बीज
व्याख्यान
आज़ादी आंदोलन : दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार और हिंदी पत्रकारिता
-
ऋषभदेव शर्मा
सबसे
पहले
तो
आपको
इस
अंतरराष्ट्रीय
संगोष्ठी
के
लिए
इतना
प्रासंगिक
और
विचारोत्तेजक
विषय
चुनने
के
लिए
साधुवाद।
इस
विषय
के
स्पष्टतः
तीन
आयाम
हैं।
पहला
आयाम
है 'आजादी आंदोलन'। दूसरा 'दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार'। और तीसरा 'दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता'।
मेरा
विचार
है
कि 'आजादी आंदोलन' शब्द-युग्म बहुत सोच-समझ कर बनाया गया है। इसी प्रकार का प्रयोग है- 'आज़ादी
का
अमृत
महोत्सव'। जब
हम ‘अमृत महोत्सव’ जैसे तत्सम शब्द-युग्म का प्रयोग कर रहे हैं तो 'स्वतंत्रता' का प्रयोग न करके 'आज़ादी' को रखा गया है। इस मिश्रित शब्द-चयन की जड़ आज़ादी की लड़ाई के साथ-साथ विकसित हुए हिंदी आंदोलन के इतिहास में है। भाषा, पत्रकारिता, समाज और राजनीति के तत्कालीन चिंतकों ने यह महसूस किया कि अखिल भारतीय व सार्वदेशिक संपर्क की भाषा से लेकर स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रभाषा तक के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता तभी संभव है, जबकि वह संस्कृतनिष्ठ और अरबी-फारसीनिष्ठ होने के आग्रह से मुक्त रहे। इसीलिए भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महात्मा गांधी और प्रेमचंद तक ने जन-प्रचलित हिंदी के मध्यमार्ग को चुना। बाद में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 351 के
तहत
इसे
ही
भारत
करे
सामासिक
संस्कृति
के
अनुरूप
सब
भाषाओं
से
शब्द
और
अभिव्यक्तियाँ
लेते
हुए
इस
तरह
विकसित
करने
की
बात
कही
गई
कि
हिंदी
की
प्रकृति
सुरक्षित
रहे।
तो, मेरी समझ में 'आज़ादी आंदोलन' पद हिंदी प्रचार आंदोलन की इसी सर्वसमावेशी दृष्टि का प्रतीक है। इसी दृष्टि का परिणाम।है कि हम ‘अमृत महोत्सव’ जैसा एक सांस्कृतिक या संस्कृतनिष्ठ पद लेकर आते हैं और उसके साथ ‘आजादी’ जोड़ते हैं। समन्वय की इस चेतना की आज बड़ी जरूरत है, क्योंकि कई तरह के शुद्धतावादी जड़ आग्रह परिवेश को प्रदूषित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए
मैं
कहना
चाहूँगा
कि
‘आजादी
आंदोलन’ शब्द-युग्म वास्तव में इस देश की बहुलतावादी और समन्वयवादी संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। जो हमारी सांस्कृतिक पुष्ट परंपरा है और जो दैशिक अथवा देशज परंपरा है, उन दोनों को परस्पर जोड़कर इस
राष्ट्र
की
सामासिक
संस्कृति
का
निर्माण
होता
है।
हमारी
सामासिक
संस्कृति
की
विशेषता
है
कि
उसमें
किसी
प्रकार
की
हठधर्मिता
और
शुद्धतावाद
के
लिए
जगह
नहीं।
बल्कि
एक-दूसरे को ग्रहण करने की भावना, सर्वग्राह्यता या ग्राहकता अंतर्निहित है। भारतीय संस्कृति की जो ग्राहकता, समन्वयशीलता और मिश्रणशीलता
है, वह आजादी जैसे उर्दू या अरबी-फारसी मूल से आए शब्द और आंदोलन जैसे संस्कृत परंपरा से आए शब्द, इन दोनों, के गले मिलने से तैयार होती है।
यही
वह
हिंदुस्तानी
परंपरा
है
जो
हमें
यह
बताती
है
कि ‘आजादी आंदोलन’ हमारे 'नवजागरण आंदोलन' का विस्तार है। नवजागरण आंदोलन
को राजा
राममोहन
राय
या
आर्य
समाज
या
ब्रह्म
समाज
या
नारायण
गुरु
या
रवींद्रनाथ
या
भारतेंदु
हरिश्चंद्र
या
गुरजाड़ा
अप्पाराव
से
लेकर
सुब्रह्मण्य
भारती
तक
ने
अपने-अपने ढंग से नेतृत्व प्रदान किया। वह
एक
प्रकार
से
इस
देश
को
जड़
रूढ़ियों
से
मुक्त
करने
का
आंदोलन
था।
सोए
हुए
राष्ट्रीय-सांस्कृतिक
गौरव
को
जगाने
का
आंदोलन
था।
स्वाभिमान
जागने
पर
गुलामी
की
बेड़ियों
से
मुक्त
होने
की
चेतना
तो
बाद
में
आई। पहले
तो
हमारी
जो
सामाजिक
रूढ़ियाँ
