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बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

प्रो. देवराज की डायरी : खतौली का औचक दौरा

 मित्रों को पढ़वाने की दमित-वासना के प्रवाह में प्रेषित...... 



                    डायरी में एक विशेष तिथि

21 अक्तूबर, 2022 : कल दोपहर के भोजन के समय खतौली पहुँच गया था। आज संध्या होते-होते लौटा। इस बीच जीवन के जितने बड़े हिस्से को जितने रोमांचक ढंग से जी सकावह बरसों याद रहेगा। जसवीर राणा चौपले पर ही मिल गए थे। वहाँ से हम दोनों मोटर साइकिल से उड़ान-पुल पार करके भूड़ पर ऋषभ के घर शास्त्री निकेतन’ पहुँचे। भाभी जी के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लिया और तीनों ने भोजन किया। गुरु जी (स्व. डॉ. प्रेमचंद्र जैन) की भाषा में कहूँतो यह एक दिव्य भोजन थाजिसमें ऋषभ के लिए कमल ककड़ी की सब्जी अति दिव्य थी। पता चला मोनु (आशीष) अपने चाच्चा जी’ के लिए कल रुड़की से लौटते हुए कहीं रास्ते में नजर पड़ते ही गाड़ी रोक कर खरीद लाया था। उसकी सब्जी बनी भी इतनी सुस्वादु थी, कि लगता है बहू (मोनु की पत्नी) ने व्यंजन-शास्त्र में पी-एच. डी करते हुए अपना शोध-कार्य कमल ककड़ी के विशेष संदर्भ में ही संपन्न किया होगा।

इस भोजन-उत्सव का एक विशेष आकर्षण शकराना’ था। परंपरागत उत्तर भारतीय ग्राम्य-जीवन में एक समय शकराना’ ही ब्याह-शादी की दावत का श्रीगणेश हुआ करता था। पंगत के बैठते ही एक आदमी पत्तल पर थोड़े-से चावल की ढेरी परोसता आगे बढ़ता जाता थाउसके पीछे एक दूसरे आदमी के हाथ में एक बरतन में शक्कर (या बूरा) रहती थीवह चावल की ढेरियों पर शक्कर परोसते हुए चलता जाता थाजिसकी पत्तल पर चावल और शक्कर परस दिए जाते थेवही अपनी ढेरी में अंगूठे और अनामिका के बीच वाली तीन उँगलियों की सहायता से एक गड्ढा बना लेता थाशक्कर वाले के पीछे एक आदमी एक बरतन में पिघला हुआ देशी घी लिए रहता था और उसमें से रमचा भर-भर कर चावल-शक्कर की ढेरी के गड्ढे में डालता जाता थाकई बार पिघला हुआ घी धातु अथवा मिट्टी के टोंटी वाले बरतन में भरा रहता था और परोसने वाला सीधे टोंटी से ही परसता जाता था। इस प्रकार शकराना तैयार हो जाता था। वर्तमान काल की होटल-भाषा’ या होटल-पारिभाषिकी’ में इस शकराने को स्टार्टर’ कहा जा सकता हैक्योंकि गाँव की ब्याह-शादी में शकराना खाने के बाद ही दावत का मुख्य भाग शुरु होता था--- लोहे के कड़ाह में सुबह से शाम तक धीमी-धीमी आँच पर कढ़े हुए उर्द या मलाईदार उर्द की धुली दाल या पकते-पकते लालिम होने को आई कढ़ीसाथ में बघरा हुआ मट्ठा।

भाभी जी करती तो जीवन भर डाक्टरी ही रहींलेकिन मन उनका गँवई से बस थोड़ा-सा ही कस्बाई बन सका। भाई साहब के जाने के बाद उन्होंने बड़े जतन से परिवार संभाला। अब नाती-पोतों वाले भरे-पूरे परिवार वाली हो गई हैं। डौली और सोनु तो घरबारी-कारोबारी होने के चक्र में नोएडा चले आए हैंलेकिन मोनु अपने परिवार के साथ उन्हीं के पास रहता हैरुड़की में दवाई का बड़ा व्यवसाय चलाता हैसुबह जाकर शाम को माँ के पास भागा चला आता है। भाभी जी उसकी बहू-बच्चों के बीच खुश-खुश रहती हैं। हम लोगों ने खाना खाते-खाते देखा कि वे एक तश्तरी में काफी सारा बूरा लाकर मेज पर रख रही हैं। हमें भ्रम हुआ नमक है। सोचने लगेभाभी इतना सारा नमक क्यों ले आईंउन्होंने सुनातो बोलीं, ‘बाद में बूरे के साथ चावल खानातभी तो लगेगा कि घर का खाना खा रहे हो।’ सभी के मुँह से एक साथ निकला, ’वाहशकराना!’ मैंने नहीं देखा कि बाकी लोग कैसे खा रहे हैं, चम्मच एक ओर रख कर उँगलियों से चावल-बूरा मिलाया और खाया।

खतौली के लिए चलते समय मैंने अपने थैले में जनकवि जगदीश सुधाकर के काव्य-संकलन अधूरी आजादी’ की तीन प्रतियाँ रख ली थीं। मन में था कि बरसों बाद ऋषभजसवीर राणा और मैं खतौली में एक साथ होंगेलेकिन हमारे अभिन्न आशुकवि जगदीश सुधाकर नहीं होंगे। यह मन को बेतरह झकझोर देने वाली बात होगी कि जब बैठेंगेखाएँगेघूमेंगे, ‘अंटागफीली’ करेंगे तो हमारे मित्र की आवाज वहाँ नहीं होगी। इसलिए दो निश्चय कर लिए थेएक--- खतौली में उन प्रमुख जगहों पर जाएँगेजहाँ-जहाँ हम लोग सुधाकर जी के होते हुए लगभग प्रतिदिन जाया करते थेऔर दो--- रात को रेलवे स्टेशन की बैंचों पर बैठ कर अधूरी आजादी’ से सुधाकर जी की कविताओं की आवृत्ति करेंगे। इस तरह अपने कवि मित्र को याद करने की कोशिश करेंगे। तीनों मित्रों ने दोनों निश्चयों का पालन किया।

