है कि इस तरह केवल हिंदी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाएँ भी विदेशों में पहुँचती रही हैं। फिलहाल हमारी चर्चा हिंदी तक सीमित है। इन चार चरणों में भारतवंशियों का माइग्रेशन हुआ और दुनिया में हिंदी को जाने का मौका मिला। लेकिन इसकी सीमा यह है कि हम कह तो रहे हैं कि दुनियाभर में हिंदी है, पर वह हिंदी किनके पास है? वह ज्यादातर भारत से जानेवालों के ही पास है। उन देशों के मूल वासी बहुत कम हैं जो हिंदी में काम कर रहे हैं। हैं; इसमें कोई दो राय नहीं। पर, कम हैं। हम फादर कामिल बुल्के जैसे दिग्गज का नाम ले सकते हैं। हम वारान्निकोव का नाम ले सकते हैं। यह सूचना सुखद लग सकती है कि एक साहित्यिक यात्रा में हमारी भेंट मॉस्को और सेंट पीटर्सबर्ग जैसे रूस के महानगरों के उपनगरीय इलाकों तक में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने वाले अध्यापक ही नहीं, उसकी बोलियों के लोकसाहित्य पर काम करने वाले अध्येताओं से भी हुई जो रूसी मूल के हैं। चीन में भी भारतविद्या के ऐसे हिंदी अध्येता हैं जो चीनी मूल के हैं। अन्य देशों में भी कुछ विद्वान, साहित्यकार और संस्कृति के ऐसे अध्येता हैं जो होनदी में काम कर रहे हैं, लेकिन भारतवंशी या प्रवासी भारतीय नहीं हैं। लेकिन यह संख्या बहुत कम है; गिने चुने लोग हैं। हम भले ही यह कहें कि दुनियाभर में हिंदी है लेकिन दुनियाभर में हिंदी इसलिए है कि दुनिया भर में भारतीय हैं। हिंदी हिंदुस्तानियों के बाहर कितनी है? कम ही सही, पर है अवश्य। यहाँ फिर से याद दिलाया जा सकता है कि दुनिया ने तो 1947 से पहले ही तैयारी शुरू कर दी थी अपने यहाँ हिंदी का स्वागत करने की, हिंदी सीखने-सिखाने की। बड़े देशों ने अपने यहाँ हिंदी के प्रसारण आरंभ कर दिए थे। कुछ जगह अभी भी हैं; लेकिन अनेक प्रसारण बंद भी हो गए हैं। एक और बड़ी दुखद स्थिति यह बताई जा रही है कि जिन विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी के पद हैं, वहाँ जब प्रोफेसर रिटायर हो रहे हैं तब उनके बाद नई नियुक्तियाँ नहीं हो रही हैं। यही स्थिति देश में भी है। यही विदेश में भी है। हिंदी के पद यदि खाली हो रहे हैं तो भरे नहीं जा रहे। भले ही भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के तहत दो-दो साल के लिए प्रतिनियुक्तियाँ चलती रहें।


यहाँ यह जोड़ना ज़रूरी है कि हिंदी का वातावरण अगर देश में सुधरे और विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों में हिंदी का वातावरण बने, तो हिंदी की विश्वव्यापकता को पंख मिल सकते हैं। इस समय निराशा की बात इसलिए नहीं है कि चूँकि हिंदी बाजार दोस्त भाषा के रूप में , कंप्यूटर दोस्त भाषा के रूप में, मीडिया दोस्त भाषा के रूप में , मनोरंजन की भाषा के रूप में और अब डिप्लोमेसी की भाषा के रूप में भी भीतर-बाहर तेजी से बढ़ रही है। चीन और अमेरिका अपने यहाँ अपने राजनयिकों को हिंदी सिखाना अनिवार्य कर रहे हैं। स्मरणीय है कि राष्ट्रपति जार्ज बुश के समय 2006 में हिंदी को ‘प्रमुख व्यापारिक और स्ट्रेटेजिक भाषा’ घोषित किया गया। इसलिए अब अमेरिका में हिंदी विधिवत कूटनीति की दृष्टि से पढ़ने योग्य भाषा मनी जाती है और अमेरिका के रेडियो से अमेरिकी सरकार द्वारा ‘स्टारटॉक’ कार्यक्रम के तहत हिंदी के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था है।