थीं, जड़ रूढ़ियाँ थीं, जो अशिक्षा के कारण या कहें मध्यकालीन चेतना के परलोकवाद, पुनर्जन्मवाद इत्यादि के हमारे मानस पर हावी होने के कारण हमारी गुलामी का मूल कारण बनी हुईं थीं, उन बेड़ियों को तोड़ने और काटने का काम नवजागरण आंदोलन कर रहा था। उस
नवजागरण
आंदोलन
के
बीचोंबीच 1857 का
हमारा
प्रथम
स्वतंत्रता
संघर्ष
उपस्थित
होता
है।
इसके
बाद
कंपनी
के
हाथ
से
विक्टोरिया
के
हाथ
में
भारत
की
बागडोर
चली
जाती
है
और
उपनिवेशवाद
या
औपनिवेशिक
शासन
अपना
नंगा
नाच
दिखाना
शुरू
करता
है।
तो
हमारा ‘आजादी
आंदोलन’ आगे
चलकर
औपनिवेशिक
शासन
के
विरोध
के
लिए
उठ
खड़ा
होता
है।
इसीलिए
आजादी
आंदोलन
के एक
पक्ष
को
मैं
नवजागरण
आंदोलन
के
विस्तार
के
रूप
मे
आपके
सामने
रखना
चाहता
हूँ।
साथ
ही
यह
कि
औपनिवेशिक
शासन
और
औपनिवेशिक
मानसिकता
के
विरोध
की
चेतना
जगाने
में
स्वभाषा
और
पत्रकारिता
आंदोलन
ने
भी
केंद्रीय
भूमिका
निभाई।
हमारे
आज़ादी
आंदोलन
का
सबसे
बड़ा
श्रेय
यही
है
कि
हमारे
देश
को
हमारे
इस
आंदोलन
ने 'भयमुक्त' कर दिया। हमारे पास दुनिया की सबसे विराट औपनिवेशिक सत्ता से टकराने के लिए गोला-बारूद नहीं था। गोला-बारूद की ताकत पर लड़ते, तो इतिहास कुछ और होता। ठीक है, वैसे भी लड़े हैं। लेकिन
गोला-बारूद से ज्यादा महत्वपूर्ण था, हमारा सिर उठाकर खड़े होना। जब कोई गुलाम सिर उठाकर खड़ा होता है किसी मालिक के सामने; उसकी आँखों मे आँखें डालकर बात करता है तो सामने वाला क्रोध में, अपमान में, प्रतिहिंसा में तिलमिला उठता है। आपको कुछ करने की जरूरत नहीं ! सबसे
बड़ी
चीज
यही
है
कि
कोई
जेलेंस्की
किसी
पुतिन
के
सामने
आँख
दिखाकर
खड़ा
हो
जाए।
दुनिया
भर
में
यही
होता
है
हमेशा।
आक्रमणकारी
हों, उपनिवेशवादी हों, साम्राज्यवादी हों- वे सारी ताक़तें जिस एक बात से क्रोध में आती हैं, वह है आपका स्वाभिमान। तो, हमारे आजादी आंदोलन ने इस देश के आबाल-वृद्ध-नर-नारी को भयमुक्त कर दिया। एक वैदिक उद्घोष है ‘यतेमहि स्वराजये’। अर्थात हम स्वराज के लिए सदा यत्न करें। यह एक प्रतिज्ञा नवजागरण के आंदोलन से आगे बढ़कर आजादी के आंदोलन ने इस देश के प्रत्येक नागरिक के मन में प्रतिष्ठित कर दी। स्वतंत्रता
की
इस
चेतना
को
गांधीजी
या
उनसे
पहले
तिलक
ने
इस
देश
की
नसों
में
प्रवाहित
किया।
उनसे
भी
पहले
हिंदी
नवजागरण
की
हम
बात
करें या
दूसरे
प्रांतों
के
जागरण
की
बात
करें; बंगाल से लेकर के केरल और तमिलनाडु तक सर्वत्र स्वदेशी, स्वराज्य और स्वभाषा- इन तीन ‘स्व’ की चेतना को नवजागरण आंदोलन ने पूरी तरह से जगा दिया था। यह काम उस समय का साहित्य और उस समय की पत्रकारिता कर रही थी।
अब
थोड़ी
चर्चा ‘दक्षिण
भारत
में
हिंदी
प्रचार’ की।
दक्षिण
भारत
में
हिंदी
प्रचार
की
क्या
आवश्यकता
थी, इस प्रश्न का उत्तर भी आज़ादी आंदोलन के इतिहास में ही छिपा है।
1857 के
स्वतंत्रता
संग्राम
के
असफल
होने (या कुचल दिए जाने) के कारणों में एक बड़ा कारण ‘संप्रेषण की कमी’ था। क्योंकि हम अलग-अलग भाषाओं में अपने-अपने क्षेत्रों में तो आंदोलन का संचालन कर रहे थे, लेकिन सारे देश का- सारे प्रांतों का जो कोऑर्डिनेशन होना चाहिए था, उस समन्वय की कमी के कारण, संप्रेषण की कमजोरी के कारण, हमारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल हुआ। अन्य कारण और भी हैं। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि पूरे देश में चिंगारी अलग-अलग रूप में फूटी। ये सारी की सारी चिंगारियाँ एकान्वित नहीं हो सकीं। ये गजल के अलग-अलग शेरों की तरह बिखरा हुआ प्रभाव उत्पन्न कर सकीं। गीत के एक सूत्र में पिरोए अलग-अलग बंधों की तरह मिला हुआ एकान्वित प्रभाव ये चिंगारियाँ उत्पन्न नहीं कर सकीं। इसका कारण था - संप्रेषण