शाम ढले उसी समय रेलवे स्टेशन के उस पीर के सामने प्लेटफार्म की बैंच पर बैठेजिस पर सुधाकर जी प्रति बृहस्पतिवार बताशे चढ़ाया करते थे और लौट कर धार्मिक पाखंडों को गालियाँ दिया करते थे। वहाँ से जसवीर राणा के पिताजी की स्मृति में स्थापित विद्यालय (प्रीतम मेमोरियल स्कूल)वहाँ से उस गली मेंजिसमें बनी दो गुफानुमा छोटी-छोटी दुकानों में से एक पर गुलाब जामुन और समोसे बनते हैंजबकि दूसरी पर पानी-बताशे और अन्य कई तरह की चाट मिलती है। सुधाकर जी अक्सर हमें घसीटते हुए वहाँ ले जाते थे और आग्रह कर करके खिलाते थे। कल हमने स्वयं चाट वाली दुकान के भीतर बैठ कर गुलाब जामुन और चाट खाते हुए उनकी चर्चा की। वहाँ से रामसिंह सैनी की कपड़े की दुकान पर चाय पी और वहाँ से प्लेजरा’ जाकर खाना खाया। खतौली बाइपास से होते हुए मुजफ्फरनगर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर बने इस आधुनिक ढाबे (सुधाकर जी के समय में यह पुराने ढंग का ढाबा ही थाजहाँ बनी छोटी-छोटी झोंपड़ियों में से एक में अंटागफील अखाड़ा’ जीमता था) को सुधाकर जी पलेजरा’ कहते थे। यह सोच कर कि यह नाम आसपास के अथवा इसके स्वामी सुशील पँवार (दस्तावेजों में नाम रविपाल पँवार) के गाँव के नाम पर रखा गया होगामैं भी इसे पलेजरा ही कहता थालेकिन कल जब मैंने अपने मित्रों से पूछा कि पलेजरा गाँव कहाँ था?’, तब पता चला कि गाँव कहीं नहीं हैबल्कि पलेजरा दरसल प्लेजरा हैजिसे अंग्रेजी के प्लेजर से बनाया गया है। सुधाकर जी ने कौरवी भाषा’ का मान रखते हुए इसी प्लेजरा को पलेजरा कर दिया था। प्लेजरा के स्वामी सुधाकर जी और जसवीर राणा के गहरे मित्र हैंइसी के चलते वे मुझे और ऋषभ को भी अपनी मित्र-मंडली में ही गिनते हैं। कल सुशील जी ने बड़े प्यार से भोजन करायासुधाकर जी की भावपूर्ण चर्चा की और आग्रह करने पर भी खाने के पैसे नहीं लिए।

रात को सुधाकर-काल वाले समय पर ही हम तीनों खतौली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म की बैंच पर बैठ गए। अधूरी आजादी’ की एक-एक प्रति तीनों मित्रों ने ले ली और छोटी-सी भूमिका के बाद एक-एक कर कविताओं की आवृत्ति होने लगी। बाद में अन्य साथियों को भेजने के लिए ऋषभ (हमारी वर्तमान मित्र मंडली में प्रवीण प्रणव के बाद वे सूचना प्रौद्योगिकी के सबसे भारी जानकार और प्रयोक्ता हैं) ने पहले तो अपने मोबाइल फोन से रिकॉर्डिंग शुरु कियालेकिन कुछ देर बाद ताजा उत्पाद उपभोक्ताओं तक पहुँचाने की उपयोगिता’ के बाजार-नियम के वशीभूत उसका लाइव फेसबुक प्रसारण’ शुरु कर दिया। इसका आश्चर्यजनक परिणाम भी मैंने पहली बार अनुभव कियादो-तीन कविताओं की आवृत्ति पूरी होते-होते पापुमपारे (अरुणाचल में ईटानगर के निकट)इम्फाल (मणिपुर)बीजापुर (कर्नाटक)हैदराबाद (तेलंगाना)चेन्नई (तमिलनाडु)वर्धा (महाराष्ट्र)जम्मू, दिल्ली अर्थात तमाम अलग-अलग जगहों पर बैठे काव्य-प्रेमियों की टिप्पणियाँ और कवि-मित्रों की ओर से सुधाकर जी की चर्चित कविताओं की आवृत्ति के आग्रह आने लगे। इनमें सबसे पहली टिप्पणी प्रवीण प्रणव की थी और आवृत्ति-आग्रह गुर्रमकोंडा नीरजा का। प्रवीण ने इस स्मृति-कार्यक्रम से आह्लादित होकर आज कवि दुष्यंत की हम तीन दोस्त’ कविता उनकी ग्रन्थावली से खोज कर भेज दी। सुधाकर जी होतेतो तुरंता प्रभाव से कहते---

मान्यवर जीटैक्नॉलॉजी का देखा इतना भारी कमाल/ हमारी इस खतौली के रेलवे प्लेट्फॉर्म से जोड़ दिया इम्फाल/मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन दमड़ी लगा न छदाम/हैदराबाद में बैठे प्रवीणचेन्नई में नीरजापापुमपारे में यालाम/पता नहीं और भी कहाँ-कहाँ बैठे लोग कविता सुन रहे हैं/दिन में नेताओं के आश्वासनों सेरात में हमारी कविता से सिर धुन रहे हैं/वाह री टैक्नॉलॉजी, तू कभी गरीब जनता के पास भी चली जाना/और उसे गरीबी के साथ-साथ उसका असली कारण भी समझाना/गरीब जनता को गरीबी से मिल कर लड़ना होगा यही है कायदा/जगाओ जनता को वरना इस प्लेटफॉर्म पर कविता करने का क्या फायदा?’ 