इन सब स्थितियों से यही कहा जा सकता है कि ग्लोबल विस्तार वाली भाषा के रूप में भी और संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में भी हिंदी की दावेदारी बेहद मजबूत है। अब देखना यह है कि उसकी इस दावेदारी को किस तरह से दुनिया स्वीकार करती है। स्मरणीय है कि हिंदी की विश्वव्यापकता का सम्मान करते हुए संयुक्त राष्ट्र ने हिंदी में साप्ताहिक समाचार बुलेटिन शुरू किया है। हिंदी के चाहनेवालों को अधिक से अधिक संख्या में उससे जुड़ना चाहिए ताकि उसका आगे विस्तार किया जा सके। 000


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विश्व स्तर पर शक्ति की भाषा बनती हिंदी

 




विश्व स्तर पर शक्ति की भाषा बनती हिंदी

  • ऋषभदेव शर्मा 


नवंबर 2022 में दुनिया की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं वाले 20 देशों के समूह जी-20 के बाली (इंडोनेशिया) में आयोजित शिखर सम्मेलन में वैश्विक राजनीति, अर्थनीति और कूटनीति की तमाम चर्चाओं से इतर जिस एक बात को खास तौर से हिंदी भाषा की वैश्विक स्वीकृति के उदाहरण के रूप देखा जा सकता है, वह रही अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता जेड तरार की सक्रिय उपस्थिति। जेड तरार हिंदी में उच्च कोटि की प्रवीणता रखते हैं। उन्होंने तमाम चैनलों को हिंदी में  साक्षात्कार दिया। अनुवादक की भूमिका तो निभाई ही। उनकी उपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि हिंदी अब विश्व स्तर पर 'शक्ति की भाषा' बन रही है। जैसे जैसे भारत विश्व की अग्रणी आर्थिक, व्यावसायिक और सामरिक ताकत बनता जा रहा है, वैसे-वैसे हिंदी को भी ताकत मिल रही है। भारत का सशक्त होना भारत की भाषा का भी तो सशक्त होना है न! हम सशक्त होंगे, तो दुनिया हमारी भाषा खुद ब खुद सीखेगी और बोलेगी। ऐसा होगा, तभी कहा जा सकेगा कि भारत ने 'भाषिक आज़ादी' हासिल कर ली है। तब भारत 'अंग्रेज़ी भाषा का उपनिवेश' नहीं रहेगा! 


समय समय पर भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा होने की हिंदी की योग्यता और संवैधानिकता को लेकर उठने वाले राजनैतिक विवादों और मतभेदों के बावजूद, समसामयिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के महत्व को रेखांकित करने की दृष्टि से पिछले दस वर्ष के भारतीय राजनीति और वैदेशिक कूटनीति के परिदृश्य का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस अवधि में कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के क्षेत्र में हिंदी ने अपनी साफ-साफ आहट दर्ज कराई है। प्रधानमंत्री द्वारा कूटनैतिक चर्चाओं और औपचारिक संबोधनों के लिए विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी के व्यवहार से विश्व बिरादरी को यह संकेत मिला है कि भारत की भी अपनी राजभाषा (राष्ट्रभाषा) है और यदि वह इसके प्रयोग का आग्रही हो तो विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की इस भाषा को दुनिया को इस देश के साथ संबंधों की खातिर व्यवहार में स्वीकार करना होगा। 


भाषा यदि राष्ट्रीय गौरव का एक प्रतीक है तो यह कहना होगा कि भले ही 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में संविधान ने अधिकृत कर दिया हो, व्यवहारतः विश्व बिरादरी के बीच भारत अब तक अंग्रेज़ी ही बरतता रहा है और धिक्कारा जाता रहा है: ऐसे में यदि भारत के प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री/ अधिकारी राष्ट्रीय/ अंतरराष्ट्रीय औपचारिक अवसरों पर अपने वक्तव्य हिंदी में देने का नैतिक साहस दिखाते रहें तो इसे कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के स्तर पर हिंदी के महत्व को स्थापित करने की पहल के रूप में देखना उचित होगा। इससे हिंदी को विश्वस्तरीय संबंधों की माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने के अवसर मिलेंगे तथा विदेशों में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने को बढ़ावा मिलेगा। मानवीय और मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में भी हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और जानबूझ कर इस भाषा की उपेक्षा करने वाले दूतावासों में इसे सम्मान मिलने की शुरूआत होगी। 