की
कमी।
इसीलिए
यह
महसूस
किया
गया
कि
आज़ादी
आंदोलन
के
लिए
एक
राष्ट्रभाषा
होनी
चाहिए।
इसका
चरम
हमें
महात्मा
गांधी
के
उन
भाषणों
में
देखने
को
मिलता
है
जो
कर्नाटक, इंदौर
और
भरूच
में
उन्होंने
दिए।
अखबारों
के
माध्यम
से
भी
उन्होंने
इस
विषय
पर
व्यापक
विमर्श
किया
कि - इस
देश
की
राष्ट्रभाषा
क्या
होनी
चाहिए? उसमें
कौन-कौन सी विशेषताएँ होनी चाहिए? इसके लिए उन्होंने पाँच सूत्र भी दिए। तब एक साल के मंथन के बाद चाहे वे कांग्रेस के अधिवेशन रहे हों, चाहे हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन रहे हों; उनमें यह स्वीकार किया गया कि इस देश की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी किसी भी प्रकार हो ही नहीं सकती क्योंकि उसमें वे पाँचों ही विशेषताएँ नहीं पाई जातीं। दूसरे कि, जो हमारी भारतीय भाषाएँ हैं, उनमें ही वह सामर्थ्य है कि वे इस देश के हर प्रांत के लोगों को जोड़नेवाली भाषा की भूमिका निभा सकती हैं। लेकिन उनमें भी स्वतंत्रता आंदोलन के बीच में हमें जब यह काम करना है कि सारे भारतवासियों को आपस में जोड़ सकें, उसके लिए हमें एक ऐसी भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में चाहिए थी जिसे अमलदारों के लिए सीखना आसान हो, जिसे अधिक से अधिक लोगों (हिंदीतर भाषियों को) को कम से कम समय में सिखाया जा सके, जिसके लिए किसी प्रकार का तात्कालिक स्वार्थ ध्यान में न रखा जाए और जिसके माध्यम से इस देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की ज्ञान-संपदा को, सभी प्रकार की चेतना को अभिव्यक्त किया जा सके। यह भी ज़रूरी समझा गया कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों, ताकि कम लोगों को उसे आरंभ से सीखने की ज़रूरत हो। और तब पाया गया कि हिंदी इन सब दृष्टियों से भारत के लिए सबसे अधिक समर्थ राष्ट्रभाषा हो सकती है। इस तरह राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार करने के बाद 1918 में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना हिंदी साहित्य सम्मेलन के कार्यालय के रूप में की गई। आगे चलकर इसे ‘दक्षिण भारत हिंदुस्तानी प्रचार सभा’ कहा गया। बाद में 'हिंदुस्तानी' को 'हिंदी' कर दिया गया। मैंने जानबूझ कर आरंभ में जो ‘आजादी आंदोलन’ शब्द-युग्म की बात उठाई थी, उसका आशय इस ओर इशारा करना था कि महात्मा गांधी 'दक्षिण भारत हिंदुस्तानी प्रचार सभा' कहने के पक्षधर थे। अर्थात उन्हें हिंदी का वह रूप राष्ट्रभाषा के रूप में ज़्यादा पसंद था जिसमें न तो उर्दू यानी फारसी-अरबी
के
प्रति
आग्रह
हो, न संस्कृत के प्रति आग्रह हो, बल्कि जो बोलचाल के उस मार्ग को स्वीकार करे जिसे आमफहम भाषा कहा जाता है।
इस
प्रकार, 1857 से
सीख
लेकर
और
महात्मा
गांधी
के
पाँच
सूत्रों
से
अनुप्राणित
होकर
के 'सभा' की स्थापना की गई। एक प्रकार से दक्षिम भारत में हिंदी प्रचार को 'रचनात्मक कार्य' का अनिवार्य अंग बना दिया गया। महात्मा गांधी ने रचनात्मक कार्य के जो 'एकादश व्रत' स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जोड़कर के दिए थे; उन 11 व्रतों
में
एक
है- ‘स्वदेशी’। ‘स्वदेशी' और 'स्वराज्य’ दोनों की सिद्धि के उन्होंने ‘स्वभाषा’ को अपनाने पर ज़ोर दिया। कहा जा सकता है कि हिंदी प्रचार आंदोलन के कार्यकर्ताओं के लिए गांधी-खादी-हिंदी - ये
सब
एक
तरह
से
पर्याय
थे; भारतीय राष्ट्रीयता के अनन्य प्रतीक थे।
1918 से
चला
यह
हिंदी
प्रचार
का
रथ
संपूर्ण
दक्षिणावर्त
की
यात्रा
करता
हुआ
आज
भी
निरंतर
गतिमान
है
और
भारत
जननी
को
एक-हृदय बनाए रखने में अपनी भूमिका निभा रहा है - एक
राष्ट्रभाषा
हिंदी
हो, एक-हृदय हो भारत जननी!