ऋषभ की टोकाटाकी शुरू होती, ’सुधाकर जीमात्रा-वात्रा भी तो देख लिया करो कविता की’, और कवि का उत्तर होता,’अजी मंत्री जीमातरा-वातरा जब देक्खूँगा जब कागज पै उतारूँगाअभी तो रामकटोरी की मातरा देखने का टैम होराचलो बैंच खाल्ली हैफिर कोई मुसाफिर आ जमैगाक्यों मान्यवर जीअब चाय तो होनी चैय्यै ना!’ हम लोगों को आता देख रामकटोरी के असमय बुढ़ाए चेहरे पर हल्की मुस्कान उतरने लगतीबिना कहे ही संख्या गिन कर केतली कोयले की अंगीठी पर जा बैठतीचाय के घूँट धीरे-धीरे भरे जाने लगतेआस-पास के वातावरण पर सुधाकर जी की काफी हल्की-फुल्की आशु-कविता-टिप्पणियाँ बाहर आने लगतींरेलगाड़ी पकड़ने के लिए समय से कुछ पहले चले आए मुसाफिरोंहर रेलवे स्टेशन पर बखत-बेबखत यों ही रमंडते रहने वाले लोगोंमस्त-मौला रिक्शे वालों में से कुछ आकर खड़े हो जातेउनमें से कुछ रामकटोरी को चाय बनाने का इशारा करके खाली बैचों पर टिक जाते और सुधाकर जी की आशु कविता पर अपने बेबाक टिप्पणी-ढेले फेंकने लगतेबीच-बीच में अचानक-अचानक हम लोगों की वाहवाही भरी हँसी और ऋषभ के ठहाके चौंकाने लगते--- यह स्टेशन की बैचों के बाद चलने वाली अंटागफीली’ का दूसरा अंक होता।

चाय तो कल भी हुईलेकिन रामकटोरी की टूटी-फूटी बैंचों पर नहींएक व्यवस्थित दुकान के भीतरजहाँ दीपावली के लिए दूसरी मिठाइयों के साथ गुलाबजामुन की चाशनी तैयारी के अंतिम चरण में थी। आश्चर्य यह हुआ कि दुकानदार ने चाय तो बहुत मन से बनाईलेकिन पैसे लेने से आग्रहपूर्वक मना कर दिया। एक तो वह जसवीर राणा को पहचानता थादूसरे यह भी देख रहा था कि हम तीन लोग दोपहर बाद से कई बार उसकी दुकान के निकट ही वहाँ आकर खड़े हो रहे थेजहाँ कभी रामकटोरी की टी-स्टॉल’ थीहमारी बातें भी उसके कानों तक पहुँच रही होंगीसंभव है इस कारण उसके मन में हम लोगों के प्रति सहानुभूति का भाव पैदा हुआ हो। मैं अभी तक सोच रहा हूँ कि क्या बड़े शहर के किसी चाय वाले के लिए भी ये दो कारण चाय का पैसा न लेने के आधार बन सकते थेजनकवि जगदीश सुधाकर एक बार फिर से याद आए।……. 

         

                   ---- देवराज 

बुधवार, 7 सितंबर 2022

भूमिका : "बनवासी बैगा : जीवनगाथा"


"बनवासी बैगा : जीवांगाथा" / प्रो. दिलीप सिंह/ 2022/ वाणी प्रकाशन, दिल्ली 

भूमिका

                                     - ऋषभदेव शर्मा 

हमारे समय के मूर्धन्य हिंदी भाषा चिंतक प्रो. दिलीप सिंह भाषा, साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान हैं। उन्होंने प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव और प्रो. विद्यानिवास मिश्र जैसे आचार्यों से संप्रेषण और सृजन की दीक्षा प्राप्त की है। यही कारण है कि उनके लेखन में एक ओर गहन शोध दृष्टि दिखाई देती है, तो दूसरी ओर लालित्य का सागर लहराता है। उन्होंने भाषा वैज्ञानिक लेखन से इतर अपने सर्जनात्मक लेखन में विधाओं की परंपरागत चौहद्दियों को तोड़ा है। संस्मरण और पाठ विश्लेषण को एक दूसरे में लपेटकर समीक्षा की एक नई शैली विकसित करना प्रो. दिलीप सिंह के ही बूते बात है। वे सही अर्थ में उत्तरआधुनिक युग के समीक्षक हैं। इस युग में हम विभिन्न वर्गीकरणों की सीमाओं को टूटते और एक दूसरे में विलीन होते देख रहे हैं। प्रो. दिलीप सिंह ने इसे विधाओं के स्तर पर चरितार्थ करके दिखाया है। प्रस्तुत कृति 'बनवासी बैगा' इसका नव्यतम उदाहरण है। उनकी इस कृति को किसी एक विधा के खाँचे में नहीं समेटा जा सकता। इसमें कथारस है, बतकही है, काव्यरस है, चित्रात्मकता है, स्मृतियों का खजाना है, रोजनामचे की क्रमिकता है, अनुभूतियों की गहराई है, कल्पना का सौंदर्य है, संवाद की स्वाभाविकता है, स्थितियों की नाटकीयता है, आख्याता की विश्वसनीयता है और लेखक की आत्मीयता है। इसलिए किसी विधाविशेष में वर्गीकृत करने से बचते हुए इस कृति के बारे में यह कहना काफी होगा कि यह निश्छल और प्रांजल गद्य है। ऐसा उत्कृष्ट गद्य जो अन्यत्र प्रायः दुर्लभ है!