इस प्रकार के संकेत मिलने लगे है कि सभी देशों ने हिंदी से जुड़ने की दिशा में सोचना आरंभ कर दिया है। उदाहरणार्थ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के साथ विश्व के कई सारे बड़े देशों के विश्वविद्यालयों से हिंदी पढ़ाने की जिम्मेदारी के समझौते हुए हैं। केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा तो इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा ही रहा है। इसके अंतर्गत एक अनिवार्य पाठ्यक्रम ‘भारत परिचय’ का भी है जिसमें विशेष बल 1857 के बाद के अर्थात आधुनिक भारत पर है। अभिप्राय यह है कि आने वाले समय में विश्व स्तर पर आर्थिक-राजनैतिक परिवर्तनों के साथ हिंदी के जुड़ाव के लक्षण दिखाई देने लगे हैं।


कोई भी भाषा तभी महत्वपूर्ण और सर्वस्वीकार्य होती है, जब वह अपने आपको निरंतर प्रगति की संस्कृति से जोड़कर नए नए प्रयोजनों (फंक्शंस) के अनुरूप अपनी क्षमता प्रमाणित करे। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी ने अपना यह सामर्थ्य पिछले दशकों में सिद्ध कर दिखाया है कि वह विश्व मानव के जीवन व्यवहार के समस्त पक्षों को अभिव्यक्त करने वाली सर्वप्रयोजनवाहिनी भाषा है। बीज रूप में कहना हो तो हिंदी के महत्व का आज के परिप्रेक्ष्य में पहला समसामयिक प्रयोजन क्षेत्र कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों (डिप्लोमेसी) की भाषा का है, तो दूसरा पहलू शासन (गवर्नेंस) की भाषा का। तीसरा क्षेत्र प्रतियोगिता परीक्षाओं और रोजगार दिलाने वाली भाषा का; और चौथा चुनाव तथा राजनीति की भाषा का है। हिंदी की शक्ति के पाँचवें आयाम के रूप में मीडिया की भाषा को देखा जा सकता है, जिसके अंतर्गत प्रिंट और इलेक्ट्रानिक जनसंचार माध्यमों के अलावा फिल्म और नए (सोशल) मीडिया पर हिंदी के प्रभावी प्रसार का आकलन करना होगा। सूचना उद्योग हो या मनोरंजन उद्योग, बहुभाषी होना और हिंदी का व्यवहार करना, दोनों क्षेत्रों में सफलता की गारंटी सरीखा है। इससे रंग-बिरंगी हिंदी के जो रूप सामने आ रहे हैं, वे हिंदी की लचीली और सर्वग्राही प्रवृत्ति के प्रमाण भी हैं और परिणाम भी। भाषा मिश्रण पर नाक भौं सिकोड़ने वालों को हिंदी की केंद्रापसारी प्रवृत्ति और अक्षेत्रीय व समावेशी स्वभाव को ध्यान में रखना चाहिए अन्यथा वे इसके बहुप्रयोजनीय स्वरूप के विकास में रोडे ही अटकाते रहेंगे। इसे भाषा के खिचड़ी हो जाने की अपेक्षा प्रयोजन-विशेष के लिए लचीलेपन के रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित होगा। अर्थात, हिंदी की पहले से विद्यमान और स्वीकृत सामाजिक शैलियाँ (हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी) अब भी अपनी जगह हैं और जीवंत प्रयोग में हैं तथा आगे भी रहेंगी, लेकिन हिंदी के जो नए रूप आज मीडिया के माध्यम से उभर रहे हैं, उन्हें भी नई शैली के रूप में स्वीकारना ज़रूरी है। उन्हें 'हिंगलिश' कहकर हिकारत की नज़र से देखना हिंदी को सीमित करना होगा। दरअसल, हिंदी की इन विविध शैलियों के प्रयोग के संदर्भ अलग-अलग हैं,  जो भाषा के बहुआयामी विकास के ही प्रतीक हैं। 


