फ़ॉलोअर

शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

'लोकतंत्र के घाट पर' की समीक्षा : डॉ. चंदन कुमारी

 

पुस्तक चर्चा

लोकतंत्र के घाट पर...

डॉ. चंदन कुमारी

 


समय बीतता जाता है। भविष्य के कालखंड में अब के बीते हुए समय की प्रवृत्ति और प्रकृति को यदि कोई अनुसंधित्सु जानना-समझना चाहेगा, तो वह अतीत के पन्नों में अंकित अक्षरों को ढूँढेगा। पन्ने जिनमें समय के सत्य का प्रामाणिक और तटस्थ अंकन हो। पन्ने जिनमें समय की सरगर्मी, दिलेरी, बेबसी, आत्मीयता और उड़ान का अंकन हो। पन्ने जिनमें समय की मार खाए मनुज के आँसू को मोती में तब्दील कर अपनी माला में पिरोने की ताक में बैठे अवसरवादियों का भी अंकन हो। ऐसे ही कुछ पन्नों पर अपने समय के सत्य को प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘लोकतंत्र के घाट पर’ में अंकित किया है।

प्रो. ऋषभ देव शर्मा हैदराबाद से प्रकाशित एक दैनिक पत्र का संपादकीय निरंतर लिख रहे हैं। भारत की चतुर्दिक परिस्थितियों पर पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने सजग लेखन से वे पहले ही हिंदी भाषा और साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान तथा साहित्यकार के रूप में विशेष ख्याति अर्जित कर चुके हैं। समीक्ष्य पुस्तक में चुनावी रणनीति पर गंभीर विमर्श मौजूद है। राजनीति की दुरूहता और जटिलता को रेशा-रेशा कर एक सामान्य मनुष्य के लिए उसे सुगम्य बनाते हुए उसकी भेड़-चाल को स्पष्ट करने की सफल कोशिश यहाँ दिखाई देती है। कुल 81 संपादकीय इस संग्रह में संकलित हैं।

देश और दुनिया की पीड़ा की जड़ों को पहचानकर उसे तथ्यपरक और तर्कसंगत ढंग से इस पुस्तक के जरिये पुनः सामने रखा गया है। जन से सरोकार रखनेवाले विचारयोग्य तथ्यों पर विचार की अनिवार्यता बताते हुए कई महत्वपूर्ण संकेत यहाँ दिए गए हैं। उनमें से कुछ बिंदुओं का उल्लेख निम्नलिखित है-

·       संयुक्त राष्ट्र के अनुसार रोहिंग्या मुसलमान दुनिया के सबसे उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समूहों में से एक है। पता नहीं क्यों किसी भी मुस्लिम राष्ट्र का इस्लामिक ब्रदरहुड का जज्बा इन लाचार भाइयों के लिए कभी जोर नहीं मारता? दूसरी ओर भारत का उच्चतम न्यायालय अवैध और अवांछित होने पर भी इन्हें बाहर धकेलने की इजाजत नहीं देता। 05.06.2018

·       यदि नीति आयोग और भारत सरकार को यह लगता है कि 2024 से लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना राष्ट्रीय हित में होगा, तो इसपर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है। कहीं खर्च घटाने के चक्कर में निरंकुश शासन की राह आसान नहीं कर देंगे। ग्रासरूट लेवल के मुद्दे महत्वहीन हो जाएँगे। 12.06.2018

·       लोकतंत्र में असमहमति और संवाद के लिए हमेशा जगह रहनी चाहिए। अतिवादी गतिविधियाँ काले धन के बल पर ही चलती हैं। भारत विरोधी ताकतों से प्राप्त फंड अपनी जगह तो हैं ही। सैनिक कार्रवाई के साथ ये सारे रास्ते बंद होने चाहिए। 23.06.2018

·       बेहतर हो कि महिला-महिला चीखकर छाती पीटने के बजाय सारे राजनैतिक दल व्यावहारिक स्तर पर उनका समर्थक होना सिद्ध करें। इसके लिए उन्हें बस इतना करना होगा कि अगले आम चुनाव में 33% सीटों पर केवल महिलाओं को टिकट देकर अपनी नेकनीयती दर्शाएँ। 18.07.2018

·       शांतिपूर्ण ढंग से असहमति या विरोध प्रकट करना नागरिकों का मौलिक अधिकार है जिसके लिए उसे उचित स्थान मिलना ही चाहिए। 31.07.2018

·       राजनीति के अपराधीकरण के कैंसर का तुरंत और प्रभावी इलाज अति आवश्यक है। मार्च 2018 के आंकड़ों के अनुसार 4896 विधायकों में से 1765 के खिलाफ कुल 3065 आपराधिक मामले दर्ज हैं। 27.09.2018

·       किसानों की आय दुगुनी कब होगी? अन्ना हजारे से लेकर अखिल भारतीय किसान सभा, किसान मुक्ति संसद और तमिलनाडु के किसानों तक को बार-बार दिल्ली दरवाजे पर दस्तक देने के लिए मजबूर होना पड़ता है। 03.10.2018

·       निचले तबके के लोगों को अपराधी और अशिष्ट मानने की सामंती और साम्राज्यवादी (बल्कि, विलायती) मानसिकता आखिर कब जाएगी? 09.10.2018

·       अनिवार्य वोटिंग की तुलना में एक बेहतर विकल्प यह भी हो सकता है कि जैसे कुछ देशों में ‘जूरी ड्यूटी’ होती है तथा सब नागरिकों को कभी-न-कभी ‘जूरी’ पर होना ही होता है, वैसे ही विधायक और सांसद नियुक्त होने चाहिए। इससे राजनीति को व्यवसाय बनानेवाले हतोत्साहित होंगे। 23.11.2018