प्रो. दिलीप सिंह ने इस कृति को उचित ही बैगा जनजाति के जीवन और जीवनदर्शन का सरल भाष्य कहा है। बैगा समुदाय के बहाने उन्होंने अरण्य, ग्रामीण और आदिवासी संस्कृति के उस आधारभूत मूल त्रिकोण की सहज साधना की है, जिसके आधार पर सभ्यता के उषाकाल में मानव संस्कृति की आदिम अधिसंरचना खड़ी हुई होगी। मध्यप्रदेश के वनवासी बैगा समुदाय के निकट सान्निध्य में रहकर प्रो. दिलीप सिंह ने यह अनुभव किया कि वह समुदाय पारंपरिक ज्ञान, कौशल और संस्कारों को तो बचाए हुए है ही, व्यापक भारतीय जीवन मूल्यों और आचार विचार का पोषक भी है। उनकी यह कृति इस समाज की संवाद संस्कृति को भी भली भांति बैगाओं की जुबानी हमें सुनाती है। एक समर्थ गद्यकार की रचना के रूप में इस कृति की बड़ी विशेषता इसमें धड़कती हुई लौकिक चेतना है, जो इड़ा की तुलना में श्रद्धा की सृष्टि अधिक प्रतीत होती है। इसमें एक ऐसे संसार की क्रमिक यात्रा है, जहाँ जड़ और चेतन सबके साथ बैगाओं का निजी रिश्ता है। इसलिए ये इतने प्राकृत हैं कि हँसें तो बहार छा जाए। वन इनमें और ये वन में रचे बसे हैं। इतने रचे बसे कि एक दूसरे के आनंद और संताप को आसानी को पहचान और परख लेते हैं। लेखक ने स्वयं को इनमें विलीन करके जंगल की माया का वैभव खुद जीकर देखा ही और अपनी लेखनी की सरस धार से उसे पाठकों के लिए पुनःसृजित किया है। उन्हें इस बात का मलाल भी है कि इन वनवासियों पर लिखने वालों ने घोटुल प्रथा तो देखी, लेकिन इस क्षेत्र की वनशोभा नहीं निहारी। कहना न होगा कि यह कृति इस अभाव की पूर्ति करने का समर्थ, सार्थक और सफल प्रयास है।

'वनवासी बैगा' अपने ललित प्रवाह में बैगा समुदाय की निजी पहचान को रेखांकित करती है। इस पहचान में शारीरिक बनावट से लेकर सजावट तक सब कुछ शामिल है। पोशाक और खानपान भी। मेले और पर्व भी। मौसम की अतियों को सहने की आदत भी- जैसे पता ही न हो कि अति हो गई! मौसम की मार इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती। लेखक ने अपने संपर्क में आए अनेक स्त्री-पुरुषों के साक्ष्य से यह दर्शाया है कि ये वनवासी प्रकृति के माधुर्य और उसकी हलचलों में इस तरह रमे हुए हैं कि उनके तन मन प्रकृति के साथ एकाकार हो गए हैं। लेखक ने लगभग पाँच वर्ष इस लोक में जीकर सचमुच सारे नगरीय कल्मष से मुक्ति पा ली है। इस अरण्यवास ने उन्हें ऋषितुल्य पारदर्शिता का वरदान दिया है। वही पारदर्शिता इस रचना के हर पृष्ठ से झाँक रही है। एक खास तरह की निरभिमानता और बाल सुलभ निश्छलता प्रो. दिलीप सिंह के व्यक्तित्व का सदा से हिस्सा रही है। इसी ने उन्हें प्रेरित किया होगा कि वे कभी गोपाल तो कभी बिरसीबाई के समक्ष जिज्ञासु शिष्य की तरह बैठकर लोक ज्ञान के उनके भंडार को अपनी अंजुली में समेटकर पी जाएँ । वे बैगाओं के गीतों और लोक कथाओं से लेकर उनके मिथकीय विश्वासों तक पर मुग्ध हैं। उन्हें लगता है कि नर्मदा मैया ने स्वयं उनके जीवन की धारा ही बदल दी है और वे अरण्यगान के सम्मोहन में जंगली होते जा रहे हैं। जंगली यानी प्रकृत। सहज। अकृत्रिम। सत्य। आत्मतत्व के दर्शन के लिए इसी साधना की तो जरूरत होती है। सारे आवरणों से मुक्त मादल के बोल, टिमकी की तिड़ तिड़ और करमा नृत्य। जैसा जीवन, वैसा ही नृत्य। आदिम भारत की सरल संस्कृति। वनवासियों ने ही भारत की आत्मा को बचाकर रखा हुआ है।

आज कोरोना काल में हम भले ही अलग अलग पैथियों के नाम पर अतिशय बुद्धिमत्तापूर्ण बयानबाजियाँ करते फिरें, लेकिन इस सत्य को नहीं नकार सकते कि जल, जंगल और जमीन की आदिम संतानें आज भी जड़ी बूटियों के जिस जगत की जानकारी पीढ़ी दर पीढ़ी सँजोए हुए हैं, उसकी काट किसी पैथी वाले के पास नहीं है। प्रो. दिलीप सिंह ने बैगाचक पहुँचकर यह जानकारी अर्जित की कि मानव शरीर की ही नहीं, पशुओं की भी समस्त व्याधियों का उपचार इन वनों में उपलब्ध है। जानकर किसे अचरज न होगा कि वहाँ नवजात शिशु की नाल बाँस के पत्ते से काटी जाती है। एक तरफ यह सारा ज्ञान, तो दूसरी तरफ वन प्रांतरों में बहती संगीत की अद्भुत धारा। यह कृति चेताती है कि वनवासियों की यह सारी संपदा – भाषा-भूषा, गीत-संगीत, नृत्य, कथा-कहानी, उत्सव-त्योहार, हवाओं-दवाओं का ज्ञान, लोकसंस्कृति - खो न जाए, मर न जाए। इससे पहले जागना होगा, अन्यथा अभी जिस तरह एक बैगा गीत में आग लगने पर जंगल चीखता है और आदिवासी विलाप करते हैं, कहीं उसी तरह इस तमाम अरण्य संस्कृति के लुप्त होने पर भारतमाता को न रोना पड़ जाए। इसे क्या कहिएगा कि जंगल में आग लगने पर इन वनवासियों को अपने निराश्रित होने की उतनी चिंता नहीं, जितनी पीड़ा यह सोचकर होती है कि जलता हुआ पेड़ कितना तड़पता होगा - सेवा लाख करि हम, पेड़वन कलपत हो!