विचारणीय
विषय
का
तीसरा
पक्ष
है
हिंदी
पत्रकारिता।
नहीं; इसे पूर्वपक्ष के साथ जोड़कर देखना होगा। अर्थात ‘दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता’! गौरतलब
है
कि 2021, 2022 या
आनेवाला 2023 जो
भी
वर्ष
कह
लें – यह
पूरा
समय
दक्षिण
भारत
में
हिंदी
पत्रकारिता
की
शताब्दी
का
वर्ष
है।
इसका
मध्य
बिंदु 2022 हाने
से
इस
राष्ट्रीय
संगोष्ठी
में
आज़ादी
आंदोलन
और
हिंदी
प्रचार
के
संदर्भ
में
दक्षिण
भारत
की
हिंदी
पत्रकारिता
पर
विमर्श
बेहद
प्रासंगिक
है।
यहाँ
से
यह
संदेश
भी
पूरे
देश
में
जाना
चाहिए
कि "इस
वर्ष
को
भारत
भर
में 'दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता की शताब्दी' के रूप में मनाया जाए!"
स्मरणीय
है
कि
हिंदी
पत्रकारिता
का
आरंभ
भले
हम 'उदंत मार्तंड' से स्वीकार करें या उससे भी पहले असम से प्रकाशित एक ईसाई मत प्रचारक अल्पज्ञान हिंदी पत्र से मानें। लेकिन दक्षिण से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी
पत्रकारिता
का
वास्तविक
उद्भव
और
विकास
हिंदी
प्रचार
आंदोलन
के
आरंभ
होने
के
बाद
ही
हुआ।
इस
लिहाज
से 1921 और 1922 की
अवधि
दक्षिण
की
हिंदी
पत्रकारिता
का
आरंभ-बिंदु है।
आप जानते हैं कि पूरे हिंदी क्षेत्र में आजादी और नवजागरण की चेतना को जगाने का भारतेंदु मंडल ने कार्य किया। भारतेंदु मंडल के तमाम रचनाकार पत्रकार भी थे। हिंदी पत्रकारिता का जन्म ऐसे समय हुआ जब देश में स्वतंत्रता की चिंगारी जाग रही थी और ऐसे समय में हिंदी पत्रकारिता को निखरने का स्वर्णिम अवसर उस आंदोलन के बीच में मिल गया। इधर दक्षिण में 1918 में हिंदी आंदोलन का उदय हो रहा था और उसे गति देने के लिए हिंदी पत्रकारिता की आवश्यकता थी। यह अलग बात है कि जब हम हैदराबाद या तेलंगाना-आंध्रप्रदेश की बात करें तो यहाँ निजाम शासन काल में जो दमन था उसका विरोध करने के लिए हिंदी पत्रकारिता ने एक विद्रोही तेवर स्वीकार किया। यहाँ तक कि भूमिगत पत्रिकाएँ यहाँ से निकलीं। लेकिन विशेष रूप से तमिलनाडु से जो हिंदी पत्रकारिता आरंभ होती है, वह हिंदी प्रचार के निमित्त ही आरंभ हुई थी।| तिलक युग और गांधी युग जिन्हें हम हिंदी पत्रकारिता ही नहीं, भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण युग मानते हैं, उनके बीच में यह दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता तमिल क्षेत्र में निखरकर सामने आई। यहाँ अत्यंत वरिष्ठ अथवा