·       जीवन बीमा, फसल बीमा, चिकित्सा बीमा, फसलों की तुरंत खरीद और तुरंत भुगतान की गारंटी कर्ज माफ़ी की तुलना में बेहतर विकल्प हो सकते हैं। 26.12.2018

·       युद्ध जैसी आपात स्थिति में सेनाओं के साथ ही एकजुटता का ही नहीं बल्कि देश के राजनीतिक नेतृत्व के साथ भी सच्चे मन से एकजुटता का प्रदर्शन करने की जरूरत है तभी भारत विरोधी ताकतों तक यह संदेश जा सकता है कि देश की सुरक्षा का सवाल भारतीय जनता की तरह राजनीतिक दलों के लिए भी राजनीति से ऊपर की चीज है। 01.03.2019

इसके अतिरिक्त इन्होंने खासी-पंजाबी संघर्ष पर चर्चा के माध्यम से बताया है गया है कि सोशल मीडिया खतरनाक भी हो सकता है। ‘कश्मीर ग्लिम्पसेज ऑफ़ हिस्ट्री एंड स्टोरी ऑफ़ स्ट्रगल’ पुस्तक में पेश की गई लौहपुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल को खलनायक बनानेवाली छवि की थ्योरी का उल्लेख करते हुए उसका खंडन समीक्ष्य पुस्तक में किया गया है। लेखक ने किशोर कुणाल की पुस्तक ‘अयोध्या रिविजिटेड’ से संदर्भ लेते हुए बताया है, “बाबरी मस्जिद बाबर ने नहीं बनवाई थी। बाबर कभी अयोध्या नहीं गया। जो शिलालेख मस्जिद पर लगे थे वे फर्जी हैं। 1858 से पहले यहाँ नमाज और पूजा दोनों अदा की जाती थी।” अब तो राम मंदिर का शिलान्यास भी हो गया। तीन तलाक, महिला आरक्षण, नोटबंदी, शराबबंदी, शबरीमलै सहित विविध मुद्दों पर लेखक की बेबाक टिपण्णी अपनी भाषिक विलक्षणता के कार्न विशेष रुचिकर प्रतीत होती है। इन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि शहादत, धर्म, जाति, गोत्र, संप्रदाय और सैन्य अभियान को चुनावी मुद्दों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। ‘गरीबी, अशिक्षा, नागरिक सुविधाओं का अभाव और ढाँचागत क्षेत्रों में गतिहीनता’ चुनाव के वास्तविक मुद्दे हैं। “कश्मीरियत सियासत से बहुत ऊपर है”- पुलवामा केंद्रित इस संपादकीय के जरिए शाश्वत मानवता के स्वरूप की व्याख्या की गई है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फ़ौज की मदद से सबसे पहले पोर्ट ब्लेयर की सरजमीं पर तिरंगा फहराया था। विश्वविजेता अंग्रेज जाति की नाक में दम करने का जीवट रखने वाले अपराजेय पौरुष के प्रतीक स्वरूप नेताजी और स्वाधीनता संघर्ष में उनके अविस्मरणीय योगदान की याद स्वतः स्तुत्य है। पुस्तक में राष्ट्रीयता, एकता और स्थानीयता का स्वर बुलंद है। चुनावी नारों का विश्लेषण रोचक है। गाँधी चरित्र के प्रकाश में लेखक का कहना है कि जरूरत है प्रतीक से आगे बढ़कर उन प्रश्नों से टकराने की जिनसे यह देश रूबरू है। इसे एक गंभीर अंतःदर्शी वाक्य मानकर केवल सराहना कर देना समय की मांग नहीं है। इस अंतःदर्शिता को कार्यान्वित करना समय की मौलिक जरूरत है। अनुपस्थित वोट, गुणवत्तापूर्ण रोजगार की कमी और न्यूनतम आय जैसे विषय भी यहाँ उपस्थित हैं। पुस्तक प्रासंगिक है।

समीक्षित पुस्तक : लोकतंत्र के घाट पर

लेखक : ऋषभदेव शर्मा

संस्कारण : 2020 (किंडल/ ऑनलाइन)





समीक्षक : डॉ. चंदन कुमारी

हिंदी विभाग, भवन्स श्री ए के दोशी महिला कॉलेज जामनगर-361008 (गुजरात)

         आवासः द्वारा श्री संजीव कुमार, आईएफए , एयर फ़ोर्स स्टेशन, जामनगर-361003 (गुजरात)

 मोबाइलः 8210915046, ई-मेलःchandan82hindi@gmail.com,

 

बुधवार, 11 नवंबर 2020

शुभाशंसा_'कोरोना काल की डायरी'_प्रो. गोपाल शर्मा





शुभाशंसा 
चाँदी के वर्क लगा आँवले का मुरब्बा 
- प्रो.  गोपाल शर्मा 

समाचारपत्रों के संपादकीय पाठकों को सूचना देने, जागरूक और शिक्षित बनाने के साथ साथ ही उनका मनोरंजन करने का दायित्व भी पूरा करते हैं। इसलिए इनके लेखक एक साथ ही पहरेदार, शिक्षक और जनमत निर्माता की भूमिका निभाते हैं। दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता में साहित्य ही नहीं, साहित्येतर लेखन के क्षेत्र में भी कई दशकों से प्रसिद्ध हो गए प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा की संपादकीय टिप्पणियों के पुस्तकाकार संकलनों का देश भर में जो स्वागत हुआ है, उसने ‘कोरोना काल की डायरी’ की प्रस्तुति के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। 