प्रो. दिलीप सिंह ने यों तो इस पुस्तक में बैगा समुदाय के तमाम संस्कारों की चर्चा की है, लेकिन अंतिम संस्कार का वर्णन बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है। वे बताते हैं, बैगाओं में दोनों प्रथाएँ प्रचलित हैं - मृत शरीर को मिट्टी में गाड़ने की भी और चिताग्नि देने की भी। प्रायः सयानों को आग और युवाओं को मिट्टी दी जाती है। वनवासियों का कोई संस्कार भला संगीत के बिना कैसे हो सकता है! वे मृत्यु पर भी नगाड़ा बजाते हैं। लेकिन मृत्यु-ताल अलग ही होती है। स्थिर और दुखभरी। लेखक ने विस्तार से श्मसान के कर्मकांड का बखान किया है और धीमे से टिप्पणी की है - इन वनवासियों को भी मृत्यु की वेदना हमारे ही जैसी सालती है! एक खास बात का वे और जिक्र करते हैं कि मृत्यु संस्कार के रिवाजों में समधी और समधिन को बहुत महत्व दिया जाता है। अनुमान किया जा सकता है कि इस समधी-समधिन सम्मान से वैवाहिक रिश्तों और बेटी-बहू के सम्मान को कितना बल मिलता होगा। यह विडंबना ही है कि हमारे सभ्य समाज में समधी समधिन पारिवारिक संस्कारों से दूर दूर ही रखे जाते हैं। कन्या पक्ष के माता पिता तो जीवन भर हीन और बेचारे ही बने रहते हैं। लेखक ने कहा नहीं है, लेकिन इसका अर्थ यही है कि वनवासी समाज तथाकथित सभ्य समाज की तुलना में रिश्ते नातों को अधिक सच्चा सम्मान देते हैं। इसके अलावा मृत्यु गाथा के बाद रात्रि में राम गाथा सुनते समय लेखक को इस सत्य की अनुभूति होती है कि जीवन मृत्यु से बड़ा है। लिखते समय वे इस प्रवास के साथी और आख्याता चर्रा का भाव-विगलित होकर स्मरण करते हैं - मृत्यु यहीं तो हार जाती है जीवन से। यदि हम मृत्यु को जीवन का ही एक चरण स्वीकार कर लें तो फिर मृत्यु का अवसाद कैसा, वेदना कैसी? आगे वे निष्कर्ष देते हैं कि हमारे बैगा बंधु बांधव इस जीवन सत्य को अपनी जिंदगी में उतार कर, घोल घोल कर पी चुके हैं। कहना ही होगा कि वह मृत्युंजय बोध पोथियाँ पढ़ पढ़ कर नहीं मिल सकता, जिसे प्रकृति की ये आदिम औलादें पल पल जीती हैं। प्रकृति से उपजा यह जीवन दर्शन ही आत्मा की अमरता के दर्शन वाली भारतीय संस्कृति का मूल है।

लेखक ने बैगाओं के नाच-रंग का बड़ा ही जीवंत, बिंबात्मक और सरस वर्णन किया है; लोक के साथ अपनी आत्मा को एकाकार करते हुए। प्रो. दिलीप सिंह खाँटी बनारसी हैं; बैगा नाच उन्हें बनारस पहुँचा देता है और वे मानो मादल पर थाप देकर अलग अलग गीतों की ताल निकालने लगते हैं। उन्हें इस लोक संगीत में संतों की चार-धाम यात्रा दिखाई देती है। लोक का रहस्य ही समवेत और सम्मिलित जीवन में छिपा है। लोक में मनुष्य अपने अपने अजनबी द्वीपों की सृष्टि नहीं करते, बल्कि मिल जुल कर महाद्वीप हो जाते हैं। सुख-दुख, जन्म-मृत्यु, गीत-संगीत, नृत्य-कला सबमें समवेत का यह भाव व्यक्तिवादी अँधेरे में पड़ी दुनिया से इस दुनिया को अलग करता है। यहाँ जैसे व्यक्ति है ही नहीं। लोक का एक अंश भर है वह। अपने में पूरे लोक को समेटे हुए। यह लोक संस्कृति भारत के हर हिस्से में मिल जाएगी - क्योंकि यही मूल है। लेखक ने रेखांकित किया भी है कि मिल बैठ कर गाने की रीत, स्वरों को छोड़ने पकड़ने का कौशल, मानवीय अनुभवों और जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति आपको भारत के सभी प्रांतों के लोक गीतों में मिल जाएगी।

वनवासियों-आदिवासियों को अशिष्ट और असभ्य कहने वाले तथाकथित सभ्यों को यह जानकर शर्म आनी चाहिए कि बैगा भाषा में गालियाँ नहीं हैं। शहर के बाजार से जरूर आ गई हैं! भला ऐसी संस्कृति में माँ और बहन की गालियाँ कैसे होंगी, जहाँ स्त्रियों को पूजा जाता हो। यही वजह है कि समाजभाषाविज्ञानी लेखक बैगा भाषा में अश्लील शब्दों को खोजने में विफल रहे!। यह भी पता चला कि उस समाज में समलैगिंकता बिलकुल नहीं। इस लोक में शब्द-वर्जनाओं के लिए भी कोई स्थान नहीं है। वे जैसा जीते हैं, वैसा बोलते हैं - कोई आवरण नहीं, कोई दुराव छिपाव नहीं।