इसी से हिंदी की शक्ति का छठा आयाम भी जुड़ा हुआ है जो विज्ञापन की भाषा से संबंधित है। कहना न होगा कि उत्तरआधुनिक भूमंडलीकृत विश्व वस्तुतः भूमंडीकृत विश्व है। इस भूमंडी या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के जितने बड़े हिस्से को कोई भाषा संबोधित कर सके वह उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाती है। हिंदी विज्ञापन भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया और अरब देशों तक के उपभोक्ता को और साथ ही दुनिया भर में बसे भारतवंशियों को संबोधित और आकर्षित करने में सक्षम हैं; क्योंकि दुनिया भर में हिंदी समझने वालों की तादाद सर्वाधिक नहीं तो सर्वाधिक के आसपास अवश्य है। अतः ग्लोबल मीडिया और बाज़ार दोनों की भाषा की दृष्टि से अब कोई हिंदी को नकार नहीं सकता। 


यहीं हिंदी भाषा की शक्ति का सातवाँ बिंदु सामने आता है जिसका संबंध ज्ञान, विज्ञान और विमर्श की भाषा से है। भाषिक प्रयुक्तियों, तकनीकी शब्दावलियों और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी का भंडार अकूत है, लेकिन शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को स्वीकार न करने के कारण सभी भारतीय भाषाओं सहित हिंदी के प्रयोक्ता संदेह, संशय और हीन भावना के शिकार हैं। अब नई 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020' के तहत भारतीय भाषाओं को उच्च और तकनीकी शिक्षा तक अपनाने की जो शुरूआत हुई है, उसके मार्ग में बाधाएँ ज़रूर हैं, लेकिन क्रमशः स्वीकार्यता बढ़ना भी तय है।  समाज को अंग्रेजीपरस्त औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आकर स्वतंत्र लोकशाही जैसा आचरण सीखना होगा और बुद्धिजीवियों को ‘निजभाषा’ के व्यवहार से जुड़े आत्मगौरव को अर्जित करना होगा। आज ज्ञान-विज्ञान-विमर्श के हर पक्ष को व्यक्त करने में हिंदी समर्थ हो चुकी है। पर जाने हमारे बुद्धिजीवी अपनी भाषा के व्यवहार में कब समर्थ होंगे? कहना न होगा कि भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने के प्रावधान इस दृष्टि से अत्यंत महतवपूर्ण हैं। 


हिंदी की शक्ति का आठवाँ आयाम भारत की संपर्कभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के 'थ्री-डाइमेंशनल' प्रकार्य से आगे बढ़कर 'फोर्थ डाइमेंशन' के रूप में विश्वभाषा बनकर उभरने से संबंधित है। इसका एक पक्ष तो राजनैतिक और कूटनैतिक है – संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में। विश्व हिंदी सम्मेलनों के बार बार ज़ोर देने का असर यह हुआ है कि सरकार इस ओर सचेत हुई है। इसी का परिणाम है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हिंदी भाषा को अपनी भाषाओं में शामिल कर लिया है। संयुक्त राष्ट्र के 1946 में पारित प्रस्ताव 13 (1) के तहत कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य को तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि दुनिया के लोगों को इसकी जानकारी नहीं हो जाती। इसी उद्देश्य के तहत अब हिंदी भाषा को भी संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में तो शामिल कर लिया  गया है, परंतु उसका संयुक्त राष्ट्र की 'आधिकारिक भाषा' बनना अभी बाकी है। लेकिन विश्वभाषा का दूसरा पक्ष शुद्ध रूप से व्यावहारिक है। व्यवहारतः आने वाले समय में वे भाषाएँ ही विश्वभाषा के रूप में टिकेंगी जिनमें बाज़ार की भाषा और कंप्यूटर की भाषा के रूप में टिके रहने की शक्ति होगी। बाजार की चर्चा पहले ही की जा चुकी है, रही कंप्यूटर की बात, तो आज यह जगजाहिर हो चुका है कि हिंदी कंप्यूटर  के लिए और कंप्यूटर  हिंदी के लिए नैसर्गिक मित्रों जैसे सहज हो गए हैं। हिंदी के कंप्यूटर-दोस्त होने के कारण तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियाँ अब ऐसे उपकरण और कार्यक्रम लाने को विवश हैं जो हिंदी-दोस्त हों। दरअसल हिंदी ने साबित कर दिया है कि वह ‘दोस्त भाषा’ है – मीडिया की दोस्त, बाजार की दोस्त, कंप्यूटर की दोस्त। 