वैसे दूसरों की डायरी पढ़ना अशिष्टता माना जाता है, पर जब यह डायरी खुली किताब के रूप में पन्ना-दर-पन्ना ‘रोजनामचा’ के रूप में सामने आने लगे, तो पाठकों का ध्यान जाना स्वाभाविक ही है। कोरोना काल-चक्र में दिनचर्या की बोरियत को दूर करने के लिए ऑक्सीज़न के समान ग्रहण की गई इन टिप्पणियों का अब पुस्तक के रूप में आ जाना एक कड़ी को आगे बढ़ाता है। ‘कोरोना काल की डायरी’ का महत्व इस बात में है कि आप इनमें अपने अन्तर्मन की आवाज सुनने लगते हैं। ‘लोहे का स्वाद’ जिस प्रकार लोहार से नहीं घोड़े से पूछा जाता है, उसी प्रकार इन टिप्पणियों का स्वाद इसके पाठकों से पूछा जाए, तो मैं पाठक के रूप में उत्तर देते समय यही कहूँगा, ‘स्वादिष्ट और सुपाच्य’ । कुछ कुछ चाँदी के वर्क लगे आँवले के मुरब्बे सा मुफीद। चाँदी का वर्क इन वक्तव्यों के शीर्षकों के लिए कहा जा रहा है और यह कहना कोई अत्युक्ति भी नहीं। ‘तो कोरोना जी अच्छे है!’ से लेकर ‘ह्यूमेनिटी पर्सोनिफाइड’ तक जो भी शीर्षक हैं, वे यदि पाठक को आकर्षित करते हैं, तो समापन-पद अपनी अमिट छाप छोड़ता है। समापन काव्य-पंक्तियाँ इस छाप को गहराई और वैचारिक ऊर्जा प्रदान करती हैं, साथ ही हिंदी के पत्रकारिता विमर्श को नई परिभाषा प्रदान करती हैं। विषयों की विविधता यहाँ इस डायरी को कोरोना तक सीमित नहीं रखती। राजनीति और अर्थनीति से लेकर साहित्य और संस्कृति तक भिन्न-भिन्न विषयों को विचारार्थ प्रस्तुत करते समय कभी आप यहाँ ‘रिश्तों की सेहत के लिए वैक्सीन’ पर संवाद देखते हैं तो कभी शिक्षा और स्वास्थ्य पर। फ़ेक-न्यूज़ के घटाटोप में नीर-क्षीर विवेकशीलता दिखाते हुए समाचार की पृष्ठभूमि में जाकर यहाँ जो कुछ लिखा गया है वह तात्कालिकता से प्रेरित होते हुए भी सदा के लिए है। तब से अब तक का यह वक्तव्य तब और भी अधिक सामयिक प्रतीत होगा, जब कोरोना न रहेगा । तब इन वक्तव्यों को पढ़ा जाएगा जब अर्थव्यवस्था व्यवस्थित हो पटरी पर आ जाएगी। अब जब आप इन्हें पढ़ेंगे तो मेरी तरह यह भी देख लेंगे कि इस डायरी में काल अवश्य ‘कोरोना’ से ग्रस्त है, किंतु ‘क्रम’ और ‘कर्म’ नहीं। यह अबाध गति से नदी के समान प्रवाहमान है। 

प्रकाशोन्मुखी पत्रकारिता के सारस्वत यज्ञ में प्रत्येक समिधा का स्वागत है। मैं इस डायरी का सहर्ष स्वागत करता हूँ और कृतिकार का अभिनंदन भी। विविध रुचियों, दृष्टियों और विचारों को एक साथ साधती कोरोना-काल-डायरी के पुस्तक रूप में प्रकाशन के अवसर पर कवि-हृदय लेखक को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ ! 



- गोपाल शर्मा 

पूर्व प्रोफेसर, अरबा मींच यूनिवर्सिटी 

अरबा मींच, इथियोपिया

'कोरोना काल की डायरी' : प्रवीण प्रणव का अभिमत






अभिमत 

आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे 

- प्रवीण प्रणव 

कैफ़ भोपाली ने फ़िल्म 'पाकीज़ा' के लिए एक मशहूर गाना लिखा जिसके बोल थे – “शमा हो जायेगी जल-जल के धुंआ आज की रात, आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे।“ यहाँ निराशा या हताशा नहीं है कि शायद हम सहर देख पाएँ या नहीं, बल्कि अंग्रेजी में जिसे ‘फर्स्ट थिंग फर्स्ट' कहते हैं, यानी अभी जो सामने है पहले उसकी चिंता करते हैं, बाद की बात, बाद में देखी जाएगी। प्रो. ऋषभदेव शर्मा की किताब ‘कोरोना काल की डायरी’, जो इनके द्वारा लिखे गए संपादकीय लेखों का संकलन है, हमें कोरोना काल में होने वाली घटनाओं से परत-दर-परत और पन्ना-दर-पन्ना रूबरू करवाती है। इस किताब के लेख कोरोना के बाद एक बेहतर सहर की उम्मीद तो जगाते हैं, लेकिन कोरोना की स्याह रात की विस्तृत तस्वीर भी पेश करते हैं। दीगर है कि इससे पहले भी प्रो. शर्मा के संपादकीय लेखों के संकलन ‘संपादकीयम्’ (2019), ‘समकाल से मुठभेड़’ (2019), ‘सवाल और सरोकार’ (2020) तथा ‘लोकतंत्र के घाट पर’ (2020) प्रकाशित हैं, प्रस्तुत पुस्तक इस शृंखला की पाँचवीं कड़ी है। कोरोना ने यूँ तो चीन में बहुत पहले अपनी आमद का अहसास करवा दिया था लेकिन तब दुनिया इसके प्रभाव को ले कर इतनी सतर्क नहीं थी। देखते ही देखते जब इसने अपने पाँव चीन से बाहर निकाले और समूचे विश्व को अपनी गिरफ़्त में ले लिया, तब जाकर वैश्विक स्तर पर इससे निबटने की योजनाएँ बननी शुरू हुईं। भारत में भी मार्च 2020 से सरकारी अमला हरकत में आया और कोरोना के प्रभाव को कम करने के प्रयास शुरू हुए। इस किताब के संपादकीय लेख 06 मार्च, 2020 से शुरू होते हैं और 04 नवंबर, 2020 तक की महत्वपूर्ण घटनाओं को 97 संपादकीय लेखों के माध्यम से पाठकों के सामने परोसा गया है। 