लेखक ने इस लोक में रम कर उसके हर्ष-विषाद का प्रामाणिक लेखा जोखा अपनी डायरियों के सहारे इस किताब में उतार दिया है। लोक कथाओं को एक पूरा संसार वे पाठकों के सामने खोल कर धर देते हैं। बच्चों के खेलों के वर्णन में वे खुद बालक बन जाते हैं। पर्व-त्योहार की बात आती है, तो लोक प्रथाओं की एक एक बारीकी से परिचय कराते चलते हैं। कुल मिलाकर, बैगा वनवासियों की समग्र जीवन गाथा को उन्होंने उसमें डूबकर अपने माध्यम से व्यक्त किया है। यहाँ साक्षी भाव नहीं है। भोक्ता भाव भी नहीं। एक उन्मुक्त सहचर हैं दिलीप सिंह यहाँ बैगा लोकजीवन के। किनारे बैठकर तो दुनिया लहरों को गिनती है, लेकिन मोती उन्हें ही मिलते हैं , जो पानियों में गहरे पैठते हैं। प्रो. दिलीप सिंह ऐसे ही गोताखोर हैं। इतनी गहरी डुबकी लगाते हैं कि लोक बोध के मोतियों से मुट्ठियाँ भर भर लाते हैं। पाठक भी जितनी गहरी डुबकी लगाएँगे, शब्द से लेकर बोध तक की लोक संपदा इस अनोखी कृति में पाएँगे। तभी तो वह स्थिति उत्पन्न होगी कि बैगाचक से दूर जाकर भी मन वही रमा रहे - ऊधो मोहि ब्रज (बैगाचक) बिसरत नाहीं!

अंततः यही कि प्रो. दिलीप सिंह की यह अनूठी कृति लोक अध्ययन के नए क्षितिजों का उद्घाटन करने वाली है।…


- ऋषभदेव  शर्मा
4 जुलाई, 2021

बुधवार, 25 मई 2022

आज़ादी आंदोलन : दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार और हिंदी पत्रकारिता

 


बीज व्याख्यान

आज़ादी आंदोलन : दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार और हिंदी पत्रकारिता

-        ऋषभदेव शर्मा

 

सबसे पहले तो आपको इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए इतना प्रासंगिक और विचारोत्तेजक विषय चुनने के लिए साधुवाद। इस विषय के स्पष्टतः तीन आयाम हैं। पहला आयाम है 'आजादी आंदोलन' दूसरा 'दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार' और तीसरा 'दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता'

मेरा विचार है कि 'आजादी आंदोलन' शब्द-युग्म बहुत सोच-समझ कर बनाया गया है। इसी प्रकार का प्रयोग है- 'आज़ादी का अमृत महोत्सव'  जब हमअमृत महोत्सवजैसे तत्सम शब्द-युग्म का प्रयोग कर रहे हैं तो 'स्वतंत्रता' का प्रयोग करके 'आज़ादी' को रखा गया है। इस मिश्रित शब्द-चयन की जड़ आज़ादी की लड़ाई के साथ-साथ विकसित हुए हिंदी आंदोलन के इतिहास में है। भाषा, पत्रकारिता, समाज और राजनीति के तत्कालीन चिंतकों ने यह महसूस किया कि अखिल भारतीय सार्वदेशिक संपर्क की भाषा से लेकर स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रभाषा तक के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता तभी संभव है, जबकि वह संस्कृतनिष्ठ और अरबी-फारसीनिष्ठ होने के आग्रह से मुक्त रहे। इसीलिए भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महात्मा गांधी और प्रेमचंद तक ने जन-प्रचलित हिंदी के मध्यमार्ग को चुना। बाद में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 351 के तहत इसे ही भारत करे सामासिक संस्कृति के अनुरूप सब भाषाओं से शब्द और अभिव्यक्तियाँ लेते हुए इस तरह विकसित करने की बात कही गई कि हिंदी की प्रकृति सुरक्षित रहे। तो, मेरी समझ में 'आज़ादी आंदोलन' पद हिंदी प्रचार आंदोलन की इसी सर्वसमावेशी दृष्टि का प्रतीक है। इसी दृष्टि का परिणाम।है कि हमअमृत महोत्सवजैसा एक सांस्कृतिक या संस्कृतनिष्ठ पद लेकर आते हैं और उसके साथआजादीजोड़ते हैं। समन्वय की इस चेतना की आज बड़ी जरूरत है, क्योंकि कई तरह के शुद्धतावादी जड़ आग्रह परिवेश को प्रदूषित करने की कोशिश कर रहे हैं।  इसीलिए मैं कहना चाहूँगा कि  आजादी आंदोलनशब्द-युग्म वास्तव में इस देश की बहुलतावादी और समन्वयवादी संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। जो हमारी सांस्कृतिक पुष्ट परंपरा है और जो दैशिक अथवा देशज परंपरा है, उन दोनों को परस्पर जोड़कर  इस राष्ट्र की सामासिक संस्कृति का निर्माण होता है। हमारी सामासिक संस्कृति की विशेषता है कि उसमें किसी प्रकार की हठधर्मिता और शुद्धतावाद के लिए जगह नहीं। बल्कि एक-दूसरे को ग्रहण करने की भावना, सर्वग्राह्यता या ग्राहकता अंतर्निहित है। भारतीय संस्कृति की जो ग्राहकता, समन्वयशीलता और  मिश्रणशीलता है, वह आजादी जैसे उर्दू या अरबी-फारसी मूल से आए शब्द और आंदोलन जैसे संस्कृत परंपरा से आए शब्द, इन दोनों, के गले मिलने से तैयार होती है।