इस प्रकार एक सशक्त विश्वभाषा के रूप में भी अपने प्रकार्य को निभाने में हिंदी निरंतर अग्रसर है। इतना ही नहीं, वह कॉर्पोरेट जगत के दरवाज़े पर भी आ खड़ी हुई है तथा अंदर प्रवेश करने के लिए नया 'सोशियो-टेक्नोलॉजिकल' अवतार ले चुकी है। यही नहीं, अनुवाद-उद्योग की भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में अत्यंत संभावनाशील और समर्थ भाषा के तौर पर अपने महत्व के नौवें आयाम को छू रही है। 


इसके अलावा अपने जन्म से ही साहित्य और संस्कृति की भाषा के तौर पर स्वयंसिद्ध सामर्थ्य आज भी हिंदी की प्रामाणिकता की दसवीं दिशा है, जिसके द्वारा वह विश्व मानवता के भारतीय आदर्श को परिपुष्ट करती है। इसी से जुड़ा है हिंदी भाषा की शक्ति का ग्यारहवाँ आयाम, जो राष्ट्रीय अस्मिता और निजभाषा के गौरव से संबंधित है। कहना न होगा कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, वह भारतीय अस्मिता का पर्याय है – हम चाहे कितनी ही मातृबोलियों और मातृभाषाओं का व्यवहार करते हों, हिंदी उन सबमें निहित हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनकर उभरती है। 


निस्संदेह, हिंदी के महत्व के और भी अनेक आयाम हैं, लेकिन वे सब इस विराट आयाम में समा सकते हैं। वस्तुतः ‘निजभाषा उन्नति’ से जुड़े राष्ट्रीय गौरव के बोध के बिना हृदय की वह पीड़ा मिट ही नहीं सकती जिसके दंश का अनुभव करके कभी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पराधीन देश को अहसास कराया था कि ‘बिन निजभाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल!’ हिंदी भाषा की इस शक्ति का बारहवाँ आयाम इसकी विश्व के अनेक देशों में प्रवासी भारतवंशियों के माध्यम से सजीव उपस्थिति से निर्मित होता है, जिसके अनेक उप-आयाम हैं। उनकी चर्चा फिर कभी। अभी इतना ही कि हिंदी हर लिहाज से वैश्विक स्तर पर शक्ति की भाषा के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। 000


  • प्रो. ऋषभदेव शर्मा, 


रविवार, 26 फ़रवरी 2023

(पुस्तक) कोई नारी मन से पूछे


भूमिका

सिंधी और हिंदी दोनों भाषाओं में एक जैसी सफल साहित्य सर्जना  के लिए समग्र हिंदी जगत में समादृत प्रवासी साहित्यकार देवी नागरानी (ज. 1941, कराची) को कविता, कथा, निबंध और अनुवाद जैसे विविध क्षेत्रों में प्रभूत लेखन के लिए खासी पहचान मिली है। प्रस्तुत कृति "कोई नारी मन से पूछे"  (2022 : India Netbooks) में उन्होंने विभिन्न  विचारोत्तेजक आलेखों के माध्यम से स्त्री-मन से जुड़े विविध पक्षों का विमर्शात्मक  खुलासा किया है।