इतिहास की घटनाओं के लिए जैसे ईसा पूर्व और ईसा के बाद का संदर्भ दिया जाता है, वैसे ही कोरोना की वजह से हमारे जन जीवन पर जो प्रभाव पड़ा है, उसका आकलन लंबे समय तक कोरोना से पहले और इसके बाद की परिस्थितियों के रूप में किया जाता रहेगा। और यह किताब इन दो काल खंडों (कोरोना से पहले और इसके बाद) के बीच की कड़ी है। आज हम कोरोना संक्रमण काल में हैं और इस दौरान की हर घटना ज़ेहन में ताज़ा है। लेकिन किसी घटना के वर्षों बाद जिस तरह पुरानी तस्वीरों को देखते ही घटना आँखों के सामने सजीव हो उठती है, वैसे ही इस किताब की उपयोगिता लंबे समय तक इस मायने में बनी रहेगी कि यह कोरोना काल में इस महामारी से निबटने की हमारी तैयारी, हमारी कमियों और न केवल भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर कोरोना की वजह से हो रही उथल-पुथल का प्रामाणिक दस्तावेज़ है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस किताब में संगृहीत सभी लेख कोरोना या कोरोना से संबंधित विषयों पर आधारित हैं, लेकिन इन लेखों में विविधता है और यह प्रो. शर्मा की पैनी साहित्यिक दृष्टि और समाज के अंतिम व्यक्ति तक से अपने को जोड़ पाने की कला और उसके दर्द को समझने की परिपक्वता का परिचायक है। आरंभिक कई लेख कोरोना से बचाव के तरीकों, स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा और लापरवाही के खिलाफ जागरूकता फैलाने पर आधारित हैं। जैसे-जैसे समय बदला और वैश्विक स्तर पर परिस्थितियों में जिस तरह के बदलाव हुए, संपादकीय लेखों की धार भी चीन की विस्तारवादी नीतियों और अवसरवादी फ़ायदों के खिलाफ़ होती गईं है। अमेरिका और चीन के आमने-सामने आ खड़े होने पर भी कई लेख हैं। लेखों में एक तरफ चीन की अवसरवादिता पर प्रहार है, तो वहीं अमेरिका की दादागिरी और कोरोना से लड़ने में उसकी विफलताओं पर भी लेख हैं, जो प्रो. शर्मा की निष्पक्ष पत्रकारिता का सबूत हैं। जहाँ कहीं भी सरकार ने कोरोना की रोकथाम की दिशा में प्रभावी कदम उठाए, संपादकीय लेखों में ऐसे प्रयासों की सराहना की गई है लेकिन साथ ही रोजगार, मजदूरों के पलायन और अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर सरकार के खिलाफ़ आवाज़ भी उसी मजबूती से उठाई गई है। कोरोना के दौर में कोरोना से इतर भी कई महत्वपूर्ण लेख इसमें सम्मिलित किए गए हैं जिनमें अत्यधिक बारिश, बढ़ती जनसंख्या, निर्यात पर निर्भरता कम करने जैसे घरेलू मुद्दे हैं, तो टिड्डियों का हमला, तेल की कीमतों में गिरावट, इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच समझौता जैसे अंतरराष्ट्रीय विषय भी हैं, जो परोक्षतः कोरोना काल को ही रूपायित करते हैं। किताब के उत्तरार्ध में कई लेख कोरोना वैक्सीन की आरंभिक जांच के नतीजों पर हैं, तो साथ ही कई लेख कोरोना काल में चरमराई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का संदेश देते हैं। इन लेखों को पढ़ कर सहज ही अनुभव होता है कि इस काली रात की ज्यादातर घड़ियाँ हमने काट ली हैं और अब हमें उस नई सहर के लिए तैयार होना है जिसके आते ही हमने इस रात में जो खोया है उसे फिर से हासिल करने और उससे और आगे जाने की दिशा में जुट जाना है। प्रो. शर्मा को साधुवाद कि उनके लेखों को पढ़ते हुए इस दौर के कई दृश्य आँखों के सामने तैरने लगते हैं और महसूस होता है आप समय का पहिया पीछे मोड़ कर उन घटनाओं के एक बार फिर से साक्षी हो रहे हैं। 