यही वह हिंदुस्तानी परंपरा है जो हमें यह बताती है किआजादी आंदोलनहमारे 'नवजागरण आंदोलन' का विस्तार है। नवजागरण आंदोलन     को  राजा राममोहन राय या आर्य समाज या ब्रह्म समाज या नारायण गुरु या रवींद्रनाथ या भारतेंदु हरिश्चंद्र या गुरजाड़ा अप्पाराव से लेकर सुब्रह्मण्य भारती तक ने अपने-अपने ढंग से नेतृत्व प्रदान किया।  वह एक प्रकार से इस देश को जड़ रूढ़ियों से मुक्त करने का आंदोलन था। सोए हुए राष्ट्रीय-सांस्कृतिक गौरव को जगाने का आंदोलन था।    स्वाभिमान जागने पर गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होने की चेतना तो बाद में आई।  पहले तो हमारी जो सामाजिक रूढ़ियाँ थीं, जड़ रूढ़ियाँ थीं, जो अशिक्षा के कारण या कहें मध्यकालीन चेतना के परलोकवाद, पुनर्जन्मवाद इत्यादि के हमारे मानस पर हावी होने के कारण हमारी गुलामी का मूल कारण बनी हुईं थीं, उन बेड़ियों को तोड़ने और काटने का काम नवजागरण आंदोलन कर रहा था।  उस नवजागरण आंदोलन के बीचोंबीच 1857 का हमारा प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष उपस्थित होता है। इसके बाद कंपनी के हाथ से विक्टोरिया के हाथ में भारत की बागडोर चली जाती है और उपनिवेशवाद या औपनिवेशिक शासन अपना नंगा नाच दिखाना शुरू करता है। तो हमाराआजादी आंदोलनआगे चलकर औपनिवेशिक शासन के विरोध के लिए उठ खड़ा होता है। इसीलिए आजादी आंदोलन के  एक पक्ष को मैं नवजागरण आंदोलन के विस्तार के रूप मे आपके सामने रखना चाहता हूँ। साथ ही यह कि औपनिवेशिक शासन और औपनिवेशिक मानसिकता के विरोध की चेतना जगाने में स्वभाषा और पत्रकारिता आंदोलन ने भी केंद्रीय भूमिका निभाई। हमारे आज़ादी आंदोलन का सबसे बड़ा श्रेय यही है कि हमारे देश को हमारे इस आंदोलन ने 'भयमुक्त' कर दिया। हमारे पास दुनिया की सबसे विराट औपनिवेशिक सत्ता से टकराने के लिए गोला-बारूद नहीं था। गोला-बारूद की ताकत पर लड़ते, तो इतिहास कुछ और होता। ठीक है, वैसे भी लड़े हैं।  लेकिन गोला-बारूद से ज्यादा महत्वपूर्ण था, हमारा सिर उठाकर खड़े होना। जब कोई गुलाम सिर उठाकर खड़ा होता है किसी मालिक के सामने; उसकी आँखों मे आँखें डालकर बात करता है तो सामने वाला क्रोध में, अपमान में, प्रतिहिंसा में तिलमिला उठता है। आपको कुछ करने की जरूरत नहीं ! सबसे बड़ी चीज यही है कि कोई जेलेंस्की किसी पुतिन के सामने आँख दिखाकर खड़ा हो जाए। दुनिया भर में यही होता है हमेशा। आक्रमणकारी हों, उपनिवेशवादी हों, साम्राज्यवादी हों- वे सारी ताक़तें जिस एक बात से क्रोध में आती हैं, वह है आपका स्वाभिमान। तो, हमारे आजादी आंदोलन ने इस देश के आबाल-वृद्ध-नर-नारी को भयमुक्त कर दिया। एक वैदिक उद्घोष हैयतेमहि स्वराजये अर्थात हम स्वराज के लिए सदा यत्न करें। यह एक प्रतिज्ञा नवजागरण के आंदोलन से आगे बढ़कर आजादी के आंदोलन ने इस देश के प्रत्येक नागरिक के मन में प्रतिष्ठित कर दी।  स्वतंत्रता की इस चेतना को गांधीजी या उनसे पहले तिलक ने इस देश की नसों में प्रवाहित किया। उनसे भी पहले हिंदी नवजागरण की हम बात करें  या दूसरे प्रांतों के जागरण की बात करें; बंगाल से लेकर के केरल और तमिलनाडु तक सर्वत्र स्वदेशी, स्वराज्य और स्वभाषा- इन तीनस्वकी चेतना को नवजागरण आंदोलन ने पूरी तरह से जगा दिया था। यह काम उस समय का साहित्य और उस समय की पत्रकारिता कर रही थी।