दरअसल स्त्री विमर्श की एक बड़ी समस्या यह  है कि बहुत बार वह नारेबाजी में उलझ कर स्त्री-मन से दूर हो जाता है।  देवी नागरानी ने इसीलिए अपने समस्त विमर्श के केंद्र में स्त्री के मन को रखा है। यह मन जो बार-बार पूछता है कि मैं कौन हूँ और क्यों हूँ! यह मन जो बार बार महसूसता है पुरुष प्रधान व्यवस्था के भीतर प्राप्त संत्रास को और भोगता है निर्वासन को! यह मन जो सुंदर सुगठित तन के भीतर बुझा बुझा सा किसी कोने में पड़ा रहता है!  दूसरों की जली कटी सुनता है, घुट घुट कर मर मर कर जीवनशैया पर अपने अस्तित्व की चिता जलते हुए देखने को विवश है! इस प्रश्नाकुल नारी मन की ही अभिव्यक्तियाँ हैं प्रस्तुत संकलन के सारे आलेख। ये आलेख कहीं विचारात्मक लगते हैं, कहीं भाव प्रवणता जगाते हैं, कहीं इनमें संस्मरणात्मकता  आ जाती है तो कहीं ये विवेचन और विश्लेषण का सहारा लेते हैं। इन सब प्रविधियों का उपयोग करके देवी नागरानी अपनी देखी भाली दुनिया की प्रामाणिक स्त्री का विश्वसनीय वृत्त रचने का सफल प्रयास करती हैं।

देवी नागरानी ने जब आँख खोली तो भारत-पाक विभाजन के अनचाहे किंतु कारुणिक दृश्य देखे। विभाजन की विभीषिका के शिकार सिंधी शरणार्थी के रूप में देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाना,  उखड़ी हुई जड़ों को नई जमीन में रोपना और पोसना कितना पीड़ादायक अनुभव रहा होगा, इसे वही जानता है जिसने वह पीड़ा भोगी है और देवी नागरानी वही भोक्ता हैं। उनके लेखन में शरणार्थी की पीड़ा सहानुभूति नहीं स्वानुभूति से आई है।  आज भी वे इस प्रश्न का उत्तर खोजती हैं कि आखिर उनके जैसे परिवारों को हिंसा, अनाचार और अत्याचार किस गुनाह के कारण भोगने पड़े। गुनाह राजनीति करती है और सजा आम जनता को भोगनी पड़ती है। यह सत्य उन्होंने अपने अस्तित्व पर झेल कर जाना है। इसीलिए उनके मन का वह विभाजन जनित दर्द उनके लेखन में गाहे-बगाहे छलकता रहता है। आज भी उनका मन इस प्रश्न के उत्तर के लिए तड़पता और कलपता है कि आखिर मेरा असली देश कौन सा है! विस्थापन और उससे जुड़ी पीड़ा और नई पहचान की तलाश की जद्दोजहद को उनके लेखन में मार्मिक अभिव्यक्ति मिली है।

लेखिका ने विभाजन के बाद सिंधी लेखिकाओं के साहित्य में संघर्ष को विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से भली प्रकार उकेरा है। खास बात यह भी उभर कर आती है कि अस्तित्व और पहचान के इस संघर्ष में स्त्री रचनाकारों का आपसी नारी-बहनापा बहुत कारगर भूमिका निभाता है। इसी के सहारे इन लेखिकाओं ने कलम के बल पर सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने और समाज को बदल डालने का बीड़ा उठाया तथा मर्द की सत्ता और पाखंडी वृत्ति को चुनौती देते हुए अपने होने को महसूस कराया। इसी से प्रेरित होकर देवी नागरानी समस्त नारी विमर्श के संबंध में इस प्रश्न को केंद्रीय  बनाती हैं कि क्या स्त्री को हकीकी जीवन में वह मान-सम्मान प्राप्त है जिसकी वह हकदार है!  जब तक एक भी स्त्री अपने इस  हक से महरूम है, तब तक स्त्री-मुक्ति के सारे अभियान अधूरे हैं। इसीलिए उनका स्त्री-मन यह महसूस करता है कि औरत का वजूद हर पल सलीब पर चढ़ता है और नया जन्म प्राप्त करता है। इसमें संदेह नहीं कि स्त्री का यह नया जन्म शिक्षा से ही ऊर्जस्वित हो सकता है। आज भी स्त्री बहुत बार अपने आप को जिंदगी की लड़ाई में जब-जब एकाकी पाती है, तब-तब शिक्षा ही उसे नई जमीन तोड़ने को प्रेरित करती है। लेखिका ने अनेक स्थलों पर इस बात के लिए भी अफसोस जाहिर किया है कि औरतें आमतौर पर अपनी बनाई दीवारों में बंद रह जाती हैं। फिर भी उन्हें संतोष है कि पुरानी पगडंडियों को लाँघ कर आज की स्त्री उन तमाम नए क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही है, जिन्हें कभी उसके लिए निषिद्ध और केवल मर्दो के लिए आरक्षित समझा जाता था।