क्योंकि कोरोना का संक्रमण काल अभी खत्म नहीं हुआ है तो जाहिर है कि ‘कोरोना काल की डायरी’ का अंतिम लेख, इस डायरी का अंतिम पन्ना नहीं, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि इस डायरी के आगामी पन्ने संक्रमण की विभीषिका से उबर कर जीवन के वापस पटरी पर आने की दास्तान समेटे होंगे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने भी कहा “लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।" यह शाम पहले ही बहुत लम्बी हो चुकी है, वैक्सीन की उम्मीद में जनता उस सहर की मुंतज़िर है, जब हम खौफ़ के साये से बाहर निकल सकेंगे और इस इबारत के लिए ‘कोरोना काल की डायरी’ के अगले सफ़ों का इंतजार रहेगा। और तब तक आइए, हम सब मिल कर नरेश कुमार शाद के इस शेर को गुनगुनाएं: 

इतना भी ना-उम्मीद दिल-ए-कम-नज़र न हो 

मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो





- प्रवीण प्रणव 

'कोरोना काल की डायरी' की भूमिका : अवधेश कुमार सिन्हा




भूमिका 

कालखंड विशेष का मुकम्मल ऐतिहासिक दस्तावेज 

जब से मनुष्य ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में समुदायों में, समूहों में रहना आरम्भ किया, व्यापार के लिए जमीन या जल मार्ग से अकेले या अपने जानवरों के साथ एक भौगोलिक क्षेत्र से दूसरी जगह जाना शुरू किया, तब से मानव शरीर या जानवरों/ पक्षियों से जुड़ी महामारियाँ भी होती रही हैं। संक्रामक महामारियाँ जब कई देशों को अपनी ज़द में ले लेती हैं, तो वे वैश्विक महामारी (पैन्डेमिक) का रूप धारण कर लेती हैं। कृषि से महानगरीय सभ्यता में तबदील होती आबादी, पर्यावरण से अधिकाधिक छेड़छाड़, आवागमन के त्वरित साधनों एवं लोगों के दुनिया के एक भाग से दूसरे भागों के लोगों से मिलने-जुलने के अधिक अवसरों ने वैश्विक महामारियों को फैलने का अधिक अवसर दिया है। इन वैश्विक महामारियों का एथेन्स का प्लेग (430 - 426 ई. पू.) से लेकर ईबोला (2014) एवं ज़ीका (2015) तक एक लंबा इतिहास है। अब इस कड़ी में जुड़ गया है कोरोना वायरस डिज़ीज़- 2019 (कोविड-19) जो नवंबर, 2019 में चीन के वुहान शहर से शुरू होकर अभी तक दुनिया के 218 देशों/ क्षेत्रों में फैलकर चार करोड़ चौहत्तर लाख से अधिक लोगों को प्रभावित करते हुए बारह लाख से ज्यादा लोगों को अपना शिकार बना चुका है। अभी भी कोविड-19 का कहर जारी है। 

दुनिया की प्रमुख वैश्विक महामारियों ने जितने समय में और जिस हद तक पृथ्वी पर मनुष्यों को प्रभावित किया है, अभी तक के इतिहास में सबसे कम समय में सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली महामारियों में कोविड-19 अग्रणी है। आदमी से आदमी में फैलने वाले संक्रामक नोवेल कोरोना वायरस के बारे में जानकारी का अभाव और इससे फैली वैश्विक महामारी की कोई दवा उपलब्ध नहीं होने के कारण इससे बचाव ही एकमात्र उपाय रहा। फलतः, आदमी से आदमी को दूर रहने के लिए इसने लोगों को अपने-अपने घरों में महीनों बंद रहने पर मजबूर किया। इस गृह नज़रबंदी का लोगों पर दोहरा मनोवैज्ञानिक असर हुआ- एक तो प्रतिदिन कामकाज के लिए बाहर न निकलकर घरों में कैद रहने की ज़िंदगी से लोगों में अवसादजनित बीमारियाँ बढ़ीं, तो दूसरी ओर लगातार भागदौड़ की ज़िंदगी में कभी एक साथ नहीं बैठने वाले परिवार के सभी सदस्यों को महीनों साथ रहने के अवसर ने उनके बीच संबंधों के एक नए अध्याय को जोड़ा। उद्योग धंधों, कल-कारखानों, सेवा प्रदाता प्रतिष्ठानों की बंदी ने वाणिज्य व व्यापार को ठप्प करके लाखों लोगों के रोजगार छीन लिए, जिससे भुखमरी के कगार पर खड़े लाखों मजदूरों व कामगारों को शहरों से अपने-अपने गाँवों की ओर उलट पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा। आवागमन के साधनों की बंदी ने इनकी तकलीफों को और बढ़ा दिया। यद्यपि इनकी मदद के लिए मानवता के कई हाथ बढ़े, फिर भी इतने बड़े पैमाने पर इनके लिए पुनर्वास और आजीविका मुहैया कराने की समस्याओं ने केंद्र व राज्य सरकारों के सामने नई चुनौतियाँ खड़ी कर दीं, जिसने कहीं-कहीं कानून व्यवस्था की समस्या भी पैदा की। तेजी से फैलते कोरोना संक्रमण ने लाखों लोगों के लिए पर्याप्त चिकित्सा सुविधा जुटाने में भारत में चिकित्सीय व जन-सुविधाओं की कमी को उजागर कर इसे दूर करने के लिए सरकारों को शीघ्रता से प्रयास करने पर मजबूर किया। कोरोना काल में देशों में विकास की गति धीमी हुई और अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, जिससे उबरने में महीनों/ सालों लग जाएँगे। भारत में वोटों की राजनीति ने, सरकारों द्वारा हालात से निपटने में विफलता/ सफलता ने राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का अवसर प्रदान किया। वैश्विक महामारी से निपटने में सरकारों की व्यस्तता का लाभ उठाकर आतंकवाद ने भी सिर उठाने की कोशिश की। वायरस का स्रोत चीन को मानने के अमेरिकी आरोप से नए अंतरराष्ट्रीय संबंध व वैश्विक कुटनीतिक समीकरण बने और युद्ध तक की नौबत आ गई। सैकड़ों देशों में फैली कोरोना वैश्विक महामारी की निगरानी और मार्गदर्शन कर रहे विश्व स्वास्थ्य संगठन पर भी पक्षपात और गलत सूचना देने के आरोप लगे। 