अब थोड़ी चर्चादक्षिण भारत में हिंदी प्रचारकी। दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की क्या आवश्यकता थी, इस प्रश्न का उत्तर भी आज़ादी आंदोलन के इतिहास में ही छिपा है।  1857 के स्वतंत्रता संग्राम के असफल होने (या कुचल दिए जाने) के कारणों में एक बड़ा कारणसंप्रेषण की कमीथा। क्योंकि हम अलग-अलग भाषाओं में अपने-अपने क्षेत्रों में तो आंदोलन का संचालन कर रहे थे, लेकिन सारे देश का- सारे प्रांतों का जो कोऑर्डिनेशन होना चाहिए था, उस समन्वय की कमी के कारण, संप्रेषण की कमजोरी के कारण, हमारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल हुआ। अन्य कारण और भी हैं। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि पूरे देश में चिंगारी अलग-अलग रूप में फूटी। ये सारी की सारी चिंगारियाँ एकान्वित नहीं हो सकीं। ये गजल के अलग-अलग शेरों की तरह बिखरा हुआ प्रभाव उत्पन्न कर सकीं। गीत के एक सूत्र में पिरोए अलग-अलग बंधों की तरह मिला हुआ एकान्वित प्रभाव ये चिंगारियाँ उत्पन्न नहीं कर सकीं। इसका कारण था - संप्रेषण की कमी। इसीलिए यह महसूस किया गया कि आज़ादी आंदोलन के लिए एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। इसका चरम हमें महात्मा गांधी के उन भाषणों में देखने को मिलता है जो कर्नाटक, इंदौर और भरूच में उन्होंने दिए। अखबारों के माध्यम से भी उन्होंने इस विषय पर व्यापक विमर्श किया कि - इस देश की राष्ट्रभाषा क्या होनी चाहिए?  उसमें कौन-कौन सी विशेषताएँ होनी चाहिए? इसके लिए उन्होंने पाँच सूत्र भी दिए। तब एक साल के मंथन के बाद चाहे वे कांग्रेस के अधिवेशन रहे हों, चाहे हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन रहे हों; उनमें यह स्वीकार किया गया कि इस देश की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी किसी भी प्रकार हो ही नहीं सकती क्योंकि उसमें वे पाँचों ही विशेषताएँ नहीं पाई जातीं। दूसरे कि, जो हमारी भारतीय भाषाएँ हैं, उनमें ही वह सामर्थ्य है कि वे इस देश के हर प्रांत के लोगों को जोड़नेवाली भाषा की भूमिका निभा सकती हैं। लेकिन उनमें भी स्वतंत्रता आंदोलन के बीच में हमें जब यह काम करना है कि सारे भारतवासियों को आपस में जोड़ सकें, उसके लिए हमें एक ऐसी भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में चाहिए थी जिसे अमलदारों के लिए सीखना आसान हो, जिसे अधिक से अधिक लोगों (हिंदीतर भाषियों को) को कम से कम समय में सिखाया जा सके, जिसके लिए किसी प्रकार का तात्कालिक स्वार्थ ध्यान में रखा जाए और जिसके माध्यम से इस देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की ज्ञान-संपदा को, सभी प्रकार की चेतना को अभिव्यक्त किया जा सके। यह भी ज़रूरी समझा गया कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों, ताकि कम लोगों को उसे आरंभ से सीखने की ज़रूरत हो। और तब पाया गया कि हिंदी इन सब दृष्टियों से भारत के लिए सबसे अधिक समर्थ राष्ट्रभाषा हो सकती है। इस तरह राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार करने के बाद 1918 मेंदक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभाकी स्थापना हिंदी साहित्य सम्मेलन के कार्यालय के रूप में की गई। आगे चलकर इसेदक्षिण भारत हिंदुस्तानी प्रचार सभाकहा गया। बाद में 'हिंदुस्तानी' को 'हिंदी' कर दिया गया। मैंने जानबूझ कर आरंभ में जोआजादी आंदोलनशब्द-युग्म की बात उठाई थी, उसका आशय इस ओर इशारा करना था कि महात्मा गांधी 'दक्षिण भारत हिंदुस्तानी प्रचार सभा' कहने के पक्षधर थे। अर्थात उन्हें हिंदी का वह रूप राष्ट्रभाषा के रूप में ज़्यादा पसंद था जिसमें तो उर्दू यानी  फारसी-अरबी के प्रति आग्रह हो, संस्कृत के प्रति आग्रह हो, बल्कि जो बोलचाल के उस मार्ग को स्वीकार करे जिसे आमफहम भाषा कहा जाता है।

इस प्रकार, 1857 से सीख लेकर और महात्मा गांधी के पाँच सूत्रों से अनुप्राणित होकर के 'सभा' की स्थापना की गई। एक प्रकार से दक्षिम भारत में हिंदी प्रचार को 'रचनात्मक कार्य' का अनिवार्य अंग बना दिया गया। महात्मा गांधी ने रचनात्मक कार्य के जो 'एकादश व्रत' स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जोड़कर के दिए थे; उन 11 व्रतों में एक है- ‘स्वदेशीस्वदेशी' और 'स्वराज्यदोनों की सिद्धि के उन्होंनेस्वभाषाको अपनाने पर ज़ोर दिया। कहा जा सकता है कि हिंदी प्रचार आंदोलन के कार्यकर्ताओं के लिए गांधी-खादी-हिंदी - ये सब एक तरह से पर्याय थे; भारतीय राष्ट्रीयता के अनन्य प्रतीक थे।  1918 से चला यह हिंदी प्रचार का रथ संपूर्ण दक्षिणावर्त की यात्रा करता हुआ आज भी निरंतर गतिमान है और भारत जननी को एक-हृदय बनाए रखने में अपनी भूमिका निभा रहा है - एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक-हृदय हो भारत जननी!

विचारणीय विषय का तीसरा पक्ष है हिंदी पत्रकारिता। नहीं; इसे पूर्वपक्ष के साथ जोड़कर देखना होगा। अर्थातदक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता’! गौरतलब है कि 2021, 2022 या आनेवाला 2023 जो भी वर्ष कह लेंयह पूरा समय दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता की शताब्दी का वर्ष है। इसका मध्य बिंदु 2022 हाने से इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में आज़ादी आंदोलन और हिंदी प्रचार के संदर्भ में दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता पर विमर्श बेहद प्रासंगिक है। यहाँ से यह संदेश भी पूरे देश में जाना चाहिए कि "इस वर्ष को भारत भर में 'दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता की शताब्दी' के रूप में मनाया जाए!"

स्मरणीय है कि हिंदी पत्रकारिता का