बेशक वे दीवारें जो औरतों को तोड़नी हैं, अलग अलग तरह की हैं और बेहद मजबूत हैं, लेकिन औरतें किस तरह इन्हें तोड़ती हैं, देवी नागरानी ने इसे अमृता प्रीतम के बहाने बहुत अच्छी तरह विवेचित किया है। पगडंडियों का पैरहन पहनने वाली सारा शगुफ्ता भी एक तरह से उन्हीं का संघर्षी अवतार है। यहीं लेखिका इस विमर्श को भी उभारती हैं कि औरत के दिल के तहलके से औरत ही सलीके से वाकिफ हो सकती है। इसी अनुभव का विस्तार भारतीय नारी के बरक्स अतिया दाऊद को रखकर किया गया है। लेखिका पाठक को यह महसूस कराने का सफल प्रयास करती हैं कि अगर गली कूचों से आती औरतों की आवाजों को अनसुना किया जाता रहा, तो ऐसा भी हो सकता है कि वे अपने हक में न्याय के लिए हाथ भी न उठा पाएँ और तब समाज में आत्महत्याओं का ऐसा दौर आ सकता है जो स्वयं समाज को मरण के द्वार पर ला खड़ा करे! लेकिन लेखिका गाहे-बगाहे यह भी ध्यान दिलाती हैं कि  महिलाओं की ललकार आज कहीं इकलौती नहीं है। यानी कोई स्त्री अकेली या अधूरी नहीं है। वह अपनी इकाई-परिपूर्णता में समग्र समाज से जुड़ी है। फर्क बस इतना है कि उसे पुरुषवादी मानसिकता अब और बर्दाश्त नहीं! इस बात को लेखिका ने अनेक भाषाओं की कवयित्रियों के साक्ष्य से बखूबी स्थापित किया है।

कितना सही कहा है देवी नागरानी ने कि नारी मन यकसाँ होता है। उसके दर्द की परिभाषा एक सी होती है। चाहे वह हिंद में हो, सिंध में हो या प्रवास में। प्रवासी होते हुए भी अपने देश की धड़कन को हर भारतीय नारी सीने में लिए होती है। दूरी के बावजूद  कोई खबर अपने भाई, बेटे, बेटी, बहन या किसी अजन्मे अणु की आती है, तो मन में एक ज़लज़ला सा उठता है! कहना ही होगा कि देवी नागरानी की यह किताब उसी ज़लज़ले का रचनात्मक परिणाम है!

अंततः यही कि अपनी इस कृति के माध्यम से देवी नागरानी यह आवाज भी बुलंद करती हैं कि समाज हो या संविधान, नारी को घर के बाहर और भीतर उसका सही सम्मान और हक मिलना ही चाहिए। अंत में भी घूम फिर कर लेखिका इसी प्रश्न पर आती हैं कि नई सदी की नारी की दुनिया में सब कुछ है- उसका घर, परिवार, नाते, रिश्ते, समाज, संसार; लेकिन वह स्वयं कहाँ है? पुरुष अपनी सर्वश्रेष्ठता और महानता से जुड़ी 'मेल डोमिनेंस' से बाहर निकले, यही आज के समाज के लिए बेहतर होगा। यही इस कृति का संदेश है।

इस वैचारिक और भावप्रवण कृति के प्रकाशन के अवसर पर लेखिका को हार्दिक शुभकामनाएँ! मुझे विश्वास है कि साहित्य जगत में इस कृति को भरपूर स्नेह और सम्मान मिलेगा!!

- ऋषभदेव_शर्मा
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,
हैदराबाद।
rishabhadeosharma@yahoo.com