कोविड-19 के अभूतपूर्व इतिहास को भविष्य में जब भी खंगाला जाएगा, यूँ तो कई स्रोत मिल जाएँगे इसके लिए लेकिन हैदराबाद से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार-पत्र में कोरोना काल में लिखी गई संपादकीय टिप्पणियों का संकलन एक विशिष्ट स्रोत होगा। ‘कोरोना काल की डायरी’ के नाम से प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा के 97 संपादकीयों का यह संकलन न सिर्फ समसामयिक खबरों पर दैनंदिन अखबारी टिप्पणियाँ हैं, वरन् समग्रता में एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जो मार्च 2020 से नवंबर 2020 के काल-खंड में कोविड-19 से उपजी तमाम परिस्थितियों का समाजशास्त्र, चिकित्सा व जन-स्वास्थ्य, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति, शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय संबंधों एवं कूटनीति जैसे अनेक आयामों पर शोध का उपादान प्रस्तुत करता है। सच में, इतने विविध एवं व्यापक विषयों पर दिन-प्रतिदिन के आकलन और उन पर निष्पक्ष टिप्पणियों ने ‘कोरोना काल की डायरी’ को एक काल-खंड विशेष का मुकम्मल एवं प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज बना दिया है। लेकिन यह दस्तावेज आम पाठक के लिए क्रूड नहीं है, वरन् प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा जैसे हिंदी साहित्य एवं भाषा विज्ञान के मर्मज्ञ की कलम से संपादकीय टिप्पणियाँ भाषा की प्रांजलता के साथ सरस, रोचक व पठनीय हो गई हैं। तेवरी काव्य के जनक एवं लब्ध प्रतिष्ठित कवि-समीक्षक प्रोफेसर शर्मा ने अपने संपादकीयों में जिस तरह यथास्थान दोहों, कविताओं, कहावतों, शेरों का प्रयोग किया है, उससे उनके कथ्य पत्रकारिता की मात्र तथ्यात्मक टिप्पणियाँ न होकर काव्यमय लगते हैं। वैसे तो, लेखक के संपादकीयों के चार संकलन पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं, लेकिन ‘कोरोना काल की डायरी’ के रूप में उनके संपादकीयों का यह पाँचवाँ संकलन एक काल विशेष में पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लेने वाली अभी तक की सबसे बड़ी महामारी और उससे उपजी समस्याओं के क्रॉनिकल के रूप में एक अलग और विशिष्ट स्थान रखता है, जो निश्चित ही पठनीय और संग्रहणीय है। 

- अवधेश कुमार सिन्हा 
जे-501, 
सेवियर ग्रीनआर्क सोसायटी 
ग्रेटर नोएडा (पश्चिम), उत्तर प्रदेश 

शनिवार, 7 नवंबर 2020

'संपादकीयम्' की विस्तृत एवं शोधपूर्ण समीक्षा : प्रो. निर्मला एस. मौर्य

 

संपादकीय टिप्पणियों में सच से वार्तालाप


 

प्रो.निर्मला एस मौर्य

कुलपति

वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय

जौनपुर, उत्तर प्रदेश

 

 

दैनिक समाचारपत्र में संपादकीय पृष्ठ समाचार की अपेक्षा विचार का पृष्ठ होता  है उसमें भी संपादकीय आलेख वाला कालम तो एक प्रकार से अखबार की नाभि ही होता है। इसके अंतर्गत प्रायः दैनंदिन ज्वलंत विषयों पर विश्लेषणात्मक टिप्पणी रहती है। ये टिप्पणियाँ उस अखबार के विचार और सरोकार का भी आईना होती हैं। इसलिए संपादकीय टिप्पणीकार से उम्मीद की जाती है कि वह अपने चारों ओर सजग दृष्टि बनाए रखते हुए अपने  आँख-कान खुले रखे और अपने आसपास होने वाली विभिन्न गतिविधियों पर अपनी बेबाक राय को शब्दबद्ध करता चले। दक्षिण भारत के  एक अग्रणी  दैनिक समाचार पत्र  के लिए डॉ. ऋषभदेव शर्मा द्वारा समय-समय पर लिखे गए संपादकीय इस कसौटी पर खरे तो उतरते ही है; साथ ही इन्हें पढ़कर पत्रकारिता के विद्यार्थी यह भी सीख सकते हैं कि किसी दैनिक के लिए संपादकीय कैसे लिखा जाए। निस्संदेह ये आलेख मात्र शब्दों का खेल नहीं बल्कि आज के समय की पुकार हैं। इन संपादकीयों में एक तीक्ष्णता है, जो पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित  करती है। समसामयिक संदर्भों में लिखी गई उनकी अनेक टिप्पणियों में से  चुनी गई 61 टिप्पणियाँ उनकी इस क्रम की पहली पुस्तक 'संपादकीयम्' (2019)  में  देखी जा सकती हैं, जो  विषय-वस्तु के रूप में विभिन्न विमर्शों को अपने में समेटे हुए है आठ खंडों में बँटी वैचारिकी स्त्री संदर्भ, लोकतंत्र और राजनीति, जो उपजाता अन्नशहर में दावानल, व्यवस्था का सच, हमारी बेड़ियाँ, अस्तित्व के सवाल और वैश्विक संदर्भ के बहाने पाठक को एक अलग दुनिया में ले जाने में समर्थ है यह दुनिया हम सब की होते हुए भी संपादक की अपनी दुनिया है। तात्कालिक संदर्भ तो बहाना भर हैं, लेखक उनके सहारे अपनी वेदना और संवेदना को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करता है। आइए, तनिक संपादक की इस अपनी दुनिया की सैर पर चलें।

 

कहने को तो दुनिया की आधी आबादी स्त्रियों की है, पर क्या उसको वे सब अधिकार मिले हैं, जो पुरुष को मिले। पुराणों में पार्वती को शिव की शक्ति कहा गया तो प्रसाद ने नारी कोनारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत- नग पगतल में। पीयूष-स्रोत-सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में ||' कहकर उसका मान बढ़ाया। किंतु इन सबसे अलग हटकर नारी का एक और रूप है जो इन संपादकीय आलेखों में दिखाई देता है। सन 2018 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित नादिया मुराद और डेनिस  मुक्केगे को यह सम्मान विश्व भर में हर तरह  के युद्ध और संघर्ष में हथियार के रूप मेंयौन हिंसाके इस्तेमाल को खत्म करने के प्रयासों के लिए दिया गया। भारत ही नहीं, अपितु यह विश्व की सच्चाई है कि स्त्री कहीं कहीं और किसी किसी रूप में नारकीय यंत्रणा भोगती रही है और भोग रही है। जिस तरह भारत में  हिंदुओं के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार वर्ण हैं, इसी तरह हर मुल्क में  जितने भी धर्म हैं, वे अलग-अलग समुदायों में बंटे हुए हैं। इस्लाम धर्म में शिया और सुन्नी समुदाय भी पुन: अनेक समुदायों में बंटे हुए हैं। किसी भी समाज की  वह हर नारी जो अपनी जिजीविषा को कायम रखते हुए आतंक और हिंसा की अग्नि से कुंदन की तरह तपकर बाहर निकलती है, हमेशा एक असाधारण वीरांगना ही होती है। ऐसे बहादुरों के लिए नोबेल पुरस्कार भी छोटे पड़ जाते हैं। मानव तस्करी, सेक्स-स्लेवरी, यौन हिंसा, युद्ध, आतंक, संघर्ष आदि की समस्याओं को उठाता हुआ यह संपादकीय पाठकों के मन में एक बहुत बड़ा प्रश्न छोड़ जाता है और इस्लामिक स्टेट का खौफ़नाक चेहरा सामने लाता है। 'नोबेल शांति पुरस्कार: एक असाधारण वीरांगना को     संपादकीय  खंड 1 : 'स्त्री संदर्भ' का  ऐसा पहला आलेख है, जो पाठकों के मन में इन संपादकीयों को पढ़ने की रुचि जागृत करता है।बोलने वाली औरतें बनाम पुरुष प्रधान समाजएक व्यंग्यपरक संपादकीय है, जिसमें पुरुष प्रधान समाज की सच्चाइयों का रेशा-रेशा खुलकर हमारे सामने जाता है। 2019 मेंमी टूअभियान बड़ी तेजी से चला था, जिसमें समाज के हर वर्ग की महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनाओं के खुलासों से लोग सच्चाई से रूबरू हो पाए। इस अभियान  से कई बड़े-बड़े लोग भी लपेटे में गए। मीडिया ने भी इसे खूब प्रचारित किया। लेखक तंज कसते हैं- ‘सच तो यह है कि आज भी उन्हें अपने इस बोलने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। लेकिन फिर भी अब वे साहस (या दुस्साहस?) पूर्वक बोलने लगी हैं और इससे बहुत से चमकीले चेहरों के आवरण उतरने के कारण कुछ कुछ असहजता अवश्य महसूस की जा रही है|’ उन्होंने ऐसी स्त्रियों पर भी तंज कसा है, जो स्त्री देह को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करके अपनी पहचान बनाना चाहती हैं। इस पुरुष प्रधान समाज में आज भी स्त्रियों को खुलकर बोलने की अनुमति नहीं है। जो स्त्रियां खुलकर बोलती हैं उन्हें किसी किसी तरह चुप कराने की कोशिश की जाती है। स्त्रियां जानती हैं कि उन्हें इस स्त्री उत्पीड़न के अभिशाप से मुक्त होना है, इसके लिए प्रयास भी जारी हैं, किंतु आज भी  यह एक गंभीर समस्या  बनी हुई है। इस संपादकीय को पढ़कर मन में एक आशा जगती है कि अब महिलाओं को लोग सहज उपलब्ध सामग्री मानना बंद कर देंगे।

 

आयोग गठित किए जाते हैं लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए, किंतु हमेशा से समाज में हर पुरुष स्वयं को आयोग ही समझता रहा है।जबकि हर पुरुष स्वयं आयोग हैमें पुरुष की इसी सोच पर व्यंग्य की स्थिति देखने को मिलती है। संसद में बैठा हुआ सांसद यदि राष्ट्रीय महिला आयोग की तर्ज पर राष्ट्रीय पुरुष आयोग की मांग करता है, तो इससे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति और क्या बनेगी? तभी तो लेखक कहते हैं- ‘पत्नी पीड़ित पति संघ की तर्ज पर ऐसे किसी आयोग के गठन की जरूरत महिलाओं द्वारा प्रताड़ना की तुलना में कानून के दुरुपयोग के कारण अधिक महसूस की जा सकती है। अन्यथा किसे नहीं मालूम कि हमारा समाज आज भी घोर पुरुषवादी समाज है तथा अपने वर्चस्व के  दर्प में फूला हुआ हर पुरुष स्वयं  एक-एक आयोग हैजब ऐसी फिजूल समस्याओं के लिए आंदोलन की तैयारी की जाती है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे आंदोलन महिला सशक्तीकरण के अभियान को कमजोर करते हैं और कहीं कहीं स्त्री-द्वेषी मानसिकता से प्रेरित दिखाई देते हैं। भारतीय समाज की स्त्रियां प्रतिपल डर-डर कर जीती हैं, इससे हममें से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। लेखक का मानना है कि हमारी यह लड़ाई उस मानसिकता के खिलाफ होनी चाहिए जो स्त्री को ढंग से जीने की आजादी नहीं देती और उसकी हर छोटी से छोटी गतिविधि पर रोक लगाने की कोशिश करती है। कभी-कभी स्त्रियां भी कम नहीं होतीं और वे पुरुषों को प्रताड़ित करती हैं, इसमें भी कोई दो राय नहीं, किंतु दोनों ही के पास न्यायालय की शरण में जाने के विकल्प मौजूद हैं। हमारे समाज को ध्यान में रखते हुए, जहां एक  ओर स्त्रियां सहज ही न्यायालय तक नहीं पहुंच पातीं और किसी अन्य का सहारा लेती हैं, वहीं पुरुष बड़े आराम से न्यायालय तक पहुंच जाता है। इसीलिए उसे राष्ट्रीय पुरुष आयोग की कोई आवश्यकता नहीं है और इस बात पर अधिक राजनीति करने की भी आवश्यकता नहीं है। विवाहेतर संबंध केवल भारत की नहीं अपितु पूरे विश्व की एक समस्या है।विवाहेतर संबंध: निजता बनाम नैतिकता’  में बड़ी बेबाकी से  यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या संवैधानिक पीठ द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा- 497 को असंवैधानिक मानते हुए रद्द किया जाना उचित है? क्या ऐसा कदम उठाने से समाज में व्यभिचार और विषमताएँ नहीं  फैलेंगीनिजता और नैतिकता में चुनाव करना हो, तो निजता का अधिकार अधिक न्यायसंगत लगता हैजबकि नैतिकता और उसका नियमन कानून का कम तथा सामाजिक संस्कारों का विषय अधिक प्रतीत होता है। जब किसी समाज में स्त्री को पुरुष की संपत्ति माना जाता है, तब ऐसे में विरोध के स्वर उठने स्वाभाविक हैं। कहने को तो पति और पत्नी का दर्जा बराबर होता है, किंतु इस कानून में स्त्री की इच्छा का कोई सम्मान नहीं किया गया स्थिति तब और भी  हास्यास्पद हो जाती है, जब कोई पत्नी पति की अनुमति से परपुरुष से संबंध बना सकती है और यदि ऐसा संबंध पति की इच्छा के बिना बनाया जाता है, तो ऐसा करने वाले को पांच साल की सजा तक का प्रावधान है। इस पूरे संपादकीय में शब्दों और भाषा की  बेबाकी विषय के प्राण तत्व बनकर उभरे हैं। दक्षिण भारत के केरल में  भगवान अय्यप्पा स्वामी का मंदिर  सबरीमलै शबरी के नाम पर है। यह मंदिर 18 पहाड़ियों के बीच में बसा है। इस मंदिर में महिलाओं का आना वर्जित है, जिसके पीछे यह मान्यता है कि श्री अय्यप्पा ब्रह्मचारी थे, इसलिए यहां 10 से 50 साल तक की लड़कियों और महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया जाता। इस मंदिर में ऐसी छोटी बच्चियां सकती हैं जिनको मासिक धर्म शुरू हुआ हो, या ऐसी बूढ़ी औरतें जो मासिक धर्म से मुक्त हो चुकी हों।परंपरा के नाम पर भेदभाव कब तकतथासमानता और पूजा-पद्धति के अधिकारों का टकरावइन संपादकीयों में  इसी बात  को बहस का मुद्दा बनाया गया है। लेखक कहते हैं- ‘परंपरा का अर्थ यदि एक पैर जमीन पर जमा कर दूसरे पैर को अगले कदम के रूप में ऊपर उठाने से लगाया जाता है, तो इस  देश की  प्रगतिशीलता और बहुलता का रहस्य समझ में आता है। लेकिन जब परंपरा का अर्थ जड़-रूढ़ियों के पालन तक सिमट जाता है, तो इस देश की लंबी गुलामी के कारणों पर से पर्दा उठता है’  समय के साथ प्रथाओं का बदलना जरूरी होता है अन्यथा वे ताल  के ठहरे पानी की तरह सड़ांध से भर उठती हैं। वे यह भी मानते हैं कि प्रथा या पुरातनता के नाम पर किसी अनुचित नियम को बनाए रखना भारत का स्वभाव नहीं है  उन्होंने लक्षित किया है कि जब  मंदिर में प्रतिबंधित आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने से जुड़े मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया